विकास का पहिया

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

12/20/20191 मिनट पढ़ें

ड़ामर की सड़क बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले रोलर से भी कई गुना बड़ा और भारी बुलड़ोजर था वह जो कुचलने के लिए तेजी से रामनगीना की तरफ बढ़ता चला आ रहा था। उस बुलड़ोजर को कोई और नहीं बल्कि उनका अपना बेटा राकेश चला रहा था और उसके बगल में बैठा था नन्दू शुक्ला जो अपना मंसूबा पूरा होते देख मारे खुशी के पागल हो कर अट्टाहास कर रहा था। रामनगीना पल-प्रतिपल अपने निकट और निकट बढ़ते चले आ रहे बुलड़ोजर को देख तो रहे थे लेकिन उठ कर भाग नहीं पा रहे थे, कारण कि उनके हाथ-पाॅंव रस्से से बॅंधे हुए थे। बुरी तरह से मार-कुटाई करने के बाद उनको बाॅंध कर बुलड़ोजर के सामने ड़ाल दिया गया था। बुलड़ोजर का भारी अगला पहिया बस उनके ऊपर चढ़ने ही वाला था कि उनकी चीख निकल गई।
‘‘नहीं..ई..ई...ई.....नहीं...नहीं....नहीं।’’ रामनगीना ने जोर से चीखा और एकदम से उठ कर बैठ गए। वह बुरी तरह से काॅंप रहे थे। उनकी साॅंस धौंकनी की तरह चल रही थी और पूरा शरीर पसीने से तर था। रोशनदान के रास्ते सड़क की तरफ से आ रही हल्की सी रोशनी में उन्होंने आॅंखे फाड़-फाड़ कर अपने चारों ओर देखा तो पाया कि वह अपनी कोठरी के अंदर चैकी पर बिछे बिस्तरे में सही-सलामत हैं। उनकी चीख सुन कर बगल वाली बॅंसखट में सो रहे शिवपूजन भी अचकचा कर जाग गए।
अभी, बस चन्द मिनट पहले जो कुछ देखा था वह इतना ड़रावना था कि रामनगीना उसके आतंक से मुक्त नहीं हो पा रहे थे। ‘तो क्या अभी जो कुछ देखा वह हकीकत नहीं सपना था’ उन्होंने अपने आप से पूछा और सिरहाने से टार्च उठा कर कमरे की दीवारों पर रोशनी फेंकने लगे, दरवाजे की सांकल देखने लगे। मानो पूरी तरह से आश्वस्त हो लेना चाहते हों कि अभी जो कुछ घटित हुआ था वह वास्तव में सपना ही था।
‘‘क्या हुआ नगीना भाई.....क्या हुआ....? तबियत तो ठीक है ?’’ रामनगीना को बदहवास हालत में देख कर शिवपूजन ने पूछा।
‘‘कुछ नही....कुछ नहीं.....। शिवपूजन भाई सो जाओ तुम।’’ रामनगीना ने कहा और खुद भी लेट गए। चादर ओढ़, आॅंखें मूॅंद सोने का उपक्रम करने लगे लेकिन सफलता नहीं मिली। यह जान चुकने के बावजूद कि अभी जो कुछ देखा था वह सपना था, उनके अंदर की दहशत खत्म नहीं हो रही थी। लेटे लेटे ही उन्होंने दीवार पर टॅंगी घड़ी पर टार्च की रोशनी फेंकी। चार बजने में बारह मिनट बाकी थे। ‘अब क्या सोना अब तो भोर होने वाली है।’ उन्होंने मन ही मन सोचा, बिस्तर से निकले और कोठरी का दरवाजा खोल कर बाहर सड़क पर निकल आए।

‘‘हे भगवान ! यह कहाॅं जा रहा है समाज ? सुख-सुविधा और पैसे की हवस किस बुरे अंत की ओर ले जा रही है आदमी को ? आज पैसे की भूख इस कदर हावी हो गयी है आदमी के सर पर कि पति-पत्नी, पिता-पुत्र तक के रिश्ते बेमानी हो गए हैं ? आदमी यह क्यों नहीं समझता कि चाहे कितनी भी अमीरी आ जाए, सुख-सुविधा के चाहे कितने भी साधन जुट जायें, पेट की भूख अन्न से ही मिटेगी मोटर, गाड़ी, रूपया, पैसा या सोना, चाॅंदी से नहीं। जब जमीन ही नहीं रहेगी तो अन्न कहाॅं पैदा होगा......हवा में कि आसमान पर ? और जब अन्न नहीं पैदा होगा तो आदमी खाएगा क्या कागज के नोट कि सोना, चाॅंदी, हीरा, मोती ?’’ क्षोभ और दहशत से भरे रामनगीना ऐसे ही जाने क्या-क्या सोचते, अपने आप से बतियाते सड़क के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। वह अपनी कोठरी से निकल कर अभी लगभग पचास गज ही चले थेे कि अचानक सर्र से करती एक लम्बी सी कार उनको लगभग छूती हुयी निकल गई। वो तो सामने से आ रही कार की चैंधियाती रोशनी देख वह एकदम से कूद कर दो कदम किनारे हट गए थे वरना कार ने उनको रौंद ही दिया होता।
धूल और धुवाॅं उड़ाती कार तो सर्र से निकल गई लेकिन अचकचाए से रामनगीना सड़क के किनारे पटरी पर ठिठके खड़े रह गए। यही वह जगह है जहाॅं जेठ, बैसाख की पूरी दुपहरिया वह बॅंसखट ड़ाले आराम से पड़े रहते थे। ठीक इसी जगह पर कटहल का एक पुराना गाॅंछ था। आम के मोजर के टिकोरा बनने से ले कर उसके पकने तक गरमी भर उसी कटहल के नीचे बसेरा रहता था रामनगीना का। यहाॅं से दाहिनी ओर एक लाइन से लॅंगड़ा के चार पेड़ थे। सामने जहाॅं वह टेलीफोन का खंभा गड़ा है वहाॅं मिठुआ बीजू का पेड़ था और उसके उत्तर तरफ जामुन के दो पेड़। इधर बायीं ओर तीन पेड़ मलदहिया, दो पेड़ दशहरी तथा दो पेड़ तोतापरी के थे। उधर पूरब तरफ आखिरी छोर पर महुआ के दो पेड़ थे और वहीं महुआ के बगल में ही एक पेड़ बड़हर का भी था। रामनगीना के जनम के पहले का बगीचा था वह। उनके बाबा सनेही ने लगाया था वह बगीचा। लेकिन आम, महुआ, जामुन, कटहल का वह हरा-भरा पुश्तैनी बगीचा अब बीते कल की चीज बन कर रह गयी है। आते-जाते जब भी इस जगह से गुजरते हैं, रामनगीना के कलेजे में एक हूक सी उठती है। पुरखे, पुरनिया का लगाया, सहेजा लम्बा-चैड़ा बगीचा उनकी आॅंखों के सामने तहस-नहस हो गया और वह कुछ भी नहीं कर सके। चिंघाड़तीं, दैत्याकार जे0सी0बी0 मशीनों ने दशकों पुराने उन विशाल पेड़ों की जडों़ के नीचे अपना लोहे का पंजा घुसेड़ा और देखते ही देखते उन्हें जड़ समेत उखाड़ कर धरती पर ऐसे पटक दिया जैसे अखाड़े में कोई नामी पहलवान किसी नवसिखुवा को। बेवसी के आॅंसू पीते रामनगीना दूर खड़े बस टुकुर-टुकुर देखते रह गए थे।
सत्यानाश हो ऐसे विकास का जो इंसान को इंसान न रहने दे, हैवान बना कर रख दे। जो हॅंसतीं, खेलतीं खुशहाल जिन्दगियों में जहर बो दे। जो हरे-भरे खेतों और बाग-बगीचों का सत्यानाश कर दे। जो प्रकृति के संतुलन की ऐसी-तैसी कर दे। आग लगे गड़री नदी पर बने इस पुल को और डामर की काली, चिकनी सड़क को। यह पुल, पुल नहीं ड़ाइन है ड़ाइन। सच कहें तो सारी समस्या की जड़ यह पुल ही है। न यह पुल बनता, न सड़क निकलती, न खेत, खलिहान, बाग-बगीचे नष्ट होते और न अपने आप में व्यस्त, मस्त, खुशहाल किसानों के जीवन में ऐसे दुःख भरे दिन आते।
जहाॅं रामनगीना का बगीचा था उसके दक्षिण ओर आधा कोस हट कर बिल्कुल सीधी रेखा की तरह बहती है गड़री नदी। नदी के उस पार जिला मुख्यालय है और इस पार किनारे-किनारे रामनगीना का गाॅंव बालूपुर के अलावे घाटमपुर, बड़कीबारी, मिसरौली, असेगा और पनिचा आदि दर्जन भर छोटे, बड़े गाॅंव। गाॅंव के बाहर खड़े हो जाओ तो कचहरी की दो मंजिली बिल्डिंग, जिला जेल की बीस फीट ऊॅंची चहारदीवारी, टी0डी0 कालेज का गुम्बद, और कलक्टर साहेब का बॅंगला साफ नजर आता है। लेकिन वहाॅं तक पॅंहुचना आसान नहीं था। इस पार के गाॅंवों से उस पार शहर तक पॅंहुचने का रास्ता इस गड़री नदी ने छेंक रखा था। आमने-सामने तो बालूपुर से शहर तक की दूरी बमुश्किल चार, साढ़े चार किमी0 ही थी लेकिन सड़क मार्ग से वहाॅं पॅंहुचने के लिए पूरे चैदह किमी0 का चक्कर लगाना पड़ता था। दरअसल नदी पर बना एक मात्र पुल बालूपुर से दस किमी0 आगे देवरार के पास था इसलिए इस पार के गाॅंवों के अधिकांश लोग घोंघा घाट से नाव द्वारा नदी पार कर के शहर पॅंहुच जाते थे।
सवेरे, शाम बहुत मजेदार दृश्य होता था। वकील साहेब हों चाहे मुवक्किल, मास्टर साहेब हों चाहे पढ़वइया लड़के, ससुरजी हों, जेठ हों चाहे एक हाथ लम्बा घूॅंघट काढ़े नई-नकोर दुलहिन, शहर में काम की तलाश में निकले मजदूर हों चाहे सरकारी आफिस के बाबू, फेरी लगा कर साग-सब्जी, आम, जामुन, बेचने वाले कॅुंजड़े हों या कि सौदा-सुल्फ खरीदने के लिए शहर जाने वाले गृहस्थ, नाव के अंदर सारा भेद-भाव मिट जाता था। सभी लोग एक ही साथ नाव में सवार हो कर नदी पार करते थे। न सिर्फ आदमी और औरतें बल्कि सायकिल, मोटर सायकिल, गाय, भैंस, बैल, भेड़, बकरी, साग-सब्जी की खाॅंची, दूध की बाल्टी और दही की कहतरी आदि भी उसी नाव में लादी जाती थी। साल के बाकी दिनों तो आवागमन ऐसे ही चलता रहता था लेकिन बरसात के मौसम में तथा रात-बिरात आपात स्थिति मे नदी के रास्ते शहर पॅंहुचना कठिन हो जाता था। विशेष रूप से तब, जब किसी मरीज को अथवा किसी गर्भवती को इलाज के लिए शहर ले जाना होता था, तब बहुत मुश्किल पेश आती थी।
नदी पर पुल बनने की माॅंग इस क्षेत्र का बहुत पुराना चुनावी मुद्दा था। इस पार के आठ-दस गाॅंवों के लोग कम से कम पिछले पच्चीस सालों से पुल बनवाने का आश्वासन सुनते चले आ रहे थे। हर आम चुनाव के समय पुल के निर्माण का मुद्दा गरमाता था और चुनाव निपटते ही अगले पाॅंच सालों के लिए ठंड़े बस्ते में चला जाता था। अभी तक मनियर के ठाकुर शमशेर सिंह और बाॅंसड़ीह के बब्बन पाठक बारी-बारी से इस क्षेत्र से विधायक होते चले आ रहे थे। वे दोनों ही लोग नदी पार के इन गाॅंवों में बस चुनाव के दौरान वोट माॅंगने के लिए ही आते थे और हारने या जीतने के बाद फिर अगले चुनाव तक इधर झाॅंकते तक नहीं थे। दो, ढ़ाई दशक पहले जब से प्रदेश की राजनीति में पिछड़ों का वर्चस्व बढ़ा, निपनिया के फिरंगी यादव का बेटा बालेश्वर यादव क्षेत्र में एक तीसरी ताकत के रूप में उभरने लगा था। अभी तक ब्राह्मणों और ठाकुरों के बीच पेण्ड़ुलम की भाॅंति ड़ोलते रहने वाले पिछड़ों को जब अपने बीच का नेता मिला तो वे लोग उसके पीछे लामबंद होने लगे। राजनीति के दोनों घाघों शमशेर सिंह और बब्बन पाठक से ऊबे अन्य जाति के लोगों को भी जब एक तीसरा विकल्प मिला तो वे भी उसकी तरफ मुड़ गए। परिणामस्वरूप पिछले चुनाव में बालेश्वर यादव विधायकी जीत गए। उस पर सोने में सुहागा वाली बात यह हुयी कि प्रदेश में यादव नेतृत्व की उसी दल की सरकार भी गठित हो गई जिस दल के टिकट पर वह विधायक बने थे।
बालेश्वर यादव को इस बात का आभास था कि यदि दोनों घाघ पूर्व विधायकों को किनारे लगा कर क्षेत्र की राजनीति में अपनी स्थायी जगह बनानी है तो कुछ ठोस काम कर के दिखाना होगा। गड़री नदी पर पुल की माॅंग इस पार के गाॅंव वालों की बहुत पुरानी माॅंग थी, सो विधायक जी अपनी पूरी ताकत से पुल मंजूर कराने के प्रयास में जुट गए। होते, हवाते सैद्धान्तिक रूप से तो पुल की स्वीकृति मिल गई लेकिन पुल के स्थान को ले कर राजनीति गरमा गई। सेतु निगम के इन्जीनियरों ने जो रूपरेखा बनाई थी उसके अनुसार पुल को शहर के मालगोदाम चैराहे से शुरू होना था। इस पुल की लम्बाई भी कम थी और इसमें लागत भी बहुत कम आ रही थी। लेकिन इसमें पेंच यह था कि वह पुल पूर्व विधायक और मंत्री बब्बन पाठक की कोठी के सामने से निकल रहा था जिसके कारण उनकी कोठी की भव्यता पर आॅंच आ रही थी। न सिर्फ इतना बल्कि पुल के ऊपर खड़ा हो कर कोई भी व्यक्ति उनकी कोठी के लाॅन और आॅंगन का नजारा कर सकता था। इतनी बड़ी बात भला कैसे गवारा करते पाठक जी। सो अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर के उन्होंने पुल का वह नक्शा निरस्त करवा दिया।
इन्जीनियरों द्वारा पुल का जो दूसरा नक्शा तैयार किया गया उसमें पुल शहर में रोड़वेज बस अड्डा के पीछे से शुरू हो कर इस पार बहदुरा गाॅंव के पास निकल रही थी। इसमें बहदुरा, असना और पिलुई तीन गाॅंवों के यादवों की जमीने जा रही थीं। अपनी सोना उगलने वाली जमीन पुल और सड़क के लिए जाती देख उन गाॅंवों के यादव सतर्क हो गए। यादव क्षेत्रीय विधायक और यादव नेतृत्व की सरकार के होते यादवों के हितों की अनदेखी हो जाए, यह कैसे संभव था भला। देशहित, समाजहित बाद में, बिरादरी का हित पहले था सो पुल का स्थान पुनः बदल दिया गया। तीसरी बार जो नक्शा तैयार हुआ उसमें पुल शहर की तरफ श्मशान घाट से प्रारम्भ हो कर इस पार रामनगीना कोईरी के पुश्तैनी बगीचे के सामने निकल रही थी। यद्यपि इस संशोधित पुल की लम्बाई और लागत दोनों में काफी वृद्धि हो गई थी लेकिन कहीं से भी किसी भी प्रकार का विरोध नहीं था इसलिए इस नक्शे को चुपचाप स्वीकृति मिल गई।
इस नए स्थान पर कब पुल का प्रस्ताव बना, कब उसे मंजूरी मिली और कब जमीन के अधिग्रहण की कार्यवाही प्रारम्भ हो गयी, अपनी खेती-किसानी में व्यस्त रामनगीना को पता ही नहीं चला। उनको तो तब पता चला जब उनको बे-दखली की नोटिस मिली और जमीन की नाप-जोख होने लगी।
‘‘ई नाप-जोख किस बात की हो रही है भइया...?’’ एक दिन अपने बगीचे के पास कुछ लोगों को फीता लिए नाप-जोख करते देखा तो रामनगीना ने घबड़ा कर पूछा।
‘‘पुल बनाने के लिए नाप-जोख हो रही है। यहाॅं से पुल पास हुआ है।’’ काम कर रहे लोगों में से एक ने बताया।
क्या....? पुल बनेगा....? हमारे बगीचा में....? यह कैसे हो सकता है भला....?’’ नाप-जोख करने वालों की बात सुनी तो एकदम से बदहवास से हो गए रामनगीना। भागे-भागे बलिया गए। कलक्टर साहब के आफिस से पता किया तो बात सच निकली। फिर तो पगला से गए रामनगीना। परेशान कि करें तो क्या करें, जायें तो कहाॅं जायें और कहें तो किससे कहें। गरीब आदमी की कहीं कोई सुनवाई भी तो नहीं। इस आफिस, उस आफिस भाग-दौड़ किया, वकीलों से बात की, जान-पहचान के कुछ स्थानीय नेताओं से भी मिले, जेब से हजार-दो हजार रुपया भी गॅंवा दिए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। देखते ही देखते बुलड़ोजर और जे0सी0बी0 मशीनें आ गईं, बगीचा कटने लगा, जमीन समतल की जाने लगी। आम, महुआ, जामुन, कटहल के पेड़ों पर चलती आरियाॅं रामनगीना को अपने सीने पर चलतीं तथा जमीन को समतल करने के लिए चल रहीं जे0सी0बी0 मशीनें उन्हें अपने अस्तित्व को रौंदतीं सी महसूस हुयीं। लेकिन बेवस बने सब देखते रहे। बहुत गहरा सदमा लगा रामनगीना को। महीनों बीमार हो घर में पड़े रहे। वह दिन है और आज का दिन है, फिर किसी ने रामनगीना को हॅंसी-ठट्ठा करते या मस्ती में फगुआ, चइता गाते नहीं देखा।
पुल बनने के बाद इस पार के गाॅंवों का शहर से सीधा जुड़ाव हो गया। न सिर्फ इतना बल्कि जिले के दक्षिण, पश्चिम तरफ के इलाकों की जिला मुख्यालय से दूरी भी काफी कम हो गयी। बाद में जब ट्रैफिक का दबाव बढ़ा तो सड़क का चैड़ीकरण हुआ और इस सड़क को सिकन्दरपुर से सीयर होते मऊ को जाने वाली सड़क से जोड़ दिया गया। पुल के ठीक सामने रामनगीना का एक साढ़े पाॅंच बीघे का चक था। पुल से उतरने के बाद सड़क वहीं से पश्चिम तरफ मुडत़ी थी। लाख हाय-तौबा मचाते रहे लेकिन सड़क के चैड़ीकरण में रामनगीना की लगभग ड़ेढ़ बीघा जमीन और चली गई। सड़क के किनारे के उस चक में बस लगभग चार बीघा जमीन शेष रह गई थी।
दो बीघे का बगीचा और ड़ेढ़ बीघा खेत, विकास के नाम पर रामनगीना की कुल साढ़े तीन बीघा जमीन लील लिया इस पुल और सड़क ने। अधिग्रहण के समय यह साफ कहा गया था कि जमीन और पेड़ों के बदले सरकारी दर से मुआवजा मिलेगा। मुआवजा मिला भी। लेकिन मुआवजा हासिल करने में रामनगीना को कितने पापड़ बेलने पड़े, यह सिर्फ वही जानते हैं। तहसील और कलक्टरी के चक्कर लगाते-लगाते पसीना छूट गया। जूते की तली घिस गई। कभी यह कागज पूरा नही ंतो कभी वह कागज पूरा नहीं। कभी यह कमी रह गई तो कभी वह कमी रह गई। कभी बड़े साहब नहीं हैं तो कभी छोटे साहब नहीं हैं। कभी लेखपाल की रिपोर्ट नहीं है तो कभी तहसीलदार की मुहर नहीं है। हार कर वकीलों और दलालों का सहारा लेना पड़ा। लेखपाल, तहसीलदार से ले कर छोटे, बड़े साहबों तक की मुट्ठी गरम करनी पड़ी। तब जा कर मुआवजे के नाम पर जैसे-तैसे लगभग साढ़े पाॅंच लाख रूपया हाथ आया।
खेती-बारी का एक बड़ा हिस्सा हाथ से निकल चुका था। बाग था तो सालाना आमदनी का एक स्थाई जरिया था लेकिन अब वह भी नहीं रहा। इसलिए रामनगीना ने सोच रखा था कि मुआवजे के पैसों में से ढ़ाई-ढ़ाई लाख दोनों बेटियों के नाम जमा कर देंगे जो उनकी शादी में काम आएगा और पचास हजार से बेटे को कोई छोटा-मोटा रोजगार शुरू करा देंगे। लेकिन पैसा मिलने की बात पता चलते ही घर में सभी की दबी इच्छायें एकदम से उफान मारने लगीं। चैतरफा फरमाइशें शुरू हो गयीं। बेटे ने जिद पकड़ ली कि उसे स्मार्ट फोन और मोटर सायकिल चाहिए तो बेटियों का मन रंगीन टी0वी0 के लिए मचलने लगा। पत्नी का कहना था कि निकट भविष्य में बेटे की शादी को ध्यान में रखते हुए कच्चे, खपरैल घर को पक्का करा लिया जाय, एक-दो नए कमरे बनवा लिया जाय और कुछ ढ़ंग के फर्नीचर भी बनवा लिए जायें। न चाहते हुए भी रामनगीना को पत्नी और बच्चों की जिद के सामने हार माननी पड़ी। बमुश्किल पचास-पचास हजार दोनों बेटियों के नाम जमा हो पाया बाकी सारा पैसा परिवार की फरमाइशें पूरी करने में ही चुक गया।
यद्यपि नदी पर पुल और सड़क बनने के बाद रामनगीना की जमीन का रकबा आधा से भी कम रह गया था, लेकिन उसका फायदा यह हुआ कि जो जमीन शेष बची उसका रेट एकदम से चार-पाॅंच गुना बढ़ गया। पुल बनने से इस पार के गाॅंव शहर से सीधे जुड़ गए थे। पुल के इस पार शहर के विस्तार की संभावना देख जमीन का धंधा करने वाले दलालों की आवाजाही शुरू हो गई। पुल से उतर कर सड़क पर पॅंहुचते ही सामने रामनगीना की जमीन पड़ती थी। उस जमीन की व्यावसायिक और आवासीय उपयोगिता को देखते हुए शहर के प्रापर्टी ड़ीलर रामनगीना की घेर-घार करने लगे।
‘‘रामनगीनाजी, आपकी इस सड़क के किनारे वाली जमीन में हम आगे की ओर दुकानें तथा पीछे आवासीय प्लाट बनाना चाहते हैं। आप चाहें तो पैसा ले कर हमारे नाम बयनामा कर दीजिए या जमीन दे कर बिजनेस में आधे के साझीदार बन जाइए।’’ एक दिन सवेरे-सवेरे जब रामनगीना कुदाल लिए आलू के खेत में नाली बना रहे थे, क्षेत्रीय सांसद का साला नन्दू शुक्ला जो जमीन का ही धंधा करता था, आया और प्रस्ताव रखा।
‘‘शुक्लाजी, यह जमीन हमारी माॅं है। इसी की उपज खा कर पले, बढ़े हैं हम। सरकार ने धोखे से या कानून की जोर-जबरदस्ती से जो ले लिया सो ले लिया लेकिन अब अपने जीते जी हम एक इंच भी जमीन नहीं देने वाले।’’ दो टूक जबाब दिया रामनगीना ने।
‘‘रामनगीना जी, जाड़ा, गरमी, बरसात खेती में हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद क्या मिल पाता है आपको ? दोनों जून की रोटी और ढ़ंग का कपड़ा भी तो नहीं जुट पाता। सच कहें तो खेती अब घाटे का धंधा हो गया है। मेरी मानिए तो जमीन को बेच कर पैसा बैंक में फिक्स कर दीजिए और सारी जिन्दगी हाथ पर हाथ धरे बैठे आराम से खाइए।’’ शुक्ला ने समझाया।
‘‘शुक्ला जी एक बात बताइए.....। आप के सामने थाली में भर कर हजार, पाॅंच सौ के नोट रख दिए जायें, सोने, चाॅंदी के सिक्के, हीरे, जवाहरात रख दिए जायें और रोटी, चावल न दिया जाय तो आप का पेट भर जाएगा क्या ? आप कागज के रूपए खा कर जिन्दा रह लेंगे क्या ? भैया, तिजोरी में चाहे जितना भी धन-दौलत आ जाए पेट तो अन्न से ही भरेगा न। आप लोग खेती की सारी जमीनों में मकान, दुकान बना देंगे, सड़क, मैदान बना देंगे तो अन्न कहाॅं पैदा होगा ? और जब अन्न नहीं पैदा होगा तो हम, आप खायेंगे क्या ? अन्न कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि आप फैक्टरी में पैदा कर लेंगे।’’ रामनगीना ने जबाब दिया।
‘‘कुछ हद तक आप की बात भी ठीक है, लेकिन देश का विकास होना भी तो जरूरी है। हर किसी को रहने के लिए घर, स्कूल, अस्पताल, बाजार और आवागमन के लिए सड़कें भी तो जरूरी हैं। यही देखिए इस पुल के बन जाने से इस पार के गाॅंव वालों को कितनी सहूलियत हो गई है। सामने बस चार किलोमीटर पर शहर है लेकिन पहले आप लोगों का वहाॅं पॅंहुचना पहाड़ होता था। घंटा भर से ज्यादा टाइम लग जाता था। लेकिन अब तो सायकिल से भी जाइए तो पन्द्रह, बीस मिनट में शहर पॅंहुच जायेंगे। अगर इस तरफ कुछ कालोनियाॅं बन जायें, लोग रहने लगें तो इधर के क्षेत्र का भी विकास हो जाएगा। इधर के सारे गाॅंव शहर का हिस्सा हो जायेंगे। आप जितना पैसा साल भर में पूरी खेती से नहीं कमा पाते होंगे उतना सड़क किनारे एक छोटी सी दुकान खोल कर बैठ जायें तो कमा लेंगे।’’
‘‘वाह जी वाह....फिर घूम-फिर कर आप पैसे पर ही आ गए। अरे बाबा, मैं पूछता हूॅं कि पैसे-रूपए से आदमी का पेट भर सकेगा क्या ? विकास का यह मतलब तो नहीं कि रोज सोने का एक अंड़ा लेने के बजाय हम सोने का अंड़ा देने वाली मुर्गी को ही जिबह कर दें। देखिए शुक्ला जी, आप दुनिया की हर चीज पैदा कर सकते हैं लेकिन जमीन नहीं पैदा कर सकते। आबादी बढ़ रही है, जरूरतें बढ़ रही हैं लेकिन जमीन का रकबा दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। अगर हम अभी से नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब न तो खाने के लिए अन्न मिलेगा न पीने के लिए पानी। सोने, चाॅंदी से लदा, धन-दौलत की ढ़ेरी लिए बैठा आदमी भूख से बिलबिला कर मरेगा। कम से कम मैं पाप के उस काम में भगीदार नहीं बनना चाहता। इसलिए कृपा कर के मुझे बख्स दीजिए। मैं तो जब तक जाॅंगर साथ देगा खेती ही करूॅंगा, अन्न ही उपजाऊॅंगा।’’ शुक्ला को निरूत्तर करने के बाद रामनगीना ने कुदाल उठाया और अपने काम में जुट गए।
‘‘जमीन तो तुम दोगे ही बच्चू, हॅंस कर नहीं दोगे तो रो कर दोगे, सीधे से नहीं दोगे तो टेढ़े से दोगे।’’ शुक्ला ने मन ही मन कहा और गुस्से में दाॅंत पीसते हुए लौट गया।
रामनगीना कोईरी किसी भी कीमत पर अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं थे। उधर शुक्ला था कि येन-केन-प्रकारेण उनकी जमीन हथियाने का प्रण किए बैठा था। रामनगीना के बार-बार इंकार करने के बावजूद वह उनके पीछे पड़ा रहा, बार-बार आता रहा, जाता रहा और तरह-तरह के प्रलोभन देता रहा। उसने जब देखा कि सीधी अॅंगुली घी नहींे निकल रही है तो ईशारों-ईशारों में ड़राने तथा जमीन को जबरिया कब्जाने की धमकी देने लगा। लेकिन शुक्ला के लाख प्रयासों के बावजूद रामनगीना अपनी जिद पर अड़े रहे। वह बिल्कुल भी टस से मस नहीं हुए।
अप्रैल के आखिरी दिन थे। गेहॅंू की फसल पक कर तैयार हो चुकी थी। रामनगीना अगले ही हफ्ते से कटाई शुरू करने वाले थे। उन्होंने कटाई के लिए मजदूरों से बात भी कर ली थी कि अचानक एक दिन आधी रात के बाद जब दिन भर की मेहनत से थके रामनगीना अपने घर के ओसारे में गहरी नींद में सो रहे थे, उनके खेत से आग की लपटें उठने लगीं। शोर हुआ, रामनगीना खेत की तरफ दौड़े, गाॅंव के दूसरे लोग भी आए, आग बुझाने का प्रयत्न हुआ लेकिन तब तक सब कुछ जल कर स्वाहा हो चुका था। लोगों का अनुमान था कि सड़क चलते किसी ने बीड़ी पी कर खेत में फेंक दी होगी जिससे आग लग गई होगी। लेकिन रामनगीना का मन कहता था कि नहीं, बात यह नहीं है। आग जानबूझ कर लगाई गयी है और यह सारा कुछ उसी शुक्ला का किया कराया है।
रामनगीना की जमीन के उस टुकड़े के लिए जबरदस्त रस्साकस्सी चल रही थी। शुक्ला हर कीमत पर उस जमीन को हथियाने के प्रयास में लगा था तो रामनगीना भी अपनी टेक पर अड़े थे। शुक्ला की योजना रामनगीना को इस हद तक परेशान करने की थी कि आजिज आ कर वह खुद ही जमीन बेंच दें। आगजनी के बाद रामनगीना की समझ में आ गया था कि शुक्ला चुप नहीं बैठेगा। वह कोई न कोई खुराफात करता रहेगा। सो उन्होंने सड़क के किनारे अपने खेत के एक कोने में एक मड़ई ड़ाल ली और एक चैकी रख कर वहीं रहने लगे। साथ ही सड़क के किनारे-किनारे उन्होंने आम, महुआ तथा जामुन के पौधे लगा दिए। शिवपूजन मल्लाह जो नदी पर पुल बनने से पहले इस पार से उस पार नाव की फेरी लगाया करता था, पुल बन जाने के बाद से बेकार बैठा था। उसने रामनगीना से बात की और उनकी मड़ई में चाय, पान और बीड़ी, सुर्ती की एक दुकान खोल ली। छाया मिली, बैठने को एक ठौर मिला तो सड़क पर आते-जाते राहगीर तथा गाॅंव-जवार के लोग भी वहाॅं बैठकी करने लगे। धीरे-धीरे शिवपूजन की दुकान चल निकली। कुछ पैसों की व्यवस्था रामनगीना ने की, कुछ मदद शिवपूजन ने की और बरसात आते-आते मड़ई की जगह एक पक्की कोठरी खड़ी हो गई। वह ड़ेरा अब रामनगीना का स्थायी निवास बन गया। वे बस सवेरे, शाम खाना खाने के लिए घर जाते थे, शेष समय फसल तथा पेड़ों की देखभाल करते वहीं पड़े रहते थे। रात में दुकान बंद करने के बाद शिवपूजन भी उसी कोठरी में लेट जाते थे।
रामनगीना के लाख इन्कार के बावजूद शुक्ला ने हार नहीं मानी। सोने की खान सिद्ध होने की संभावना वाली उस जमीन को हथियाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था वह। जब सीधी राह दाल गलती नहीं दिखी तो उसने एक षणयंत्र रचा और उसके लिए रामनगीना के बेटे राकेश को हथियार बनाया।
राकेश बलिया के टी0डी0 कालेज में बी0ए0 में पढ़ रहा था। वह पढ़ता कम, मटरगश्ती ज्यादा करता था। सवेरे खा-पी कर मोटर सायकिल लिए घर से निकल जाता तो शाम को ही लौटता था। शुक्ला ने उससे मेल-जोल बढ़ाना शुरू कर दिया।
‘‘राकेश भाई, आज के जमाने में बी0ए0, एम0ए0 चाहे जितना भी पढ़ लो नौकरी तो मिलनी नहीं। तो फिर क्यों अपना समय और पैसा बरबाद कर रहे हो। हमारे साथ आ जाओ। प्रापर्टी का काम करो। रातों रात फर्श से अर्श पर पॅंहुच जाओगे। मुझको ही देखो, आज से सात, आठ साल पहले मेरे पास सायकिल तक नहीं थी लेकिन आज दो-दो गाड़ियाॅं हैं, शहर में अपना मकान है, नौकर, चाकर हैं और बारह, पन्द्रह करोड़ की हैसियत है मेरी।’’ शुक्ला ने राकेश को सब्जबाग दिखाया।
‘‘हाॅं शुक्ला जी, ठीक कह रहे हैं आप। जमीन का धंधा है तो बहुत बढ़िया लेकिन उसके लिए पॅूजी कहाॅं से आएगी ? मेरे पास पैसा तो है नहीं। प्रापर्टी के काम के लिए तो पहले अच्छी-खासी पॅूंजी होनी चाहिए न।’’
‘‘अरे तो क्या हुआ......तुम मेरे पार्टनर बन जाओ। जमीन तुम्हारा रहेगा, पैसा हम लगायेंगे और जो प्राफिट होगा उसमें आधा-आधा कर लिया जाएगा।’’
‘‘जमीन मेरा रहेगा....? क्या मतलब.....? हम कुछ समझे नहीं शुक्ला जी।’’
‘‘अरे भाई, पुल के उस पार लबे सड़क जो तुम्हारी जमीन है उसकी बात कर रहा हूॅं मैं। अगर तुम चाहो तो उसमें सामने दुकानें और पीछे आवासीय कालोनी बनायी जा सकती है। यह समझो कि गई, बीती हालत में भी सारा खर्चा काटने के बाद भी बीस, पच्चीस लाख तो कहीं नहीं गया है। उसमें आधा तुम्हारा।’’
‘‘ऐसा करिए शुक्लाजी......आप मेरे बाबूजी से बात करिए। देखिए....क्या कहते हैं वह।’’
‘‘राकेश भाई, उनसे बात कर चुका हूॅं मैं। मेरी बात उनकी समझ में नहीं आ रही है। वह कह रहे हैं कि अपने जीते-जी एक इंच जमीन भी नहीं बेचूॅंगा। तुम्ही बताओ, खेती- किसानी में क्या रखा है आज के जमाने में। सामने दुकानें बनवा कर किराए पर उठा दो तो हर महीने नकद किराया आता रहेगा। बाकी जमीन बेच कर उसी पैसे से कोई रोजगार कर लो चाहे बैंक में रख कर उसका ब्याज खाओ। क्या जरूरत है खेती में जान खपाने की।’’
शुक्ला की बात सुन कर राकेश विचार मग्न हो गया। उसे लगा कि शुक्ला की बात सोलह आने सही है। उसका प्रस्ताव बहुत बढ़िया है। वैसे भी जब तक पिताजी के हाथ-पैर चल रहे हैं वह खेती कर रहे हैं। उनके बाद उससे तो खेती होनी नहीं।
‘‘ऐसा करो राकेश भाई, अपने बाबूजी को समझाओ। अगर मेरी बात मान लो तो पक्का है कि अगले साल तक मोटर सायकिल की जगह तुम कार में चलने लगोगे। पचीस, पचास लाख की हैसियत हो जाएगी तुम्हारी। दस लोगों में रोब-रूतबा हो जाएगा तुम्हारा भी।’’ अपना तीर सही निशाने पर लगते और राकेश को विचारमग्न होते देखा तो शुक्ला ने दूसरा वार किया।
शुक्ला से बात होने के बाद राकेश के दिमाग में लगातार वही बातें उमड़ती-घुमड़ती रहीं जो शुक्ला ने उसे समझाया था। घर लौटा तो उसने पहले अपनी माॅं को समझाया। जैसे शुक्ला ने उसको समझाया था वैसे ही एकाएक अमीर बनने के नुस्खे का लम्बा-चैड़ा खाका उसने अपनी माॅं के सामने खींचा। जिन्दगी भर एक-एक पैसे और एक-एक सामान के लिए तरसती रहने वाली उसकी माॅं ने जब सुख, सम्पन्नता की बड़ी-बड़ी बातें सुनीं तो बेटे की बात से तुरत-फुरत सहमत हो गयी। लेकिन माॅं-बेटे दोनों ही समझ रहे थे कि रामनगीना को समझा पाना बहुत टेढ़ी खीर होगी।
‘‘बाबू, चलती सड़क के किनारे सही-सलामत खेती कर पाना तो मुश्किल है अब। हम सोच रहे हैं उसमें सामने की ओर दुकानें बनवा दी जाय और पीछे मकान के लिए प्लाटिंग कर के बेच दिया जाय। इतना पैसा मिल जाएगा कि उसका ब्याज ही हमारे खर्चा के लिए बहुत होगा।’’ रात में खाना खाने घर आए तो रामनगीना से उनके बेटे ने कहा।
‘‘समझ गया.....समझ गया। लगता है नन्दू शुक्ला ने बहकाया है तुमको। उसी कमीने की निगाह लगी है हमारी जमीन पर।’’ बेटे की बात सुनते ही रामनगीना बोल पड़े।
‘‘हाॅं, नन्दू शुक्ला से ही मेरी बात हुयी है। लेकिन वह जो कह रहे हैं उसमें गलत क्या है ? जमीन हमारी रहेगी....पैसा शुक्ला जी लगायेंगे। सामने दुकानें बन जायेंगी और पीछे मकान। जो फायदा होगा उसमें आधा-आधा का बॅंटवारा हो जाएगा। उसी में एक दुकान में हम भी कोई रोजगार कर लेंगे। बाकी पैसा बैंक में फिक्स कर देना।’’
‘‘शुक्ला ने जो बात तुमसे अब कही है वह मुझसे बहुत पहले कह चुका है और कई-कई बार कह चुका है। जब मुझसे नहीं पार पा सका तो वह तुम्हारे पर ड़ोरे ड़ाल रहा है। उससे बता दो कि हमारे यहाॅं उसकी दाल नहीं गलने वाली। हम इतने बेवकूफ नहीं हैं कि उसके झाॅंसे में आ जायें। पूरी तो क्या हम बित्ते भर जमीन भी नहीं देने वाले।’’
‘‘बाबूजी इसमें बुराई क्या है ? एक मुश्त अच्छा-खासा पैसा मिल जाएगा। उसे बैंक में रख देंगे। रोज की हाय-हाय किच-किच से जान छूटेगी।’’
‘‘बुराई तो इसमें बहुत बड़ी है......लेकिन तुमको समझ में नहीं आ रही है तो हम क्या करें। बस इतना जान लो कि शुक्ला तुम्हारा हितैषी नहीं है.....तुम्हारी बरबादी का रास्ता दिखा रहा है वह। अगर उसके कहने में आए तो एक दिन भीख का कटोरा पकड़ा कर सड़क पर खड़ा करा देगा। रूपया, पैसा का कोई भरोसा नहीं कि कितने दिन टिके। पैसे की हालत यह है कि यह आता तो है कछुवे की तरह लेकिन जाता है खरगोश की तरह। इसके आने में देर लगता है, जाने में नहीं।’’
‘‘सारी दुनिया बदल सकती है लेकिन तुम नहीं बदल सकते। न तो खुद सुख, चैन से रहोगे न हमें रहने दोगे। आधी से अधिक उम्र तो बीत गई तुम्हारी खेती करते...क्या हासिल हुआ खेती से...? न ढ़ंग से खाना मिला न ढ़ंग का कपड़ा। जमीन अगोरे बैठे रहो, दिन-रात खटते रहो और एक-एक पैसे के लिए तरसो उससे अच्छा तो यह है कि इसे बेच कर पैसा खरा कर लो। पैसा से चाहे बिजनेस करो चाहे बैंक में रखो। कम से कम चैन से जीने को तो मिलेगा....।’’ बाप, बेटे के वार्तालाप के बीच में रामनगीना की पत्नी बोल पड़ी।
‘‘खेती से क्या मिला, क्या नहीं मिला यह तुम लोग नहीं समझ सकोगी। खेत सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि आदमी की माॅं है.....पालनहार है....बाप-दादा की थाती है। आदमी की हैसियत और शान है यह। आज खेत है तभी दोनों जून का भोजन मिल रहा है। इस खेत की बदौलत ही वह शुक्ला आगे, पीछे घूम रहा है......लल्लो-चप्पो कर रहा है। नहीं तो मुॅंह पर थूकने भी नहीं आएगा कोई। इसलिए जमीन बेचने की बात दिमाग से बिल्कुल निकाल दो तुम लोग।’’ रामनगीना ने पत्नी से कहा और अपनी लाठी उठा कर घर से निकल गए।
अपने बाप का दो टूक जबाब सुन कर राकेश मन मसोस कर रह गया। शुक्ला से बात करने के बाद उसने सुख, सुविधा और सम्पन्नता का जो स्वप्न-महल बना रखा था वह एक झटके में ही धराशायी हो गया। अब नन्दू शुक्ला उसे सबसे बड़ा हितैषी और अपना सगा बाप सबसे बड़ा दुश्मन लगने लगा था। अगले दिन वह मुॅंह लटकाए शुक्ला के यहाॅं पॅंहुचा। उसका उतरा चेहरा देखते ही शुक्ला माजरा भाॅंप गया।
‘‘कहो राकेश भाई ! बात किए अपने बाबूजी से ?’’ शुक्ला ने प्रश्न किया।
‘‘शुक्ला जी हमारे बाप को समझाना बालू से तेल निकालना है। कुछ नहीं किया जा सकता। जमीन देने के लिए वह किसी भी तरह से तैयार नहीं हो रहे हैं।’’
‘‘उनकी छोड़ो.....तुम अपनी बताओ.....तुम तैयार हो कि नहीं ?’’ राकेश की बात को बीच में ही काटते हुए शुक्ला बोल पड़ा।
‘‘मैं तो तैयार हूॅं शुक्ला जी। लेकिन मेरे चाहने से क्या होगा......जमीन तो मेरे बाप के नाम है।’’
‘‘राकेश भाई अगर तुम तैयार हो तो बात बन जाएगी। बस तुमको थोड़ी हिम्मत करनी पड़ेगी। देखो, वह जमीन तुम्हारे पिताजी की खरीदी तो है नहीं.....है तो वह पुश्तैनी जमीन। और कानूनन हिन्दू परिवार में जन्मा बच्चा जन्म लेते ही अपनी पुश्तैनी जमीन-जायदाद में हिस्सेदार बन जाता है। जमीन भले तुम्हारे पिताजी के नाम है लेकिन उसमें हिस्सा तुम्हारा भी है। अगर वह नहीं मान रहे हैं तो अपना हिस्सा बॅंटवा लो। आधी जमीन तो तुम्हें मिल ही जाएगी.....उसी में काम शुरू किया जाएगा।’’
‘‘क्या आप सच कह रहे हैं शुक्लाजी....? अपने बाप के जिन्दा रहते जमीन में हिस्सा मिल सकता है मुझको....?’’ राकेश ने चैंक कर पूछा। शुक्ला की बात पर उसको विश्वास नहीं हो रहा था।
‘‘हाॅं भाई, हम कानून की बात कह रहे हैं। एक बार अपने पिताजी से बात कर के देख लो....अगर वह सीधे से तुम्हारा हिस्सा देने के लिए राजी हो जायें तो ठीक वरना उनके खिलाफ बॅंटवारे का एक ठो मुकदमा करा देंगे। कोर्ट से डिग्री हो जाएगी तुम्हारे फेवर में।’’
शुक्ला से मंत्र ले कर लौटा राकेश उस दिन बहुत आक्रामक मूड़ में था। रामनगीना रात में खाने के लिए डेरे से घर आए तो उसने फिर से शुक्ला को जमीन देने की बात छेड़ दी। ‘‘बाबूजी, शुक्ला की बात पर ठंड़े दिमाग से सोच लो एक बार। मेरी समझ से तो उसमें फायदा ही है।’’
‘‘जब एक बार कह दिया कि मैंने कि अपनी एक बित्ता जमीन भी नहीं देने वाला तो फिर बार-बार उसी बात को क्यों फेंट रहे हो तुम। शुक्ला चाहे पैसे से तौल दे, मुझे अपनी जमीन नहीं देनी है तो नहीं देनी है।’’ रामनगीना ने बेटे को जोर से ड़ाॅंट लगा दी।
‘‘तो ऐसा करो मेरा हिस्सा अलग कर दो। अपने हिस्से की जमीन में मैं नन्दू शुक्ला के साथ मिल कर प्लाटिंग करूॅंगा।’’ राकेश ने उतने ही जोर से कहा।
‘‘मेरे जीते जी तुम्हारा कैसा हिस्सा जी ? जब तक जिन्दा हूॅं मैं मालिक हूॅं.....। मेरे मरने के बाद जो जी चाहे सो करना।’’
‘‘यह जमीन तो दादा, परदादा के समय की है......तुम्हारी खुद की खरीदी हुई तो है नहीं। कानून के अनुसार बच्चे के पैदा होते ही पुश्तैनी जमीन में उसका हिस्सा हो जाता है। मैंने कचहरी में वकील से भी इस बारे में पता कर लिया है। बेहतर है कि बॅंटवारा कर के मेरा हिस्सा दे दो.....अगर सीधे से नहीं दोगे तो कोर्ट में मुकदमा लड़ कर ले लूॅंगा।’’ राकेश का इतना कहना था कि रामनगीना एकदम से आसमान से जमीन पर आ गिरे। ऐसा लगा कि आॅंखों के आगे अॅंधेरा सा छाने लगा। आगे की थाली सरका कर चुपचाप उठे और ड़ेरे पर सोने चले गए।
ड़ेरे पर लौटने के बाद रामनगीना बिस्तर में लेट गए। मन उद्विग्न था और नींद ने भी आॅंखों से बैर ठान रखा था इसलिए देर रात तक करवटें बदलते रहे। वह साफ देख रहे थे कि खेत में आग लगाने बाद नन्दू शुक्ला ने उनके घर में भी आग लगा दी थी। फसल को नष्ट करने के बाद वह बाप-बेटे के सम्बन्ध को भी नष्ट करने पर तुला था। लेकिन अफसोस कि वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। सच कहा गया है कि जो किसी से नहीं हारता वह अपनी औलाद से हारता है। दुश्चिन्ताओं के महासागर में ड़ूब, उतरा रहे रामनगीना की भोर में जाने कब आॅंखें लग गयीं और तभी उन्होंने वह ड़रवना सपना देखा था। सपने में उन्होंने देखा कि कुटे-पिटे, रस्सी से बॅंधे वह सड़क पर पड़े हैं और उनका बेटा एक विशाल बुलड़ोजर लिए उनको कुचलने के लिए बढ़ा चला आ रहा है। अचानक जोर से चीख कर उठ बैठे वह। फिर कमरे से बाहर सड़क पर निकल आए।
‘‘नहीं....ऐसा नहीं होने देंगे। भले ही अपने बेटे से मुकदमा लड़ना पड़े लेकिन इतनी आसानी से शुक्ला की चाल कामयाब नहीं होने देंगे। कहते हैं हर कानून की काट होती है....आज ही किसी अच्छे वकील से बात करेंगे।’’ रामनगीना ने मन ही मन सोचा और अपनी कोठरी में लौट आए।

Related Stories