उतरती बाढ़

कविता

Akhilesh Srivastava Chaman

7/18/20211 मिनट पढ़ें

दुश्मन के गढ़ में घुस कर

उसे नेस्तनाबूद करने के बाद

जैसे लौट आती है

विजयिनी सेना

छोड़ कर ध्वंसावशेष

और अपनी विजय के

ढ़ेरों पद-चिह्न

ठीक वैसे ही इत्मिनान,

गर्व, अभिमान

और दर्प के साथ

लौट रही है

अपनी ताकत दिखाने

और तबाही मचाने के बाद

उमड़ी, उफनायी,

मदमाती नदी।

जैसे पराजित राज्य की

लुकी-छिपी प्रजा

लौटती नदी के पीछे-पीछे

लौट पड़े हैं

ढ़ोर-डंगर, घर-गृहस्थी

और खुद को सहेजते,

बचा-खुचा सॅंभालते

नदी की चढ़ाई से पूर्व

सुरक्षित ठीहों पर

जान बचा कर भागे

आदम के वंशज।

फिर से गड़ने लगे हैं खूॅंटे,

बनने लगी हंै नाॅंदें

रम्भाने लगी हैं गायें,

पगुराने लगी हैं भैंसें,

सुलगने लगे हैं चुल्हे,

खदकने लगी है अदहन

होने लगी है हदबंदी,

उठने लगी हैं दीवारें

और फिर से

जुटाये जाने लगे हैं

छप्पर के लिए धरन, थूनी,

बाॅंस, मूॅंज, बाध

और बिछावन के लिए पुआल।

यूॅं देखते ही देखते

समय की धार से

धुल जायेंगे

तबाही के सारे चिह्न,

मिट जायेंगे

बरबादी के अवसाद,

और हो जायेंगे धीरे-धीरे

पहले से आबाद

जनानी ड्योढ़ी,

मर्दानी बैठक,

जानवरों की नाद,

भूसा के खोप,

अनाज के कोठिले,

घूरे के ढ़ेर,

चैका, कोहबर, सउरी,

देवकुर, चैपाल

और गुलजार हो उठेंगी रातें

कजरी, झूमर, चैता, सोहर,

सुमिरन, आल्हा,

ईसुरी के फाग से।

यूॅं खिल उठेगा जीवन फिर

आदम और हव्वा के

चिर-परीचित राग से।

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