अभी कुछ दिनों पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तथा उससे सम्बद्ध महाविद्यालयों में कुछ नियुक्तियाॅं हुयी हैं। नियुक्तियों को ले कर खूब शोर-शराबा हुआ, पक्षपात और पैसे के आधार पर नियुक्ति किए जाने के आरोप लगे तथा कुछ प्रकरण मा0 उच्च न्यायालय तक भी गए। ऐसा कहा और सुना गया कि यह घोर पतन का समय है जिसमें विश्वविद्यालय और महाविद्यालय जैसे संस्थानों में मात्र योग्यता नहीं बल्कि इतर कारणों से नियुक्तियाॅं की गई हैं। यहाॅं बताना चाहूॅंगा कि यह कोई नई बात नहीं है। आज से पचास साल पहले भी सिफारिस और जुगाड़ के बल पर नियुक्तियाॅं होती थीं। कम से कम लेखक असग़र वजाहत के हवाले से तो ऐसा ही लगता है।
साहित्य भंड़ार इलाहाबाद से असगर वजाहत की एक किताब आयी है जिसका शीर्षक है-‘कथा से इतर’। इसमें असगर वजाहत साहब के संस्मरण संकलित हैं। इसमें तीसरा संस्मरण है-‘गुरूदेव, अलीगढ़ और मैं’। बताते चलें कि इस आलेख में गुरूदेव का आशय अलीगढ़ विश्वविद्यालय के नामचीन व्यक्तित्व के0 पी0 यानी कुॅंवरपाल सिंह से है। इस पुस्तक के कुछ अंश देखिए-
‘‘हिन्दी विभाग एक जड़ विभाग था जहाॅं के0 पी0 को बाहर का आदमी माना जाता था। विभागाध्यक्ष प्रो0 हरिवंशलाल शर्मा पुराने किस्म के पंड़ित थे और विभाग में प्रायः अपने से कम अकल ब्राह्मणों की नियुक्तियाॅं करते थे। इस तरह विभाग एक अजायबघर बन गया था। के0पी0 जानते थे कि पंड़ित जी उन्हें कभी नौकरी नहीं देंगे।.............के0 पी0 ने पी0एच0डी0 पूरी कर ली और उसी दौरान प्रो0 नुरूल हसन राज्यसभा के सदस्य और फिर शिक्षा मंत्री बन गए और उसकी बजह से विश्वविद्यालय के सत्ता समीकरण बदलने लगे।...............के0पी0 को विभाग में नौकरी मिली तो पंड़ितजी दिल्ली आ कर हिन्दी की एक बड़ी संस्था के निदेशक और फिर उपकुलपति की कुर्सी तक पॅंहुचे।’’ पृष्ठ-35
‘‘उस जमाने में आम तौर पर यह चलन था कि विभागाध्यक्ष उन लड़कों को ही प्रथम श्रेणी में पास होने देते थे जिन्हें वे चाहते थे।...........मेरा एम0ए0 का रिजल्ट आया तो प्रथम श्रेणी पाने में मेरे आठ नम्बर कम थे।..........यह बात के0पी0 को पता चली तो उन्होंने विभागाध्यक्ष को इस बात पर तैयार कर लिया कि मुझे ऐसे नम्बर दें कि फस्र्ट क्लास आ जाय। विभागाध्यक्ष मान गए। मेरी फस्र्ट क्लास आ गई।’’ पृष्ठ-38
‘‘इस दौरान जामिया के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक की जगह निकली थी। उस जमाने में जामिया हिन्दी विभाग के अध्यक्ष मुजीब रिजवी से के0पी0 के पुराने और अच्छे सम्बन्ध थे। के0पी0 ने मुझे खत दिया था और मुजीब साहब के पास पॅंहुच या था।.......बहरहाल के0पी0 की शिफारिस थी और मैंने फार्म भर दिया था। सेलेक्सन कमेटी के दिन मैं मुजीब रिजवी साहब के घर पॅंहुच गया था और हम दोनों साथ वी0सी0 आफिस की तरफ चल पड़े थे। जब आफिस नदजीक आने लगा था तो रिजवी साहब ने बहुत धीरे से कहा था, तुम थोड़ा पीछे हो जाओ। मैं समझ गया था। विभागाध्यक्ष और कैंडिडेट को वी0सी0 आफिस में साथ-साथ देखा जाना मुनासिब न था।.....बहरहाल नौकरी मिल गई। पृष्ठ-41
‘‘और गुरूदेव ने दूसरे शिष्य कीर्ति कुमार त्रिवेदी को जे0एन0यू0 में नौकरी दिलाने की कोशिश शुरू कर दी। उस जमाने में गुरूदेव की साख और दबदबा बहुत ज्यादा था। शिक्षामंत्री से ले कर यू0जी0सी0 के चेयरमैन तक उनकी सीधी पॅंहुच थी।’’ पृष्ठ-42
तो यह है शिक्षा की हमारी सर्वोच्च संस्थाओं में छात्रों की प्रतिभा के मूल्यांकन और नियुक्तियों की असलियत जो पुरातन काल से बदस्तूर कायम है।