सत्य की सत्यता

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

4/16/20241 मिनट पढ़ें

एक युगों पुराना यक्ष प्रश्न जो आज तक अनुत्तरित है, वह यह है कि- ‘सत्य क्या है ?’ हम जो देखते हैं वह सत्य है कि जो हम सुनते हैं वह सत्य है कि जो हम पढ़ते हैं वह सत्य है या कि सत्य वह है जो भाॅंति-भाॅंति के धर्माचार्यों, उपदेशकों, शिक्षकों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों, संस्थाओं तथा प्रबोध के अन्य विविध माध्यमों के द्वारा हमारी चेतना के अंदर उड़ेला जाता है।

वस्तुतः सत्य की व्याख्या का मामला बड़ा पेचीदा है। सत्य वास्तव में है क्या ? यही तथ्य आज तक निश्चित नहीं हो सका है। ठीक ईश्वर की ही तरह सत्य की परिभाषा भी अति गूढ़, अति भ्रामक और अति विवादित है। अंधों की हाथी की तरह हर किसी का सत्य अलग होता है। मालिक का सत्य अलग, कारिंदे का सत्य अलग। नेता का सत्य अलग, जनता का सत्य अलग। साहब का सत्य अलग, किरानी का सत्य अलग। साहुकार का सत्य अलग, कर्जदार का सत्य अलग। भरे पेट का सत्य अलग, खाली पेट का सत्य अलग। यहाॅं तक कि हर एक पीढ़ी का सत्य अलग होता है। दादा का सत्य अलग, पिता का सत्य अलग और पोता का सत्य अलग। तात्पर्य यह कि जिससे जिसका हित सधे वही उसका सत्य है।

दरअसल चश्में हर एक के अलग हैं। इसलिए एक ही सत्य अलग-अलग चश्मे से अलग-अलग स्वरूप में दिखलाई देता है। और उसके बाद मेरा सत्य सही तुम्हारा सत्य गलत, मेरा सत्य बड़ा तुम्हारा सत्य छोटा, मेरा सत्य पूरा, तुम्हारा सत्य अधूरा को ले कर झगड़े शुरू हो जाते हैं। अपने-अपने सत्य को सही, बड़ा और पूर्ण साबित करने के लिए शुरू हुआ सामान्य संवाद बाद में वाद, विवाद, प्रतिवाद, वितंडावाद और तर्क, वितर्क, कुतर्क से होता हुआ बैर, बहस, बिगाड़, तकरार एवं लठियाव तक पॅंहुच जाता हैं। सत्यान्वेषियों के लठियाव की परिणति यह होती है कि सत्य के स्वरूप निर्धारण का मामला न्यायालय के दरवाजे तक पहॅंुच जाता है। मजे की बात यह है कि न्यायालयों में भी ‘मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना, कुण्डे कुण्डे नवं पयः‘ हो जाता है। वहाॅं भी ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदंति’ की कहानी दुहरायी जाने लगती है। एक ही सत्य की व्याख्या अलग-अलग न्यायविद अलग-अलग ढ़ंग से करने लगते हैं। लब्बोलुबाब यह कि सत्य एक धोखा है, छलावा है, भ्रम है। सत्य वस्तुतः अटकल है, अनुमान है, अवधारणा है। बोलें तो सत्य एक जटिल अबूझ पहेली है।

अगर सच कहें तो सत्य का एक अबूझ पहेली बने रहना समाज के व्यापक हित में ठीक ही है। अगर ऐसा न हो, सत्य का एक सार्वभौम स्वरूप निश्चित हो जाय, सत्य सभी को एक जैसा ही दिखने लगे, सत्य को ले कर सभी एकमत हो जायें तो संसार के सारे न्यायालयों में ताले न पड़ जायें। न्याय व्यवस्था की रहट से सिंचित मुकदमेबाजी की लहलहाती फसल सूख न जाय। सारे जज, वकील, मंुशी, मुहर्रिर, टाइपिस्ट और पेशेवर गवाह आदि बेरोजगार न हो जायें। कचहरी की आबोहवा के आदी हो चुके मुकदमेबाज बीमार न हो जायें। कचहरियों की बदौलत जी, खा रहे लाखों के घरों में फाॅंके की नौबत न आ जाय। इसलिए व्यापक जनहित में सत्य का विवादित बने रहना ही श्रेयस्कर है।

सत्य के बारे में कहा जाता है कि यदि किसी झूठ को लगातार दुहराओ और बार-बार दुहराओ तो वह सत्य हो जाता है। सुनने वाला उसे सत्य मानने पर विवश हो जाता है। बस झूठ बोलने वाले के अंदर झूठ को सत्य के रूप में स्वीकार कर लिए जाने तक उसे दुहराते रहने का धैर्य होना चाहिए। कचहरियों में आदमी के इसी धैर्य की तो परीक्षा होती है। कचहरी के वकील, दलाल और पेशेवर गवाह तो रोटी ही सत्य और झूठ की हेराफेरी की खाते हैं। सत्य को झूठ और झूठ को सत्य में बदल देना उनके लिए बायें हाथ का खेल होता है। वे लोग हर समय अपने कुर्ते की एक जेब में सत्य और दूसरे में झूठ लिए फिरते हैं। जरूरत के अनुसार जब, जहाॅं जिससे बात बनती दिखती है, उस जेब को पलट देते हैं।

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