साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। प्रेमचन्द साहित्य को मशाल कहते हैं। साहित्यकार को समाज का पथ-प्रदर्शक और युगप्रवर्तक कहा गया है। कहा गया है कि साहित्य समाज को दिशा देता है। कहा जाता है कि साहित्य सामाजिक मूल्यों का संरक्षण एवं संवर्धन करता है। कहा जाता है कि साहित्य मनुष्य को आदमी बनने की तमीज सिखाता है। इस प्रकार की अनेकानेक उक्तियों को पढ़ कर ऐसा लगता है कि साहित्यकार को हमारे समाज में बहुत मान-सम्मान और उच्च स्थान प्राप्त है। लेकिन हकीकत में ये सारी बातें कोरी लफ्फाजी हैं। सिर्फ कागजी और सजावटी हैं। सच्चाई यह है कि साहित्यकार होना, विशेष रूप से हिन्दी भाषा का साहित्यकार होना अत्यधिक यातनादायी कार्य है। कम से कम स्वर्गीय शंकर सुल्तानपुरी के जीवन-संघर्ष से तो यही बात सामने आती है।
दिनांक 1 दिसम्बर 1940 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला के परऊपुर नामक ग्राम में गुरूप्रसाद श्रीवास्तव तथा रमादेवी की संतान के रूप में एक बालक का जन्म हुआ। विधाता ने जन्म देने के साथ ही उस उस बालक के भाग्य में एक तरफ असाधारण मेधा तो दूसरी तरफ असाधारण दुःख लिख दिया। उसके हृदय में विधाता ने भावों और संवेदनाओं के विविध रंग भरे तो उसके जीवन में अभावों का अजस्र स्रोत। छः माह की आयु में ही उस बालक के सर से पिता का साया उठ गया। परिणाम स्वरूप उसका लालन-पालन ननिहाल इलाहाबाद में हुआ। बड़े होने पर उसका विवाह लखनऊ में हुआ। पत्नी तो शिक्षित, संस्कारित, शुशीला और समर्पित मिली लेकिन ईश्वर ने संतान सुख से वंचित कर दिया। उस व्यक्ति ने अपने जीवन में न तो किसी पद की चाह की और न ही धन-सम्पदा की। उसने सिर्फ और सिर्फ यश की कामना की। वह भी किसी बैसाखी के बल पर नहीं बल्कि अपनी मेधा और पुरुषार्थ के बल पर। लेकिन अफसोस कि वह जिस यश और सम्मान का पात्र था उसका दशंाश भी उसको नहीं मिल सका। यानी यदि महादेवी वर्मा की पंक्तियों में कहें तो-‘‘दुःख ही जीवन की कथा रही।’’
पितृहीन वह बालक जिस इलाहाबाद शहर में बड़ा और समझदार हो रहा था वह इलाहाबाद उन दिनों साहित्याबाद हुआ करता था। उन दिनों इलाहाबाद में निराला, पंत, महादेवी वर्मा, फिराक, बच्चन, रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीकांत वर्मा, इलाचन्द जोशी, उपेन्द्रनाथ अश्क, अमरकांत आदि साहित्यिक विभूतियाॅं रहा करती थीं। किशोर हो रहा वह बालक हिन्दी साहित्य की इन विभूतियों की आभा से इस हद तक प्रभावित हुआ कि साहित्य-सृजन को ही उसने अपने जीवन का ध्येय बना लिया। फिर तो दस-बारह वर्ष की आयु में जो उसकी सृजन-यात्रा प्रारम्भ हुयी वह उसके अंतिम सांस तक अनवरत चलती रही। समस्त प्रकार की लोभ, लालसाओं और सुख-सुविधाओं से विरक्त वह कर्मयोगी आजीवन साहित्य को ही ओढ़ता, बिछाता और जीता रहा।
शंकरदयाल श्रीवास्तव नामक उस किशोर ने अपना रचनाकर्म शंकर सुल्तानपुरी के नाम से प्रारम्भ किया। उसकी पहली कविता 12 वर्ष की आयु में अपने समय की श्रेष्ठ बाल पत्रिका ‘बालसखा’ में सन् 1952 में छपी। चैदह वर्ष की आयु में 1954 में उसका पहला उपन्यास ‘हमें रोटी चाहिए’ छपा। फिर उसके बाद जो लेखन और प्रकाशन का क्रम चला तो उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 23 वर्ष की आयु पूरी होते-होते वह युवक 80 पुस्तकों का रचयिता हो चुका था। कविता, कहानी, उपन्यास, खण्ड़काव्य, नाटक, एकांकी, जीवनी, चित्रकथा, संस्मरण, धारावाहिक आदि साहित्य की कोई भी ऐसी विधा नहीं है जिसमें शंकर सुल्तानपुरी ने प्रचुर मात्रा में सृजन न किया हो। विभिन्न प्रकाशन संस्थानों से उनकी पाॅंच सौ से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और लगभग एक सौ पाण्ड़ुलिपियाॅं अभी अप्रकाशित पड़ी हुयी हैं। मौलिक लेखन के अतिरिक्त उन्होंने कई महत्वपूर्ण कृतियों का उर्दू भाषा से हिन्दी में अनुवाद भी किया है। आकाशवाणी के लिए उन्होंने तीन सौ से अधिक नाटक और एकांकी लिखे हैं तथा दूरदर्शन के लिए आधा दर्जन धारावाहिक। उनका लिखा धारावाहिक ‘मुखड़ा क्या देखे दर्पण में’ अपने समय में दूरदर्शन का सर्वाधिक लोकप्रिय धारावाहिक था। हिन्दी के अलावे उसका प्रसारण दूरदर्शन के कटक केन्द्र से उड़िया भाषा में भी हुआ। उन्होंने समय-समय पर कई पत्रिकाओं का सम्पादन तथा पाठ्य पुस्तक श्रृंखला ‘अनुपम भारती’ का निर्माण भी किया।
शंकर सुल्तानपुरी के जीवन की सबसे बड़ी भूल संभवतः यह रही कि हिन्दी की सर्वाधिक कठिन शाखा भाषा विज्ञान में विशेषज्ञता सहित स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के बावजूद उन्होंने आजीवन साहित्य-सृजन का व्रत ले लिया। उनको डिग्री कालेज और सूचना विभाग सहित कई जगहों से नौकरी के प्रस्ताव आए लेकिन उन्होंने सबको ठुकरा दिया और स्वतंत्र लेखन की अपनी जिद पर अड़े रहे। दूर से चमक-दमक भरी दिखने वाली लेखकीय जीवन की व्यावहारिक दुश्वारियों का शायद उनको अनुमान नहीं था, वरना ऐसा आत्मघाती निर्णय शायद वह नहीं लिए होते। वह आजीवन मसिजीवी बने रहे और लेखन के भरोसे होने वाली अल्प आय से अपनी दाल-रोटी का जुगााड़ करते रहे। उनकी लिखी पुस्तकों की आमदनी से कई प्रकाशक लखपती, करोड़पती बन गए लेकिन स्वयं वह अभावों में जीते रहे। खुद शंकर सुल्तापनुरी ने एक बार बातचीत के दौरान बताया था कि आर्थिक तंगी के चलते उन्होंने अपने न जाने कितने उपन्यास पचास-पचास, साठ-साठ रुपए में प्रकाशकों के हाथ बेच दिए थे। कई बार ऐसा भी हुआ कि रायल्टी देने से बचने के लिए प्रकाशकों ने उनकी प्रकाशित पुस्तकों के दूसरे, तीसरे संस्करण से उनका नाम ही हटा दिया या फिर किसी अन्य के नाम से प्रकाशित कर दिया। उन्होंने एक-दो प्रकाशकों को कानूनी नोटिस दिया, कुछ दिन वकीलों और कचहरी के चक्कर भी लगाए फिर थक-हार कर बैठ गए। अपनी आॅंखों के सामने अपनी कृतियों की चोरी देखते रहे और समय को कोसते रहे।
लाख अभावों में रहने के बावजूद शंकर सुल्तानपुरी अव्वल दर्जे के स्वाभिमानी और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे। वे लेखक संगठनों के जोड़-तोड़ और गुटबंदी तथा वाद-विवाद से आजीवन दूर रहे। उन्होंने पद, पैसा, सम्मान या पुरस्कार के लिए कभी चाटुकारिता नहीं की, किसी के आगे हाथ नहीें फैलाया बस अपनी फकीरी में ही मस्त रहे। शंकर सुल्तानपुरी के जीवन में इस तरह के अनेक अवसर आए जब उन्होंने आत्म-स्वाभिमान की आवाज पर पद, पैसा और पुरस्कार को ठुकरा दिया।
बात तब की है जब स्वर्गीय विष्णुकांत शास्त्री उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। स्वयं साहित्यकार होने के कारण शास्त्री जी शंकर सुल्तानपुरी के नाम और काम से पूर्व परीचित थे। उन्होंने खबर भेज कर शंकर सुल्तानपुरी को मिलने के लिए बुलाया। सुल्तानपुरी जी उनसे मिलने राजभवन गए। बातचीत के दौरान जब राज्यपाल महोदय को पता चला कि ये महाशय तो जिन्दगी की गाड़ी सिर्फ लेखन के भरोसे खींच रहे हैं और किराए के मकान में रह रहे हैं, तो उन्होंने प्रस्ताव रखा कि शंकर सुल्तानपुरी एक आवेदन दे दें तो वह उनके लिए सरकारी आवास और आजीवन पेंशन की व्यवस्था करा देंगे। राज्यपाल से मिल कर वापस आने के बाद शंकर सुल्तानपुरी जी चुपचाप बैठ गए। उनके स्वाभिमान को यह स्वीकार नहीं था कि अपने आवास और पेंशन के लिए सरकार से भीख माॅंगें। बाद के दिनों में उन्होंने बातचीत में मुझसे कहा था कि यदि सरकार उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखते हुए स्वयं कोई व्यवस्था कर दे तो ठीक, लेकिन वह माॅंगेंगे नहीं।
इसी प्रकार कुछ वर्षों पूर्व उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा उनके समक्ष दो लाख रुपए का ‘बाल-साहित्य भारती’ सम्मान देने का प्रस्ताव रखा गया था जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। उनका कहना था कि उनको ‘बाल-साहित्य भारती’ दिए जाने का मतलब यह कि उन्होंने बाल साहित्य के अतिरिक्त विविध विधाओं में जो विपुल साहित्य रचा है उसका अपमान करना है। यदि हिन्दी संस्थान को सम्मान करना ही है तो उनके समग्र सृजन का करे।
वे कुछ समय के लिए एक सरकारी संस्थान से निकलने वाली पत्रिका के संपादक भी रहे थे। सम्पादन कार्य के बदले उनको एक निश्चित राशि का भुगतान भी किया जाता था। लेकिन वहाॅं से उन्होंने मात्र इसलिए त्यागपत्र दे दिया कि एक अधिकारी द्वारा उनके संपादन कार्य में हस्तक्षेप की कोशिश की जा रही थी।
एक अन्य बात जिसके लिए शंकर सुल्तानपुरी जी को याद किया जाना चाहिए वह था उनकी संवेदनशीलता तथा समाज के प्रति दायित्वबोध। स्वयं अभावों में जीने वाले शंकर सुल्तानपुरी अभाव की मार को बखूबी जानते थे। शायद इसीलिए वर्ष 2013 में उन्होंने ‘शंकर सुल्तानपुरी साहित्य संस्थान न्यास’ की स्थापना की। इस न्यास द्वारा प्रति वर्ष उनके जन्मदिन 1 दिसम्बर को प्रेस क्लब हजरतगंज लखनऊ में एक समारोह आयोजित किया जाता था जिसमें चार साधनविहीन, दिव्यांग और मेधावी बच्चों को पाॅंच-पाॅंच हजार रुपए नकद, अंग वस्त्र, प्रतीक चिह्न तथा पाॅंच साहित्यिक पुस्तकें दी जाती थीं। अपने न्यास के माध्यम से उन्होंने झोपड़पट्टी में रहने वाले बच्चों, कूड़ा बीनने वाले बच्चों, अंधे और लॅंगड़े बच्चों, रिक्सा चलाने वालों तथा झााड़ू-बरतन का काम करने वालों के बच्चों की मदद की। यही नही उन्होंने अपनी आॅंखें भी दान कर दी थीं ताकि उनके निधन के बाद उनकी आॅंखों से किसी अन्य को दृष्टि मिल सके। लोहिया अस्पताल में उनके निधन के पश्चात उनकी धर्मपत्नी ने उनकी इस इच्छा को क्रियान्वित कराया।
शंकर सुल्तानपुरी के बारे में बात हो और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमलेश शंकर का उल्लेख न हो ऐसा करना घोर अन्याय होगा। यदि कहा जाय कि शंकर सुल्तानपुरी जो कुछ थे या अपने जीवन में जो कुछ भी कर सके उसका सारा श्रेय श्रीमती कमलेश शंकर को है तो इसमें रंच मात्र भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। शंकर सुल्तानपुरी तो सिर्फ और सिर्फ लिखने का काम किया करते थे। उनके लिखे का साज-सॅंभाल श्रीमती कमलेश शंकर के जिम्मे था। पति को सहयोग प्रदान करने के लिए श्रीमती कमलेश शंकर ने लगभग 70 वर्ष की आयु में कम्प्यूटर पर कार्य करना सीखा। शंकर सुल्तानपुरी के लिखे को सभॅंालने, उनकी रचनायें टाइप करने, पत्र-पत्रिकाओं को भेजने, प्रकाशकों से बात करने, पुस्तकों और मानदेय आदि का हिसाब रखने, न्यास का कार्यक्रम आयोजित करने, न्यास द्वारा पुरस्कृत करने हेतु योग्य छात्रों, छात्राओं के बारे में जानकारी जुटाने से लेकर घर-गृहस्थी तक के सारे कार्य वह ही सॅंभालती थीं।
शंकर सुल्तानपुरी से मेरा सम्पर्क लगभग चैदह वर्ष पहले हुआ। मैंने बचपन से ही उनकी रचनायें पढ़ी थीं इसलिए उनके नाम से पूर्व परीचित था। जब जून 2003 में नौकरी के बहाने लखनऊ आ गया तो मन में उनसे मिलने की इच्छा जागृत हुई। संभवतः वर्ष 2004 का कोई दिन था जब उनसे मिलने उनके किराए के आवास पर गया। पहली मुलाकात में ही उनसे खूब अपनत्व मिला, खूब बातें हुयीं। फिर तो शंकर सुल्तानपुरी जी तथा उनकी पत्नी के बात, व्यवहार से मैं इतना प्रभावित हुआ कि यदा-कदा उनसे मिलने जाने लगा। शंकर सुल्तानपुरी जी की स्मृति बहुत अच्छी थी और उनके पास संस्मरणों का बड़ा खजाना था। जाने पर वह घंटों अपने पुराने दिनों तथा पुराने साहित्यकारों के संस्मरण सुनाया करते थे। न्यास के गठन से पूर्व भी उन्होंने मुझसे परामर्श किया। उनके कहने पर मैंने ही न्यास की रूपरेखा तैयार की और उसके निबंधन आदि की कार्यवाही पूरी कराई थी।
बहुत अफसोस और शर्म की बात है कि हिन्दी साहित्य की सेवा के लिए अपना सारा जीवन अर्पित कर देने वाले इस रचनाकार का देहान्त घोर उपेक्षा और उचित चिकित्सा के अभाव के कारण हुआ। दिल्ली के एक पत्रकार मित्र श्री नरेन्द्र निर्मल जी अपने व्यक्तिगत कार्य से दो दिनों के लिए लखनऊ आए हुए थे। वह शंकर सुल्तानपुरी के बहुत पुराने परीचितों में हैं इसलिए उनसे मिलने के लिए उनके आवास पर गए थे। उनके यहाॅं से लौटने के बाद 10 नवम्बर 2018 की रात लगभग नौ बजे उन्होंने फोन कर के मुझको बताया कि शंकर सुल्तानपुरी जी की तबियत काफी लम्बे समय से खराब चल रही है और वह होम्योपैथिक गोलियाॅं खा कर अपना इलाज कर रहे हैं। मुझको अफसोस हुआ कि पिछले काफी दिनों से मैंने उनकी खोज-खबर नहीं ली थी। मैंने तुरन्त भाभी (श्रीमती कमलेश शंकर) से बात की और यह तय हुआ कि अगले दिन उनको लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया जायेगा। अगले दिन सवेरे 7 बजे मैं उनके आवास पर गया। भाई नरेन्द्र निर्मलजी भी अपने पुत्र के साथ आ गए। शंकर सुल्तानपुरी जी के एक अन्य परीचित एचएएल कर्मी श्री सक्सेना जी भी आ गए। हम लोग शंकर सुल्तानपुरी को ले कर लोहिया अस्पताल गए और वहाॅं भर्ती करा दिए। 11 नवम्बर से 27 नवम्बर तक पूरे सत्रह दिन वह लोहिया अस्पताल में भर्ती रहे। मैं नियमित उनकी खोज-खबर लेता रहा। तबियत सुधरने पर 27 नवम्बर को उनको अस्पताल से वापस घर लाया गया।
अचानक 5 दिसम्बर को दोपहर 1 बजे भाभी (श्रीमती कमलेश शंकर) का फोन आया कि शंकर सुल्तानपुरी जी की तबियत पुनः खराब हो गयी है, उनको तत्काल अस्पताल ले जाना होगा। मैं भाग कर गया और उन्हें कार में लेकर मैं तथा उनकी पत्नी लोहिया अस्पताल के इमरजेन्सी में गए। वहाॅं उनको भर्ती कराने और बेड दिलाने में हमें नाकों चने चबाने पड़े। लगभग 2 बजे दिन से ले कर रात 7 बजे तक शंकर सुल्तानपुरी जी लोहिया अस्पताल की इमरजेन्सी के बरामदे में नंगे स्ट्रेचर पर पड़े कराहते रहे, छटपटाते रहे और मैं तथा उनकी पत्नी असहाय बने डाक्टरों की हृदयहीनता से दो-चार होते रहे। वहीं अस्पताल के बरामदे में बैठे-बैठे ही मैंने शंकर सुल्तानपुरी की बीमारी तथा लोहिया अस्पताल में हो रही कठिनाई की बात हृवाट्सएप पर लिख दी। कुछ देर बाद मेरे पास साहित्यकार मित्र श्री महेन्द्र भीष्म जी का फोन आया। मैंने उनको परेशानी बताई तो उन्होंने अपने एक परीचित ड़ाक्टर से सम्पर्क किया। आश्चर्य कि जो डाक्टर अभी तक अस्पताल में एक भी बेड खाली न होने की बात कह रहे थे उन्होंने ही तुरन्त बेड उपलब्ध करा दिया। इस बार 11 दिसम्बर तक वह अस्पताल में रहे। तबियत में जरा सा सुधार होते ही उनको वहाॅं से मुक्त कर दिया गया और मैं उनको उनके आवास पर ले आया।
सर्वाधिक आश्चर्य और अफसोस की बात यह कि काफी-काफी दिनों के लिए दो बार भर्ती रहने के बावजूद लोहिया अस्पताल के ड़ाक्टर यह नहीं बता सके कि शंकर सुल्तानपुरी जी की बीमारी क्या है। 6 जनवरी 19 से पुनः उनकी तबियत बिगड़ने लगी। लम्बे समय से लगातार बीमार रहने के कारण वह काफी कमजोर भी हो गए थे। इस बार हमने किसी प्रायवेट ड़ाक्टर से इलाज कराने का निर्णय किया। इन्दिरा नगर में एक ड़ाक्टर को दिखाया गया और कुछ दिनों तक उनकी दवाई की गई लेकिन कोई फायदा होता नहीं दिखा। अंततः 22 जनवरी को पुनः उनको लोहिया अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
तीसरी बार लोहिया अस्पताल के ड़ाक्टरों और कर्मचारियों का व्यवहार अत्यधिक अमानवीय और गैरजिम्मेदाराना रहा। हुआ यह कि शंकर सुल्तानपुरी जी को जो ड़ाक्टर देख रहे थे उनकी ड्यूटी इलाहाबाद कुम्भ मेला में लग गयी। उसके बाद ड़ाक्टरों ने उनको देखना बंद कर दिया। शंकर सुल्तानपुरी जी जनरल वार्ड में बेड नम्बर 11 पर पड़े चीखते, कराहते रहते थे, उनकी पत्नी तथा मैं ड़ाक्टरों और नर्सों का निहोरा करते रहते थे लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। डाक्टर राउण्ड पर आते और दूसरे मरीजों को देख कर चले जाते थे। अगर किसी ड़ाक्टर से कुछ कहो तो वह यह कह कर पल्ला झाड़ लेता था कि वह उसके मरीज नहीं हैं। मैं मुख्य चिकित्साधिकारी से मिला और समस्या बताई तो उन्होंने ड़ा0 मौर्या की ड्यूटी लगा दी। डा0 मौर्या इतने संवेदनहीन और गैरजिम्मेदार निकले कि उन्होंने अगले ही दिन शंकर सुल्तानपुरी जी को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया। शंकर सुल्तानपुरी जी हिलने, ड़ुलने की भी स्थिति में नहीं थे, पस्त पड़े बिस्तर में टट्टी, पेशाब कर रहे थे, दर्द के मारे तड़प रहे थे, उनको इलाज की सख़्त जरूरत थी लेकिन डा0 मौर्या इलाज करने के बजाय उनको घर ले जाने के लिए दबाव ड़ाल रहे थे। वे श्रीमानजी जब भी राउण्ड पर आते तो इस बात के लिए नाराज होते कि उनके डिस्चार्ज कर देने के बावजूद मरीज को घर को नहीं ले जाया जा रहा है। जब उन्होंने कई दिनों तक ऐसे ही परेशान किया तो मैं पुनः मुख्य चिकित्साधिकारी से मिला। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूॅं कि उन्होंने स्थिति समझी और डिस्चार्ज हो चुकने के बावजूद उन्होंने शंकर सुल्तानपुरी जी को अस्पताल में रुके रहने की अनुमति दे दी। लेकिन आवश्यक इलाज उनको फिर भी नहीं मिला। डाक्टर और नर्सों की हृदयहीनता चरम पर थी।
10 फरवरी की रात ढाई बजे शंकर सुल्तानपुरी जी के पेट में भयानक दर्द उठा। नर्स ने कोई दवा दी जिससे वे कुछ शान्त हो गए। मेरा मानना है कि नर्स द्वारा दी गई वह दवा शायद गलत थी क्यों कि उसके बाद से ही शंकर सुल्तानपुरी जी शिथिल पड़ने लगे थे। सवेरा होते ही जनरल वार्ड के ड़ाक्टर और नर्सोंें ने आनन-फानन में उनको अपने यहाॅं से हटा कर इमरजेन्सी के लिए रेफर कर दिया। उनको दूसरी मंजिल स्थित जनरल वार्ड से स्ट्रेचर पर ले कर मैं भूतल पर स्थित इमरजेन्सी पॅंहुचा तो वहाॅं की इंचार्ज नर्स ने उनको इमरजेन्सी में लेने से मना कर दिया। उसका कहना था कि इमरजेन्सी में कोई भी बेड खाली नहीं है। इमरजेन्सी की इंजार्ज नर्स को यह बात बहुत नागवार लगी थी कि उससे पूछे बगैर जनरल वार्ड वालों ने मरीज को इमरजेंसी के लिए क्यों भेज दिया। पन्द्रह-बीस मिनट तक शंकर सुल्तानपुरी को स्ट्रेचर पर लिए मैं तथा उनकी पत्नी इमरजेन्सी के बाहर बरामदे में खड़े रहे लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। आखिर जब मैंने हल्ला-गुल्ला किया, चीखा-चिल्लाया, धमकी भरे लहजे में बात की तो उन्हें बेड मिला। बेड़ तो जैसे-तैसे मिल गया लेकिन उनको इलाज फिर भी नहीं मिला। सिर्फ ग्लूकोज की बोतलें लगायी जाती रहीं। अंततः 18 फरवरी की सुबह उन्होंने इस निर्दयी दुनिया को अलविदा कह दिया।
इस पूरे प्रकरण में लखनऊ के साहित्यकारों की संवेदनहीनता अति निंदनीय रही। चूॅंकि शंकर सुल्तानपुरी जी लेखकों के किसी भी गिरोह के सदस्य नहीं थे, उन्होंने कभी किसी खास विचारधारा का झंड़ा नहीं उठाया और सबसे बड़ी बात यह कि वे ऐसी स्थिति में नहीं थे कि किसी को कोई लाभ अथवा हानि पहुॅंचा सकें, इसलिए गिरोहों में बॅंटी लेखक बिरादरी ने उनको कुजात घोषित कर रखा था। लोहिया अस्पताल में शंकर सुल्तानपुरी जी के भर्ती रहने के दौरान मैंने उनकी सहायता के लिए सोसल मीडिया के माध्यम से लखनऊ के साहित्यकारों से बारम्बार अनुरोध किया। मैं किसी से किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग नहीं चाहता था। मेरा कहना सिर्फ यह था कि यदि कुछ समर्थ साहित्यकार अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर राजनीतिक स्तर पर प्रयास करें अथवा अस्पताल प्रशासन पर सामूहिक रूप से दबाव बनायें तो शंकर सुल्तानपुरी जी को बेहतर इलाज मिल सकता था। लेकिन मानवीय संवेदना की लम्बी-लम्बी बातें करने वाले और पर पीड़ा की अभिव्यक्ति में सैकड़ों कोरे पन्ने रंग देने वाले साहित्यकारों में कोई भी मदद को आगे नहीं आया। उनकी पत्नी अकेली छटपटाती रहीं और असहाय बनीं आहिस्ता-आहिस्ता मौत के निकट सरकते शंकर सुल्तानपुरी को देखती रहीं। मेरी पोस्ट पढ़ कर दूसरे शहरों के कुछ साहित्यकारों ने तो फोन किया लेकिन लखनऊ के साहित्यकारों के कानों पर जूॅं तक नहीं रेंगा।
सरकारी संस्थान होने के कारण लोहिया अस्पताल में दवा, इलाज का खर्च तो नहीं था फिर भी मुझको चिन्ता थी कि यदि शंकर सुल्तानपुरी जी की स्थिति अधिक बिगड़ी और उनको किसी प्रायवेट अस्पताल में ले जाना पड़ा तो उस स्थिति के लिए पैसा होना आवश्यक है। ऐसे में मुझको हिन्दी संस्थान की याद आयी। संस्थान के अध्यक्ष डा0 सदानन्द प्रसाद गुप्त जी से मेरी कई मुलाकातें थीं जिसके कारण यह पता था कि वह अत्यधिक सरल और संवेदनशील व्यक्ति हैं। मैंने आर्थिक मदद के लिए उनसे मिलने की सोची लेकिन समस्या यह थी कि शंकर सुल्तानपुरी और उनकी पत्नी दोनों ही किसी से मदद माॅंगने के विरोधी थे। यहाॅं मैंने थोड़ी चालाकी से काम लिया। मैंने शंकर सुल्तानपुरी जी की पत्नी से किसी बहाने उनके बैंक का चेकबुक माॅंगा और अपने मोबाइल से चेक की तस्वीर खींच ली। घर कर आ कर मैंने चेक की फोटो का प्रिंट निकाला तथा शंकर सुल्तानपुरी की स्थिति का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के अध्यक्ष के नाम एक आवेदन पत्र अपनी तरफ से तैयार किया। आवेदन पत्र और चेक की फोटो ले कर मैं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के अध्यक्ष डा0 सदानन्द प्रसाद गुप्त जी से उनके कार्यालय कक्ष में मिला। फेसबुक पर मेरे मित्र होने के कारण मेरे द्वारा ड़ाले गए पोस्ट के माध्यम से गुप्त जी शंकर सुल्तानपुरी जी की बीमारी के बारे में जान चुके थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं बजे शंकर सुल्तानपुरी जी की मदद करना तो चाहता हूॅं लेकिन मैंने सुना है वह सरकारी सहायता लेने से मना कर देते हैं। मैंने उनको आश्वस्त किया कि सहायता हेतु मेरे द्वारा निवेदन करने की बात अभी तक न तो शंकर सुल्तानपुरी जी और न ही उनकी पत्नी को ज्ञात है। बाद में भी यह बात शंकर सुल्तानपुरी जी को नहीं बतायी जायेगी। मैं डा0 सदानन्द प्रसाद गुप्त जी का व्यक्तिगत रूप से आभारी हूॅं कि उन्होंने मेरे अनुरोध पर तत्काल पचास हजार की सहायता राशि स्वीकृत कर दी। मैं हिन्दी संस्थान की डा0 अमिता दुबे जी के प्रति भी आभारी हूॅं कि कागजी कार्यवाही पूर्ण करा के उन्होंने उसी दिन शंकर सुल्तानपुरी जी के खाते में सहायता राशि भिजवा दी। जब सहायता राशि खाते में पहॅंुच गयी तब मैंने यह बात शंकर सुल्तानपुरी जी की पत्नी को अकेले में बतायी। सुनते ही वह घबड़ा गयीं और मुझसे बहुत बेचारगी से बोलीं-भैया, यह बात आप सुल्तानपुरी जी को मत बताइएगा। मैंने कहा-मैं तो नहीं बताऊगा, आप भी मत बताइएगा।
शंकर सुल्तानपुरी जी के अस्पताल में रहने के दौरान उनके बारे में मैं सोसल मीडिया पर लगातार लिखता रहता था। मेरी पोस्ट पढ़ कर कुछ सहृदय साहित्यकार उनको देखने अस्पताल पहॅंचे और कुछ ने आर्थिक मदद भी की। ऐसे लोगों में श्री चंदन राय तथा फणीन्द्र पाण्ड़ेय मुम्बई श्री नरेन्द्र निर्मल गाजियाबाद, श्री कमलेश भट्ट कमल नोएड़ा, श्री मनोज दीक्षित कुलपति अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद, श्री राम करन बस्ती, श्री पवन कुमार वर्मा वाराणसी तथा लखनऊ से सुश्री नीलम राकेश, डा0 अमिता दुबे एवं नवयुग पुस्तक भंण्ड़ार अमीनाबाद के नाम प्रमुख हैं।
18 फरवरी को सवेरे लगभग सात बजे शंकर सुल्तानपुरी जी का देहांत हो गया। अपराह्न लगभग 1 बजे हम का शव ले कर बैकुण्ठधाम पॅंहुचे तो देखा कि दर्जनों साहित्यकार वहाॅं पहले से उपस्थित थे। बेशर्मी की हद कि शंकर सुल्तानपुरी जी की मौत को भी कुछ लोगों ने अपने व्यक्तिगत प्रचार का साधन बना लिया। बैकुण्ठधाम के विद्युत शवदाह गृह के प्रवेश द्वार पर खड़े कुछ साहित्यकार लोग अखबार वालों को शंकर सुल्तानपुरी जी के शव तक भी नहीं पहॅंचने दे रहे थे। वे लोग वहीं से बातें कर के उनको लौटा दे रहे थे। जो लोग जीते जी शंकर सुल्तानपुरी को देखने तक नहीं गए थे, उनसे कभी मिले तक नहीं थे, वे अखबार वालों के सामने दुःख के मारे दुबले हुए जा रहे थे, लम्बे-लम्बे वक्तव्य और अपनी फोटो दे रहे थे।