समाचार पत्रों की घातक स्थ्नायिता

टिपण्णी

Akhilesh Srivastava Chaman

9/26/20181 मिनट पढ़ें

एक मशहूर दूर संचार कम्पनी का स्लोगन था ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’। सचमुच संचार साधनों में आयी क्रांति की बदौलत आज सारी दुनिया सिमट कर हमारी मुट्ठी में आ गयी है। सात समंदर पार की चीजें जिनके बारे में हम सिर्फ कल्पनाएं कर सकते थे, आज हमारी पॅंहुच के अंदर हैं। बस एक या दो बटन दबाने के साथ ही हम विश्व के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति को देख, सुन और उससे बोल, बतिया सकते हैं। शायद इसी सिमटती दूरियों के कारण ही विश्व-ग्राम की परिकल्पना का जन्म हुआ है। विश्व-ग्राम यानी सारा विश्व एक छोटे से गाॅंव के रूप में सिमट कर रह गया है। लेकिन यदि समाचार पत्र विशेष रूप से हिन्दी के समाचार पत्रों के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो हमें एक बहुत बड़ी उलटबाॅंसी नजर आती है। अन्य संचार माध्यम जहाॅं हमें राष्ट्र और उससे भी आगे बढ़ कर विश्व की घटनाओं और चिन्ताओं से जोड़ते हैं वहीं हमारे हिन्दी के समाचार पत्र राष्ट्रीयता से सिमट कर क्षेत्रीयता और उससे भी पीछे खिसक कर स्थानीयता पर उतर आए हैं। एक तरफ जहाॅं हमारे सम्पर्क , सरोकार और जानकारी का दायरा बढ़ा है, हमारी सोच और चिन्ताओं को विस्तार मिला है वहींदूसरी तरफ इन समाचार पत्रों की दृष्टि सीमित और संकुचित होती गयी है।

हिन्दी समाचार पत्रों की दृष्टि-संकुचन से मेरा आशय उनके द्वारा परोसे जा रहे समाचारों से है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज हिन्दी के लगभग सभी समाचार पत्र गाॅंव, मुहल्ले और कस्बे के अखबार बन कर रह गए हैं। पहले राष्ट्रीय अखबार अलग होते थे और स्थानीय अखबार अलग। दोनों का चरित्र अलग होता था, पहचान अलग होती थी और उनका पाठक वर्ग भी अलग होता था। लेकिन आज दोनों के मध्य का अंतर मिट गया है। अपने को राष्ट्रीय कहने वाले समाचार पत्र भी समाचारों की प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से इतने अधिक स्थानीय हो गए हैं कि देश के दूसरे हिस्सों की तो छोड़िए आप एक जिले में बैठ कर अपने पड़ोसी जिले की भी महत्वपूर्ण खबर नहीं पा सकते। एक समय था जब अखबार ही खबरों एवं विचारों के प्रेषण के एक मात्र माध्यम हुआ करते थे और किसी भी बड़े अखबार में महत्वपूर्ण स्थानीय खबरों से लेकर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की सभी प्रमुख खबरें मिल जाया करती थीं। चाहे असम का आन्दोलन रहा हो या गोरखालैण्ड का, चाहे खालिस्तानी उपद्रव रहा हो या कश्मीर घाटी की अशान्ति, चाहे आपातकालकी ज्यादतियाॅं रही हों या जे पी आन्दोलन और जनता पार्टी का उत्थान-पतन, चाहे बेलछी काण्ड रहा हो या मलियाना का दंगा हर एक महत्वपूर्ण घटना तथा उससे जुड़े विभिन्न पहलुओं को आम जनता तक पॅंहुचाने एवं जनता को उससे जोड़ने का काम समाचार पत्रों ने ही किया। कालांतर में जैसे-जैसे टी0वी0 चैनलों की संख्या बढ़ती गयी, समाचार पत्र बाजार पर अपनी पकड़ बरकरार रखने के लिए स्थानीय दर स्थानीय होते चले गए।

पाठक संख्या बढ़ाने की होड़ में अखबारों के मालिकों ने पहले तो हर छोटे, बड़े शहर से संस्करण निकालने शुरू किए और उसके बाद पाठकों को बाॅंधे रखने के लिए गली, मुहल्ले से ले कर घर के अंदर तक की छोटी से छोटी बात को नमक, मिर्च लगा कर चटपटे अंदाज में परोसना शुरू कर दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस नीति से अखबारों की पाठक संख्या बढ़ी, उनका प्रसार बढ़ा, उनके विज्ञापनों का बाजार बढ़ा और मालिकों के शुद्ध लाभ का प्रतिशत भी बढ़ा लेकिन नुकसान यह हुआ कि पत्रकारिता की गंभीरता कम हुयी, प्रतिबद्धता कम हुयी, उपयोगिता कम हुयी और उसके राष्ट्रीय स्वरूप का लोप हुआ।

दरअसल समाचार पत्रों का मतलब किसी खबर को पाठक तक पॅंहुचाना मात्र ही नहीं होता बल्कि उसके माध्यम से पाठक की भावनाओं को जगाना, उसके सामने घटना के विभिन्न पहलुओं को उजागर करना और उसे सोचने के लिए विवश करना भी होता है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि समाचार पत्रों के माध्यम से ही किसी भी व्यक्ति, दल, घटना अथवा नीति के पक्ष, विपक्ष में माहौल बनता, बिगड़ता है। सीधी सी बात है कि जब देश के एक भाग में बैठा व्यक्ति देश के दूसरे भाग में घट रही घटनाओं के बारे में जानेगा ही नहीं और यदि जानेगा भी तो मात्र सतही एवं सरसरी तौर पर तो फिर उसके बारे में न तो कोई मत बना सकेगा और न ही कोई प्रतिक्रिया जाहिर कर सकेगा। कहना न होगा कि यह स्थिति सत्ता में बैठे लोगों के पक्ष में जाती है, इसलिए समाचार पखें ने अपनी इस ताकत का स्चहित में भरपूर दुरूपयोग भी किया है। आज जो लोगों में क्षेत्रीयता की भावना का तेजी से विकास हुआ है और राष्ट्रीयता की भावना कमजोर पड़ी है उसके लिए एक प्रमुख कारक समाचार पत्रों का स्थानीय दर स्थानीय होते चले जाना भी है। देश के विभिन्न भागों में क्षेत्रवाद को ले कर हुयीं हिसंक घटनाओं को भी इससे जोड़ कर देखा जाना चाहिए।

इस सम्बन्ध में अखबार वालों का कहना है कि चूॅंकि जनता चटपटी और अपने आसपास की खबरें पसंद करती है इसलिए वे वैसी ही खबरें छापते हैं। कहना न होगा कि यह तर्क बहुत ही बचकाना और हास्यास्पद है। यह तो ठीक वही बात हुयी कि कोई व्यक्ति अपने घर सब्जी के लिए रोज सिर्फ आलू ही खरीद कर ले आए और कारण पूछने पर कहे कि उसके घर वाले तो सिर्फ आलू ही पसंद करते हैं। अरे भाई ! किसी दिन गोभी, परवल, या लौकी, भिण्डी भी तो ला कर देखो। हो सकता है घर वालों को ये सब्जियाॅं आलू से भी अधिक पसंद आने लगें। ठीक वैसे ही यदि गैरजरूरी स्थानीय खबरों के स्थान पर कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय खबरों को स्थान दिया जाय तो ऐसा नहीं कि पाठक उसे नकार देंगे। बल्कि उसका भी स्वागत करेंगे। आज यदि पाठकों की सोच हल्की हुयी है या रूचि विकृत हुयी है तो इसके लिए जिम्मेदार भी समाचार पत्र ही हैं।

एक दूसरा तर्क दिया जाता है ‘न्यूज वैल्य’ू का। यानी अखबार वाले वही न्यूज छापते हैं जिसकी पाठकीय वैल्यू हो। यह ‘न्यूज वैल्यू’ इतनी अस्पष्ट और व्यक्ति केन्द्रित चीज है कि इसकी कोई सामान्य परिभाषा हो ही नहीं सकती। हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग किस्म की न्यूज वैल्यू होगी या फिर एक ही न्यूज की अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग वैल्यू होगी। अखबार के मालिक के लिए उस न्यूज की अधिक वैल्यू होगी जो उसे अधिक मुनाफा दिला सके, एक रिपोर्टर के लिए उस न्यूज की वैल्यू अधिक होगी जो उसे स्थापित कर सके या उसकी न्यूसेंस वैल्यू बढ़ा सके, राजनीति से जुड़े लोगों के लिए उस न्यूज की वैल्यू अधिक होगी जो उन्हें राजनैतिक लाभ दिला सके और एक सामान्य जागरूक पाठक के लिए उस न्यूज की वैल्यू अधिक होगी जोे देश, प्रदेश और विदेश की सम-सामयिक घटनाओं को उस तक ईमानदारी से पॅंहुचा सके। लेकिन मैं नहीं समझता कि-‘पाॅंच बच्चों की माॅं प्रेमी के संग फरार’, शौच के लिए जा रही युवती के साथ छेड़छाड़’, ‘नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार’, प्रेमिका के चक्कर में पत्नी को घर से निकाला’, ‘जायदाद के बॅंटवारे को ले कर बेटे ने बाप को मारा’, ‘ट्रेन के अंदर बैठने की जगह को ले कर मार पीट’, ‘कुत्ते को बचाने के चक्कर में कार दुर्घटनाग्रस्त’ या ‘गृह कलह में पत्नी ने फाॅंसी लगायी’ आदि किस्म की खबरों की देश या समाज के लिए क्या न्यूज वैल्यू हो सकती है। लेकिन स्थिति यह है कि आज हिन्दी के अधिकांश बड़े अखबारों में तीन से चार तक पृष्ठ ऐसी ही उटपटाॅंग खबरों से भरे रहते हैं। यहीं यह बताना भी समीचीन है कि अधिकांश समाचार पत्र सिर्फ नकारात्मक खबरें ही प्रकाशित कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि समाज में सब कुछ खराब ही हो रहा हो, अच्छा कुछ हो ही नहीं। लेकिन समाचार पत्र आज जान-बूझ कर सकारात्मक घटनाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं।

दरअसल अखबार का प्रकाशन आज विशुद्ध रूप से व्यवसाय बन चुका है। वह दिन गए जब अखबार किसी आदर्श और उद्देश्य को ले कर निकाले जाते थे। आज अखबार धन कमाने, रोब जमाने, राजनीति में जाने, महत्वपूर्ण पद पाने, तथा नाना प्रकार के उद्योग, व्यवसाय चलाने के लिए सुविधाजनक साधन बन चुके हैं। अखबारों की आड़ में तमाम तरह के धंधे फल, फूल रहे हैं। आज पत्रकारिता तथा पीत पत्रकारिता के बीच की सीमा रेखा बहुत क्षीण हो गयी है और सेवा, समर्पण तथा उत्तरदायित्व की भावना का इस क्षेत्र से काफी हद तक लोप हो चुका है। अधिकाधिक पाठकों तक पॅंहुचने और अपने अधिक पाठक संख्या के बल पर अधिकाधिक विज्ञापन हथियाने के लिए अखबारों के मध्य जंग छिड़ी हुयी है। यह हर शहर से संस्करण निकालने और ‘सायकिल से कुत्ता टकराने’ या ‘पति-पत्नी के बीच के झगडे’ जैसी खबरें छापने की प्रवृति भी इसी जंग का परिणाम है। व्यवसाय करना या अपने व्यवसाय ये लाभ कमाना कोई गलत बात नहीं है लेकिन हर व्यवसाय की एक मर्यादा होती है और हर व्यवसायी से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने व्यवसाय की मर्यादा का ध्यान रखे। आज अखबारवाले अखबार के माध्यम से पद, प्रतिष्ठा और पैसा कमा रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन उन्हें पत्रकारिता के मूल उद्देश्य तथा परोसी जा रही खबरों की गुणवत्ता, एवं उपयोगिता का ध्यान जरूर रखना चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि खबरें राष्ट्रीय और व्यापक सरोकार से जुड़ी हों। ताकि अखबारों से पाठकों में स्थनीयता या क्षेत्रीयता न पनपे बल्कि राष्ट्रीयता, एवं सामाजिकताकी भावना को बढ़ावा मिल सके।

Related Stories