जो लोग साहित्य जगत के बारे में नजदीकी से नहीं जानते वे इस लेख का शीर्षक पढ़ कर थोड़ा चौक सकते हैं कि भला साहित्य की चोरी कैसे हो सकती है। ऐसे मित्रों को बताना चाहूॅंगा कि साहित्यमे चोरी नहीं सीधे डकैती होती है .भौतिक चीजों का चोर तो छुपता फिरता है, पकड़े जाने पर दण्ड़ित होता है और यदि समय रहते पकड़ लिया गया तो आपका चोरी गया माल वापस भी मिल सकता है। लेकिन साहित्य जगत की चोरी निराले किस्म की होती है। यहाॅं चोर छुपता, छुपाता नहीं बल्कि आपकी चीज खुलेआम चोरी करता है, चोरी की चीज को सीना तान कर अपना कहता है, उससे लाभ अर्जित करता है और आप असहाय से टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं। स्वंय के भोगे कुछ नमूने पेश है-
1-लगभग चार साल पहले की बात है मेरे विभाग के एक जूनियर अधिकारी जिनका परिवार लखनऊ में रहता है मिले तो बहुत खुशी और उत्साह के साथ बोले-‘‘सर, एक दिन मैं अपने बेटे की हिन्दी की पुस्तक पलट रहा था तो देखा कि उसमें आप की एक कहानी पढ़ाई जा रही है।’’
‘‘किस स्कूल में पढ़ता है आप का बेटा ?’ क्या कहानी मेरे नाम से है ?’ मैंने चैंक कर पूछा।
‘‘जी मेरा बेटा मिलेनियम पब्लिक स्कूल में पढ़ता है। उसके पाठ्यक्रम में हिन्दी की पुस्तक में आपकी कहानी है। कहानी के लेखक के रूप में आप का नाम छपा है।’’ उन्होंने बताया।
मुझको इस बात की जानकारी नहीं थी जाहिर सी बात है कि उस विद्यालय के पाठ्यक्रम के लिए पुस्तक तैयार करने वाले सज्जन ने किसी पत्रिका या मेरे किसी संकलन में मेरी कहानी देखी होगी और बगैर मुझसे पूछे या बताए उसे पुस्तक में शामिल कर लिया।
2- भिन्ड (मध्य प्रदेश) में रह रहे रचनाकार मित्र श्यामसुन्दर कोमल ने एक दिन फोन पर पूछा-‘‘भाई साहब, क्या आप को मालूम है यहाॅं कक्षा छः में पढ़ाई जा रही हिन्दी की पुस्तक में आप की एक कविता पढ़ाई जा रही है ?’’ मेरे द्वारा इस बात से अनभिज्ञता जाहिर करने पर उन्होंने उस पुस्तक के मुख पृष्ठ सहित प्रकाशक के नाम, पता व मोवाइल नम्बर वाले पृष्ठ और जिस पृष्ठ पर मेरी कविता छपी है उस पृष्ठ की तस्वीर खींच कर मेरे ह्वाट्स एप पर भेज दी। मित्र का कहना था कि मैं प्रकाशक से फोन पर बात करूॅं या पत्र लिख कर पूछूॅं कि उसने मेरी अनुमति के बगैर मेरी रचना का उपयोग क्यों किया। मैं जानता था कि कुछ होने वाला नहीं है फिर भी मित्र के बार-बार बहने पर मैंने प्रकाशक को एक पत्र लिख दिया। एक साल से अधिक समय बीत चुका है उधर से कोई उत्तर नहीं आया।
3- सुप्रसिद्ध वाल पत्रिका नंदन के उप सम्पादक भाई श्री अनिल जायसवाल जी ने गत वर्ष अवगत कराया कि दिल्ली के किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ाई जा रही हिन्दी की पुस्तक में मेरी बाल एकांकी संकलित है। उन्होंने पूछा कि क्या मुझे इस बात की जानकारी है ? मैंने कहा कि नही, मुझको तो इस बारे मं कुछ पता नहीं तो साक्ष्य के रूप में उन्होंने पुस्तक के उन पृष्ठों की तस्वीर भी भेज दी जिस पर मेंरे नाम सहित एकांकी छपी है।
4- कई साल पहले की बात है, जयपुर के एक मित्र ने फोन पर बताया कि वहाॅं के एक नाट्यदल ने मेरी एक बाल एकांकी का मंचन किया है जिसे काफी सराहा गया है। नाट्यदल के लोगों ने इतनी भलमनसाहत की थी कि एकांकी के प्रदर्शन के समय लेखक के रूप में मेरा नाम ही बताया था। जब मैंने इस जानकारी से अनभिज्ञता जाहिर की तो मित्र ने जयपुर के अखबार की कटिंग भेज दी जिसमें उक्त एकांकी के प्रदर्शन की खबर छपी थी। मैं परेशान कि न तो मैं जयपुर के किसी नाट्यदल को जानता हूॅं और न ही किसी ने मुझसे इस सम्बन्ध में बात की। फिर मेरी एकांकी वहाॅं पॅंहुची कैसे ? खोजबीन करने पर पता चला कि जयपुर से प्रकाशित बाल पत्रिका ‘बच्चों का देश’ में मेरी वह एकांकी प्रकाशित हुयी थी और नाट्यदल के लोगों ने वहाॅं से उसे ले लिया था। उन लोगों ने लेखक से पूछने की कोई जरूरत नहीं समझी और धडल्ले से मंचन कर लिया।
5- वर्ष 2015 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में मिले एक मित्र ने जानकारी दी कि दिल्ली के एक प्रकाशक ने हिन्दी बाल साहित्य पर एक आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित की है जिसमें छपे लेखों में एक लेख मेरा भी शामिल है। पुस्तक का सम्पादन दिल्ली की एक प्रसिद्व पत्रिका के उप सम्पादक ने किया है। मुझको उस पुस्तक के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मित्र से नम्बर ले कर मैंने उक्त पुस्तक के सम्पादक महोदय को फोन किया और अपनी नाराजगी जाहिर की कि एक तो उन्होंने मुझे बताए बगैर चोरी से मेरा लेख अपनी पुस्तक में शामिल कर लिया और दूसरे मुझे पुस्तक की प्रति तक नहीं भिजवाई। मैंने थोड़ी कड़ाई से बात की तो सम्पादक महोदय फोन पर गिड़गिड़ाने लगे। कहने लगे-‘‘सर, आप इतने वरिष्ठ लेखक हैं....मैं बचपन से आपकी रचनायें पढ़ता आ रहा हूॅं....आप जैसों की रचनायें पढ़ कर मैंने लिखना सीखा है....मेरे पास आपका सम्पर्क नम्बर नहीं था इसलिए आप से बात नहीं कर सका......आप का वह लेख आजकल में छपा था ------बहुत अच्छा लेख था इसलिए पुस्तक में ले लिया ---- गलती हो गई.......मैं आप के छोटे भाई जैसा हूॅं ।’’ इतना सुनने के बाद तो मुझे शान्त होना ही था। मैंने कहा कि चलिए जो हुआ सो हुआ, आप पुस्तक की एक प्रति भिजवा दीजिए। श्रीमान जी ने एक के बजाय पुस्तक की दो प्रतियाॅं भिजवा दीं।
6- और यह घटना तो बहुत ही मजेदार है। बात सन् 2002 की है जब मैं मेरठ में नियुक्त था। एक दिन एक सज्जन मेरे आफिस में अपने काम से आए। उन्होंने अपना परिचय सुधाकर आशावादी के रूप में दिया और बताया कि वह एक साहित्यिक पत्रिका भी निकालते हैं। मैंने उनको अपना साहित्यिक परिचय नहीं दिया। उनको इज्जत से बिठाया और उनका कार्य सुगमता से कर दिया। जाते समय उन्होंने अपनी पत्रिका का एक अंक मुझको भेंट स्वरूप दिया जिसे कार्य में व्यस्त होने के कारण मैंने अपनी टेबिल की दराज में ड़ाल दिया।
अगले दिन सवेरे फुरसत में मैंने दराज से उनकी पत्रिका निकाली और पलटने लगा तो यह देख कर चौक गया कि उसमें मेरी एक लघुकथा मेरे नाम सहित छपी थी। आश्चर्य यह कि न तो मैं सुधाकर आशावादी नामक उन सज्जन को जानता था और न ही उनकी पत्रिका क्रभी देखी थी। मेरे कार्यालय में राजेन्द्र पाल सक्सेना नाम के बड़े बाबू थे जो मेरठ के ही स्थानीय निवासी थे। मैंने उनसे पूछा कि कल जो सज्जन आए थे क्या आप उनको जानते है ? बड़े बाबू ने कहा कि हाॅं साहब वह सुधाकर शर्मा है जो फलां का बेटा है....फलां जगह रहता है....अखबार वगैरह में लिखता रहता है....क्यों कोई खास बात ? मैंने बड़े बाबू को कुछ बताया नहीं सिर्फ इतना कहा कि मैं उन सज्जन से मिलना चाहता हूॅं। उनको खबर भेज कर किसी दिन बुलवा लेना। बड़े बाबू ने खबर भेजी तो दूसरे या तीसरे दिन वह महोदय आ गए।
मैंने उनको बहुत आदर के साथ बिठाया, पानी पिलवाया, चाय मॅंगवायी और चाय पीते हुए पूछा-‘‘आप की इस पत्रिका में एक लघुकथा छपी है अखिलेश श्रीवास्तव चमन के नाम से, ये कौन हैं, कहाॅं रहते हैं ?’’
‘‘अरे, ये मेरे बहुत पुराने मित्र हैं......ये इलाहाबाद में रहते हैं।’’ उन्होंने बताया।
‘‘अच्छा....? ये उनकी लघुकथा आपको कहाॅं से मिली ?’’ मैंने दूसरा प्रश्न किया।
‘‘बताया न कि वे मेरे मित्र हैं....अपनी रचनायें मेरे पास भेजते रहते हैं।’’ उन्होंने बहुत आराम से उत्तर दिया।
‘‘क्या आप कभी मिले हैं चमनजी से ?’’ मैंने अगला प्रश्न किया।
इस बार उत्तर देने में वह थोड़ा सकपकाए फिर बोले-‘‘नहीं चमनजी से मेरी मुलाकात तो नहीं है लेकिन पत्र-व्यवहार होता रहता है उनसे।’’
‘‘तो चलिए आज चमनजी से मिल भी लीजिए....मेरा ही साहित्यिक नाम अखिलेश श्रीवास्तव चमन है।’’ मैंने हॅंसते हुए कहा। इतना सुनना था कि महोदय के होश फाख्ता हो गए। फिर बताया उन्होंने कि यह लघुकथा दैनिक जागरण के साप्ताहिक परीशिष्ट में छपी थी। उनको अच्छी लगी तो उन्होंने अपनी पत्रिका में छाप ली।
ये तो कुछ ऐसे प्रकरण हैं जो सज्ञान में आ गए लेकिन न जाने कितने ऐसे प्रकरण होंगे जिनकी जानकारी ही नहीं होगी . चलिए, ऊपर बताये गए प्रकरणों में कम से कम इतनी तो गनीमत थी कि मेरी रचनायें मेरे ही नाम से प्रकाशित की गयीं थीं। बहुत सारे वीर तो ऐसे भी हैं जो दूसरों की रचनायें धडल्ले से अपने नाम से छपा लेते हैं। लखनऊ में एक महान बालसाहित्यकार हैं जिनके नाम के आगे पुरस्कारों और सम्मानों की लम्बी फेहरिश्त है। किसी भी सभा-समारोह में अपने मुॅंह अपनी तारीफों की झड़ी लगा देते हैं वे। कुछ वर्षों पूर्व एक पत्रिका में उनकी एक बाल कहानी छपी थी। कहानी के छपने के कुछ दिनों के बाद उत्तराखण्ड के एक बालसाहित्यकार ने बताया कि वास्तव में वह कहानी उनकी कहानी है जो कई वर्षों पूर्व अमर उजाला अखबार के साप्ताहिक परीशिष्ट में छप चुकी है। हमारे लखनऊके लेखक महोदय ने प्रतिवाद किया तो उत्तराखण्ड़ के लेखक ने प्रमाण के रूप में सोशल मीडिया पर अमर उजाला की तथा लखनऊ के लेखक महोदय की कहानियों की छायाप्रतियाॅ प्रस्तुत कर दी। देखने में आया कि लखनऊ के लेखक महोदय ने सिर्फ इतना किया था कि अपनी कहानी में पात्रों के नाम बदल दिए थे। शेष पूरी कहानी ज्यों की त्यों थी। इसीप्रकार इलाहाबाद में भी एक महान लेखक हैं जिन्होंने सौ से अधिक किताबें लिख ड़ाली हैं और सैकड़ों पुरस्कार पा लिए हैं। वह श्रीमानजी इतने हिम्मती हैं कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व0 विष्णुकांत पाण्ड़ेय जी की कवितायें अपने नामसे छपवा लीं थीं। उनकी खूब थुक्का-फजीहत हुयी लेकिन उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। हिन्दी के एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित कहानीकार के बारे में कहा जाता है कि एक नवोदित लेखक ने अपनी एक कहानी उनको देखने के लिए दी तो उसमें मामूली फेर-बदल कर के उन्होंने दिल्ली की एक पत्रिका में अपने नाम से छपवा ली। पिछले दिनों लखनऊ के एक स्वनामधन्य लेखक महोदय का एक उपन्यास आया है जिसकी काफी चर्चा हुयी है। उपन्यास छपने के तत्काल बाद कोलकाता से प्रकाशित एक पत्रिका ने सप्रमाण रहस्योद्घाटन किया कि उपन्यास का कथ्य मौलिक नहीं बल्कि भोजपुरी के मशहूर लोक कलाकार स्व० भिखारी ठाकुर के एक नाटक से लिया गया है। कहाॅं तक कहा जाय इस प्रकार की साहित्यिक चोरियों के किस्से अनंत हैं।