रोमांस
कहानी
कुछ लोगों की कद-काठी ही ऐसी होती है, उम्र को धता बताने वाली। शरीर की बनावट से उनकी उम्र का सही अनुमान नहीं लग पाता है। वैसे भी अब अपनी वास्तविक उम्र का दिखना चाहता ही कौन है। विशेष रूप से बढ़ती उम्र को छिपाने का जतन तो हर कोई करता है। इसके लिए आज प्लास्टिक सर्जरी, हेयर ट्रांसप्लांट, हेयर डाई और कलर से ले कर फेसियल, मसाज आदि न जाने कितने प्रकार के उपाय भी सहज उपलब्ध हैं। सक्सेना के साथ भी कुछ ऐसा ही था। उम्र के हिसाब से तो वह चालिस पार कर चुका था लेकिन देखने में तीस-बत्तीस साल से अधिक का नहीं लगता था। लम्बा कद, खिलता गोरा रंग, इकहरा गठीला शरीर और करीने से कढ़े काले, घने, घुॅंघराले बालों का स्वामी राकेश सक्सेना किसी को भी प्रथम दृष्टि में ही आकर्षित कर लेने की क्षमता रखता था। बातचीत करने का अंदाज भी उसका खास ही था।
सुन्दर पत्नी तथा किशोर हो रहे दो बच्चों का पिता होने के बावजूद सक्सेना बहुत रंगीन तबियत का आदमी था। कहीं कोई सुन्दर युवती या लड़की दिखी नहीं कि उसके मुॅंह से लार टपकने लगती थी। वह उसके आगे-पीछे ड़ोलने लगता था। दायें-बायें ताक-झॉंक करने लगता था। उस तक पहॅंुचने के प्रयास में लग जाता था। छैल-छबीला जवान दिखने के लिए वह रहता भी खूब बन-सॅंवर कर था। क्या मजाल कि उसके जूते की पॉलिस की चमक जरा सी भी फीकी पड़ जाए। क्या मजाल कि उसके सिर में एक भी सफेद बाल दिख जाय। या कि उसके कपड़ों पर कोई दाग, धब्बा या शिकन दिख जाय। इन सब बातों के प्रति बहुत अधिक सचेत रहता था वह।
सक्सेना अपने आफिस के कुछ काम से बरेली गया हुआ था। वहॉं से लौटते समय जब ट्रेन शाहजहॉंपुर में रुकी तो कंधे से एयर बैग लटकाए एक गोरी, छरहरी, मासूम सी लड़की उसी ड़िब्बे में चढ़ी जिसमें वह बैठा हुआ था। ट्रेन का वह जनरल ड़िब्बा पहले से ही अपनी औकात के मुकाबले दोगुनी सवारियों से ठसाठस भरा हुआ था। बैठने या शरीर टिकाने के लिए जगह तलाशती वह लड़की ड़िब्बे के अंदर घुसती चली गयी। कहीं कोई गुंजाइश न देख उसने एयरबैग को कंधे से उतार कर खिड़की के ऊपर बने हुक में लटकाया और साइड वाली सीट का सहारा ले कर चुपचाप खड़ी हो गयी। लम्बी वाली सीट पर किनारे की तरफ बैठे सक्सेना ने उसको दरवाजे के अंदर घुसते समय ही देख लिया था और यह भी संयोग ही था कि वह आ कर सक्सेना के ऐन सामने वाली सीट के पास ही खड़ी हो गयी थी। उस लडकी के आते ही सक्सेना की लोलुप निगाहें उसको सिर से ले कर पैर तक तौलने लगी थीं। सुन्दर, जवान और निपट अकेली लड़की को देख कर उसके मन में शरारत के कीड़े कुलबुलाने लगे थे। लार टपकने लगी थी। उसका खुराफाती दिमाग तेजी से चलने लगा था।
‘‘आइए मैडम.....आइए, इधर बैठ लीजिए।’’ थोड़ा खिसक कर, थोड़ा सिकुड़ कर, बगल वाले को थोड़ा धकिया कर सक्सेना ने अपने बगल में जरा सी जगह बनाई और लड़की को वहॉं बैठने के लिए ईशारा करते हुए बोला। लड़की बगैर कुछ बोले आयी और सक्सेना द्वारा इंगित बित्ते भर जगह पर किसी तरह से टिक गयी।
‘‘कहॉं जाना है मैड़म ? मतलब आपको भी लखनऊ तक जाना है क्या....?’’ सक्सेना ने अपने आप को थोड़ा और समेटते, थोड़ा और खिसकते हुए पूछा।
‘‘जी....।’’ लड़की ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और मुॅंह घुमा कर खिड़की से बाहर की ओर देखने लगी।
‘‘लखनऊ में कहॉं रहती हैं आप...?’’ बातचीत आगे बढ़ाने की गरज से सक्सेना ने दूसरा प्रश्न किया लेकिन लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया। अपने आप में सिमटी वह खामोश बनी खिड़की के बाहर देखती रही।
आस-पास के सभी यात्रियों की निगाहें सक्सेना की ओर उठ गयी थीं। सभी ताड़ रहे थे कि वह अकेली लड़की देख कर उसको छेड़ रहा है। उस पर ड़ोरे ड़ालने का कुत्सित प्रयास कर रहा है। उसकी हरकत से कुछ लोग मन ही मन गुस्सा हो रहे थे तो कुछ उसके प्रति ईर्ष्या से भर उठे थे। लेकिन जैसा कि ऐसे मौकों पर अमूमन होता है, कोई कुछ बोल नहीं रहा था।
बातचीत और आगे बढ़ने की कोई गुंजाइश न देख सक्सेना खामोश तो हो गया लेकिन अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। वह कभी लड़की की पीठ पर हाथ फिरा देता तो कभी उसके पैरों से पैर सटा देता। कभी सीधे होने की कोशिश में अपनी कोहनी से उसके सीने की गोलाइयों को हल्के से दबा देता तो कभी नींद की झपकी के बहाने उसके कंधों पर सिर टिका देता था। इस प्रकार शाहजहॉंपुर से लखनऊ तक पूरे रास्ते वह किसी न किसी बहाने लड़की का स्पर्श-सुख लेता हुआ आया।
लड़की लखनऊ स्टेशन आने से कुछ पहले ही अपना बैग ले कर गेट पर पॅंहुच गई थी और ट्रेन के रुकते ही उतर कर, तेज कदमों से चलती भीड़ के रेले में गुम हो गयी थी। ट्रेन से उतरने के बाद सक्सेना ने उसको ढ़ूॅंढ़ने की भरपूर कोशिशें कीं लेकिन वह दिखी नहीं। फिर भी वह मन ही मन प्रमुदित था कि उसकी आज की यात्रा बहुत अच्छी बीती।
बात आयी-गयी हो गयी। लगभग बीस, पच्चीस दिनों बाद की बात है। शाम का समय था। सक्सेना चौक में टहल रहा था और आदतन राह चलती लड़कियों को घूर रहा था कि सहसा एक चेहरा देख कर चौंक गया।
‘‘अरे ! यह तो वही लड़की है जो बरेली से आते समय ट्रेन में मिली थी उस दिन।’’ उसने अपने आप से कहा और लम्बे-लम्बे ड़ग भरता लड़की की तरफ बढ़ चला। लड़की के पास तक पॅंहुचते-पॅंहुचते वह उसकी पहचान को ले कर आश्वस्त हो चुका था। वह कुछ बोलता उससे पहले ही लड़की एक दुकान के भीतर घुस गयी। वह दुकान के बाहर फुटपाथ पर खड़ा हो गया और लड़की के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगा।
थोड़ी देर के बाद प्लास्टिक के थैले में कुछ सामान लिए लड़की दुकान से बाहर निकली।
‘‘हलो मैडम ! गुड इवनिंग।’’ वह दुकान की सीढ़ियों के पास बढ़ आया और लड़की की तरफ एक मोहक मुस्कान फेंकते हुए बोला।
सक्सेना को अचानक सामने देख और उसका सम्बोधन सुन कर लड़की अचकचा सी गयी। उसने भी सक्सेना को पहचान लिया था। उसके चेहरे पर हैरानी और परेशानी के भाव उभर आए। दुकान की सीढ़ियॉं उतरते उसके पॉंव खुद-ब-खुद ठिठक गए।
‘‘कहिए मैडम....पहचाना मुझे ?’’ सक्सेना ने शरारत से ऑंखें नचाते हुए पूछा।
‘‘जी...।’’ लड़की ने सकुचाते, घबड़ाते, अपने सूखे गले को थूक निगल कर तर करते हुए उत्तर दिया।
‘‘अरे भई ! उस दिन ट्रेन में भेंट हुयी थी अपनी। लेकिन उस भीड़-भाड़ में आपसे जान-पहचान करने का मौका ही नहीं मिल पाया था। जब एक ही शहर में रह रहे हैं अपन तो जान-पहचान तो होनी ही चाहिए न। क्यों ?’’
लड़की ने कोई जबाब नहीं दिया। खामोश खड़ी रही।
‘‘आइए कहीं बैठते हैं....आपके साथ एक प्याली चाय पीते हैं।’’
‘‘जी नहीं। मुझे घर जाना है।’’ लड़की ने कहा और दुकान की सीढ़ियॉं उतर कर जाने लगी।
‘‘अरे ! तो मुझे ही कौन सा यहीं खड़े रहना है। घर तो मुझे भी जाना है। बड़े भाग्य से तो आप के दर्शन हुए हैं....पता नहीं फिर दोबारा कभी भेंट हो कि न हो।’’ उसने कहा और लपक कर लड़की के हाथ से सामान का थैला ले लिया।
लड़की के पॉंव फिर ठिठक गए। सक्सेना बिल्कुल ढ़िठाई पर उतर आया था। लड़की तय नहीं कर पा रही थी कि करे तो क्या करे। एक बार जी में आया उसके कि चिल्ला पड़े। शोर मचा दे कि यह शोहदा उसके साथ छेड़खानी कर रहा है। भीड़ के हाथों उसकी मरम्मत करा दे। लेकिन बात बढ़ने और थाना-पुलिस तक पहॅंुचने के ड़र से हिम्मत ने साथ नहीं दिया।
‘‘मेरा थैला दीजिए प्लीज....। मुझे घर जाना है.....देर हो रही है।’’ परेशान लड़की ने मारे घबड़ाहट के हकलाते हुए कहा।
‘‘क्यों भई......? क्या मैं इतना बुरा हूॅं कि आपको मेरे साथ एक प्याली चाय पीना भी मंजूर नहीं ? ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते मैडम। आइए.....चलिए....मान जाइए। यू आर ए क्यूट गर्ल। रिएली यू आर वेरी...वेरी...वेरी लवली एण्ड चार्मिंग। कम आन प्लीज।’’ लड़की को कुछ और बोलने का मौका दिए बगैर सक्सेना ने सर को जुम्बिश देते, ऑंखें मटकाते इसरार किया और अपने साथ आने का ईशारा करते आगे बढ़ गया।
अपनी तारीफ सुन और सक्सेना की अदा देख कर लड़की पर जैसे सम्मोहन सा छाने लगा था। वह कुछ पल ठिठकी खड़ी रही फिर मंत्र-मुग्ध सा सक्सेना के पीछे हो ली। सक्सेना चौराहे से बायें मुड़ कर थोड़ा आगे एक छोटे से रेस्टोरेन्ट में घुसा और सबसे आखिरी, कोने वाली सीट पर जा कर बैठ गया। उसके पीछे-पीछे आती लड़की भी आ कर उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गयी।
‘‘क्या खायेंगी आप....? डोसा, समोसा, चाट या कुछ और ?’’ उसने लड़की की ऑंखों में ऑंखें डालते हुए पूछा।
‘‘जी...जी...कुछ नहीं। कुछ नहीं....बस चाय।’’ लड़की ने हकलाते हुए कहा। उसका गला सूखता जा रहा था। मारे घबराहट के उसके मुॅंह से बोल नहीं निकल रहे थे। वह अपने आप में सिमटती जा रही थी। उसे लग रहा था जैसे वह कोई बहुत बड़ा अपराध कर रही हो और वहॉं रेस्टोरेन्ट में बैठे सारे लोग बस उसी को देख रहे हों। कहीं ऐसा न हो कोई मौसी, मौसा का परिचित उसको देख ले और जा कर उन्हें बता दे। मारे ड़र के उसका दिल धौंकनी की तरह चल रहा था।
‘‘अरे वाह....! ऐसा कैसे हो सकता है भला ? मैं इतना गया-बीता नहीं हूॅं कि आप जैसी खूबसूरत मेहमान को पहली मुलाकात में बस खाली चाय पर ही निपटा दूॅं। कुछ न कुछ तो आपको लेना ही पड़ेगा।’’ सक्सेना ने पूरे अधिकार के साथ कहा। इतने में बेयरा मेज के पास आ कर खड़ा हो गया।
‘‘ऐसा करो....दो प्लेट स्पेशल पनीर ड़ोसा ले आओ। फिर उसके बाद दो कप बढ़िया सी कॉफी। और हॉं, पानी अपने मटके का मत दे देना.....बिसलरी का बोतल रख जाओ एक।’’ उसने बेयरे को आर्डर दिया।
‘‘आप बाकई बहुत खूबसूरत हैं। लगता है ईश्वर ने खूब फुरसत में गढ़ा होगा आपको।’’ बेयरा के जाने के बाद सक्सेना ने शरारत से मुस्कराते हुए कहा तो लड़की के गाल लाल हो गए। उसने शरमा कर निगाहें नीचे कर लीं।
‘‘मैंने तो आपको दूर से ही देख कर पहचान लिया था। जब आप दुकान के अंदर जा रही थीं तभी। दरअसल आपका चेहरा है ही इतना सुन्दर और यूनीक, हजाऱों में एक कि जो भी एक बार देख ले जिन्दगी भर ना भूल सके।’’ सक्सेना ने आगे जोड़ा।
लड़की के मन में फुलझड़ियॉं छूटने लगी थीं। उसके अंदर पसरा भय का कोहरा धीरे-धीरे छॅंटने लगा था। यह पहला मौका था जब कोई मर्द इतने निकट बैठा, इस प्रकार खुल कर उसकी तारीफ कर रहा था। वह खुशी और लाज के मारे दुहरी होती जा रही थी। अंदर ही अंदर पिघलती जा रही थी। उसका चेहरा लाल हो आया था, ऑंखें हॅंस रही थीं, मुॅंह से बोल नहीं फूट रहे थे, रोम-रोम जैसे कान बन गया था और मन बेकाबू होता जा रहा था। उसका जी कर रहा था कि सक्सेना बस यूॅं ही बोलता रहे, उसकी तारीफ करता रहे और वह सुनती रहे।
इतने में बेयरा पानी की बोतल, गिलास और डोसे की प्लेट रख गया।
‘‘वैसे नाम क्या है आपका...?’’ सक्सेना ने कॉंटे से काट कर डोसे का टुकड़ा मुॅंह में ड़ालते हुए पूछा।
‘‘जी...रुचि। रुचि गुप्ता।’’
‘‘वाह ! क्या नाम है ? जितनी सुन्दर और अफेक्सनेट आप खुद हैं उतना ही सुन्दर और अफेक्सनेट आपका नाम भी है।’’
‘‘आप तो बेवजह बना रहे हैं मुझको। इसमें खास क्या है भला.....? इतना सिम्पल सा तो नाम है।’’ लड़की ने इतराते हुए कहा। अब वह आहिस्ता-आहिस्ता खुलने लगी थी।
‘‘ऐसा है मैडम ! हीरा अपनी कीमत खुद नहीं जानता है। खदान में कोयले के साथ पड़ा रहता है। वह तो जौहरी है जो उसको पहचानता है और उसकी सही कीमत ऑंकता है।’’ सक्सेना ने आगे जोड़ा।
‘‘अच्छा अब चुप रहिए....बनाइए मत। झूठ-मूठ की तारीफ न करिए। तब से बुद्धू बनाए चले जा रहे हैं मुझको।’’ लड़की ऑंखें मटकाते हुए बोली।
‘‘बुद्धू नहीं बना रहा हूॅं मैडम....बिल्कुल सच्ची बात कह रहा हूॅं। आप सुन्दर हैं इसलिए सुन्दर कह रहा हूॅं। अब यदि सुन्दर को सुन्दर न कहा जाय, अच्छी चीज को अच्छा न कहा जाय, मीठे को मीठा न कहा जाय तो फिर क्या कहा जाय ? बताइए...?’’ सक्सेना ने लड़की के चेहरे पर ऑंखें गड़ाते हुए कहा।
ऑंखें सक्सेना की ऑंखों से टकरायीं तो लड़की के भीतर कुछ खदबदाने सा लगा। उसने शरमाते हुए अपनी ऑंखें नीचे कर लीं और कॉफी सुड़कने लगी।
‘‘वैसे आप यहॉं लखनऊ में रहती कहॉं हैं.....? भूमिका बना चुकने के बाद सक्सेना आहिस्ता से मतलब वाली बात की तरफ बढ़ा।
‘‘जी...वो ठाकुरगंज में।’’
‘‘ठाकुरगंज में किधर है आपका घर.....? आपके पिताजी क्या करते हैं ?’’
‘‘जी, मैं यहॉं की रहने वाली नहीं हूॅं। शाहजहॉंपुर की रहने वाली हूॅं। मेरा घर शाहजहॉंपुर में है। पापा वहीं टीचर हैं एक इंटर कालेज में।’’
‘‘तो फिर आप यहॉं कैसे....?’’
‘‘जी, मैं यहॉं अपनी मौसी के घर रह कर पढ़ाई कर रही हूॅं। इसी साल शाहजहॉंपुर से इण्टर पास किया है मैंने। मेरे पापा की इच्छा है कि मैं डाक्टर बनूॅं इसलिए यहॉं पी0एम0टी0 की कोचिंग कर रही हूॅं। और साल न बर्बाद जाए इसलिए बी0एस0सी0 में भी एड़मिशन ले लिया है मैंने।’’
लड़की का उत्तर सुनते ही सक्सेना को एक करेंट सा लगा। उसकी ऑंखों के सामने अचानक अपनी बेटी जूही का मासूम चेहरा घूम गया जो इस साल इण्टर फाइनल ईयर में पढ़ाई कर रही थी। खुद उसका भी सपना है कि उसकी बेटी ड़ाक्टर बने इसलिए उसने बेटी का पी0एम0टी0 की कोचिंग में भी एडमिशन करा रखा था। उसे लगा जैसे उसके सामने रुचि नहीं जूही बैठी है। उसकी अपनी बेटी जूही सक्सेना। फिर तो उसकी ऑंखों की चमक बुझ गयी। उसके चेहरे की रंगत अचानक बदल गई। वह कुछ देर के लिए बिल्कुल खामोश हो गया।
‘‘तुम इतनी दूर से यहॉं पढ़ने के लिए आयी हो। तुम्हारे मॉं-बाप ने बहुत भरोसा कर के, बहुत विश्वास के साथ भेजा है तुमको। तो फिर यहॉं चौक, बाजार में अकेली टहल क्यों रही हो ?’’ सक्सेना का स्वर अचानक बदल गया। उसने लड़की को डपटते हुए पूछा।
सक्सेना के मन में चल रहे उथल-पुथल से अनजान लड़की उसकी ड़ॉंट सुन कर हैरान रह गयी। वह समझ नहीं पायी कि यह एकाएक उसको हो क्या गया। अभी एक मिनट पहले तक तो वह बड़े प्यार से हॅंस-हॅंस कर बातें कर रहा था, उसकी तारीफ करते नहीं थक रहा था फिर अचानक यह डॉंट-डपट क्यों करने लगा। अभी एक मिनट पहले तक तो वह आप, आप की रट लगाए हुए था, फिर अचानक तुम-ताम पर क्यों उतर आया।
‘‘जी, मैं अपनी मौसी से पूछ कर आयी हूॅं। और घूमने नहीं.....कुछ जरूरी सामान खरीदने थे इसलिए आयी हूॅं।’’ लड़की ने सहमी सी आवाज में कहा।
‘‘सामान खरीदने आयी थी तो सामान खरीद कर सीधे घर जाती। मेरे कहने पर यहॉं रेस्टोरेन्ट में क्यों चली आयी ? और मैंने जरा सी तारीफ कर दी....सुन्दर कह दिया....क्यूट बोल दिया तो इतराने लगी। फूल कर कुप्पा हो गयी। अगर इतनी जल्दी बहकने लगोगी तब तो फिर तुम कर चुकी पढ़ाई और बन चुकी डाक्टर। चलो उठो....रिक्सा पकड़ो और अपने घर जाओ। और ध्यान रहे आइन्दा से इस प्रकार किसी के बहकावे में नहीं आना। पढ़ाई करने के लिए आयी हो तो जी लगा कर पढ़ाई करो। अपने मॉं-बाप का भरोसा मत तोड़ो। समझी ?’’ सक्सेना ने लड़की के सिर पर प्यार से चपत लगाते हुए कहा और अधखाया डोसा व कॉफी का प्याला वैसे ही छोड़ कर पैसा चुकाने काउण्टर की ओर बढ़ गया।
अप्रत्याशित रूप से घटी उस घटनाक्रम से चकित, बेतरह हैरान लड़की चुपचाप उठी और रेस्टोरेण्ट से बाहर निकल गयी। सक्सेना का पल में तोला, पल में माशा व्यवहार एक गूढ़ पहेली की तरह उसके दिमाग को परेशान कर रहा था।