नौकरी की उम्मीद में पढ़ते-पढ़ते उसने बी0ए0, एम0ए0 और बीएड़0 तक की ड़िग्रियाॅं बटोर लीं लेकिन उसको नौकरी नहीं मिल सकी। फिर उसने टाइपिंग सीखी, शार्ट हैण्ड़ सीखी और एक के बाद एक दर्जनों प्रतियोगी परीक्षायें तथा साक्षात्कार दे ड़ाले लेकिन नौकरी नहीं मिली तो नहीं मिली। लगातार असफलता के कारण उसका आत्म विश्वास चुकने लगा, उत्साह ठंढ़ा पड़ने लगा और उसके दिलो-दिमाग पर गहरी निराशा हावी होने लगी। उसने महसूस किया कि उसके प्रति घर वालों के व्यवहार में भी अब पहले की सी तरलता और सहानुभूति नहीं रह गयी थी। अपनी सामथ्र्य भर पढ़ा चुकने के बाद अब घर वाले भी उससे कुछ उम्मीदें करने लगे थे। उसे लगता था मानो अपने घर वालों पर वह बोझ है। अब उसके दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गयी थी। उसे कोई भी रास्ता नहीं सूझ रहा था कि आखिर करे तो क्या करे ।
अंततः जब कुंठा और हताशा की हद हो गयी तो एक दिन उसने एक भयानक निर्णय ले लिया। उसने सोचा कि जब पच्चीस-छब्बीस वर्ष की उम्र तक पूरी निष्ठा और लगन के साथ कलम थामने के बाद भी इन हाथों को कोई काम नहीं मिल सका तो फिर उस कलम की उपयोगिता ही क्या ? बेहतर है कि इन हाथों में कलम की बजाय कुछ और पकड़ा जाय जिससे कुछ कमाई का जुगाड़ हो सके। उसने किसी बहाने अपनी माॅं से दो सौ रूपए माॅंगे और शहर जा कर एक बड़ा सा चाकू खरीद लाया ।
अगले दिन शाम के वक्त वह अपने कस्बे के बाहरी छोर पर स्थित रेलवे लाइन के उस पार नहर की पुलिया पर किसी शिकार की तलाश में बैठा था। कुछ देर बाद उसने देखा कि दूर बगीचे के पास खेतों की पगड़ंड़ी पर एक अकेली बुढ़िया सिर पर एक बड़ी सी गठरी रखे चली जा रही थी। सूनसान रास्ते पर अकेली बुढ़िया को देखते ही उसकी आॅंखों में चमक आ गयी। ‘‘बुढ़िया की टेंट में अधिक नहीं तो बीस-पच्चीस रूपए तो होंगे ही...। उसके शरीर पर सोने के न सही चाॅंदी के ही एकाध जेवर तो होंगे ही...। चलो पहले ही दिन बोहनी अच्छी हुयी।’’ उसने मन ही मन सोचा और लम्बे-लम्बे ड़ग भरता बुढ़िया की तरफ बढ़ चला। उसका दाहिना हाथ पैंट की जेब में रखे चाकू की मूठ पर था।
थोड़ी देर बाद जब वह बुढ़िया के निकट पॅंहुचा उस समय वह अपनी गठरी जमीन पर रख कर बैठी हाॅंफ रही थी। उसको देखते ही बोल पड़ी-‘‘बेटा ! भगवान तुम्हारा भला करे। जरा यह गठरी मेरे सर पर उठवा दो। बहुत भारी है....अकेले उठ नहीं रही है मुझसे।’’
हाॅंफ रही बुढ़िया की आशा भरी निरीह नजरों से नजरें मिलते ही उसके मन का संकल्प हवा हो गया और चाकू की मूठ पर कसी उसकी अंगुलियाॅं स्वतः ढ़ीली पड़ गयीं। किसी सम्मोहन के वशीभूत सा उसने बगैर कुछ बोले बुढ़िया की गठरी उठा कर अपने कंधे पर रख ली और उसके साथ चल पड़ा।
थोड़ी देर बाद वह बुढ़िया को सकुशल उसके घर पॅंहुचा कर लौट रहा था। थोड़ी देर पहले तक हताश, निराश वह अब आशाओं से लबरेज था। अब दूर-दूर तक उसे रास्ता ही रास्ता नजर आ रहा था।