राष्ट्रभक्त
कहानी
आॅंखें लग गयीं थीं। पहली नींद की खुमारी में जा चुका था मैं। अचानक धम्म्-धम्म् की आवाज से नींद टूट गयी। ऐसा लगा जैसे कोई बाहर घर का गेट पीट रहा हो। पहले सोचा शायद मन का भ्रम या कोई सपना होगा इसलिए जगने के बाद भी चुपचाप पड़ा रहा। लेकिन अगले ही पल जब धम् धम् धम् धम् की आवाज तेज हो गयी और उसकी पुनरावृत्ति भी बढ़ गयी तो बिस्तर से निकल कर मैंने बत्ती जला दी। तब तक पत्नी भी जग कर बिस्तर से बाहर आ गयीं। घड़ी देखा तो रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। आशंकाओं में ड़ूबे, आमने-सामने खड़े हम पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रश्नवाचक नजरों से देखने लगे। उधर मेन गेट पर धम्म्-धम्म् की आवाज जारी थी।
‘‘कौन हो सकता है इतनी रात को ?’’ पत्नी ने पूछा।
‘‘पता नहीं.....देखते हैं।’’ मैंने कहा और कमरे का दरवाजा खोल कर गेट की ओर बढ़ गया। बाहर की बत्ती जलाया तो देखा कि मियाॅं गेट पकड़े खड़ा था।
‘‘क्या बात है मियाॅं...?’’ मैंने गेट का ताला खोलते हुए पूछा।
‘‘बाबू.....आमार पोइसा....।’’
‘‘पैसा.....?’’
‘‘हाॅं बाबू....आमार सब पोइसा दे दोे.....अम इआं से जा रहा है। ऊ लोग अमें इआं नई रहने देगा।’’ मियाॅं ने रूआॅंसी आवाज में कहा। तब तक मैं गेट खोल चुका था। गेट खोलते ही मियाॅं की औरत तथा उसकी दोनों बेटियाॅं भी दिख गयीं जो चहारदीवारी की ओट में खड़ी थीं। उन तीनों के ही हाथों में प्लाटिक की छोटी-छोटी बोरियों को एक साथ सिल कर बनाए गए बड़े-बड़े थैले थे जैसा कि कूड़ा बीनने वालों के कंधों पर हुआ करता है। उन थैलों में ठूॅंस-ठूॅंस कर सामान भरे हुए थे। उसके अलावे पुराने चादर में बॅंधी एक बड़ी सी गठरी भी थी जो जमीन पर मियाॅं के पैरों के पास रखी हुयी थी। और उसके बगल में रस्सी से बॅंधे बाॅंस के कुछ ड़ंड़े रखे थे। यानी मियाॅं का पूरा परिवार और पूरी गृहस्थी मेरे सामने थी।
‘मियाॅं’। जी हाॅं, मैं उसको मियाॅं कह कर ही बुलाता हूॅं। नाम नहीं जानता उसका। न तो मैंने कभी पूछने की जरूरत समझी और न ही उसने कभी बताया। मैं उसको ‘मियाॅं’ बोलता हूॅं और वह मुझको ‘बाबू’। बस इतने से काम चल जाता है हम दोनों का। अब आप पूछेंगे कि वह है कौन ? कहाॅं मिला मुझे ? उससे क्या रिश्ता है मेरा ? तो सुनिए।
लगभग सवा साल, डेढ़ साल पहले की बात है। एक दिन सवेरे-सवेरे गेट पर एक पतली जनाना आवाज सुनायी पड़ी-‘‘कूड़ा.....। कूड़ा दे दे कूड़ा....। ओ मां....कूड़ा।’’ उस वक्त मैं कमरे में बैठा अखबार खोले कोई चटपटी सी खबर पढ़ रहा था। बाहर आया तो देखा कि चारखाने की मैली सी लूंगी और सफेद गंदा बंगाली कुर्ता पहने, लम्बी खिचड़ी दाढ़ी और उलझे बालों वाला एक अधेड़ आदमी बाॅंस के ड़ंड़े में बॅंधी झाड़ू लिए घर के बाहर सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। और कुछ-कुछ हरे रंग की मैली-कुचैली साड़ी को बंगाली ढ़ंग से लपेटे बड़ी-बड़ी आॅंखों वाली एक दुबली-पतली, साॅंवली, नाटी सी औरत मेरे गेट के बाहर खड़ी थी। वह मुझको देखते ही बोल पड़ी- ‘‘बाबू.......कूड़ा दे दे...।’’
मैंने सोचा शायद नगर निगम वालों ने सफाई की यह नई व्यवस्था लागू की है। अंदर गया और आॅंगन में प्लास्टिक के थैले में रखा कूड़ा ले आ कर उस औरत को पकड़ा दिया। कूड़े को अपने थैले में ड़ाल कर वह आगे बढ़ गई और पड़ोसी के दरवाजे पर खड़ी हो कर वैसे ही आवाज देने लगी-‘‘कूड़ा....। कूड़ा दे दे कूड़ा।’’
अगले दिन से यह रोज की बात हो गयी। रोज सवेरे वह आदमी सड़क पर झाड़ू लगाता और उसकी औरत मुहल्ले के घरों से कूड़े का थैला बटोरती जाती। सप्ताह में एक बार वे लोग नालियों की सफाई भी कर दिया करते थे। इस प्रकार हमारी कालोनी के घरों का कूड़ा फेंकने की समस्या तो हल हो ही गई, हर समय भरीं, बजबजातीं, बदबू मारतीं नालियाॅं तथा गन्दगी से अटी रहने वाली गलियाॅं भी अब साफ-सुथरी रहने लगी थीं।
महीने भर का समय बीतने के बाद एक दिन सवेरे उस खिचड़ी दाढ़ी वाले आदमी ने मेरा गेट खटखट़ाया और मेरे बाहर निकलते ही बोला-‘‘बाबू....पोइसा।’’
‘‘पैसा....?’’
‘‘हाॅं बाबू.....सौ टका।’’
‘‘कहाॅं से आए हो.....क्या नगर निगम के आदमी नहीं हो तुम लोग....?’’
‘‘ना बाबू.....अम बांग्लादेस से आया....। इदर में साफ-सफाई करता। उसी के वास्ते सौ टका माॅगता।’’ उसने कहा और अपने छोटे-छोटे पीले दाॅंत दिखा कर हॅंस दिया।
मैंने उसको सौ रूपए का नोट पकडाया तो उसने कृतज्ञता भरी आॅंखों से सलाम किया और आगे बढ़ कर पड़ोसी का गेट खटखटाने लगा।
‘‘क्या हाल है मियाॅं ?’’ अगले दिन सवेरे उसको सड़क बुहारते देख मैंने पूछा। उसकी दाढ़ी और चारखाने की लुंगी के आधार पर मैंने उसके लिए ‘मियाॅं’ सम्बोधन गढ़ लिया था।
‘‘भालो आछी बाबू....भालो आछी।’’ उसने खुशी से सर हिलाते और अपनी आदत के अनुसार दाॅंतों को उघाड़ कर हॅंसते हुए जबाब दिया।
उसकी टूटी-फूटी, बांग्ला मिश्रित हिन्दी मुझको सुनने में बहुत अच्छी लगती थी। इसलिए उसे जब भी देखता किसी न किसी बहाने उससे बातें करने की कोशिश किया करता था। पराये देश में अपने मुकाबले काफी बड़ी हैसियत वाले किसी शख्स का इस तरह अपनेपन से बातचीत करना शायद उसको भी अच्छा लगता था। इसलिए धीरे-धीरे वह मुझसे घुलमिल गया। वह मुझको बाबू बोलता था और मैं उसको मियाॅं।
उसके तार-तार कपड़े देख मेरी पत्नी ने उसको मेरे एक-दो पुराने कुर्ते और पायजामे दे दिए थे। मेरे भरे बदन का कुर्ता उसके दुबले-पतले शरीर पर ऐसा दिखता था जैसे मक्के के खेत में खड़ा बिजूका। फिर भी वह उसी को पहन कर मगन था। एक दिन उसकी औरत की फटी साड़ी देखी तो मेरी पत्नी ने उसको अपनी एक पुरानी साड़ी दे दी। हमारी इस अतिरिक्त मदद के बदले में वह सड़क के साथ-साथ मेरे घर के अंदर भी सफाई कर दिया करता था। उसको देखते ही पत्नी गेट खोल देती थीं और वह अंदर आ कर लाॅन तथा पोर्च में भी झाड़ू मार देता था। न सिर्फ इतना बल्कि कभी-कभी लाॅन की घास उखाड़ दिया करता था और गमलों में पानी भी ड़ाल दिया करता था। लगभग दस साल और बारह साल की दो बेटियाॅं थीं उसकी। जब घर में कुछ बासी बच जाता तो पत्नी उन्हें बुला कर थमा देती थी। दोनों ऐसे खुश हो जातीं मानो छप्पनभोग मिल गया हो उनको। इस प्रकार मियाॅं के पूरे परिवार से ही जुड़ाव सा हो गया था हमारा। मियाॅं का चार प्राणियों का परिवार बस अपने काम से काम रखता और अपने आप में मगन रहता था।
‘‘तुम लोगों की भाषा बड़ी अजीब सी लगती है....तुम लोग कहाॅं की रहने वाली हो जी।’’ मेरी पत्नी ने एक दिन मियाॅं की औरत से पूछा।
‘‘बाई, अमारा घर भोत दूर....उदर बांग्लादेस में है।’’
‘‘बांगलादेश......? तो यहाॅं इतनी दूर कैसे आ गए तुम लोग ?’’
‘‘बाई, उदर में भोत पोरेसानी है....। काम नई मिलता.....खाने को नई मिलता....भोत गरीबी है उदर में। आमरा एक बेटा भी था छोटा सा.....तीन बरस का.....ऊ बीमार हो के मर गिया। अम दवा बी नई दिला पाया उसको। आमरा देस का ड़ेर सारा लोग काम के वास्ते इदर को आया....साथ में अम भी आ गया। तब से इदर ही है।’’
‘‘तो क्या बांग्लादेश से चल कर सीधे यहाॅं इतनी दूर आ गये तुम लोग ?
‘‘ना बाई ना.....। कबी इआं, कबी ऊआं घूमता रहा। भोत मारा-मारा फिरा। भोत भागा-भागी की....। कई जगा पर रूकते-रूकते आया इदर में। इदर देस का लोग अमको कईं भी जियादा दिन टिकने नईं देता। भगा देता है सब। पोलिस वाला भोत परेसान करता है....पोइसा मांगता है इदर टिकने के वास्ते। रात के वकत ऊलोग घर का भीतर घुस आता है.....मारता है......पोइसा छिन लेता है....बादमासी की बात बोलता है। भोत दिक्कत करता है पोलिस लोग।’’ मियाॅं की औरत ने अपनी दास्तान बतायी तो उसकी आॅंखों में आॅंसू छलछला आए।
हमारी यह कालोनी आड़ी, तिरछी जगह में बसी है जिसके कारण कालोनी के पश्चिम, दक्षिण के कोने में नाले के किनारे थोड़ी सी, लगभग तिकोनी सी जगह खाली पड़ी थी। वह खाली जगह मुहल्ले का कूड़ा ड़ालने के काम आती थी। कूड़े का ढ़ेर जमा हो गया था वहाॅं। कूड़े की बजह से आसपास गंदगी फैली रहती थी जिस पर सारे दिन कुत्ते लोटा करते थे। कबाड़ बिनने वाले लड़के आते तो कूड़े को और भी बिखरा देते थे। अगर उधर से निकलो तो नाक पर रूमाल रखना पड़ता था। उसी खाली जगह को साफ, समतल कर के, बाॅंस के ड़ंड़ों पर प्लास्टिक की चादर तान कर और घास-फूॅंस से घेर कर एक घरौदा सा बना लिया था मियाॅं ने। उसी घरौंदे में रहता था उसका परिवार। मियाॅं और उसकी औरत मिल कर सवेरे से दोपहर तक में पूरी कालोनी में सफाई करते और सभी घरों से कूड़ा एकत्र किया करते थे। उसकी दोनों बेटियाॅं घंटों बैठ कर कालोनी के घरों से एकत्र किए गए उस कूड़े में से काम की चीजें या ऐसी चीजें जिन्हें कबाड़ी के यहाॅं बेचा जा सकता हो, छाॅंटा करती थीं, फिर उसके बाद बचे हुए कूड़े को ले जा कर लगभग दो किमी दूर रेलवे लाइन के किनारे गड्ढ़े में फेंक आतीं थीं। महीना समाप्त होने पर मेहनताना के रूप में मियाॅं हर घर से सौ रुपए वसूला करता था। इस तरह जैसे-तैसे जी रहा था उसका परिवार।
मियाॅं एक दिन शाम के समय बाबू.....बाबू आवाज लगाता मेरे घर का गेट खोल कर अंदर आ गया। उसकी आवाज सुन कर मैं बाहर आया तो उसने अपने कुर्ते की जेब से निकाल कर कुछ मुड़े-तुड़े नोट मेरी तरफ बढ़ा दिए।
‘‘यह क्या है मियाॅं....?’’
‘‘बाबू....आमरा ई पोइसा अपने पास रख लो....नईं तो पोलिसवाला छीन लेगा। भोत पोरेसान करता है ऊ लोग। अमको जरूरत पोड़ेगा तो तुमसे मांग लेगा।’’ मियाॅं ने कहा और सारे नोट मेरे सामने धर दिए।
मैंने गिना तो पूरे बारह सौ रूपये थे। उसे मैंने अमानत के तौर पर अपने पास रख लिया। फिर उसके बाद तो जैसे मैं मियाॅं का बैंक ही बन गया। महीने के पहले सप्ताह में जब कालोनी के घरों से उसे पैसे मिलते तो वह कुछ रूपए मेरे पास जमा कर जाता और बाद में अपनी जरूरत के अनुसार थोड़ा-थोड़ा कर के ले जाया करता था। लेन-देन में कोई भूल-चूक न हो जाय इसलिए मैंने उसके नाम की एक अलग ड़ायरी बना ली थी।
‘‘मियाॅं मान लो अगर मैं तुम्हारा सारा पैसा हड़प लूॅं....तुमको वापस न दूॅं तो...? तो क्या करोगे....?’’ एक दिन जब उसने सौ और पचास के कई मुड़े-तुड़े नोट मुझको रखने के लिए दिए तो मैंने उससे मजाक में कहा।
‘‘काये को फालतू में मोजाक करता है बाबू.....। अम बी आदमी को पोहचानता है...। अमको पोता है तुम अइसा नहीं करने सकता।’’ उसने हॅंस कर कहा और मैं उसके दिए रूपयों को गिन पाता उससे पहले ही वापस चला गया।
अब से लगभग छः महीना पहले की बात है। एक शाम अॅंधेरा होने के थोड़ी देर बाद मियाॅं ने मेरा गेट खटखटाया। झाॅंक कर देखा तो साथ में उसकी औरत भी थी। मेरी पत्नी ने गेट खोला तो वे दोनों अंदर बरामदे में आ गए। दोनों ही बेतरह घबड़ाए हुए दिख रहे थे। दोनों के ही चेहरों पर हवाइयाॅं उड़ रही थीं।
‘‘क्या बात है मियाॅं....परेशान से दिख रहे हो। तबियत तो ठीक है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘बाबू ! अब अम इआं नहीं रहने सकता...। ऊ लोग इआं से चले जाने के वास्ते बोल गिया है। भोत खोतरनाक आदमी है ऊ लोग।’’ मियाॅं ने मारे भय के काॅंपती सी आवाज में कहा।
‘‘मियाॅं, मैं कुछ समझा नहीं। क्या हुआ....? कौन लोग बहुत खतरनाक हैं ? तुम पहले आराम से बैठ जाओ फिर बताओ अपनी बात।’’ मैंने कहा तो मियाॅं अपनी लुॅंगी समेटता बरामदे के फर्श पर बैठ गया। उसकी पत्नी दीवार का टेक लिए खामोश खड़ी रही।
‘‘बाबू ! अबी थोड़ा देर पइले मोटर गाड़ी में तीन लोग आया था। अमको इआं से भाग जाने को बोल गिया। अमको मारने की धमकी दे गिया है....। ऊ लोग बोल रहा था स्साला बांग्लादेसी इदर से भाग जाओ....अपने देस चले जाओ नईं तो तुम सबी को जान से मार डालेगा।’’ मियाॅं ने घबड़ाहट भरे स्वर में बताया।
सहसा मुझे ध्यान आया कि पिछले कुछ दिनों से कालोनी में सिल्वर कलर की एक इनोवा गाड़ी की आवाजाही हो रही थी। उस दिन शाम के समय भी उस इनोवा को मियाॅं की झोपड़ी के पास खड़ी देखी थी मैंने। मियाॅं की बात सुन कर मैं उलझन में पड़ गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मियाॅं जैसे सीधे-सादे, गरीब, असहाय मजदूर को धमकाने वाले वे कौन लोग हो सकते हैं। किसकी दुश्मनी हो सकती है उस बेचारे से। उसके यहाॅं पड़े रहने से किसको दिक्कत हो सकती है भला। फिर भी मियाॅं को ढ़ाढ़स देने की गरज से मैंने कहा-‘‘अरे, कुछ नहीं होगा। बेकार परेशान मत होवो तुम लोग। किसी ने ऐसे ही शरारत की होगी। जाओ....जा कर सो जाओ...। सवेरे देखेंगे।’’
मेरे समझाने के बावजूद भी मियाॅं अपनी जगह से हिला नहीं। वैसे ही चिन्तित मुद्रा बनाए बैठा रहा। मेरी खोखली हमदर्दी को शायद भाॅंप गया था वह। मैंने सर उठाया तो पाया कि उसकी बीबी मेरी तरफ बहुत आशा भरी नजरों से देख रही थी।
‘‘अच्छा ऐसा करो तुम लोग जाओ....परेशान न हो.....आराम से वहीं रहो। अगर वे लोग दोबारा फिर कभी आयें तो मुझको बुला लेना। मैं बात करूॅंगा उनसे।’’ मैंने आश्वासन दिया तो वे दोनों कुछ हद तक आश्वस्त हुए और मेरे यहाॅं से चले गए। वे दोनों तो आश्वस्त हो गए लेकिन मैं खुद आश्वस्त नहीं हो पा रहा था। अनायास ही उनकी चिंता खुद ओढ़ ली थी मैंनें। कौन लोग हैं...? कैसे लोग हैं...? क्यों परेशान कर रहे हैं इन गरीबों को...? देर रात तक इस तरह के तमाम प्रश्न मेरे मन को मथते रहे थे।
उस घटना के ठीक तीसरे दिन शाम के वक्त मियाॅं की औरत ने मेरा गेट खटखटाया। मैं उस समय बाहर लाॅन में ही था। फूलों के गमलों में पानी ड़ाल रहा था।
‘‘क्या हुआ....?’’ मैंने गेट खोलते हुए पूछा।
‘‘बाबू ! तुरते चलो....। फिर आया है ऊ लोग।’’ उसने घबड़ायी सी आवाज में कहा तो मैं जैसे था वैसे ही उसके साथ हो लिया। मियाॅं की झोपड़ी के पास गया तो देखा वही सिल्वर कलर की इनोवा गाड़ी खड़ी थी। आॅंखों पर काला चश्मा लगाए साॅवला, मोटा एक आदमी गाड़ी के अंदर बैठा सिगरेट के छल्ले बना रहा था और गठीले बदन के दो आदमी बाहर खड़े मियाॅं को हड़का रहे थे। बाहर खड़े दोनों ही व्यक्ति सफेद पैंट, सफेद रंग की ही पूरी बाॅंह की शर्ट तथा पैरों में सफेद स्पोर्ट शू पहने हुए थे। उनमें से एक ने हाथ में एक नाल की बंदूक ले रखी थी।
‘‘क्या बात है भाई.....आप लोग क्यों परेशान कर रहे हैं इस गरीब को ?’’ मैंने करीब पॅंहुचते ही तल्ख आवाज में उन दोनों से प्रश्न किया। मेरे प्रश्न करते ही उन दोनों ने एक साथ पलट कर मुझको ऐसी जलती निगाहों से देखा कि एकबारगी तो मैं भी सकपका गया।
‘‘आप कौन हैं....?’’ मेरे प्रश्न का जबाब देने के बजाय उनमें से एक ने बहुत रूखे स्वर में उल्टे मुझसे प्रश्न कर दिया।
‘‘मैं....? मैं इसी कालोनी का निवासी हूॅ.....। लेकिन आप लोग कौन हैं....? आप लोग तो इस कालोनी में रहते नहीं।’’ अंदर ही अंदर घबड़ाने के वावजूद यथासंभव अपनी घबड़ाहट को छुपाते हुए मैंने कहा।
‘‘आपको इस बांगलादेशी जासूस से क्या हमदर्दी है ?’’ उसने दूसरा प्रश्न दागा।
‘‘अरे भाई, यह कोई जासूस-वासूस नहीं....एक गरीब मजदूर है बेचारा। हमारी कालोनी में साफ-सफाई करता है। लगभग सवा साल या डेढ़ साल से ये लोग रह रहे हैं यहाॅं पर।’’
‘‘आपको कैसे पता कि यह जासूस नहीं है....? क्या आप गारंटी लेते हैं इसकी कि यह किसी दुश्मन देश या किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य नहीं है ?’’ दूूसरे ने वैसी ही तल्खी से दूसरा प्रश्न दागा। इस बीच गाड़ी के अंदर बैठा आदमी भी शीशा नीचे गिरा कर मुझको घूरने लगा था। उन तीनों के तेवर देख मेरी हवा खिसकने लगी थी।
‘‘अरे भइया, गारंटी तो आज के जमाने में कोई अपनी औलाद की भी नहीं ले सकता...ये तो फिर भी गैर हैं।’’ मैंने उत्तर दिया। अब मेरी आवाज थोड़ी ढ़ीली पड़ गयी थी।
‘‘तो फिर....? तो फिर किस हैसियत से इसकी तरफदारी कर रहे हैं आप....? पता है आपको, ऐसे ही लोगों को अपना स्लिपिंग माड्यूल बनाते हैं आतंकवादी। सोचने की बात है कि बांगलादेश से यहाॅं तक कहीं जगह ही नहीं मिली इसको.....? कोई काम ही नहीं मिला इसको जो यहाॅं आ कर सफाई के बहाने रह रहा है ? क्या पक्के तौर पर कह सकते हैं आप कि यह पाकिस्तानी एजेण्ट नहीं है.....? कि झाड़ू-बुहारू और साफ-सफाई की आड़ में यह राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से नहीं जुड़ा है ? बोलिए....?’’ मुझको ढ़ीला पड़ते देख वे और भी अधिक आक्रामक हो गए।
‘‘ठीक है.....। अपनी जगह आपकी बात भी सही है कि आतंकियों ने जगह-जगह अपने आदमी रख छोड़े हैं। लेकिन जब तक कोई ठोस आधार न हो किसी को भी जासूस या आतंकी कह देना भी तो उचित नहीं।’’ मैंने दबी जुबान से प्रतिवाद किया।
‘‘ऐसा है श्रीमान जी, किसी के माथे पर थोड़े न लिखा होता है कि वह आतंकवादी है। आतंकवादी ऐसे ही तो वेष बदल कर, स्थानीय लोगों से घुल-मिल कर रहते हैं ताकि किसी को उन पर शक न होने पाए। पता है आपको.....पिछले दिनों जो कई शहरों में माल में, बाजार में, स्टेशन पर और कचहरी आदि सार्वजनिक स्थानों पर बम विस्फोट हुए हैं उनमें ऐसे ही लोगों की भूमिका पायी गई है। आप इसकी भोली सूरत पर मत जाइए.....ऐसे लोग होते कुछ और हैं और दिखते कुछ और हैं। समझे आप...?’’
‘‘अरे भाई ! आप समझते क्यों नही....यह देश की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है। आप लोगों को तो पहले ही सतर्क हो जाना चाहिए था। इसको यहाॅं बसने ही नहीं देना चाहिए था। अगर बस ही गया था तो पुलिस को खबर करनी चाहिए थी। आप की काॅलोनी में इतने दिनों से एक संदिग्ध विदेशी रह रहा है और आप लोग आॅंखें बंद किए पड़े हैं ? इसे यहाॅं से भगाने के बजाय आप इसकी तरफदारी कर रहे है ? कल को अगर कोई दुर्घटना हो जाएगी तो पुलिस और प्रशासन को निकम्मा ठहरायेंगे। सरकार को दोष देंगे।’’ पहले के चुप होते ही दूसरा बोल पड़ा।
‘‘वैसे आप का नाम क्या है....और आप रहते किधर हैं ? पहले ने पूछा।
‘‘इसकी तरफदारी कर रहे हैं तो एक बात का ध्यान रखिएगा....अगर कहीं कोई वारदात हुयी तो आतंकियों के मददगार के रूप में आप को भी पकड़ा जा सकता है।’’ दूसरे ने धमकाते हुए कहा।
लब्बोलुबाब यह कि उन दोनों ने मेरे सामने ढ़ेर सारे प्रश्नों, तर्कोंं और धमकियों की झड़ी लगा दी। ऐसी झड़ी लगा दी कि निरूत्तर हो कर रह गया मै। क्या उत्तर देता मैं ? आतंकवाद और देश की सुरक्षा से जोड़ कर प्रकरण को ऐसा संवेदनशील मोड़ दे दिया उन लोगों ने कि मुझे खामोश हो जाना पड़ा। यद्यपि उस असहाय गरीब के साथ मेरी पूरी हमदर्दी थी। विगत ड़ेढ़ वर्षों के अंदर कोई संदिग्ध क्रिया-कलाप भी नहीं की थी उसने। फिर भी उस अनजान के इतिहास और उसकी भविष्य की गतिविधियों के बारे में क्या कह सकता था मैं ? सो चुपचाप खड़ा उन दोनों की झिड़की और धमकी सुनता रहा। मुझको अपनी बातों से निरूत्तर करने के बाद उन दोनों ने मियाॅं की तरफ घूर कर देखा और अपनी गाड़ी में बैठ कर चले गए।
‘‘बात ये है मियाॅं कि वे लोग तुम्हारे ऊपर आतंकवादियों से सम्बन्ध होने का शक कर रहे हैं और इसीलिए यहाॅं से हट जाने के लिए कह रहे हैं। आजकल जैसा माहौल चल रहा है देश में उसमें किसी भी अजनवी पर शक होना स्वाभाविक है। लेकिन तुम घबड़ाओ नहीं.....मैं एक-दो दिन में कालोनी के कुछ और लोगों से भी बात कर लूूंगा...। फिर हम सभी लोग मिल कर पुलिस को इस बात का आश्वासन दे देंगे कि तुम गलत आदमी नहीं हो।’’ बेहिसाब घबड़ाए, खामोश खड़े, पत्ते की तरह काॅंप रहे मियाॅं को मैंने समझाया और वापस अपने घर आ गया।
मियाॅं की मदद की गरज से अगले दिन सवेरे पार्क में टहलते समय मैंने काॅलोनी के अन्य लोगों से घटना का जिक्र किया। कोई कुछ कहता उससे पहले गुप्ताजी ने बात को सिरे से ही खारिज कर दी-‘‘आप भी श्रीवास्तव साहब किस चक्कर में पड़ रहे हैं। ‘आ बैल मुझे मार’ करने की क्या जरूरत है भला ?’’
‘‘बात सही है.....क्या पता कि वह कौन है और उसके तार कहाॅं-कहाॅं से जुड़े हैं। वैसे भी जितने भी आतंकी हैं सब के सब मुसलमान हैं। इसलिए मुसलमानों पर तो कभी भरोसा करना ही नहीं चाहिए।’’ गुप्ता जी के चुप होते ही दुबेजी बोल पड़े।
‘‘हाॅं भाई, जुग-जमाना खराब है। बहुत बच-बचा के रहना चाहिए। कहीं कोई लफड़ा हो गया तो कोर्ट-कचहरी का चक्कर मरते दम तक नहीं छूटेगा।’’ सक्सेनाजी ने बात का उपसंहार कर दिया। यानी मियाॅं की मदद का रास्ता एक तरह से बंद ही हो गया।
दो दिन और बीते। तीसरे दिन रात लगभग साढ़े ग्यारह बजे मियाॅं अपने पूरे परिवार और अपनी पूरी गृहस्थी सहित मेरे गेट के बाहर खड़ा था और मेरे पास अमानत के रूप में रखा अपना पैसा माॅंग रहा था।
‘‘अरे ! तुम तो नाहक घबड़ा रहे हो। कुछ नहीं होगा.....। जैसे रह रहे हो वैसे ही रहते रहो। सामने वाले सक्सेना जी से बात की है मैंने। और लोगों से भी बात कर लूॅंगा। एक-दो दिन में तुम्हारी समस्या का हल निकाल लेंगे हम लोग।’’ मैंने मियाॅं को ढ़ाढ़स बॅंधाया। दरअसल मुझको सर्वाधिक चिन्ता इस बात की हो रही थी कि यदि मियाॅं यहाॅं से चला गया तो हमारी साफ-सुथरी काॅलोनी फिर से गंदगी और बदबू से भर जाएगी।
‘‘नईं बाबू। अब अम इदर नईं रहने सकता। ऊ लोग मार ड़ालेगा अमको। पइले भी अइसा ही बोल गिया था। अबी घंटा भर पइले चार ठो आदमी फिर आया था.....ऊ लोग बंदूक भी लिए था। बोल गिया कि किरासन का तेल ड़ाल कर अमको फॅंूक देंगा रात में। अब अम नईं रहने सकता। तुम अमारा पोइसा नई देना चाहता तो मत दो.....बाकी अम इदर नईं रूकने का.....अम जाता है।’’ मियाॅं ने रूॅंधे गले से, काॅंपती आवाज में कहा और मुड़ कर जाने लगा।
‘‘अरे ! नहीं....नहीं...रुको। मियाॅं रुको। तुम अपना पैसा ले कर जाओ।’’ मैंने कहा तो वह लौट आया। मैं दौड़ता हुआ घर के अंदर गया और उसके पैसे ले आ कर उसको पकड़ा दिया। सामानों की गठरी, बोरा सिर पर लादे, डंडे में खुंसे झाड़ू और बाॅंस को कंधे पर रखे मियाॅं, उसकी बीबी तथा दोनों बेटियाॅं उस आधी रात को ही चले गए। गेट के बाहर खड़ा मैं उन्हें कालोनी से बाहर निकलने तक देखता रहा। उसके बाद गेट बंद कर के भारी मन लिए अंदर आ गया। उस सारी रात सो नहीं सका मैं। लगातार यही सोचता रहा कि मेहनत, मजदूरी कर के जैसे-तैसे जी रहे इस गरीब बेचारे से भला किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है। भला इससे किसी को क्या खतरा हो सकता है। इसे कौन किसी की जमीन, जायदाद या संसाधनों पर कब्जा करना है। बांग्लादेश हो या कि हिन्दुस्तान गरीब की नियति एक जैसी ही है। उसे तो दो वक्त की रोटी की दरकार है बस। रोटी भी मुफ्त की नहीं बल्कि अपनी मेहनत की बदौलत कमाई हुई। लेकिन वह भी चैन से नहीं खाने देते हैं लोग।
कालोनी से मियाॅ ंके चले जाने और उसकी कोई सहायता नहीं कर सकने का अफसोस मुझको कई दिनों तक सालता रहा। साथ ही मैं यह सोच-सोच कर भी परेशान था कि आखिर वे लोग कौन थे जो मियाॅं को यहाॅं रहने देना नहीं चाहते थे। लेकिन मियाॅं को कालोनी से भगाए जाने की पहेली अधिक दिनों तक अबूझी नहीं रह सकी। मियाॅं के जाने के चैथे या पाॅंचवे ही दिन शाम के समय मैं उस तिकोनी जगह जहाॅं मियाॅं का परिवार रहता था की ओर से निकला तो देखा कि वहाॅं ईंट, सिमेंट, मौरम और सरिया आदि फैला पड़ा था तथा कुछ मिस्त्री, मजदूर काम कर रहे थे। उस दिन मियाॅं को हड़काने के लिए जो लोग आए थे उन्हीं में से एक आदमी वहाॅं खड़ा हो कर काम की निगरानी कर रहा था। मुझको आता देख उसने मॅंुह दूसरी तरफ घुमा लिया। मैं भी अनावश्यक किसी लफड़े में पड़ना नहीं चाहता था इसलिए चुपचाप घर आ गया। कूड़ा डा़लने की उस सार्वजनिक जगह पर हो रहे अवैध निर्माण को लेकर पूरी कालोनी में खुसुर-फुसुर होती रही लेकिन किसी ने भी आगे बढ़ कर पूछने या विरोध करने की हिम्मत नहीं दिखायी। सभी ने शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुॅंह छुपा लिया था।
देखते ही देखते महीने भर के अंदर ही वहाॅं एक पक्का कमरा बन गया, कमरे के ऊपर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल का झंड़ा लहराने लगा और बाहर एक बड़ा सा बोर्ड टॅंग गया जिस पर बड़े-बड़े अखरों में लिखा था- ‘सम्पर्क कार्यालय, कखगघच, पार्षद अलीगंज वार्ड’।