प्यार का गणित

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

2/17/20221 मिनट पढ़ें

ग्रामोफोन में लगा रिकार्ड घिस गया हो और सूई किसी एक ही पंक्ति पर अॅटक कर रह गयी हो जैसे ठीक वही स्थिति थी। पिछले महीने भर से अपनी माॅं के मुॅंह से लगातार एक ही बात सुनते-सुनते चंदर तंग आ गया था। एक बार, दो बार नहीं कम से कम दर्जनों बार वह अपना दो टूक फैसला भी सुना चुका था लेकिन उसकी माॅं थीं कि जैसे न सुनने और न समझने की कसम खा रखी हों। उनको जब भी, जरा सा भी मौका मिलता फिर से वही पुराना राग अलापने लग जातीं-‘नेहा संग शादी....’।

रविवार का दिन, सुबह का समय था। नहा-धो चुकने के बाद चंदर अपने कमरे में बैठा अखबार पलट रहा था कि तभी उसकी माॅं चाय का प्याला और नाश्ते की प्लेट लिए आ पॅंहुचीं। चाय, नाश्ता चंदर के सामने मेज पर रखने के बाद वह बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयीं और बगैर किसी भूमिका के फिर से वही प्रसंग छेड़ दीं। सुनते ही चंदर झल्ला उठा। अपनी माॅं की बात बीच में ही काट कर वह बोल पड़ा-‘‘ओफ्फ हो माॅं ! प्लीज माफ करो मुझे। यह शादी मुझे नहीं करनी है...नहीं करनी है....नहीं करनी है। एक बार, दो बार नहीं सैकड़ों बार मना कर चुका हूॅं फिर भी न जाने क्यों पीछे पड़ी हो तुम...? रात-दिन, सुबह-शाम, खाते-पीते, जागते-सोते जब देखो तब बस एक ही रट कि नेहा से शादी कर लो....नेहा से शादी कर लो। मानो नेहा हाड़-माॅंस की साधारण औरत न हो कर स्वर्ग से उतरी अप्सरा हो कोई। न जाने कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं उसमें.....न जाने कौन सी ऐसी खास बात है उसमें जो वह आप के दिल से उतर ही नहीं रही है।’’

‘‘कुछ न कुछ बात तो जरूर है बेटे तभी तुम्हारे इतना पीछे पड़े हैं हम। अगर कोई खास बात नहीं होती तो भला इतनी जिद, तुम्हारा इतना मान-मनौव्वल क्यों करती मैं।’’

‘‘यही बात सोच कर तो मैं भी हैरान हूॅं माॅं कि अभी छः-सात महीने पहले तक नेहा इस घर की बहू थी तो उससे तुम्हारी एक पल भी नहीं पटती थी। तब तो तुम्हें उसके अंदर खामियाॅं ही खामियाॅं नजर आती थीं। जब देखो तब उसकी शिकायत करती रहती थी तुम कि बहुत बेशऊर है, बहुत तेज है, बहुत नकचढ़ी है, बहुत घमण्ड़ी है....। और अब जब कि वह इस घर से जा चुकी है तो तुम पुनः उसे यहाॅं बुलाने के लिए परेशान हो।’’

‘‘ऐसी बात नहीं है चंदर ! जहाॅं दो बरतन पास-पास रहते हैं तो गाहे-बगाहे आपस में खड़कते भी हैं। वही बात थी। कभी-कभार मैं उस पर गुस्सा हो जाती थी। लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि मैं नेहा की दुश्मन हूूॅं। चाहे जैसी भी है, वह हमारी सगी बहू है। मोह, ममता तो है ही उससे। ऐसी हालत में उसे अकेली, बेसहारा कैसे छोड़ दें हम....? तू मेरी बात को समझने की कोशिश कर। माॅं-बाप हमेशा अपनी औलाद का भला ही सोचते हैं। हम भी तुम्हारे भले के लिए ही समझा रहे हैं। बेटा ! उतावले होने की कोई जरूरत नहीं। जल्दबाजी ना कर....तू ठंढ़े दिमाग से सोच ले पहले फिर फैसला कर।’’

‘‘सोच लिया है माॅं....मैंने खूब अच्छी तरह से सोच लिया है। मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि मेरी शादी के लिए अचानक तुम इतनी उतावली क्यों हो रही हो। अभी पिछले साल ही तो मैंने रेनू के साथ शादी की इच्छा जाहिर की थी, तब तो तुमने और पिताजी ने यह कह कर मना कर दिया था कि पहले अपने पैरों पर खड़े हो लो, कुछ कमाने लगो तब शादी की बात सोचना। और अब तुम खुद ही मुझ बेरोजगार पर शादी के लिए दबाव ड़ाल रही हो। वह भी एक विधवा औरत के साथ। एक ऐसी औरत के साथ जो सवा साल तक किसी की बीबी बन कर रह चुकी है। जब कि तुम्हें यह भी पता है कि पिछले दो वर्षों से मेरा रेनू के साथ अफेयर चल रहा है। हम दोनों ने आपस में शादी करने का फैसला कर रखा है। बस, एक अदद नौकरी मिलने का इन्तजार है हमें।’’

‘‘तब की बात और थी बेटा और अब की बात और है। तब इस घर में एक बहू थी नेहा के रूप में। तब हमने यह सोच कर तुम्हारी शादी के लिए मना किया था कि तू कहीं कायदे से नौकरी से लग जा, कुछ कमाने-धमाने लगे फिर खूब शौक से, धूमधाम से करेंगे तुम्हारी शादी। लेकिन अब परीस्थितियाॅं बदल चुकी हैं....। अब हमें घर में एक बहू की सख्त जरूरत है। अकेले इतना सारा काम अब नहीं होता मुझसे।’’

‘‘अगर सिर्फ इतनी सी बात है तो तुम लोग जात-पात की भावना से थोड़ा ऊपर उठ कर हामी भर दो...। मैं कल ही रेनू से बात कर लेता हूॅ। वह तो मेरी हाॅं के इन्तजार में ही बैठी है। और मेरा दावा है कि वह हर हाल में तुम्हारी नेहा से बेहतर बहू सिद्ध होगी।’’

‘‘ओफ्फ हो....। जब देखो तब रेनू-रेनू-रेनू। अब मैं कैसे समझाऊॅं तुझको कि जो बात नेहा में है वह रेनू में नहीं हो सकती।’’ चंदर की माॅं ने माथा पीट लिया।

दरअसल चंदर की माॅं संकेतों के माध्यम से जो बात कह रही थीं वह बात चंदर तक पॅंहुच नहीं पा रही थी। बात के संप्रेषण में उन दोनों की उम्र, सोच और अनुभव का अंतर आड़े आ जा रहा था। चंदर की सोच पर जवानी का जोश और प्यार का खुमार हावी था जब कि उसकी माॅं की सोच पर अनुभव का सार और व्यावहारिक जीवन का नंगा सच। चंदर को अभी आटे-दाल का भाव नहीं मालुम था इसलिए वह सपनों की दुनिया में जी रहा था लेकिन उसकी माॅं जानती थी कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला’। उनको पता था कि प्यार, मोहब्बत की बातें भी तभी अच्छी लगती हैं जब पेट भरा हो। वरना खाली पेट प्यार की बातें भी गाली लगती हैं, खीझ और ऊब पैदा करती हैं। उनके मन में कई बार आया कि असली बात बिना लाग-लपेट के साफ-साफ कह ड़ालें। फिर जो हो सो हो। लेकिन अगले ही पल मन में यह भय समा जाता था कि उनकी बात का कहीं उल्टा असर न पड़ जाय...? चंदर कहीं एकदम से बिदक न जाय ? बनता काम बिगड़ न जाय।’’

‘‘बचपना ना कर चंदर। प्यार और शादी में जमीन, आसमान का अंतर होता है। प्यार एक मीठी कल्पना है जब कि शादी एक कड़वा सच। प्यार अस्थिर मन की भटकन है जब कि शादी व्यवस्थित जीवन की मंजिल। बेटा ! तू यूॅं समझ कि यह चढ़ती जवानी का प्यार मियादी बुखार होता है जो मियाद पूरी होते ही उतर जाता है। लेकिन शादी एक स्थायी और असाध्य रोग है जो उम्र भर साथ चलता है। इसीलिए शादी भावनाओं में आ कर नहीं बल्कि व्यावहारिक हो कर, खूब ठोंक-बजा कर, आगे-पीछे, ऊॅंच-नीच सोच लेने के बाद की जाती है। मैं इतने दिनों से लगातार तुमको यही बात तो समझा रही हूॅं कि तुम्हारे सिर पर रेनू के इश्क का जो जिन्न सवार है उसे कुछ समय के लिए नीचे उतार दे। फिर शान्त दिमाग से अपना फायदा, नुकसान सोच। शायद तब समझ में आए तेरे कि मैं क्यों बार-बार इतनी जिद कर रही हूॅं। रही नेहा की बात, तो माना कि वह विधवा है पर है तो तुम्हारी सगी भाभी ही न....। और उम्र में भी वह तुमसे छोटी ही है। अरे इन्दर तुमसे दो साल बड़ा था और नेहा इन्दर से साढ़े तीन साल छोटी है। इस तरह वह तुमसे लगभग ड़ेढ़ साल छोटी ही तो हुयी। फिर उसमें कमी ही क्या है जो तू इतना नाक-भौं सिकोड़ रहा है। वह हर तरह से देखी-भाली है, सुन्दर है, जवान है, पढ़ी-लिखी है और अभी कोई औलाद भी नहीं है उसे। हम क्या तुम्हारे दुश्मन हैं जो तुमको गलत राय देंगे। सोच ले बेटा....अभी मौका है। वरना अगर नेहा हाथ से निकल गयी तो बाद मे बहुत पछताएगा तू। फिर याद करेगा मेरी बात को।’’

‘‘अरी ओ चन्दर की माॅं ! तुम क्यों इतनी देर से इसे पहेलियाॅं बुझाए चली जा रही हो...? और यह है कि समझने का नाम ही नहीं ले रहा। लुका-छिपी का खेल खेलने की क्या जरूरत है....? सारी बात खोल कर साफ-साफ बता क्यों नहीं देती ? एक बार पूरी गणित समझा दो इसे, फिर इसकी मर्जी....जो चाहे सो करे। भला करेगा तो अपना, नुकसान करेगा तो अपना। हमारा क्या....हम तो वैसे भी कब्र में पाॅंव लटकाए बैठे हैं। हम कोई अपने फायदे के लिए थोड़े ना समझा रहे हैं इसे।’’ चन्दर के पिताजी जो बगल वाले कमरे में बैठे काफी देर से माॅं, बेटे की बकझक सुन रहे थे ने चन्दर के कमरे में घुसते हुए कहा।

पति को आया देख कर चन्दर की माॅं खामोश हो गयीं। चन्दर अपने पिता की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगा। चन्दर के पिताजी सामने की कुर्सी पर बैठते हुए बोले-‘‘देख चन्दर ! महीने भर से अधिक हो गया, तुम्हारी माॅं तब से बस भूमिका ही बना रही हैं.....। यहाॅं-वहाॅं की दुनिया जहान की बातें बता रही हैं लेकिन असली बात नहीं बता रहीं। इनको ड़र है कि तू कहीं बुरा न मान बैठे। या यह न सोच ले कि हम तुम्हारे प्यार की कीमत लगा रहे हैं। हमें पता है कि तू रेनू को बहुत चाहता है और उससे शादी करने का मन बना चुका है। ठीक है....चढ़ती जवानी में यह सब हो जाता है। लेकिन रेनू को ले कर लकीर के फकीर बने रहने से कोई लाभ नहीं होने वाला। माॅं-बाप होने के नाते हमें तुम्हारे भविष्य की बहुत चिन्ता है। और तुम्हारे सुरक्षित भविष्य के लिए यह जरूरी है कि तू बिना ना-नुकुर किए नेहा से शादी कर ले।’’

‘‘लेकिन पिताजी....।’’ चन्दर ने कुछ बोलने की कोशिश की।

‘‘अभी बोल मत....। पहले तू मेरी पूरी बात सुन ले। फिर जो कहना हो कहना, जो करना हो करना.....हम नहीं रोकेंगे तुझे।’’ चन्दर के पिताजी ने उसकी बात बीच में ही काट दी और अपनी बात आगे बढ़ायी-‘‘देख बेटा ! इन्दर के मरने के बाद से ही नेहा अपने मायके मंे पड़ी है। मैं दो बार गया कि किसी बहाने से उसे यहाॅं बुला लाऊॅं लेकिन वह यहाॅं आने का नाम नहीं ले रही है। ऐसी हालत में कोई जोर, जबरदस्ती तो की नहीं जा सकती। हमारा कोई सीधा अधिकार तो रहा नहीं अब उस पर। पता चला है कि अस्सी हजार का इन्दर का सरकारी बीमा था और पाॅंच लाख का बीमा उसने अलग से करा रखा था। पैंतीस, छत्तीस हजार रूपए उसके फण्ड़ में जमा हैं। और लगभग इतना ही उसके बैंक के खाते में भी है। साढ़े छः लाख के करीब तो यही सब मिला कर हो गया। फिर वह एक्सीड़ेण्ट में मरा है इसलिए देर, सवेर सरकारी मुआवजा भी मिलेगा ही। नियमतः तो ये सारे रूपए अब नेहा को ही मिलेंगे न। नेहा के पास साठ-सत्तर हजार के जेवर थे जो उसके साथ उसके मायके में ही हंै। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी दस, बारह दिनों पहले ही उसे इन्दर के आफिस में मृतक आश्रित के रूप में नौकरी भी मिल गयी है। अब तो अगले महीने से उसे छब्बीस-सत्ताइस हजार महीना पगार भी मिलने लगेगी। नेहा अभी जवान है। अभी उसके आगे पूरी जिन्दगी पड़ी है। आफिस जाने लगेगी तो उसका दस लोगों से मेल-जोल भी बढ़ेगा। खुदा न खास्ता उसने कहीं और, किसी दूसरे मर्द से शादी कर ली तो..? तब तो हाथ से निकल जाएगी न इतनी लम्बी-चैड़ी रकम और कमासुत औरत.....? हम लोग इसीलिए समझा रहे हैं तुझे कि मौका ना चूक....। इस घर आयी लक्ष्मी को बाहर न जाने दे। नेहा का मन कहीं इधर-उधर भटके उससे पहले ही उसको बाॅंध ले।’’

इतनी बात कह चुकने के बाद चन्दर के पिताजी कुछ पल के लिए रुके और अपनी अनुभवी आॅंखों से चन्दर के मनोभावों को तौलने लगे। उनको लगा कि उनकी बातें अपना काम कर रही हैं और सम्मोहित चन्दर उन्हें बहुत ध्यानपूर्वक सुन रहा है। मौका अच्छा देख उन्होंने बात आगे बढ़ायी-‘‘नौकरी की किल्लत तो तुम देख ही रहे हो। क्या भरोसा कि तुम्हें कब तक नौकरी मिले या कि नहीं ही मिले। तीन साल से ज्यादा तो हो गए न तुम्हें चप्पलें चटकाते और यहाॅं वहाॅं इन्टरव्यू देते...? कहीं मिली नौकरी...? और तुम्हारी उस रेनू में ही कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं जो उसके पीछे मरे जा रहे हो। जैसे तुम निठल्ले वैसी वह निठल्ली। प्रेम विवाह करोगे तो दान-दहेज तो मिलने से रहा। फिर जब गाॅंठ में पैसे नहीं होंगे तो खाओगे क्या और खिलाओगे क्या ? सिर्फ प्यार और मीठी-मीठी बातों से तो पेट भरेगा नहीं। बेटा ! जब दो वक्त रोटी नहीं मिलेगी न तो प्यार का सारा नशा हिरन हो जाएगा। और तुम्हारी रेनू जो आज तुम पर जान न्यौछावर करने को तैयार है वही दुत्कार कर किसी और के साथ चल देगी। बैठे सिर धुनते रह जाओगे तुम। ऐसे कई वाकये देखे हैं हमने। इसीलिए तुम्हें समझा रहे हैं कि भावुकता में आ कर बेवकूफी ना करो। चुपचाप नेहा से शादी कर लो और चैन की जिन्दगी बसर करो। अभी ताजा-ताजा मामला है.....समझाने, बुझाने से नेहा भी मान जाएगी और उसके माॅं-बाप भी राजी हो जायेंगे। वरना अगर दो, चार महीने का समय बीत गया और आफिस आते, जाते उसे कोई दूसरा मर्द पसन्द आ गया तो फिर वह तुमको घास भी नहीं ड़ालेगी। यदि सोने के अण्ड़े देने वाली यह मुर्गी हाथ से निकल गयी तो फिर उम्र भर हाथ मलते रह जाओगे।’’

गहरी चुप्पी साधे चन्दर अपने पिताजी की बातें सुन रहा था। उसके पिताजी ने अपनी बात को विराम दिया और चुपके से सामने बैठी पत्नी की तरफ देखा। पत्नी ने आॅंखों ही आॅंखों में संकेत किया कि बात बिल्कुल सही दिशा में आगे बढ़ रही है। लोहा गरम है बस चोट करते जाने की आवश्यकता है। पत्नी का संकेत पा कर अपने स्वर में नरमी का पुट लाते हुए वे पुनः बोले-‘‘देख बेटा ! नेहा से शादी करने में फायदा ही फायदा है। कमासुत बीबी रहेगी इसलिए रुपए-पैसे या नौकरी की चिन्ता खत्म। तुझे नौकरी मिल जाए बड़ी अच्छी बात, अगर नौकरी नहीं भी मिली तो इन्दर के मिले पैसों से तू अपना कोई बिजनेस शुरू कर सकता है। मियाॅं-बीबी दोनों कमाओगे तो आर्थिक रूप से मजबूत रहोगे। और सबसे बड़ी बात यह होगी कि नेहा जिन्दगी भर तुमसे दब कर रहेगी। उसके मन में हमेशा यह भावना रहेगी कि एक विधवा से शादी कर के तुम ने उसके ऊपर एहसान किया है। हम यह नहीं कहते कि तू बहुत जल्दबाजी में कोई निर्णय ले। पूरी जिन्दगी का सवाल है इसलिए खूब अच्छी तरह से सोच-विचार कर ले। यदि तुझे लगे कि हमारी बात में दम है, यदि लगे कि हम तुम्हारे भले की बात कह रहे हैं, तो बता। अगर तू हाॅं कहेे तो मैं नेहा के घर जाऊॅं और उसके बाप को राजी करने की कोशिश करूॅं।’’

अभी तक भावनाओं की दरिया में तैर रहे, कल्पनाओं के आकाश में उड़ रहे चन्दर को वहाॅं से खींच कर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर पटकने के बाद उसके पिताजी वहाॅं से चले गए। पीछे-पीछे उसकी माॅं भी चली गयीं। ऊहापोह में पड़ा चन्दर कमरे में अकेला रह गया। उसकी हालत मेले में खोए बच्चे की सी हो गयी थी। कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था उसे कि जाए तो किधर जाए। पिताजी की बातों ने उसके अंतरमन में उथल-पुथल मचा कर रख दिया था। मानो शान्त पड़े तालाब में लगातार पत्थर फेंक-फेंक कर किसी ने पानी को बुरी तरह से हलकोर दिया हो। मानो शान्त बैठीं मधुमक्खियों के छत्ते को लग्गी से खोद दिया हो किसी ने।

चन्दर को आज दोपहर में कम्पनी बाग स्थित पब्लिक लाइब्रेरी जाना था। वहीं रेनू से मिलने की बात तय थी। लेकिन वह नहीं गया। शाम के समय नियमित रूप से हीरा हलवाई की दुकान पर दोस्तों के संग बैठकी होती थी लेकिन चन्दर वहाॅं भी नहीं गया। सारे दिन कमरे में अन्यमनस्क सा पड़ा रहा। पिताजी की बातें उसके मस्तिष्क में टेप की तरह चल रही थीं-‘‘नेहा....नेहा...नेहा, पैसा....पैसा....पैसा, नौकरी....नौकरी....नौकरी, भविष्य....भविष्य....भविष्य, सुरक्षा...सुरक्षा.....सुरक्षा।’’ बात के समाप्त होते ही टेप पुनः अपने आप रिबाउण्ड़ हो जाता था-‘‘नेहा...नेहा...नेहा, पैसा....पैसा....पैसा....नौकरी....नौकरी....नौकरी......।’’

चन्दर की बेचैनी देख उसके माॅं-बाप बेहद प्रसन्न थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि तीर बिल्कुल सही निशाने पर लगा है। लाख फड़फड़ा ले या लाख हाथ-पैर मार ले शिकार को अंततः उनकी झोली में गिरना ही है। वे दोनों दम साधे समय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब चन्दर आए और कहे कि-‘‘हाॅं पिताजी ! आपका प्रस्ताव मंजूर है मुझे।’’

उधर कमरे में अकेला बैठा चन्दर निश्चय, अनिश्चय के भॅंवर में ऊभ-चूभ हो रहा था। उबरने के लिए हाथ-पाॅंव मार रहा था। एक तरफ रेनू थी, उसके प्यार का आकर्षण था और उससे किए अनगिनत वायदों के प्रति निष्ठा थी तो दूसरी तरफ पैसा, कमासुत बीबी और उसके साथ जुड़े अनगिनत लाभ। एक तरफ दुःखों, अभावों और अनिश्चित ‘कल’ के खतरे थे तो दूसरी तरफ सुख, सुविधा और सुरक्षित भविष्य का आश्वासन। एक तरफ कांटों से भरा रास्ता था जो घनघोर अंधेरे से हो कर गुजरता था तो दूसरी तरफ फूलों बिछे राह पर उजाले का सफर। दोनों की सीमा-रेखा पर खड़ा चंदर भ्रमित था। वह समझ नहीं पा रहा था कि जाए तो किधर जाए।

समय कभी इतनी कठोर परीक्षा लेगा, पैसे की अहमियत जिन्दगी को ऐसे नाजुक मोड़ पर ले आ कर खड़ी कर देगी, चन्दर ने कभी यह सोचा भी नहीं था। कुछ पल के लिए भावुकता को परे हटा कर व्यावहारिक ढ़ंग से सोचा तो चन्दर को लगा कि पिताजी की बातें निरर्थक नहीं हैं। काफी दम है उनकी बातों में। निःसंदेह जीवन की पहली जरूरत पैसा ही है। प्यार, मुहब्बत तो उसके बाद की चीजें हैं। सहसा उसे ध्यान हो आया कि विश्वविद्यालय में उसके साथ पढ़ने वाली लड़कियाॅं किस प्रकार पैसे वाले लड़कों के आगे-पीछे मॅंड़राया करती थीं। और सम्पन्न घरों के लड़के पैसों की बदौलत कैसे मनचाही लड़कियों को साथ लिए कैण्टीन, सिनेमा या पार्क आदि में जहाॅं चाहें वहाॅं टहलते रहते थे।

‘‘तो क्या पिछले दो-ढ़ाई वर्षाें में तुम यही समझ पाए रेनू को....? क्या उसे भी तुम उन्हीं छिछोरी लड़कियों की श्रेणी में रखते हो....? क्या रेनू भी तुम्हारी तरफ पैसों के कारण ही आकर्षित हुयी थी...?’’ सहसा चन्दर के अंदर से एक प्रश्न आया।

‘‘नहीं। निश्चित ही इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है। चन्दर की आर्थिक स्थिति कभी भी ऐसी नहीं रही कि वह पैसों के बल पर कुछ प्राप्त कर सके। और जहाॅं तक रेनू की बात है, सच्चाई यह है कि रेनू उसकी तरफ नहीं बल्कि वह रेनू की तरफ आकर्षित हुआ था। काफी मेहनत, मशक्कत के बाद वह रेनू के मन का किला भेद सकने में सफल हो पाया था। अतः रेनू के सम्बन्ध में तो ऐसी हल्की बात सोचना भी पाप है। रेनू बहुत सुलझी और जहीन लड़की है। वह दिलो-जान से चाहती है उसे। रेनू के मन में सच्चा प्यार है उसके लिए।’’ उसके अंदर से तुरन्त प्रश्न का जबाब भी आ गया।

‘‘तो फिर क्यों रेनू के प्यार को तू पैसों की तराजू पर तौलने पर आमादा है...? क्या पैसा ही सब कुछ है दुनिया में....? क्या पैसा ही भगवान, पैसा ही ज़मीर, पैसा ही ईमान है तुम्हारे लिए...? प्यार-मोहब्बत, रिश्ते-नाते कुछ नहीं....? अपनी जुबान, अपने वायदों तथा दूसरे के विश्वास, भरोसा और भावनाओं की कोई अहमियत नहीं...?’’ उसके अंदर से दूसरा प्रश्न आया।

इस प्रश्न के उत्तर में चन्दर की स्मृति में सहसा छः-सात महीने पुरानी एक घटना सजीव हो उठी। उस समय की घटना जब पब्लिक लाइब्रेरी के पीछे पार्क में वह रेनू के साथ बैठा था। ‘‘रेनू ! अब सहा नहीं जाता मुझसे....। एक-एक दिन भारी लग रहा है अब तो। चलो चुपचाप कोर्ट में शादी कर लेते हैं। फिर जो होगा देखा जाएगा।’’ रेनू की हथेली अपनी हथेली में लिए चन्दर ने बहुत आतुर हो कर कहा था।

‘‘शादी....? हो...हो...हो....हो....।’’ अभी चन्दर की बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि रेनू खिलखिला कर हॅंस पड़ी थी। चन्दर अचकचा कर उसका मुॅंह देखने लगा था जैसे कोई बहुत बड़ी बेवकूफी की बात कह दी हो उसने।

‘‘अरे मजनू मियाॅं ! शादी के लिए तो इतने उतावले हो रहे हो लेकिन यह भी सोचा है कि शादी के बाद मुझको रखोगे कहाॅं....और खिलाओगे क्या....? इस अंतर्जातीय प्रेम-विवाह को न तो मेरे घर वाले स्वीकार करेंगे और न ही तुम्हारे घर वाले। ऐसे में, इस बेकारी की हालत में शादी कर के मुझे भूखों मारने का इरादा है क्या ? ना बाबा ना....इतना बड़ा रिश्क नहीं लेना हमें। पहले दस पैसे कमाने की जुगत करो....फिर सोचेंगे शादी के बारे में।’’ रेनू ने हॅंसते हुए कहा था।

यद्यपि रेनू की वह बात पूरी तरह से व्यावहारिक और उचित थी फिर भी उसकी खनकती हॅंसी चन्दर के अंतस में काॅंच की तरह चुभ गयी थी। उस समय रेनू में बुद्धि तत्व प्रबल था और चंदर में भाव तत्व। रेनू ने जीवन का नंगा सच उजागर कर दिया था जबकि चन्दर उस समय पूरी तरह भावुकता की गिरफ़्त में था। रेनू से भी वह वैसी ही भावुकतापूर्ण उत्तर की आशा कर रहा था इसलिए रेनू की बात सुन खिन्न हो उठा था चंदर का मन।

‘‘बदजात। बहुत सयानी बनती है। मैं हूॅं कि उसके लिए जान तक देने को तैयार हूूॅं......ईश्वर से भी बढ़ कर मानता हूूॅं उसे। लेकिन उसकी निगाह में मेरी भावनाओं की कोई कद्र ही नहीं। कमबख्त यह भी तो कह सकती थी-‘‘ठीक है चंदर ! मैं हर तरह से तैयार हूॅं। चाहे फुटपाथ पर सोना पड़े, चाहे भूखे-प्यासे रहना पड़े, चाहे दुनिया की बड़ी से बड़ी परेशानी झेलनी पड़े, मुझे कोई परवाह नहीं। तुम जब कहो, जहाॅं कहो वहाॅं साथ चलने को तैयार हूॅं मैं।’’ लेकिन नहीं, उसको तो मेरा साथ नहीं पहले सुख-सुविधा की गारंटी चाहिए। मेरा प्यार नहीं मेरी नौकरी प्रमुख है उसके लिए। कहती है पहले दस पैसा कमाने की जुगत करो फिर शादी की सोचो। जब वह शादी से पहले पैसा और सुख-सुविधा की गारंटी चाहती है तो फिर मैं क्यों न चाहूॅं....? यदि नेहा के साथ शादी करने में मुझे सुख-सुविधा और आर्थिक सुरक्षा की गारंटी मिल रही है तो मैं क्यों यह सुनहरा अवसर हाथ से जाने दूॅं...?’’ चंदर ने अपने आप को समझाया।

ऐसे ही स्वगत सवाल-जबाब में उलझे पूरा दिन बीत गया। शाम ढ़ली और रात आ गयी लेकिन चंदर बाहर नहीं निकला। अपने कमरे में अकेले बैठा लाभ-हानि के गुणा-भाग में उलझा रहा। दरअसल मनुष्य स्वभावतः बहुत शातिर होता है। वह सही या गलत जिस किसी भी काम को करने का निश्चय कर लेता है उसके पक्ष में अनेकों तर्क और बहाने भी गढ़ लेता है। चंदर के मन में इस समय जितने भी तर्क आ रहे थे सब के सब रेनू के विरोध में ही थे-‘‘पिताजी ठीक ही तो कह रहे हैं। क्या पता मुझे नौकरी मिलने में कितना समय लगे। फिर इस बात की क्या गारंटी है कि मुझे नौकरी मिलने तक रेनू मेरी प्रतीक्षा में बैठी ही रहेगी। अपने माॅं-बाप के दबाव में या कहीं कोई पैसा वाला लड़का देख कर उसने किसी और के साथ शादी कर ली तो...? तब तो फिर वही बात होगी कि ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’। इधर उसके चक्कर में मैं नेहा से भी हाथ धो बैठूॅं और उधर वह भी अॅंगूठा दिखा जाय। आज जैसा ठोस, आकर्षक प्रस्ताव मेरे सामने है, यदि वैसा ही प्रस्ताव रेनू के सामने हो तो क्या वह इन्कार कर सकेगी ? यह भी तो संभव है कि बेहतर विकल्प मिलते ही वह बाय-बाय, टा-टा कर के चल दे।’’ चंदर देर रात तक अपने आप से सवाल, जबाब करता रहा। अपने मन के तराजू के एक पलड़े में नेहा तथा दूसरे में रेनू को रख कर काॅंटे का झुकाव देखता रहा।

अगली सुबह बगल वाले कमरे में रखी टेलीफोन की घंटी की आवाज से चंदर की नींद खुली। फोन की घंटी काफी देर से लगातार बजती जा रही थी। उसने अनुमान लगाया कि इस समय पिताजी टहलने निकले होंगे और माॅं पूजा घर में होंगी। अतः वह जल्दी से बिस्तर से निकल कर गया और फोन उठाया।

‘‘हलो....? कौन...चंदर...? क्यों तुम्हारी तबियत तो ठीक है...? घर में तो सब ठीक-ठाक है....? तुम यहीं तो थे.....या कहीं बाहर चले गए थे.....? और तुम्हारा मोबाइल क्यों स्विच आफ बता रहा है ?’’ दूसरी तरफ फोन पर रेनू थी। उसने एक ही साॅंस में कई प्रश्न पूछ ड़ाले।

‘‘हाॅं....हाॅं मैं बिल्कुल ठीक हूॅं। लेकिन बात क्या है....? इतने सवेरे-सवेरे क्यों फोन किया तुमने.....? और तुम इतनी घबड़ाई सी क्यों हो.....?’’ चंदर बोला। उसे सहसा ध्यान आया कि कल सवेरे वह मोबाइल को चार्जिंग में लगाना ही भूल गया था। अपने आप स्विच आफ हो गया होगा वह।

‘‘बात बहुत गंभीर है....। अभी साढ़े दस बजे तुम पब्लिक लाइब्रेरी पॅंहुचो....। वहीं मिलूॅंगी तो बताऊॅंगी।’’ रेनू ने कहा और फोन कट गया।

चंदर के मन में कल सवेरे से ही जो उथल-पुथल चल रहा था उस पर अचानक ब्रेक लग गया। वह जल्दी-जल्दी तैयार हो कर पब्लिक लाइब्रेरी पॅंहुचा। रेनू वहाॅं प्रतीक्षा करती पहले से खड़ी थी। वह बेतरह घबड़ाई हुयी थी। उसके चेहरे पर हवाइयाॅं उड़ रही थीं।

‘‘क्या बात है....बहुत परेशान दिख रही हो तुम ? सब नार्मल तो है....?’’ चंदर ने उसके पास पॅंहुच कर पूछा।

‘‘पहले तुम बताओ कि कल क्यों नहीं आए ?’’

‘‘कल.....? कल....बस यूॅं ही ध्यान नहीं रहा। सण्डे था सो सारे दिन सोता रह गया।’’

‘‘अरे वाह ! बड़े आराम से कह दिया कि ध्यान नहीं रहा। बारह, पन्द्रह दिनों के बाद तो कहीं मिलने का कोई बहाना मिल पाता है....उस पर भी जनाब को ध्यान नहीं रहता। पता है...कल मैं कितनी देर तक यहाॅं इन्तजार करती रही...? अच्छा तमाशा है यह भी....। यहाॅं मेरी जान निकली जा रही थी और श्रीमान जी लम्बी तान कर सोते रहे।’’ गुस्से में भरी रेनू एक साॅंस में बोले जा रही थी।

‘‘अरे बाबा सॅारी....। साॅरी....सारी.....वेरी सॅारी। मान लिया कि मुझसे गलती हो गयी। कहो तो कान पकड़ कर उठक-बैठक कर लूॅं। अब बात भी बताओगी कि कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है या बस यूॅं ही ड़ाॅंट पिलाती रहोगी।’’ चंदर ने अपने दोनों कान पकड़ कर कहा।

‘‘वही बात हुयी जिसका मुझे ड़र था। बड़े भइया ने वहीं मेरठ में कहीं मेरी शादी की बात चलाई है। लड़का बिजली विभाग में इंजीनियर है शायद। उन लोगों ने मेरी फोटो पसंद कर ली है। अब मुझे दिखलाने और सगाई वगैरह की बात चल रही है।’’ अचानक रेनू का स्वर बदल गया। वह थरथराती सी आवाज में बोली।

‘‘तो....? तो इसमें मैं क्या करूॅं......?’’

‘‘मेरी समझ से अब देर करना ठीक नहीं होगा। मैं सोच रही हूॅं कि अपने सम्बन्धों की बात साफ-साफ मम्मी को बता दूॅं। लेकिन उसके बाद जो भूचाल आने वाला है उसके लिए हमें पहले से ही तैयार रहना होगा। मुझको पक्का विश्वास है कि मेरे मम्मी-पापा इस अंतर्जातीय विवाह की इजाजत नहीं देंगे। बड़े भइया तो जब सुनेंगे तो घर में तूफान ही खड़ा कर देंगे। कोढ़ में खाज वाली बात यह है कि अभी हम दोनों ही बेरोजगार हैं.....। अगर हममें से कोई एक भी जाॅब में होता तो अपना पक्ष कुछ मजबूत रहता। अब आगे क्या करना है, कैसे करना है यह सब तुम्हारे ऊपर है। हो सकता है हमें घर छोड़ना पड़े....। हो सकता है हमें यह शहर भी छोड़ना पड़े....। हो सकता है बात पुलिस तक पॅंहुचे और हमें कोर्ट-कचहरी का भी चक्कर लगाना पड़े। लेकिन यह निश्चित मानों कि मैं हर हालत में तुम्हारे साथ पूरी मजबूती के साथ खड़ी रहूॅंगी।’’

‘‘अरी ओ मूर्ख लड़की ! क्यों मुझ बेरोजगार के साथ अपना बेड़ा गर्क करने पर तुली हुयी है। भाग्य से अच्छा-खासा नोट छापने की मशीन इंजीनियर दूल्हा मिल रहा है.....जाओ उसके साथ शादी कर के ऐश करो। जिन्दगी के मजे लो। मुझ निकम्मे के पास क्या रखा है जो मेरे पीछे दीवानी हुयी जा रही हो।’’

‘‘देखो चंदर ! मैं इस समय मजाक के मूड़ में नहीं हूॅं।’’ चंदर की बात बीच में ही काट कर रेनू बोल पड़ी। ‘‘अगर मुझे नोट छापने की मशीन से ही शादी करनी होती न तो मैं इतनी परेशान नहीं होती....। और यहाॅं तुमको यह बात बताने के लिए नहीं आती बल्कि सीधे शादी का कार्ड भेज देती तुम्हारे घर के पते पर। समझे......? प्यार कोई व्यापार नहीं है जिसमें घाटे-मुनाफे का गणित लगाया जाय। रही बेड़ा गर्क होने की बात तो जब प्यार हमने किया है, लीक तोड़ने की जुर्रत हमने की है तो उसकी सजा भी तो हमें ही भुगतनी होगी। अब तो जो हो सो हो....मुझे कोई परवाह नहीं। तुम अपनी बताओ कि तुम क्या कहते हो...? समय बहुत कम है....। यहाॅं बैठो....ठंड़े दिमाग से सोचो और बताओे कि क्या करना है। मुझे अभी, इसी वक्त दो-टूक फैसला चाहिए।’’

रेनू के तेवर देख चकित रह गया चंदर। आज रेनू बिल्कुल बदली-बदली सी नजर आ रही थी। पहले वाली छुई-मुई या ‘कहीं कोई देख ना ले’ के भय से ग्रस्त घबड़ाई रेनू नहीं थी आज। चंदर ने देखा कि उसके चेहरे पर दुविधा या घबड़ाहट का कोई नामोनिशान तक नहीं था। दृढ़ता और आत्मविश्वास से पूरी तरह लबरेज नजर आ रही थी वह। उसको देख और सुन कर बाग-बाग हो उठा चंदर का मन। उसकी दुविधा दूर हो गयी। उसे निर्णय लेने में एक पल भी नहीं लगा।

‘‘ऐसी बात नहीं है रेनू। हमने प्यार किया है कोई अपराध नहीं जो तुम सजा भुगतने की बात कर रही हो। सच्चे प्यार में लाभ-हानि का लेखा-जोखा नहीं होता। जब तुम औरत हो कर इतनी दृढ़ हो तो मैं तो फिर भी मर्द हूॅं। मैं भी आगे आने वाली हर स्थिति के लिए तैयार हूॅं। आज ही अपने घर में दो टूक बात कर लेता हूॅ। तुम भी अपने यहाॅं बात कर लो। फिर घर वालों की प्रतिक्रिया देखने के बाद हम अगले कदम के बारे में सोचेंगे। मुझे विश्वास है कि हमारे प्यार और हमारे विश्वास की जीत होगी। हम निश्चित ही कामयाब होंगे।’’ चंदर ने कहा और रेनू का हाथ अपने होठों तक ले जा कर चूम लिया।

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