पंगा
कहानी
‘‘और लो पुलिस से पंगा.....और लो समाज सुधार का ठेका। हे भगवान..! मैं तो तंग आ गयी हूॅं इस आदमी से। जाने कब समझ आएगी इनको....। आए दिन कोई न कोई बखेड़ा खड़ा किए रहते हैं।’’ पत्नी का अविराम कोसना चालू था और सर झुकाए बैठे सुन रहे निगम जी विचारमग्न थे कि क्या वास्तव में कोई गलती की है उन्होंने।
क्या करेंगे आप और क्या करेंगे हम ? कुछ लोग होते ही हैं ऐसे सिरफिरे। अपनी आदत से मजबूर। या यूॅं कहें कि बेवकूफी की हद तक बेवकूफ। ठीक है कि आदमी को परदुःखकातर होना चाहिए, बेबस, लाचार की मदद करनी चाहिए, गलत बात का विरोध करना चाहिए, सच्चाई के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि होम करते हाथ जला बैठें। इस बात का भी तो ध्यान रखना चाहिए कि पहले आत्मा है तब परमात्मा। समझदार लोग इस बात को बखूबी समझते हैं। वे समझते हैं कि किताबों में लिखीं अच्छी-अच्छी बातें सिर्फ कहने, सुनने और पढ़ने के लिए होती हैं, व्यावहारिक जीवन में अपनाने के लिए नहीं। समझदार लोग सिद्धांत और व्यवहार का घालमेल नहीं किया करते हैं। ठीक भी है, सिद्धांत अपनी जगह है और व्यवहार अपनी जगह। और सच कहें तो ऐसे व्यावहारिक ही लोग सुखी तथा सफल होते हैं। लेकिन साहब ऐसा भी तो नहीं कि काबुल में गधे नहीं होते। हमारे इसी समाज में कुछ सत्यप्रकाश निगम जैसे लोग भी होते हैं जो किताबों में लिखी सिद्धांत और आदर्श की बातों को अपने आचरण का हिस्सा बना लेते हैं। परिणामस्वरूप कदम-कदम पर परेशान होते हैं। बाहर भी लतियाए जाते हैं, दुरदुराए जाते हैं और घर के अंदर भी।
हमारे कथा नायक सत्तन बाबू यानी सत्य प्रकाश निगम बहुत ही संवेदनशील व्यक्ति थे। अरे...रे..रे...थे नहीं बल्कि हैं। आज जहाॅं दुनिया का चलन है कि अपने किसी खास को भी दिक्कत में घिरा देख कर लोग मुॅंह फेर लेते हैं, वहीं हमारे सत्तन बाबू इसके ठीक उलट अपने जिगर में सारी दुनिया का दर्द लिए फिरते हैं। दूसरों की मदद करने का जैसे नशा सा है उनको। उनसे किसी की भी परेशानी नहीं देखी जाती है। आगे-पीछे सोचे बगैर, अपने नफा-नुकसान का जोड़-घटाना किए बगैर किसी भी अनजान की मदद को दौड़ पड़ते हैं। सवेरे आफिस जाते समय अगर रास्ते में कोई घायल दिख जाय तो आफिस जाना भूल उसको ले कर अस्पताल पहॅंुच जाते हैं, भले ही आफिस में उस दिन गैरहाजिरी ही क्यों न लग जाय। सिटी बस या आटो रिक्सा की प्रतीक्षा में सड़क के किनारे खड़े किसी बुजुर्ग को देखते हैं तो अपने स्कूटर पर बिठाए उसके गंतव्य तक छोड़ने चले जाते हैं, भले ही उसके लिए दो-चार किलो मीटर का अतिरिक्त चक्कर क्यों न लगाना पड़ जाय। यदि कहीं दो लोग लड़ते-झगड़ते दिख जायें तो रुक कर बीच-बचाव करने लगते हैं, भले ही दोनों लड़ने वाले आपसी लड़ाई छोड़ उनसे ही क्यों न उलझ पड़ें। यद्यपि कई बार ‘तू कौन, मैं खामखा’ की वजह से बेइज्जत भी होना पड़ जाता है, बेवजह मुश्किल में फॅंस जाना पड़ता है, लेकिन करें तो क्या करें। अपनी आदत से मजबूर जो हैं। वही मसल है कि ‘छुटती नहीं है गालिब मुॅंह की लगी हुयी’।
चलिए, भूमिका छोड़ असल मुद्दे पर आते हैं। हाॅं तो हुआ ये कि एक दिन सवेरे आफिस के लिए निकलते समय सत्तन बाबू की पत्नी ने उन्हें सब्जी का झोला थमा दिया। मतलब ये कि शाम को लौटते समय उनको साग-सब्जी लेते हुए घर लौटना था। सप्ताह में दो या कभी-कभी तीन दिन ऐसा होता था जब शाम को आफिस से सीधे घर न लौट कर उनको सब्जी मण्ड़ी होते हुए आना पड़ता था। जाते दिसम्बर की एक ठिठुरती शाम थी वह। सब्जियों से भरा थैला लादे सत्तन बाबू सब्जी-मण्ड़ी से निकल कर अभी नाले के मोड़ तक ही पहॅंुचे थे कि उनके हाथों की अॅंगुलियाॅं ब्रेक पर अपने-आप कस गईं। दरअसल हुआ यह कि उनकी आॅंखों ने एक ठेले वाले को एक सिपाही के हाथों पिटते देखा। आॅंखों ने मस्तिष्क को सूचना दी, मस्तिष्क ने अॅंगुलियों को आदेश दिया और अॅंगुलियों ने तत्काल आदेश का पालन कर दिया। स्कूटर एक झटके के साथ रुक गया।
स्कूटर को एक किनारे खड़ी कर के सत्तन बाबू ‘मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान’ की तर्ज पर घटना स्थल पर पहॅंुच गए। जो कुछ घटित हो रहा था उसके कुल तीन किरदार थे। वर्दी-पेटी में सजे-धजे पुलिस के दो सिपाही तथा एक सब्जी का ठेला लगाने वाला। सिपाहियों में से एक के दोनों हाथों में मटर, टमाटर, हरी मिर्च और फूल गोभी वगैरह से भरे पालीथीन के दो थैले थे तथा दूसरे सिपाही के हाथ में लगभग चार फुट लम्बा एक चिकना सा ड़ंड़ा। दृश्य यह था कि ठेला वाला अपने दोनों हाथों को जोड़े गिड़गिड़ा रहा था, ड़ंड़े वाला सिपाही अपने ड़ंड़े से उसके पिछवाड़े को गरम कर रहा था और दूसरा सिपाही जो ठेले के दूसरी तरफ खड़ा था, उच्चकोटि की विविध प्रकार की अलंकारयुक्त गालियों का अविराम उच्चारण कर रहा था। रास्ता चलते कुछ लोग ठिठक कर, घटना स्थल से सुरक्षित दूरी बनाए खड़े उस रोचक दृश्य का निरपेक्ष भाव से अवलोकन कर रहे थे। लेकिन सत्तन बाबू निरपेक्ष नहीं रह सके।
‘‘क्या बात है भाई....? इस गरीब पर क्यों जुल्म ढ़ा रहे हैं आप लोग ?’’ अपनी आदत से मजबूर सत्तन बाबू ने चैथे किरदार के रूप में प्रकरण में सीधे हस्तक्षेप कर दिया। कहना न होगा कि शहर की कानून-व्यवस्था दुरूस्त करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य में लगे सिपाहियों को किसी राह चलते दो टके के आदमी से ऐसे हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं थी। इसलिए घटना में सत्तन बाबू के किरदार का अवांछित प्रवेश पुलिस के जवानों को बहुत नागवार लगा।
सत्तन बाबू का प्रश्न सुनते ही ड़ंड़े का सदुपयोग कर रहे सिपाही का ड़ंड़ा थामा हाथ ठेले वाले के पिछवाड़े पर गिरने से थोड़ा पहले ही हवा में थम गया। दाॅंत पिसते उसने आग्नेय आॅंखों से सत्तन बाबू को घूरा। श्लोक की तरह गालियाॅं उच्चरित कर रहे दूसरे सिपाही की जुबान भी थम गयी। सत्तन बाबू के अचानक आ टपकने से ठेले वाले को तिनके का सहारा मिल गया। उसने सत्तन बाबू की ओर याचनाभरी निगाहों से ऐसे देखा मानो ईश्वर ने उनको उसके मुक्तिदूत के रूप में भेजा हो।
‘‘तुमसे मतलब....? दिख नहीं रहा है तुमको कि बीच सड़क पर ठेला लगा रखा है इस स्साले ने। ट्राफिक जाम हो रहा है इसकी बजह से।’’ ड़ंड़ा वाला सिपाही सत्तन बाबू को सर से पाॅंव तक तौल चुकने के बाद उनको खा जाने वाली निगाहों से देखते हुए गुर्राया।
‘‘बीच सड़क में कहाॅं है सिपाही जी.....बिल्कुल किनारे पर तो है बेचारे का ठेला। फिर भी अगर कोई दिक्कत है तो डाॅंट-फटकार से मना कर दो। कह दो कि ठेला ले कर कहीं और चला जाय। लेकिन इसे ड़ंड़ा क्यों मार रहे हो ?’’ सत्तन बाबू ने कहा।
इतना सुनना था कि दूसरा सिपाही एकदम से ताव खा गया। एक अदना से आदमी की इतनी मजाल कि वह वर्दी, पेटी, बिल्ला से लैस पुलिस के जवान से सवाल-जबाब करे। वह एकदम से तुम-तड़ाक पर उतर आया।
‘‘तू कौन है बे....? तेरे पेट में काहे दर्द हो रहा है....? इस स्साले की महतारी का भतार है क्या ?’’ चीखता हुआ दूसरा सिपाही सत्तन बाबू के बिल्कुल पास आ गया। उसके दोनों हाथों में सब्जी भरे पालीथिन के थैले थे वरना शायद उनकी कालर पकड़ कर एक-दो थप्पड़ लगा चुका होता।
‘‘सिपाही जी ! पहली बात तो यह कि जबान सॅंभाल कर बात करो....। और दूसरे यह कि किसी को मारने या गाली देने का तुमको कोई अधिकार नहीं है। अगर शिकायत कर दूॅं अभी एस0पी0 साहब के पास तो तुमको नौकरी बचाने के लाले पड़ जायेंगे।’’ सत्तन बाबू तन गए। उनको तना देख सिपाही ढ़ीले पड़ गए।
‘‘वैसे आप का परिचय क्या है श्रीमान जी ?’’ ड़ंड़े वाले सिपाही ने बहुत नाटकीय अंदाज में पूछा।
‘‘मैं यस. पी. निगम....राज्य परिवहन विभाग में मुलाजिम हूॅं। कटरा मुहल्ले में रहता हॅंू। और कुछ.....?’’ सत्तन बाबू ने उसी गर्मी के साथ जबाब दिया।
ड़ंड़े वाले सिपाही ने जेब से मोबाइल निकाली, सत्तन बाबू और उनके स्कूटर की तीन-चार फोटो ख्ंिाची और अपनी मोटर सायकिल स्टार्ट करके उस पर बैठ गया। दूसरा सिपाही लपक कर उसके पीछे जा बैठा और दोनों वहाॅं से फुर्र हो गए। सिपाहियों के जाते ही दूर से तमाशा देख रही भीड़ ठेले के पास आ गई।
ठेली वाले ने लोगों को जो बताया उसके अनुसार किस्सा-कोताह यह था कि अपनी ड्यूटी पूरी कर के थाने से घर लौट रहे दोनों सिपाहियों ने ठेले वाले से सब्जियाॅं ली थीं और बगैर पैसे दिए जाने लगे थे। मतिहीन ठेले वाले ने गलती यह की थी कि उनसे पैसे माॅंगने का दुस्साहस कर दिया था। ठेले वाले का पैसा माॅंगना सिपाहियों को बहुत नागवार लगा था। अपने ही थाना क्षेत्र में सब्जी का पैसा चुकायें, फिर तो धिक्कार है पुलिस के जवान होने पर। सब्जी वाले के पैसा माॅंगने से आहत सिपाही उसको सबक सिखाने में जुट गए थे ताकि वह भविष्य में ऐसी गलती की पुनरावृति न कर सके। लेकिन अनायास और अप्रत्याशित रूप से बीच में कूद कर सत्तन बाबू ने सिपाहियों की इस शिक्षण योजना में बाधा उत्पन्न कर दी थी।
सत्तन बाबू तो समय के साथ उस घटना को भूल गए लेकिन दोनों सिपाही नहीं भूल सके। सत्तन बाबू का उस दिन का हस्तक्षेप सिपाहियों का व्यक्तिगत नहीं बल्कि प्रदेश पुलिस की वर्दी, पेटी और बिल्ले का अपमान था। बल्कि कह सकते हैं कि एक तरह से शासकीय कार्य में हस्तक्षेप के समान था। अगर आम आदमी की इतनी जुर्रत हो जाय कि वह पुलिस के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे तब तो फिर चल चुका शासन और सॅंभल चुकी कानून-व्यवस्था। ऐसे तो पुलिस का इक़बाल ही खतम हो जाएगा। अतः सत्तन बाबू जैसे अराजक तत्व को सबक सिखाना नितांत आवश्यक था। उन दोनों सिपाहियों ने प्रकरण की चर्चा अपने अन्य साथियों से की और मोबाइल में कैद तस्वीर के सहारे सत्तन बाबू की टोह में लग गए।
उस दिन मण्डी से खरीद कर लायी सब्जी तीन दिनों तक चली। चैथे दिन सवेरे पत्नी ने फिर झोला पकड़ा दिया। परिणामस्वरूप आफिस के बाद सत्तन बाबू को पुनः सब्जी मण्डी जाना पड़ा। लेकिन आज वे सब्जी मण्डी तक नहीं पहॅंुच सके। अभी नाले से उतर कर मुड़े ही थे कि उनकी पीठ पर जोर की लाठी गिरी। स्कूटर लहरा गया। गिरते-गिरते बचे। कुछ समझ पायें उससे पहले ही चार सिपाहियों ने उनको घेर लिया।
‘‘चल, स्कूटर किनारे लगा। तुम्हारी तलाशी लेनी है।’’ एक सिपाही बोला। सत्तन बाबू को आवाज कुछ पहचानी सी लगी। ध्यान से देखा तो पाया कि यह तो वही सिपाही था जो उस दिन धारा प्रवाह गालियाॅं बक रहा था।
‘‘तलाशी....? क्यों....? किस बात की तलाशी....?’’ सत्तन बाबू ने आपत्ति जतायी।
‘‘अभी पता चल जाएगा बेटा...। इधर किनारे तो आ।’’ दूसरे सिपाही ने कहा।
‘‘कोई तलाशी नहीं देनी है मुझको। मैं एक शरीफ आदमी हूॅं....। सरकारी कर्मचारी हूॅं। भरी बाजार में मुझे बेवजह बेइज्जत नहीं कर सकते तुम लोग।’’ सत्तन बाबू चीखते रहे, बिफरते रहे लेकिन सिपाहियों के ऊपर रंचमात्र भी असर नहीं हुआ। एक किनारे खड़ा कर के तलाशी ली गयी तो सत्तन बाबू के स्कूटर की डिक्की से एक देशी कट्टा तथा अफीम की पुड़िया मिली। तमाशबीन के रूप में जुट आयी भीड़ में से दो लोग चश्मदीद गवाह बनने के लिए भी तैयार हो गए। स्कूटर सहित सत्तन बाबू को थाने पर ले जाया गया। लिखा-पढ़ी हुयी। आई.पी.सी. तथा एन.डी.पी.एस. एक्ट की सुसंगत धाराओं के अंतर्गत मुकदमा दर्ज हुआ और उनको हवालात में ड़ाल दिया गया। उधर सवेरे के निकले सत्तन बाबू के घर नहीं लौटने से उनकी बीबी और बच्चे बेतरह परेशान थे। सर्वाधिक चिंता की बात यह थी कि उनका मोबाइल भी स्वीच आफ था।
अगले दिन स्थानीय अखबार में सत्तन बाबू की तस्वीर सहित खबर छपी तो लोगों को पता चला कि अफीम की तस्करी तथा अवैध असलहा रखने के जुर्म में वे पुलिस द्वारा धर लिए गए हैं। एक तो छोटा सा शहर, दूसरे दशकों से वहीं रहने और तीसरे हर किसी के सुख-दुख में सहभागिता करने के कारण शहर का हर तीसरा आदमी सत्तन बाबू को जानता था। जो नाम से नहीं जानता था वह उनको चेहरे से पहचानता था। इसलिए जिस किसी ने भी पढ़ा, सुना और अखबार में छपी उनकी तस्वीर देखी, उसने कहा कि पुलिस को जरूर कोई गलतफहमी हुयी है। सत्तन बाबू ऐसा काम कर ही नहीं सकते। जानकारी मिली तो सब्जी ठेला वाला भागा-भागा थाने पर पहॅंुचा। देखा तो सत्तन बाबू हवालात के अंदर मुॅंह लटकाए बैठे थे और बाहर खडीं उनकी पत्नी तथा दो बेटियाॅं बिसुर रही थीं। उनकी पत्नी रोने के साथ-साथ कोसती जा रही थी।
‘‘यह सब मेरे कारण हुआ है बाबूजी....बस मेरे कारण। न उस दिन आप मेरे बचाव में बोलते न इन नीच, कमीने सिपाहियों के आॅंखों की किरकिरी बनते। कुछ भी कर सकते हैं ये पुलिस वाले.....रस्सी को साॅंप बनाते मिनट भर भी देर नहीं लगती इन हरामियों को। वो तो उस दिन जब सिपाही ने अपने मोबाइल से आपकी और आपके स्कूटर की फोटो खिंची थी तभी शक हो गया था मुझको कि ये लोग कोई न कोई खुराफात जरूर करेंगे। आखिर अपनी जात दिखा ही दी इन कुत्तों ने।’’ हवालात के अंदर सत्तन बाबू तथा बाहर उनके परिजनों की दशा देख ठेले वाला रोने लगा।
ठेले वाले की ही जुबानी सत्तन बाबू के घर वालों को तथा अन्य लोगों को हादसे के पीछे की पूरी कहानी की जानकारी मिली।
एक तो सरकारी मुलाजिम, दूसरे समाज में छवि अच्छी थी इसलिए तीसरे ही दिन सत्तन बाबू को कोर्ट से जमानत मिल गयी। लेकिन तब तक अड़तालिस घंटों से अधिक समय तक जेल में रहने के कारण वे नौकरी से निलम्बित किए जा चुके थे। निलम्बन तो खैर कुछ समय बाद समाप्त हो गया लेकिन आरोप इतने गंभीर थे और धारायें इतनी खतरनाक थीं कि मुकदमा तो चलना ही था। इस बीच एक खास बात यह हुयी कि खुद अन्याय सहने, पुलिस का ड़ंड़ा खाने और हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने वाला वह सब्जी ठेला वाला सत्तन बाबू के पक्ष में सीना तान कर खड़ा हो गया। सत्तन बाबू को बेदाग बरी कराने का उसने जैसे बीड़ा उठा लिया। शहर के हर खासो-आम को तथा छोटे-बड़े हर अखबार के आफिस में जा-जा कर उसने पुलिस द्वारा सत्तन बाबू को जबरदस्ती फॅंसाए जाने की कहानी सुनायी। यह बात और है कि कुछ अखबार वालों ने थोड़़ा-मोड़ा छापा लेकिन पुलिस के साथ चोली-दामन के सम्बंध के कारण अधिकांश अखबार वाले सच्चाई को पी गए।
सब्जी ठेली वाला सत्तन बाबू के पक्ष में अहम गवाह था। बेखौफ़ हो उसने भरी अदालत में जज साहब को सारी बातें बतायीं। वैसे भी झूठ आखिर झूठ ही होता है। उस पर लाख सच का मुलम्मा चढ़ा दो असलियत देर-सवेर सामने आ ही जाती है। पुलिस ने जो केस बनाया था उसमें इतने अधिक झोल थे, इतने सारे छेद थे कि जज साहब को मामले के बनावटी होने का अंदेशा हो गया था। ठेले वाले ने न सिर्फ दोनों दोषी सिपाहियों की शिनाख्त की बल्कि इस जिद पर अड़ा रहा कि उसे ड़ंड़ा मारने वाले सिपाही के मोबाइल की जाॅंच कराई जाय और उससे पूछा जाय कि सत्तन बाबू को पकड़ने से चार दिनों पहले उसने उनकी तथा उनके स्कूटर की फोटो क्यों खिंची थी। ठेले वाले की बात में दम दिखा तो जज साहब ने सिपाही का मोबाइल तलब कर लिया। खुद को फॅंसता देख सिपाही ने अपने मोबाइल से सारी तस्वीेरें डिलीट कर दीं। और उसकी यही चालाकी उसके गले की फाॅंस बन गई।
शक और भी अधिक गहरा गया तो जज साहब ने सिपाही के मोबाइल से मिटायी गयी तस्वीरों की फोरेंसिक जाॅंच के आदेश दे दिए। साइबर विशेषज्ञों ने डाटा रिस्टोर कर के जाॅंच की तो कहानी परत-दर-परत खुलती चली गयी। कानूनी प्रक्रिया के कारण लड़ाई तो खैर लम्बी चली लेकिन भगवान का लाख-लाख शुक्र कि हमारे सत्तन बाबू बाइज्जत बरी हो गए। कोर्ट की टिप्पड़ी और स्थानीय जनता के दबाव के चलते दोनों सिपाहियों को निलम्बित होना पड़ा।
इतना सब हो चुकने के बावजूद शहर के अंदेशे से हलाकान रहने वाले सत्तन बाबू की बेवजह पंगा लेने की आदत अभी भी गयी नहीं है।