नीम की छाॅंव

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

11/15/20211 मिनट पढ़ें

आज कहानी, उपन्यास, कविता, गीत, गज़ल और आलोचना आदि विधाओं की भीड़ में साहित्य की एक मनोहारी विधा ललित निबंध कहीं खो सी गयी है। अपने छात्र जीवन में हमें बाबू गुलाब राय, सरदार पूर्ण सिंह, राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि लेखकों के एक से बढ़ कर एक लालित्यपूर्ण निबंध पढ़ने को मिलते रहे हैं। लेकिन आज ऐसा लगता है कि जैसे निबंध लिखने वाले रहे ही नहीं। ऐसे में डा0 आद्या प्रसाद द्विवेदी के निबंधों का संकलन ‘नीम की छाॅंव’ पढ़ कर ऐसा आस्वाद मिला जैसे लगातार मीठा खा-खा कर ऊबी जिह्वा को चटपटे नमकीन का स्वाद।

प्रस्तुत पुस्तक ‘नीम की छाॅंव’ में डा0 द्विवेदी के कुल इक्कीस निबंध संकलित हैं। खास बात यह है कि इन निबंधों के विषय कोई अजूबे नहीं बल्कि हमारे परिवेश की चिर परिचित चीजे यथा- नीम, पलाश, फागुन, शरद, चैत, सावन, चैता, गाॅंव, सरयू नदी, भिक्षावृत्ति, लोक संस्कृति, साहित्य, आॅंख, चक्रवाक पक्षी, बेहयापन, वैश्वीकरण, नारी ऋंगार तथा बदलते गाॅंव की गोरी आदि हैं। दूसरी खास बात है इन निबंधों की सहज, सरल और विषयानुकूल प्रवाहपूर्ण भाषा। साहित्य के क्षेत्र में निबंध विधा की कम लोकप्रियता का कारण संभवतः उसकी नीरसता या बोझिलता होती है लेकिन इस संकलन के निबंध इस बात के अपवाद हैं। निबंधों की प्रस्तुतिकरण इतनी रोचक और हृदयस्पर्शी है कि वो प्रारम्भ से ही पाठक को बाॅंध लेती हैं। इनमें से चाहे कोई भी निबंध हो, वह अपने आप को पढ़वा ले जाने में सक्षम है। ‘अलविदा फागुन’ शीर्षक निबंध का एक अंश देखिए-‘‘फागुन की मस्ती को हो क्या गया ? फागुन क्यों सोंठ जैसा हो गया कि आ कर चुपके से चला गया और मन लहका नहीं। पहले तो फागुन भर बाबा लोग भी देवर जैसे लगते थे और आज देवर भी बाबा जैसे हो गए हैं।’’

इन निबंधों में कोई नई बात नहीं कही गई है बल्कि सदैव से कही और सुनी जा रही बातों को ही नए तरीके से, नई व्यंजना के साथ कहा गया है जिन्हें पढ़ कर चमत्कृत हो जाना पड़ता है। एक निबंध का शीर्षक है ‘मधुमास की छाया में विरहिन’। इसका एक अंश द्रष्टव्य है-‘‘बयार का अर्थ है वायु-प्राणवायु। बाहर न बहे तो भीतर भी इसका प्रवाह बंद हो जाएगा और हम निष्प्राण हो जायेंगे। बाहर प्रवाहित रहने पर भी यदि भीतर न बहे तो मृत्यु। बाहर और भीतर का सम्यक संतुलन ही जीवन है।’’

सावन की ऋतु आदिकाल से ही कवियों की मनपसंद विषय रही है। सावन की बहार तथा प्रोषितपतिका विरहिनी को ले कर हिन्दी में न जाने कितनी काव्य रचनायें की गयी हैं। डा0 द्विवेदी ने सावन को कुछ अलग ही ढ़ंग से व्याख्यायित किया है। यथा-‘‘संस्कृत वाङ्मय में सावन का एक पर्यायवाची शब्द नभस् कहा गया है। नभस् का लाक्षणिक अर्थ है वह मास जब समूचा आकाश ही धरती पर उतर आता है। दूसरे शब्दों में इसका तात्पर्य है वह महीना जब आकाश अपनी जीवनप्रिया वसुन्धरा को मेघों की झड़ी का माध्यम बना कर वारिवृन्द से सींच देता है। धरती पूरी तरह से रसवती हो जाती है। इसलिए यह माह केवल एक ऋतृ ही नहीं धरती के अभिलाषाओं की रस वर्षा का पर्व है। वैशाख-जेठ की तपती धूप से कुम्हलाई प्रकृति के प्रतीक्षा की पूर्णता है सावन। सूखी धरती से उदास कृषक की मनोकामनाओं का पर्व है सावन।’’

ऐसा नहीं कि निबंधकार की दृष्टि केवल साहित्य, संस्कृति और ऋतुओं तक ही सीमित है। सामाजिक मूल्यों की गिरावट पर भी उसकी पैनी नजर है। मनुष्य के नैतिक पतन तथा स्वार्थीपन पर कटाक्ष करता निबंध है-‘बेहया-धर्म’। इसका एक अंश देखिए-‘‘विश्व के सभी देशों में धर्म का सम्बन्ध किसी न किसी जाति या सम्प्रदाय से है लेकिन समाज के बदलते परिवेश में आज एक ऐसे धर्म ने अपना पाॅंव पसार लिया है जिसका सम्बन्ध न तो जाति से है न सम्प्रदाय से है और न किसी विशेष भूखण्ड से है। इसका नाम है बेहया धर्म।.......बेहया धर्म का सिद्धान्त वाक्य है-गतासून अगतासूनश्य नान्य सोचिन्त पण्डिताः अर्थात भूत और भविष्य को छोड़ कर केवल वर्तमान में ही जीना चाहिए। इसी में बुद्धिमत्ता है।’’

साहित्कार चाहे किसी भी विधा में लिखे उसका पहला और आखिरी सरोकार देश तथा समाज ही होता है। समाज की विकृतियों को उजागर करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व होता है। डा0 द्विवेदी देश में बढ़ती कट्टरता, असहिष्णुता तथा बिगड़ते सद्भाव को ले कर असहज हैं। अपने निबंध ‘बदलते परिवेश में लोक-संस्कृति’ में कहते हैं कि-‘‘शिक्षा और नए विचार व्यक्ति को प्रगतिशील भी बनाते हैं और प्रतिगामी भी। वर्तमान समाज में नए सिरे से धर्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता के उभार ने सामाजिक सद्भाव को क्षीण किया है। भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुभाषी देश में एक नए तरह के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले शिक्षित लोग पहले से अशिक्षित और अल्पशिक्षित लोगों की तरह उदार नहीं हैं, जब कि सामान्य लोक अपने आप में उदार और सहिष्णु रहा है।’’

संकलन के सभी इक्कीस निबंध न सिर्फ पठनीय हैं बल्कि उनसे ज्ञानार्जन भी होता है। इनमें संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी के महान लेखकों तथा दार्शनिकों के कथनों का बहुतायत से प्रयोग किया गया है। इनके अलावे निबंधकार की बहुत सारी बातें भी सूत्र-वाक्य के रूप में याद रखने योग्य हैं।

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