मोड़
कहानी
चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा जाना उसके लिए न तो अप्रत्याशित था और न ही पहली बार था, लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ वह जरूर अप्रत्याशित और पहली बार हुआ था। पाॅंच, छः महीने पहले जब से उसने छोटी-मोटी चोरियाॅं प्रारम्भ की थीं तब से अब तक वह कम से कम आठ-दस बार पकड़ा जा चुका था। लोग हर बार उसे बच्चा देख ड़ाॅंट-ड़पट कर या दो-चार हल्के थप्पड़ लगा कर छोड़ दिया करते थे। पकड़े जाने पर वह खुद भी ऐसी रोनी और मासूम सूरत बना लेता था, ऐसा दयनीय हाव-भाव दिखाने लगता था कि लोगों को उस पर दया आ ही जाती थी। लेकिन शातिर इतना था कि लोगों की गिरफ्त से छूटते ही किसी नए शिकार की तलाश में जुट जाता था।
माॅं उसकी बचपन में ही मर चुकी थी। उसके नशेड़ी बाप जो रिक्शा चलाता था ने उसे रेलवे स्टेशन पर भीख माॅंगने के काम में लगा दिया था। फटी जाॅंघिया और गंदी सी बनियान पहने, दयनीय सूरत बनाए वह प्लेटफार्म पर तथा रेल के डि़ब्बों में भीख माॅंगा करता था। दिन भर में चालिस-पचास रुपए वह आराम से पा लेता था। शाम होते ही उसका बाप उसकी तलाशी लेता था और पाॅंच रुपए बतौर बख्शीश छोड़ कर शेष सारा पैसा ले लिया करता था। बाप के छोड़े उन पाॅंच रुपयों से वह चाट, पकौड़ी या आइसक्रीम वगैरह खा कर मस्त रहता था।
एक दिन की बात। वह रेल के डि़ब्बे में भीख माॅंग रहा था कि तभी गाड़ी रेंगने लगी थी। वह उतरने के लिए दरवाजे की तरफ भागा। अचानक तभी उसके मन में न जाने क्या आया कि वह दरवाजे के सामने वाली सीट पर बैठे यात्री का झोला ले कर नीचे कूद गया। यात्री चोर-चोर, पकड़ो-पकड़ो चिल्लाया लेकिन तब तक गाड़ी गति पकड़ चुकी थी। वह तीर की तरह भागता हुआ रेलवे स्टेशन से बाहर आया और वहाॅं रिक्शे में बैठे बीड़ी पी रहे अपने बाप को वह झोला थमा दिया।
‘‘किसका झोला है यह ?’’ उसके बाप ने पूछा।
‘‘वो जो गाड़ी अभी गयी है उसमें दरवाजे के पास बैठे आदमी की।’’ उसने बताया।
उसके बाप ने आगे कुछ नहीं पूछा। उसने झोला पलटा तो उसमें कुछ कागजात और कपड़ों के अलावे ढ़ाई सौ रुपए नकद निकले थे। उसके बाप ने उसे दस रुपए मिठाई खाने के लिए दे कर शेष चीजें अपने पास रख ली थीं। उस दिन के बाद तो उसे चोरी का ऐसा चस्का लगा कि भीख माॅंगना छोड़ उसने चोरी का धन्धा ही अपना लिया था। धीरे-धीरे वह चैर्य कला में पारंगत तथा अपनी उम्र के मुकाबले अधिक सयाना और चगड़ होता चला गया।
लेकिन उस दिन तो कुछ ऐसा हुआ कि उसका शातिरपना और सयानापन धरा का धरा रह गया। जाड़े का दिन, तीसरे पहर का समय था। एक अधेड़ महिला प्लेटफार्म पर चादर बिछाए अपनी दो बेटियों के साथ किसी गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठी थी। पास ही उन लोगों के झोले, अटैची, बैग वगैरह सामान रखे थे। घात लगाए वह काफी देर से उनके आसपास मॅंड़रा रहा था। मौका मिलते ही उसने एक एयरबैग उठाया और सरपट भाग चला। औरत और उसकी दोनों बेटियाॅं पकड़ो-पकड़ो, चोर-चोर चिल्लाते उसके पीछे दौड़ीं। दुर्भाग्यवश सामने से आ रहे एक आदमी ने लपक कर उसे पकड़ लिया। उसकी बाॅंह मरोड़ कर उसकी पीठ पर उस आदमी ने इतनी जोर का घूॅंसा जमाया कि वह दर्द के मारे बिलबिला उठा। आदमी ने अभी दूसरा घूॅंसा मारने के लिए अपना हाथ उठाया ही था कि-‘‘हाॅं...हाॅं...हाॅं...। मत मारो....मत मारो।’’ बोलती वह अधेड़ महिला दौडती़ हुयी आ गयी। आदमी का घूॅंसा तना हाथ हवा में ही रह गया।
महिला ने उसको आदमी की पकड़ से छुड़ा दिया और अपना बैग लेते हुए बोली-‘‘छिः...छिः...छि चोरी-चकारी करते शर्म नहीं आती तुम्हें ? बेटा...! अभी तो तुम्हारी उम्र पढ़ने-लिखने और अच्छी बातें सीखने की है। क्या तुम्हारे माॅं-बाप यही गन्दा काम सिखाते हैं ? अरे बेटा ! भगवान ने अच्छा, खासा शरीर और हाथ, पैर दिया है तुमको। मेहनत, मजूरी करो.....अच्छी बातें सीखो....नेक इन्सान बनो।’’
औरत अपना बैग ले कर चली गयी। उसको पकड़ कर घूॅंसा मारने वाला आदमी भी चला गया। लेकिन वह वहीं का वहीं खड़ा रह गया। कोई और दिन होता तो अब तक वह भाग खड़ा हुआ होता लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ। न जाने क्यों वह जहाॅं था वहीं काठ हो गया। उसके पाॅंव मानों जमीन से चिपक गए थे। वह काफी देर तक खड़ा दूर बैठी उस महिला की ओर एकटक देखता रहा फिर धीरे-धीरे वहाॅं से चला गया। उस दिन के बाद किसी ने उसे रेलवे स्टेशन या उसके आसपास नहीं देखा।