मित्रों, देश में जब से ‘मी टू’ का नंगाकरण अभियान प्रारम्भ हुआ है, आए दिन कुछ स्वनामधन्य सचरित्र, सदाचारी और संस्कारी महारथियों के चेहरों से शिष्टता, शालीनता और सज्जनता का नकाब खिसकता जा रहा है। आहिस्ता-आहिस्ता तस्वीर साफ होती जा रही है कि ‘हमाम में हर कोई नंगा है’। इस ‘मी टू’ के बहाने चेतना की ऐसी सुनामी आयी है कि दूध की धोई र्हुइं, संस्कारों की चासनी में ड़ुबोई हुईं, घर-परिवार में खोई हुईं, अलसाई सी सोई हुईं अनेकानेक विगतयौवना ललनाओं का आत्म सम्मान एकदम से जागृत हो उठा है। कोई एकधारी, कोई दोधारी, कोई भोथरी तो कोई तेजआरी तलवारें भाजतीं वीरांगनाओं का दल तमाम नए, पुराने हिसाबों को चुकता करने के लिए ‘मी टू’ के कुरूक्षेत्र में फेंटा खोंस कर कूद पड़ा है। किसी की स्मृति में एक दशक, किसी की स्मृति में दो दशक तो किसी-किसी की स्मृति में तीन-तीन, चार-चार दशकों पूर्व की घटीं, दफन हो चुकीं घटनायें (दुर्घटनायें) अचानक कब्र से उठ कर खड़ी हो गयी हैं। इन ललनाओं को अचानक भान होने लगा है कि एकदा उनके हरे-भरे दिनों, जब उन पर मधुमास छाया हुआ था और बसंत बगराया हुआ था, में पुरूष नामक अधम प्रजाति के किसी प्राणी ने उनको छुआ, टटोला, चूमा, चपेरा, खींचा, भींचा यानी उनके साथ कुछ ऐसा किया था जो लंपटई की श्रेणी में आता है। ऐसा भान होते ही उनके अंदर का नारीत्व उनकी अब तक की चुप्पी को धिक्कारने लगा है, उनका स्वाभिमान किंग कोबरे सा फॅंुफकारने लगा है, और उनका विलंबित अपमानबोध अगले की ऐसी-तैसी करने के लिए ललकारने लगा है। मजे की बात यह कि ‘मी टू’ के इस अभियान में न तो किसी साक्ष्य की जरूरत है और न ही किसी गवाह की। यानी खाता न बही, मोहतरमा जो कह दें वही सही।
ऐसी ही एक परीचित मोहतरमा, जिन्होंने अपने साथ तीन दशक पूर्व हुए एक हादसे का खुलासा किया, से मैंने पूछा-‘‘देवी जी, आप जो घटना उद्घाटित कर रही हैं वह तीस साल पुरानी है, जिस बेचारे के ऊपर आप आरोप लगा रही हैं वह अपनी उम्र के सात दशक पार कर कब्र में पाॅंव लटकाए बैठा है और खुद आप भी सठियाने के निकट पॅंहुच चुकी हैं। ऐसे में गड़े मुर्दे उखाड़ने का भला क्या फायदा है। फिर जिस व्यक्ति के ऊपर आप आरोप लगा रही हैं उसकी छवि एक शालीन, ईमानदार तथा सख्त अधिकारी की रही है।’’
मेरा प्रश्न सुन कर मोहतरमा पहले तो मुुस्कुरायीं फिर मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई बहुत बड़ी बेवकूफी भरा प्रश्न कर दिया हो। उसके बाद मेरे कान के पास मुॅंह ले आ कर फुसफुसाते हुए बोलीं-‘‘यार ! तुम्हारे बाल सफेद हो गए लेकिन रह गए तुम लल्लू के लल्लू ही। देख नहीे रहे हो कि इस माहौल में जो भी कह दो सवा सोलह आने सच मान लिया जाता है। ऐसे में मेरे इस खुलासे से लोग कम से कम यह तो समझेंगे कि मेरा भी कोई समय था जब मेरे लिए मर्दों की लार टपका करती थी। मैं भी कभी ऐसी थी कि मर्द मुझसे छेड़-छाड़ करने की हसरत रखते थे। और मैं इतनी सचरित्र थी कि लाख प्रलोभन और दबाव के बावजूद फिसली नहीं थी। अरे! जब ऐरी-गैरी, कुलटा, कुरूपा हर एक अपने-आप को सीता, सावित्री और भूतपूर्व अप्सरा सिद्ध करने की होड़ में लगी है, तो फिर मैं ही पीछे क्यो रहूॅं। बहती गंगा में हाथ धोने में क्या बुराई है भला ? और वह अधिकारी तो वास्तव में बहुत खराब और खूसट था। उसके आने से पहले हम सारी औरतें घर का सारा काम-धाम निपटा कर आराम से बारह बजे आफिस जाती थीं और तीन बजे आफिस से निकल लेती थीं ताकि बच्चों के स्कूल से लौटने से पहले हम घर पॅंहुच जायें। लेकिन उस मरदूद ने आते ही ऐसी सख्ती की कि हमें दस से पाॅंच बजे तक आफिस में ही रहना पड़ता था। इतना ही नहीं एक बार मैं आफिस में स्वेटर बुन रही थी तो उसने मुझसे स्पष्टीकरण माॅंग लिया था। अब बताओ यह नारी उत्पीड़न नहीं तो और क्या है। यह भी एक तरह से औरतों का शोषण ही तो है। अब जब मौका मिला है तो मैं क्यों छोडूॅं बच्चू को ?’’
तो मित्रों, ‘मी ट’ू का यह आन्दोलन बहुतों की अतृप्त हसरतों को पूरा करने का माध्यम सिद्ध हो रहा है। अतृप्त हसरत से ध्यान आया कि मेरी भी एक अतृप्त हसरत है जिसको ले कर इन दिनों मैं बहुत कुंठित चल रहा हूॅं। जब से ‘मी टू’ के खुलासे शुरू हुए हैं देख रहा हूॅं कि खुलासे में जिसका नाम आता है, लोग उसे हाथों-हाथ लेते हैं और वह रातों-रात सेलिब्रिटी बन जाता है। वो किसी ने कहा है न कि-‘बदनाम हुए तो क्या हुआ, बड़ा नाम तो हुआ।’ बस वही बात है। मेरे मन में भी एक हसरत है कि काश झूठा ही सही कोई मोहतरमा मेरा नाम ले कर भी कोई खूबसूरत सा इल्जाम लगा देतीं तो मेरा जीवन धन्य हो जाता। इसी बहाने मैं भी दो-चार दिनों चर्चा में आ जाता और लोगों को लगता कि मैं जवानी के दिनों में आज सा बोदा और अकर्मण्य नहीं था।
इसके अलावे मेरी इस हसरत का एक दूसरा पहलू भी है। दरअसल ‘मी टू’ में अभी तक मेरा नाम नहीं आने से पत्नी की निगाह में मेरी विश्वसनीयता को खतरा पैदा हो गया है। पत्नी के ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव बनाने के लिए मैंने उनको अपने ढ़ेरों प्रेम-प्रसंग बता रखे हैं तथा लीलावती, कलावती, रमावती, सुभावती, अंजना, रंजना, संजना, अंजू मंजू, संजू, रीतू, मीतू, नीतू आदि कई छद्म नामों से खुद द्वारा खुद को लिखे ढ़ेरों प्रेम-पत्र भी दिखला रखे हैं। अब, जब से ‘मी टू’ के खुलासे शुरू हुए हैं, पत्नी ताने देने लगी हैं-‘‘क्योें जी तुम तो बहुत ड़ींग हाॅंकते थे कि शादी से पहले ये किया, वो किया, यहाॅं हाथ मारा, वहाॅं हाथ मारा लेकिन आज तक तो किसी भी ‘मी ट’ू वाली ने तुम्हारा नाम लिया ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझ पर रोब गाॅंठने के लिए तुम झूठ-मूठ अपने मुॅंह मियाॅं मिट्ठू बनते रहे हो, यूॅं ही झूठ-मूठ की शेखी बघारते रहे हो।’’
अब ऐसे में पत्नी को मैं क्या जबाब दूॅं। अभी तो मैंने उसको समझाया है कि कुछ दिन धीरज रखो। हो सकता है मेरी ‘मी टू’ वालियाॅं अपने नाती, पोते खिलाने में इस कदर व्यस्त हों कि उन्हें मिड़िया के सामने आने की फुरसत ही नहीं मिल पायी हो। लेकिन जैसे ही उन्हें फुरसत मिलेगी एक नहीं कई-कई ‘मी टू’ वालियाॅं मेरी तथाकथित सचरित्रता की धज्जियाॅं उड़ाने सामने आ जायेंगी। फिर पता चलेगा तुम्हे मेरे जलवे का।
मित्रों, अब बात मेरी साख पर बन आयी है। अगर ‘मी टू’ में सचमुच मेरा नाम नहीं आया तो मेरा अथक परीश्रम कर के बनाया भौकाल गुब्बारे में भरी हवा की तरह फुस्स हो जाएगा। पत्नी समझेगी कि शादी से पहले मैं बिल्कुल बहेतू और निकम्मा था। अगर उसने मेरा उद्धार न किया होता तो मैं आजीवन अटल बिहारी ही रह जाता। इसलिए ‘मी टू’ के मैदाने जंग में तलवारें भाॅंज रहीं तथा भाॅंजने को तैयार हो रहीं समस्त वीरांगनाओं से मेरा बारम्बार अनुरोध है, करबद्ध प्रार्थना है कि झूठे ही सही, धोखे से ही सही एक बार मेरा भी नाम ले कर मुझे उपकृत करने की कृपा करें। इसके लिए मैं सिर्फ इस जनम ही नहीं बल्कि अगले और उसके अगले और उसके भी अगले यानी कई-कई जनमों तक उनका आभारी रहूॅंगा।