मातृ-भक्त
कहानी
शुक्ला वैसे अधिकारिक रूप से तो एक सामान्य सा बाबू ही था लेकिन अगर व्यावहारिक रूप से कहें तो वह आफिस के बॉस से कम नहीं था। बॉस इसलिए कि चाहे किसी भी जाति, नस्ल, स्वभाव या सम्प्रदाय का हो, उस आफिस का हर अधिकारी उसकी मुट्ठी में रहा करता था। किसी भी नए अधिकारी के ट्रांसफर हो कर आने से पहले ही शुक्ला के पास उस अधिकारी की पूरी कुण्डली यानी उसका नाम, गॉंव, पता-ठिकाना, घर-परिवार और रिश्तों-नातों से ले कर उसकी अच्छाई, बुराई, पसन्द, नापसन्द, आदत, शौक और कमजोरी, मजबूती आदि तक की पूरी फेहरिश्त आ जाती थी। फिर तो शुक्ला को चाहे जो भी करना पड़े, जैसे भी करना पड़े, चाहे जिस स्तर तक भी जाना पडे अधिकारी महोदय को वह अपने लपेटे में ले ही लेता था। लाख ईमानदार हों, लाख कड़क मिजाज हों, अधिकारी महोदय कुछ दिनों के अंदर ही शुक्ला के ही कानों से सुनने, शुक्ला की ही ऑंखों से देखने तथा शुक्ला की ही जुबान से बोलने लग जाते थे। विगत पन्द्रह वर्षों में उस आफिस में जाने कितने अधिकारी आए और गए लेकिन शुक्ला की पोजीशन में रंच मात्र भी अंतर नहीं आया।
नए अधिकारी सिनहा साहब बहुत गंभीर प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। बस नपी-तुली बात करना, जरूरत भर को बोलना और सिर्फ काम से काम रखना उनकी खासियत थी। अनावश्यक किसी भी मातहत को वे पास फटकने तक नहीं देते थे। इस नए साहब की संजीदगी शुक्ला के लिए चुनौती थी लेकिन उसने हार नहीं मानी थी। दुर्ग भेदने के प्रयास में लगा रहा। उसका दृढ़ निश्चय था कि अगर आदमी है तो उसकी कोई न कोई कमजोरी भी अवश्य होगी। बस उस कमजोरी की जानकारी मिलने भर की देर थी।
पता चला कि सिनहा साहब अपनी मॉं के परम भक्त हैं। इस हद तक कि मॉं के पीछे उन्होंने पत्नी तक को छोड़ दिया है। छानबीन करने पर जो कहानी सामने आयी वह यह थी कि सिनहा साहब ने अपने साथ की ही एक महिला अधिकारी से प्रेम-विवाह किया था। सिनहा साहब की बूढ़ी, विधवा मॉं उनके साथ ही रहती थीं। उनकी पढ़ी-लिखी, आधुनिक खयालों वाली अधिकारी पत्नी को गॅंवई सास की बातचीत, उनका रहन-सहन और आदतें बिल्कुल भी नहीं पसंद थीं। सास की वजह से प्रायः उसे अन्य साथी अधिकारियों तथा मातहतों के सामने शर्मिन्दा होना पड़ता था। इसके अतिरिक्त जब-तब उसकी स्वतंत्रता में भी बाधा उत्पन्न होती थी। बूढ़ी सास जब देखो तब बीमार ही पड़ी रहती थीं। उनकी वजह से सिनहा साहब कहीं भी घूमने-फिरने, सैर-सपाटे के लिए नहीं निकलते थे। अगर एक-दो दिन के लिए भी कहीं जाना हो तो पहले सास की देखभाल की व्यवस्था करनी होती थी।
‘‘ऐसा करते हैं मॉं को किसी अच्छे से वृद्धाश्रम में रख देते हैं। वहॉं इनकी बेहतर देखभाल होगी।’’ अफसर पत्नी ने एक दिन प्रस्ताव रखा था। सुनते ही सिनहा साहब हत्थे से उखड़ गए थे।
‘‘ऐसी घटिया बात तुमने सोची भी कैसे ? पिताजी के असमय देहांत के बाद मॉं ने मेरा कैरियर बनाने के लिए जो-जो पापड़ बेले हैं, जितनी तकलीफें उठायी हैं उसका यह सिला दूॅंगा मैं ?’’ सिनहा साहब ने गुस्से में कहा था। अपनी बात के समर्थन में पत्नी ने लाख दलीलें दीं, लेकिन सिनहा साहब ने उनके प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था।
फिर तो मॉं को ले कर पति-पत्नी में ठन गयी थी। पत्नी द्वारा मॉं की उपेक्षा देख मातृ-भक्ति में लीन सिनहा साहब पत्नी की उपेक्षा करने लगे थे। होते-होते स्थिति यहॉं तक पॅंहुची कि एक दिन उनकी पत्नी ने स्पष्ट कह दिया-‘‘बात मेरे बर्दाश्त के बाहर हो गयी है। तुम मॉं और मुझमें से किसी एक को चुन लो। या तो मॉं को वृद्धाश्रम में रख दो या फिर मैं ही कहीं और चली जाती हूॅं।’’
‘‘ऐसा है....पत्नियॉं तो बहुतेरी मिल जायेंगी लेकिन जिन्दगी में दूसरी मॉं नहीं मिलने वाली। मॉं तो इसी घर में मेरे साथ ही रहेंगी। तुम चाहो तो अपने लिए दूसरा ठिकाना देख लो।’’ सिनहा साहब ने अपना दो-टूक फैसला सुना दिया था और उनकी पत्नी अपना सामान ले कर अलग रहने चली गयी थी।
सिनहा साहब की यह कहानी सुनी तो शुक्ला के दिमाग का बल्ब तत्काल जल उठा। ‘‘शुक्ला ! तू ने मैदान मार लिया’’ उसने अपने आप से कहा और चटपट एक योजना बना ड़ाली। अपनी योजना उसने पत्नी को बतायी और अगले सप्ताह अपनी मॉं का पचहत्तरवां जन्मदिन मनाने की घोषण कर दी। योजना के अनुसार कार्ड भी छप गया और एक होटल में आयोजन की व्यवस्था भी हो गयी। शुक्ला महोदय निमंत्रण कार्ड ले कर सिनहा साहब के पास पॅंहुचे।
‘‘क्या कहा..? आप अपनी मॉं का जन्मदिन मना रहे हैं ? भाई, आज तक मैंने अपना जन्मदिन, अपनी बीबी का जन्मदिन और अपने बच्चों का जन्मदिन मनाने की बात तो सुनी है लेकिन मॉं का जन्मदिन मनाने की बात पहली बार सुन रहा हूॅं।’’ कार्ड देखा तो सिनहा साहब चौंकते हुए बोले।
‘‘अरे साहब ! यही तो विडम्बना है समाज की कि पुलई की हरियाली देख कर लोग जड़ की महत्ता भूल जाते हैं। यदि मॉं नहीं होती तो कहॉं से हम होते और कहॉं हमारे बच्चे होते। हम सभी का अस्तित्व उस मॉं की बदौलत ही तो है। औरों का साथ तो जन्म के बाद मिलता है लेकिन मॉं का साथ तो जन्म के नौ महीने पहले से ही हो जाता है। यह तो ईश्वर की महान कृपा है कि मेरे ऊपर अभी तक मॉं की छत्रछाया बनी हुयी है। साहब ! हम तो हर साल यथाशक्ति धूम-धाम से अपनी मॉं का जन्मदिन मनाया करते हैं और ईश्वर से उनकी लम्बी उम्र के लिए प्रार्थना किया करते हैं।’’ शुक्ला ने बहुत भावुक हो कर कहा और जेब से रुमाल निकाल कर अपनी ड़बड़बा आयी ऑंखें पोछ लीं। सुन और देख कर सिनहा साहब गद्गद हो गए।
निर्धारित तिथि को खूब धूम-धाम से पार्टी हुयी। सालों-साल घर के कोने वाले कमरे में उपेक्षित सी अकेली पड़ी रहने वाली बुढ़िया मॉं को नहला-धुला कर, बाल सॅंवार कर, नए कपड़े और जेवर पहना कर होटल ले आया गया। पूरे सम्मान के साथ उनको मंच पर रखे फूलों से सजे सोफे में बिठा दिया गया। माताजी के हाथों केक कटवाया गया। शुक्ला तथा उसकी पत्नी ने माताजी के पॉंव पखारे और उनकी आरती उतारी। वहॉं उपस्थित सभी ने तालियॉं बजा कर खुशी जाहिर की और माताजी के सौ वर्षों तक जीने की कामना की।
चारों तरफ बिजली की झालरों और रंग-विरंगे गुब्बारों से सजावट की गई थी। साउण्ड सिस्टम पर हैप्पी बर्थ डे का गीत बज रहा था। हर आने वाला माताजी के चरण स्पर्श कर के आशीर्वाद ले रहा था। खाना-पीना, हॅंसी-ठट्ठा चल रहा था। पूरे आयोजन की विडियोग्राफी हो रही थी। और शुक्ला की माताजी यह सब देख कर भौंचक थीं। हैरान और परेशान थीं। गुदगुदे सोफे में धॅंसी बैठीं वह मारे आश्चर्य और कौतूहल के चारों तरफ देख रही थीं। वह समझ नहीं पा रही थीं कि आखिर यह सब हो क्या रहा है। और दिन सीधे मुम्ंह बात तक नहीं करने वाले, समय से खाना-पानी भी नहीं देने वाले उनके बेटे-बहू अचानक आज उनको इतनी इज्जत क्यों दे रहे हैं।
आयोजन में सिनहा साहब जल्दी आ गए थे और काफी देर तक बैठे रहे थे। उस अनूठी मातृभक्ति के लिए वे शुक्ला की सराहना करते नहीं थक रहे थे। शुक्ला ने सिनहा साहब के संग माताजी की, अपनी तथा अपनी बीबी और बच्चों की कई तस्वीरें खिंचवाईं। सिनहा साहब के वापस लौटते ही समारोह सम्पन्न हो गया। सारा ताम-झाम समेट कर शुक्ला माताजी को घर उठा लाया। उसकी पत्नी ने माताजी के शरीर से अपनी साड़ी और जेवर उतार कर उनके पुराने कपड़े पहना दिए। उसके बाद उनको उनकी कोठरी में पॅंहुचा दिया गया।
शाम से ही पार्टी के प्रबंध में जुटे शुक्ला तथा उसकी पत्नी को उस रात माताजी को भोजन देने का ध्यान ही नहीं रहा। अपनी बॅंसखट में लेटीं भूखी माताजी सारी रात बरवटें बदलती रहीं। लेकिन यह जरूर हुआ कि उस दिन के बाद शुक्ला सिनहा साहब का प्रिय-पात्र बन गया था।