फैक्ट्री से निकलने के बाद महेश लाल अखबार ले कर कैण्टीन में बैठ गए। पिछले कई वर्षों से महेश लाल का यही नियम चला आ रहा है। शाम छः बजे फैक्ट्री से निकलने के बाद से ले कर सात बजे तक का उनका समय कैण्टीन में अखबारों के पन्ने पलटते हुए बीतता है। महेश लाल अखबार में राजनीतिक उठापटक, अथवा साहित्यिक, सांस्कृतिक खबरें नहीं पढ़ते। लूट-पाट, चोरी-ड़कैती, या हत्या, बलात्कार आदि की खबरों से भी उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। बाजार भाव अथवा शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव में भी उनकी कोई रूचि नहीं है। और खेल-समाचार वाले पृष्ठ पर तो वे नजर भी नहीं ड़ालते। वे तो अखबार में बस एक ही खबर- ‘किसी जवान लड़की के अपने प्रेमी के साथ घर से चुपचाप भाग जाने अथवा माॅं-बाप से विद्रोह कर के किसी अपनी मर्जी के व्यक्ति के साथ प्रेम-विवाह रचा लेने की खबर ढू़ॅंढ़ते हैं। यदि अखबार में कोई ऐसी खबर मिल जाती है तो उसे इत्मिनान से पढ़ते हैं, मन ही मन प्रेमी के साथ भागने वाली, या प्रेम-विवाह रचाने वाली लड़की की हिम्मत की प्रशंसा करते हैं, उसके सुखी जीवन के लिए कामना करते हैं, और उस लड़की के बाप की खुशकिस्मती के प्रति इर्ष्या से भर उठते हैं। जब कैण्टीन से निकलने लगते हैं तो अखबार का वह पन्ना मोड़ कर अपने झोले में रख लेते हैं और घर लौटने पर उसे ऐसी जगह पर रख देते हैं जहाॅं उस पर उनकी बेटियों की निगाह पड़ जाय। वह चाहते हैं कि उनकी बेटियाॅं प्रेमी के साथ लड़की के भागने वाली या प्रेम-विवाह रचाने वाली खबर को जरूर पढ़ें। वह सोचते हैं कि शायद ऐसी खबरें उनकी बेटियों के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकें।
ऐसा नहीं है कि महेश लाल पश्चिमी संस्कृति के समर्थक हों और जवान लड़के-लड़कियो के स्वच्छन्द मेल-जोल को बहुत अच्छा मानते हों। ऐसा भी नहीं कि भारतीय संस्कृति, तथा विवाह नामक संस्था में उनकी आस्था न हो। लेकिन बात बस वही है कि आदमी परीस्थितियों का दास होता है। बात जब पेट पर, जान पर, जरूरत पर या आत्म-सम्मान पर आ जाती है तो व्यक्ति के सारे सिद्धान्त, सारे आदर्श, और सारी प्रतिबद्धतायें धरी की धरी रह जाती हैं। फिर आज, वक्त के ऐसे दौर में जब हर तरफ बस ‘अर्थ’ की ही प्रधानता हो, समाज एक बाजार का रूप ले चुका हो और रिश्ते दुकानों पर सजीं जिन्सों के रूप में बदल गए हों, आदमी संस्कारों का बोझ भला कब तक और कहाॅं तक ढ़ोए ? कुछ ऐसी ही स्थिति है महेश लाल की भी। सामाजिक जीवन के कटु यथार्थ ने उन्हें बहुत व्यावहारिक बना दिया है। वक्त ने उनको ऐसी जगह पर ला कर खड़ा कर दिया है कि उनकी निगाह में उचित, अनुचित की परिभाषा बदल गयी है।
कहीं भी, किसी लड़की के अपने प्रेमी के साथ भागने की खबर पढ़ते हैं, या सुनते हैं तो महेश लाल के मन को एक अजीब सी शान्ति मिलती है। वे सोचने लगते हैं- ‘‘कितने भाग्यशाली हैं वे माॅं-बाप जिनकी बेटियाॅं ऐसा साहसिक कदम उठा लेती हैं। और कितनी समझदार हैं वो बेटियाॅं जो अपने बाप की हिमालय सी बड़ी समस्या को चुटकी बजाते हल कर जाती हैं। काश ! उनकी गऊ सरीखी सीधी-सादी बेटियों को भी ईश्वर इतनी समझदारी और हिम्मत दे देता कि वो अपने निकम्मे बाप के भरोसे बैठी रह कर अपनी जिन्दगी खराब करने के बजाय अपना प्रबन्ध खुद कर लेतीं। काश ! वो भी किसी खाते-पीते घर के लड़के के साथ भाग कर प्रेम-विवाह कर लेतीं।’’
महेश लाल की बड़ी बेटी अनीता अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में चल रही थी और छोटी बेटी सुनीता भी अपने जीवन के चैबीस वसन्त देख चुकी थी। शादी की हसरत लिए दोनों अभी कुॅंवारी बैठीं थीं। प्रतीक्षा कर रही थीं कि उनका बाप कोई खूॅंटा तलाश कर उन्हें उससे बाॅंध दे और महेश लाल थे कि मजबूत तो दूर कोई कमजोर खूॅंटा भी नहीं ढ़ूढ़ पा रहे थे।
महेशलाल एक प्रायवेट फैक्ट्री में सुपरवाइजर हैं। नौकरी प्रायवेट फैक्ट्री की है अतः वेतन के अलावे और किसी प्रकार की ऊपरी आमदनी की कोई गुंजाइश नहीं बनती और फैक्ट्री से मिलने वाली पगार इतनी कम होती है कि अगर पैर ढ़ॅंको तो सिर नंगा और सिर ढ़ॅंको तो पैर। ऐसे में बचत कहाॅं से हो ? नंगी नहाए तो निचोड़े क्या ? बॅंधी-बॅंधाई तनख्वाह जब परिवार के नियमित खर्चों के लिए ही पूरी नहीं हो पाती तो फिर दान-दहेज के लिए पैसा कहाॅं से जुटे ? और यदि दान-दहेज के लिए पैसा नहीं तो फिर बेटियों की शादी कैसे हो ? यही यक्ष प्रश्न था जो महेश लाल के सामने मुॅंह बाये खड़ा था और महेश लाल उससे नजरें चुराते फिर रहे थे।
ऐसा भी नहीं कि महेश लाल बिल्कुल निकम्मे पिता हों। बेटियों के शादी योग्य होते ही एक आम हिन्दुस्तानी बाप की भाॅंति वह भी उनके लिए वर ढूँढने निकले थे। उनको भ्रम था कि उनकी सुन्दर, शुशील, सुशिक्षित, और संस्कारवान बेटियों की शादी में कोई परेशानी नहीं आएगी। लेकिन जब वे वरों की मंड़ी में निकले और दो, चार दुकानों से हो कर गुजरे तो शीघ्र ही उनका भ्रम दूर हो गया। वे जहाॅं कहीं भी जाते लड़की के रूप-रंग, शक्ल-सूरत से प्रारम्भ हुयी बात उसके चाल-चलन, शारीरिक गठन, पढ़ाई-लिखाई और घर-परिवार के विवरणों से फिसलती हुयी आ कर अंततः लेन-देन के मुद्दे पर अटक जाती थी। लड़के वालों को जैसे ही महेश लाल की आर्थिक औकात का पता चलता उनकी बातचीत का अंदाज बदल जाता। फिर किसी खूबसूरत बहाने यथा- ‘लड़के को अभी दो साल तक शादी नहीं करनी है’ या ‘लड़की की कुण्डली लड़के की कुण्ड़ली से मेल नहीं खा रही’ या ‘आर्ट्स वाली नहीं बल्कि साइन्स पढ़़ी लड़की चाहिए’ या ‘लड़के के मामा ने कहीं दूसरी जगह बात कर रखी है’ आदि के रैपर में लिपटा इन्कार महेश लाल को थमा दिया जाता। इस प्रकार महेश लाल वर खरीद प्रतियोगिता में जितनी भी बार सम्मिलित हुए हर बार प्रथम चरण में ही अयोग्य साबित हो गए। लगातार असफलता का परिणाम यह हुआ कि वह नियतिवादी हो गए और कहीं आना-जाना छोड़ किसी दैवीय चमत्कार की आशा में हाथ पर हाथ धर के बैठ गए।
महेश लाल की निष्क्रियता देख उनकी पत्नी झल्ला उठतीं-‘‘समझ में नहीं आता कि तुम कैसे बाप हो। जिनके घर में जवान बेटियाॅं होती हैं उन बापों को रात-रात भर नींद नहीं आती है और एक तुम हो कि कोई चिन्ता ही नहीं। कानों में तेल ड़ाले ऐसे सो रहे हो जैसे बेटियों की शादी ही नहीं करनी है।’’
‘‘बेटियों की शादी करनी है तो क्या करूॅं अपने को बेंच दूॅं, कि तुमको बेंच दूूॅं या कि कहीं जा कर राहजनी करूॅं, ड़कैती ड़ालूॅं....? बोलो...कहाॅं से ले लाऊॅं दहेज के लिए बोरा भर रूपए..?’’
‘‘अरे ! तो क्या दहेज के कारण बेटियों की शादी नहीं करोगे....? एक तुम ही दुनिया से निराले बाप हो जो तुमको लड़के नहीं मिल रहे हैं...? गरीब से गरीब, अपढ़, गॅंवार बाप भी चाहे जैसे हो अपनी बेटियों के हाथ पीले करता है। तुम तो फिर भी पढ़े-लिखे हो, दस लोगों के बीच उठते-बैठते हो....। और हमारी बेटियाॅं भी पढ़ी-लिखी हैं, सुन्दर हैं, घर-गृहस्थी के सारे काम जानती हैं। फिर क्यों नहीं होगी इनकी शादी ? घर में बैठे रहने से थोड़े न कुछ होगा। बाहर निकलोगे, चार लोगों से मिलोगे-जुलोगे, बात करोगे तब न कहीं बात बनेगी कि घर बैठे कोई चला आएगा तुम्हारी बेटियों को ब्याहने के लिए।’’
‘‘ऐसा ही समझो। कहा गया है कि शादियाॅं स्वर्ग में तय होती हैं। और यह भी कि कोई चाहे लाख हाथ-पाॅंव पटक ले दुनिया का हर काम अपने निर्धारित समय पर ही होता है। समय से पहले और भाग्य से अधिक कुछ नहीं मिलता। इसलिए मैं तो यही मानता हूॅं कि जब इनकी शादी का समय आएगा तो भगवान स्वयं इनके लिए वर भेज देगा।’’
‘‘हूँह....भगवान भेज चुका वर और हो चुकी बेटियों की शादी। ऐसे ही बैठे रहो हाथ पर हाथ धरे..। तीसवें में चल रही है अनीता। भगवान ने अभी तक क्यों नहीं भेजा कोई वर....? क्या अभी तक उसकी शादी का समय ही नहीं आया कि भगवान उसका जोड़ा बनाना ही भूल गए ? उसके साथ की लड़कियाॅं दो-दो बच्चों की माॅं बन चुकी हैं और वह यहाॅं कुॅंवारी बैठी बुढ़ा रही है। अरे ! भगवान भी उद्यमियों की मदद करता है काहिलों की नहीं।’’
महेश लाल और उनकी पत्नी के मध्य नोंक-झोंक रोजमर्रा की बात हो चुकी थी। बेटियों की शादी एक गंभीर समस्या बनी हुयी थी और इस समस्या के लिए पत्नी महेश लाल को दोषी ठहरातीं तो महेश लाल अपनी पत्नी को। दरअसल अपनी बेटियों की निष्क्रियता और सीधाई के लिए महेश लाल अपनी पत्नी को ही जिम्मेदार मानते थे। उनका मानना था कि पत्नी ने बेटियों को बचपन से ही इतने कड़े अनुशासन में रखा था और उन्हें शुचिता, शालीनता, मान-मर्यादा का इतना तगड़ा पाठ पढ़ाया था कि वे बेचारी बिल्कुल ही ड़रपोक और बोदा हो गयी थीं। वो भेड़, बकरियों की तरह सिर झुकाए कालेज जातीं और वैसे ही सिर झुकाए लौट कर घर के बाड़े में बंद हो जाती थीं। न सिनेमा न थिएटर, न बाजार न हाट न कहीं आना-जाना न कहीं इधर-उधर ताॅंक-झाॅंक। घर में टी0वी0 पर भी संतोषी माता, साईं महिमा, भक्त प्रह्लाद, बाल हनुमान, रामायण, महाभारत, और शिव पुराण, विष्णु पुराण जैसे कार्यक्रमों के अलावे अन्य कार्यक्रम देखने पर सख्त मनाही थी। ऐसे में वो बेचारी दब्बू नहीं तो और क्या बनतीं।
पत्नी भले ही आदर्शों को ढ़ो रही हों लेकिन ठोकरें खाने और समाज का रवैया देखने के बाद महेश लाल व्यावहारिक हो चुके थे। सुबह-शाम, जागते-सोते हर वक्त वे ईश्वर से यही मनाया करते-‘’हे ईश्वर ! मेरी गाय सरीखी बेटियों को ऐसा साहस और सद्बुद्धि दे कि वो अपनी जिन्दगी गारत ना करें। वो लोक-लाज की बातें भूल जायें, कंधों पर रखा मान-मर्यादा का जुआ उतार फेंकें और रिश्ते-नाते, अड़ोस-पड़ोस, अथवा कालेज के किसी लड़के के साथ भाग कर अपना घर बसा लें।’’ महीना दर महीना और साल दर साल गुजरता रहा लेकिन महेश लाल की अर्जी पर कोई सुनवाई नहीं हुयी। न तो ईश्वर ने कोई वर भेजा और न ही महेश लाल की बेटियों ने कोई साहस भरा कदम उठाया।
एक रात महेश लाल ने अपने मन की बात पत्नी को बतायी-‘‘सुनो ! प्रायः ऐसा सुनने को मिलता है कि फलाने की बेटी फलाने के बेटे के सथ भाग गयी। क्या हमारी बेटियाॅं ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं।’’
सुनते ही उनकी पत्नी हत्थे से उखड़ गयीं-‘‘क्या कहा...? कहीं दिमाग तो नहीं फिर गया है तुम्हारा....? छिः...छिः...छिः...अपनी बेटियों के बारे में ऐसी बात सोचते तुम्हें शर्म नहीं आती ? तुम बाप हो कि दुश्मन...? तुम्हारे जैसे बाप ही कोठों पर बेंच आते हैं अपनी बेटियों को।’’
‘‘अरे! इसमें शर्म आने की क्या बात है भाई। दरअसल तुम मेरा मतलब नहीं समझी। मैं यह कह रहा हूॅं कि दान-दहेज की मंड़ी में तो हम कहीं टिकते नहीं। न दहेज के लिए पैसा जुटेगा न हम दुल्हा खरीद पायेंगे। ऐसे में ये बिचारी हमारे भरोसे यहाॅं शादी की आस में बैठीं अपनी जवानी गारत करें उससे अच्छा तो यही है कि किसी ठीक-ठाक लड़के के साथ अपना घर बसा लें। मैं तो जात-पात के बंधन को भी जरूरी नहीं मानता। यदि किसी दूसरी जाति के लड़के के साथ चली जायें तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।’’
‘‘हाॅं अब यही तो बाकी रह गया है कि बेटियाॅं शोहदों के साथ घर से भागें, चारों तरफ थू-थू हो और हम कहीं मुॅंह दिखाने लायक भी न रहें। हे भगवान ! यह क्या हो गया है तुमको....? कहीं पगला तो नहीं गए हो...? ऐसी अंट-संट बातें कहाॅं से आती हैं तुम्हारे दिमाग में...?’’
‘‘देखो अनीता की मम्मी ! सच बात तो यह है कि कुल-खानदान, इज्जत और समाज की फिक्र बस हम मध्यवर्ग के लोग ही करते हैं और इसीलिए परेशान रहते हैं। निम्नवर्ग वाले रोटी और कपड़ा जुटाने में ही इस कदर व्यस्त रहते हैं कि उन्हें इज्जत या समाज के बारे में सोचने की फुरसत नहीं। और उच्चवर्ग को इन फालतू बातों की परवाह ही नहीं होती। उनके पास ताकत है, पैसा है तो सब कुछ अपने आप हासिल हो जाता है।’’
‘‘अरे भाई ! सब कुछ के बावजूद हमें रहना तो इस समाज में ही है न.....तो फिर समाज के बंधन को तो मानना ही पड़ेगा।’’
‘‘अच्छा मान लो यदि अनीता किसी लड़के के साथ भाग ही गयी तो क्या होगा ? अधिक से अधिक यही तो होगा कि टोले-मुहल्ले, रिश्ते-नाते के लोग हॅंसेंगे, थू-थू करेंगे, हफ्ता, दस दिनों तक खूब चटकारे ले ले कर चर्चा करेंगे। बहुत होगा रिश्ते, नातेदार सम्बन्ध खत्म कर देंगे या बिरादरी वाले बिरादरी से बहिष्कृत कर देंगे। इससे अधिक तो कुछ नहीं होगा न। लेकिन हमारी बेटियों की जिन्दगी तो सॅंवर जायेगी। हमें इससे अधिक और क्या चाहिए...? मैं तो कहता हूॅं कि यदि रिश्तेदारों को या बिरादरी के लोगों को बिरादरी की मान-मर्यादा की इतनी ही चिन्ता है तो कोई मदद के लिए आगे क्यों नहीं आता ? क्यों नहीं कोई कहता कि ‘‘भाई महेश लाल ! तुम्हारी सुन्दर, शुशील बेटियाॅं बिन ब्याही ही बूढ़ी हो रही हैं। मैं तुम्हारी आर्थिक मजबूरी समझता हूॅं। तुम्हारे साथ पूरी हमदर्दी है मुझे। मैं बगैर किसी दान-दहेज के अपने बेटे के साथ तुम्हारी बेटी की शादी करने को तैयार हूॅं।’’ क्या रिश्तेदार या बिरादरीवाले मेरी परेशानी नहीं देख रहे..? लेकिन नहीं...। रिश्तेदार हों या जाति के नाम पर संगठन बना कर अपनी दुकानदारी चलाने वाले बिरादरी के नेता सब के सब झूठे, मक्कार और मतलबी हैं। सभाओं में दहेज की कुरीति मिटाने का आह्वान करते हैं, आपसी सहयोग बढ़ाने और संगठित होने की बात करते हैं, और उनके दरवाजे पर जाओ तो अपने बेटे की शादी में लाखों का दहेज माॅंगने लगते हैं। ऐसे दोगले बेशर्म समाज की चिन्ता क्यों करें हम ? इनके ही जबाब के लिए जरूरी हैं अंतर्जातीय प्रेम-विवाह। अंतर्जातीय प्रेम-विवाहों को बढ़ावा मिलेगा तभी खतम होगी समाज से दहेज की समस्या। न सिर्फ दहेज की समस्या बल्कि हिन्दू समाज की कोढ़ बनी जाति व्यवस्था भी ऐसे ही खत्म होगी।’’
महेश लाल लाख तर्क देते लेकिन उनकी पत्नी उनसे सहमत होने को तैयार नहीं थीं। उनका सारा जोर इसी पर था कि चाहे जैसे भी हो महेश लाल सजातीय वर ढ़ॅंूढ़ें, और यथाशक्ति धूमधाम से बेटियों की शादी करें।
पिछले साल जाड़ों में महेश लाल के साले के बेटे की शादी थी। शादी मे सम्मिलित होने के लिए उनकी पत्नी दोनों बेटियों के साथ मायके गयी थीं। महेश लाल की कहीं भी रिश्ते-नाते में आने, जाने की इच्छा नहीं होती इसलिए छुट्टी न मिलने का बहाना बना कर वे रूक गए थे। इस प्रकार पाॅंच दिनों के लिए महेश लाल घर में बिल्कुल अकेले थे। एक रात वे बहुत ही सावधानी पूर्वक अपनी बेटियों के सामानों की तलाशी लेने लगे। दरअसल वे यह जानना चाहते थे कि उनकी बेटियाॅं वास्तव में निष्क्रिय और बोदा हैं या अंदर ही अंदर कहीं कोई खिचड़ी पक रही है। पहले उन्होनें बड़ी बेटी अनीता के सामानों की तलाशी ली लेकिन कहीं भी कोई ऐसी सामग्री नहीं मिली जो उनकी दुश्ंिचता को दूर कर सके। मन ही मन उस पर खीझ उठे वे-‘‘कमबख्त़ कुॅंवारी बैठी बूढ़ी हो रही है, अपने बाप की आर्थिक, सामाजिक स्थिति भी अच्छी तरह से जानती है फिर भी सीता, सावित्री बनी हुयी है।’’
अनीता के सामानों को ज्यों के त्यों रखने के बाद उन्होंने छोटी बेटी सुनीता के सामानों को खॅंगालना प्रारम्भ किया। उन्हें एक पुस्तक के अंदर रखा एक पत्र मिला। पत्र को एक ही साॅंस में पढ़ गए वे। उस पत्र में किसी लड़के ने सुनीता को गाॅंधी पार्क में मिलने के लिए बुलाया था और अपने साथ प्रभात टाकीज में मेटिनी शो देखने की पेशकश की थी। मन ही मन खुश होते महेश लाल ने पत्र को यथास्थान रख दिया। अनीता अपनी पढ़ाई पूरी कर के घर बैठ चुकी थी लेकिन सुनीता अभी कालेज जा रही थी इसलिए उसके बारे में महेश लाल को उम्मीद जगी कि शायद वह देर, सवेर कोई साहस भरा कदम उठा ले।
उस दिन घर लौटे तो देखा कि बड़ी बेटी अनीता बरामदे में गुमसुम सी खड़ी थी और घर में सन्नाटा पसरा था।
‘‘क्या बात है बेटी....तुम्हारी मम्मी कहाॅं हैं...?’’ उन्होंने बेटी से पूछा।
‘‘जी...वो सुनीता आज कालेज गयी तो अभी तक लौट कर नहीं आयी है। मम्मी के बक्से से सात सौ रूपए और मम्मी की कान की बालियाॅं भी गायब हैं। शर्मा अंकल का बेटा गोपाल बता रहा था कि साढ़े तीन बजे के लगभग उसने सुनीता को रिक्से में किसी लड़के के साथ स्टेशन की तरफ जाते देखा था।’’ अनीता ने निगाहें नीची किए अटकते-अटकते बताया।
‘‘और तुम्हारी मम्मी कहाॅं हैं ?’’
‘‘जी...मम्मी गोपाल को साथ ले कर सुनीता को ढूढने निकली हैं। और आप के लिए कह गयी हैं कि आप तुरन्त जाकर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवा दें।’’
हूॅं....। महेश लाल ने एक गहरी साॅंस खींची। ‘‘ठीक ही कहा जाता है कि भगवान देर, सवेर सभी की सुनता है।’’ उन्होंने मन ही मन कहा और आराम से कपड़े बदलने लगे।