कीमती चीज़
कहानी
गॉंव के प्राथमिक वि़द्यालय के अध्यापक केदारनाथ जी का बेटा संजय दिल्ली में आयकर अधिकारी था। बेटा बहुत लायक था। ऊॅंचे पद पर था। कोई गलत आदत भी नहीं थी उसमें। और मॉं-पिता का बहुत खयाल भी रखता था। इतने सब के बावजूद मास्टर साहब उसको ले कर दुःखी रहा करते थे। उनके दुःखी रहने का कारण यह था कि बेटे को पैसे की हवस हो गयी थी। वह येन-केन-प्रकारेण अधिकाधिक पैसे कमाने में जुटा रहता था। उसने दिल्ली के सबसे मॅंहगे इलाके में मकान खरीदा था, मॅंहगी विदेशी कार पर चलता था, उसकी पत्नी गहनों से लदी रहती थी तथा घर में ऐशो-आराम की एक से बढ़ कर एक आधुनिक चीजें मौजूद थीं।
संजय की भौतिक सम्पन्नता की बातें सुन और जान कर मास्टर साहब का मन दुःखी हो जाया करता था। उनको पता था कि संजय यदि ईमानदारी से रहे, सिर्फ अपने वेतन के सहारे गृहस्थी चलाए तो इतनी सम्पन्नता और भौतिक सम्पदा अर्जित नहीं कर सकता है। मॅंहगाई के इस दौर में दिल्ली जैसे शहर में परिवार को ठीक से पाल सकना तथा बच्चों को ढ़ॅंग से पढ़ा सकना ही बड़ी बात है। वे यह सोच-सोच कर दुःखी होते थे कि उनके जैसे सचरित्र, संयमी और ईमानदार पिता का बेटा ऐसा भ्रष्ट और पैसों का लोभी कैसे हो गया। उसके पालन-पोषण तथा संस्कार देने में उनसे कोई चूक कहॉं हो गयी। आखिर मन का बोझ जब हद से अधिक हो गया तो उन्होंने एक निर्णय लिया और सपत्नीक बेटे से मिलने दिल्ली चल दिए।
मॉं और पिताजी को बगैर पूर्व सूचना के अचानक आया देख संजय अचकचा गया। ड्राइंग रूम में उसके सामने वाले सोफे पर बैठे मास्टर साहब एकटक उसके चेहरे को देखे जा रहे थे। आयकर अधिकारी संजय के चेहरे में वे अपने सीधे-सादे बेटे मुन्नू का चेहरा ढ़ॅंूढ़ रहे थे। सादगी, संवेदनशीलता और भोलेपन की जगह वहॉं कृत्रिमता, चालाकी और कॉंइयापन नजर आ रहा था।
‘‘क्या हुआ बाबूजी। कोई विशेष बात है क्या ?’’ अपनी तरफ देर से एकटक देख रहे पिताजी को संजय ने टोका।
‘‘हॉं बेटा ! बात कुछ खास ही है। दरअसल मेरी एक बहुत कीमती चीज खो गयी है। उसी को ढ़ूॅढ़ रहा हूॅं। सच कहो तो उसे ढ़ूॅढ़ने के लिए ही मैं तुम्हारे पास आया हूॅं।’’ मास्टर साहब ने जबाब दिया।
कीमती चीज ? पिता की बात सुन संजय सोच में पड़ गया। बाबूजी के पास तो घड़ी, चश्मा, पेन, डायरी, कुछ किताबों और तीन-चार जोड़ी कपड़ों के अलावे और कोई चीज कभी रही ही नहीं। मॉं के पास भी उनकी शादी में मिले एक-दो छोटे-मोटे गहनों के अलावे कभी कुछ खास नहीं रहा। फिर भला कौन सी ऐसी कीमती चीज है जिसके लिए परेशान हो कर पिताजी गॉंव से दिल्ली तक आ गए हैं। पिताजी की बात का आशय नहीं समझ पा रहा था संजय।
‘‘अरे ! तो इसमें परेशान होने की क्या बात है। आप खबर कर देते तो मैं पैसे भेज देता। या वह चीज ही खरीद कर भेज देता। कौन सी चीज खोयी है ? कितनी कीमत है उस खोए हुए चीज की ?’’ संजय ने कहा।
‘‘मेरी वह चीज अनमोल है बेटा। वह पैसों से नहीे खरीदी जा सकती है। दरअसल मैं अपने भोले-भाले, संस्कारवान बेटे मुन्नू को ढॅंूढ़ने आया हूॅं। उस मुन्नू को जो दिल्ली की भीड़-भाड और भौतिकता की ़चकाचौंध में कहीं खो गया है।’’ मास्टर साहब ने संजय के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए कहा।
पिता की बात का मर्म समझ संजय ने ऑंखें नीची कर लीं। उनसे नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी उसकी।