जनलेखक

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

4/10/20211 मिनट पढ़ें

कहते हैं पूत के पाॅंव पालने में ही दिख जाते हैं। कुछ ऐसा ही था उसके साथ भी। अपने छात्र-जीवन से ही एक उत्साही, जागरूक और जुझारू प्रवृत्ति का व्यक्ति था वह। विश्वविद्यालय परिसर में उसकी पहचान एक कवि, लेखक और ओजस्वी वक्ता के रूप में थी। न सिर्फ विश्वविद्यालय बल्कि शहर की समस्त साहित्यिक, साॅंस्कृतिक, और राजनैतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी होती थी उसकी। कोई भी गोष्ठी हो, बहस हो या आन्दोलन, प्रदर्शन वह जरूर मौजूद रहता था। यद्यपि पढ़ने में बहुत मेधावी नहीं था फिर भी अपनी सक्रियता, एवं वक्तृता के कारण एक विशिष्ट पहचान रखता था वह।

एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के नाते उसने जीवन की वास्तविकताओं को न सिर्फ बहुत निकट से देखा था बल्कि विषमताओं एवं अभावों की मार को बखूबी झेला भी था। उसके पिता एक अध्यापक थे जिन्होंने अपनी सीमित आय में बहुत कतर-ब्यौंत कर के अपने बच्चों को पाला था। अभावों के साए में पले बचपन में उसे कदम-कदम पर उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा था और छोटी-छोटी चीजों तक के लिए तरसना पड़ा था। संभवतः यही कारण था कि सुविधाभोगी सम्पन्न वर्ग के प्रति उसके मन में तीव्र आक्रोश था। और सच कहें तो उसका यही आक्रोश तथा जीवन की विद्रूपताओं का गहन अनुभव ही उसकी रचनाओं का प्राण-तत्व था।

एक आम मध्यमवर्गीय युवक की ही तरह उसके भी जीवन का पहला लक्ष्य अपने पैरों पर खड़ा होना यानी एक अदद सरकारी नौकरी प्राप्त करना था। ग्रेजुएशन करने के बाद से ही उसने नौकरी के लिए हाथ-पाॅंव मारना प्रारम्भ कर दिया था और इस मामले में वह भाग्यशाली निकला कि एम0ए0 पास करते ही उसे एक सरकारी कार्यालय में बाबूगीरी मिल गई थी। सरकारी नौकरी में लगते ही उसकी शादी के लिए घेराबन्दी होने लगी। सहसा उसके माॅं-बाप को भी अपने कर्तव्य का ध्यान हो आया और उसके लाख मना करने के बावजूद लगभग जबरन उसकी शादी कर दी गई। शादी हुयी तो पत्नी आयी, पत्नी आयी तो बच्चे हुए और बच्चे हुए तो एक के बाद एक ढ़ेरों जिम्मेदारियाॅं स्वतः सिर पर आती चली गयीं। तात्पर्य यह कि नौकरी से लगते ही वह घर-गृहस्थी की गाड़ी में पूरी तरह से जुत गया।

अपने छात्र-जीवन में उसने अनेकों सपने सॅंजो रखे थे। भविष्य को लेकर उसके मन में ढ़ेरों योजनायें थीं। वह प्रायः सोचा करता था कि आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होते ही जम कर लेखन करेगा और अपने लेखन के माध्यम से समाज के दबे, कुचले वंचित वर्ग की समस्याओं को आवाज देगा। अब आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होते ही उसकी इच्छायें कुलबुलाने लगीं, मन में दबी योजनायें सर उठाने लगीं और वह अपनी लेखनी को धार देने में जुट गया। यद्यपि सरकारी नौकरी तथा घर-गृहस्थी के कारण उसकी व्यस्तता काफी बढ़ गई थी फिर भी उसके संकल्प और जुनून में किसी प्रकार की कमी नहीं आयी थी। कार्यालय तथा घर-परिवार के कार्यों के बाद बचे अपने समय का अधिकतम भाग वह रिक्सेवालों, ठेलेवालों, खोमचा लगाने वालों, पटरी के दुकानदारों तथा ऐसे ही अन्य मेहनतकश लोगों के बीच गुजारा करता था। उसकी मान्यता थी कि समाज की नींव के रूप में कार्य कर रहे ये श्रमजीवी लोग सदैव से ही अन्याय और शोषण के शिकार रहे हैं। इनको संगठित किए बगैर समाज में किसी व्यापक बदलाव की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। अतः दिन-रात वह इन मेहनतकश लोगों को संगठित करने, उनमें चेतना जगाने, उनकी समस्याओं को सुनने, समझने तथा उन्हें अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागृत करने के प्रयासों में ही लगा रहता था। इन तबके के लोगों द्वारा उसकी रचनायें बहुत गंभीरता से पढ़ी, सुनी जाती थीं। निम्न वर्ग के पीड़ित, परेशान लोग अपनी छोटी-मोटी समस्यायें ले कर आए दिन उसके पास पॅंहुचते रहते थे और वह यथाशक्ति उनकी मदद भी किया करता था।

अपनी इस निःस्वार्थ सेवा के कारण उस तबके के लोगों के बीच वह काफी लोकप्रिय हो गया था। न सिर्फ इतना बल्कि श्रमिक संगठनों के बीच भी उसने अपनी अच्छी-खासी पैठ बना ली थी। इन संगठनों के नेता उसको भरपूर इज्जत देते थे। संगठनों की गोष्ठियों, सभाओं आदि में उसे बहुत सम्मान के साथ बुलाया और सुना जाता था।

उसकी प्रसिद्धि दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी। उसकी रचनायें मेहनतकश लोगों के वास्तविक जीवन तथा दुःख, दर्द की प्रामाणिक दास्तान मानी जाती थी। अतः उसे दूर-दराज के शहरों से भी सभा, समारोहों के निमंत्रण आने लगे थे। अब अपनी सरकारी नौकरी उसे अपने व्यक्तित्व के विकास की राह में एक बहुत बड़ी बाधा नजर आने लगी थी। कारण कि लिखते तथा बोलते समय ‘सरकारी कर्मचारी आचरण संहिता’ की तलवार सदैव उसके ऊपर लटकती रहती थी। जब भावनाओं के प्रवाह में होता तो उसके मन में प्रायः यह विचार आता कि काश ! उसके ऊपर सरकारी नौकरी की बंदिश न होती तो वह लेखन को भरपूर समय देता तथा और भी अधिक बेबाक एवं धारदार तरीके से मनचाहा लेखन करता। प्रायः उसके मन में आता कि नौकरी छोड़ कर शोषितों, वंचितों की सेवा में कूद पड़े लेकिन अगले ही पल यथार्थ के धरातल पर आते ही उसकी समझ में आ जाता कि नहीं, ‘भूखे भजन न होय गोपाला’। नौकरी नहीं तो जीवन-निर्वाह के लिए पैसा कहाॅं से आएगा। और पैसा तो जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। उसके बगैर तो रहा ही नहीं जा सकता। अपने साथ-साथ बीबी, बच्चों का भरण-पोषण उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी जो है। अतः चाहे जैसे भी हो नौकरी तो उसे करनी ही है।

इस प्रकार काफी दिनों तक वह अंतद्र्वंद में पड़ा रहा वह। अंततः एक दिन बातचीत के दरम्यान उसने श्रमिक संगठन के लोगों के सामने अपनी यह व्यथा व्यक्त कर दी। उसके कहने का आशय यह था कि यदि उसके परिवार के भोजन, कपड़ा तथा आवास आदि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की कोई वैकल्पिक व्यवस्था हो जाय तो वह सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दे और हर प्रकार के दबावों से मुक्त हो कर पूर्णकालिक लेखन करे। शोषित, बंचित वर्ग के लोगों को जागरूक करने का कार्य करे।

संगठन के लोगों ने उसकी बात को बहुत गंभीरता से लिया। उच्च स्तर पर विचार-विमर्श हुआ। सर्वहारा वर्ग की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने के लिए वह सरकारी नौकरी छोड़ने जैसा बड़ा त्याग करने को तैयार था इस बात ने संगठन के लोगों को अत्यधिक प्रभावित किया। लोगों ने उसे सर, आॅंखों पर लिया। संगठन के लोगों को प्रसन्नता थी कि उन्हें एक योग्य, कर्मठ और समर्पित प्रवक्ता मिल रहा था। काफी पहले ‘आवाज’ नाम से श्रमिक संगठन का एक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुआ करता था जो विगत कई वर्षों से बंद पड़ा था। उक्त पत्र को फिर से प्रकाशित करने की जिम्मेदारी उसे दी गयी और उसके बदले में संगठन ने उसके परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी खुशी-खुशी अपने ऊपर ले ली। उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं के अनुरूप एक निश्चित धनराशि उसे प्रति माह दिए जाने का निर्णय लिया गया और अपनी सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे कर वह संगठन के अधिकारिक पत्र ‘आवाज’ के पुनप्र्रकाशन में जुट गया।

सरकारी नौकरी उसे कंधे पर रखे जुए की तरह लगती थी। अतः नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद उसने बहुत राहत महसूस की। अपनी योजनाओं को उसने सूचीबद्ध किया और उन्हें मूर्त रूप देने में जुट गया। संगठन का साप्ताहिक पत्र ‘आवाज’ भी नए तेवर और कलेवर में छपने लगा। उसका प्रचार, प्रसार बढ़ने लगा तथा उसके माध्यम से तमाम नए लोग संगठन से जुड़ने लगे। कुछ दिनों तक तो सब कुछ बहुत अच्छी तरह चलता रहा लेकिन बाद में उसका मन इस एकरसता से उचटने लगा। जल्दी ही उसे ऐसा लगने लगा कि सरकारी नौकरी छोड़ कर उसने बहुत बड़ी गलती कर दी है क्यों कि सरकारी नौकरी में स्वयं उसके तथा उसके परिवार के सुरक्षित भविष्य की जो गारन्टी थी वह अब छिन गयी थी। संगठन का क्या ? जब तक उसके पास क्षमता है, जब तक वह संगठन का भोंपू बना हुआ है और संगठन के हित के लिए अपना खून-पसीना एक किए हुए है तब तक संगठन वाले उसे ढ़ो रहे हैं। जिस दिन वह थक जाएगा या संगठन के लिए उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी उसी दिन संगठन के लोग उसे दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकेगे। फिर कहाॅं जाएगा ? फिर क्या करेगा वह ? अब हर समय असुरक्षा की एक भावना उसे घेरे रहती थी। हर पल उसे यही चिन्ता खाए जाती थी कि अगर उसे कुछ हो गया तो...? तो फिर उसके बीबी, बच्चों का क्या होगा ? खरी-खरी बातें लिख, बोल कर वैसे भी उसने अपने ढ़ेरों दुश्मन तैयार कर लिए थे।

अपनी आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से, अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए वह संगठन के काम के साथ-साथ एक राष्ट्रीय दैनिक के स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में भी काम करने लगा था। उसकी यह हरकत संगठन के लोगों को बहुत नागवार लगी। शर्त के मुताबिक उसे पूर्णकालिक रूप से सिर्फ संगठन का ही काम करना था जब कि वह सर्वथा अलग विचारधारा वाले एक अन्य पत्र के लिए भी काम करने लगा था। संगठन के लोगों ने इस विषय में पूछा तो उसने बहुत बेबाकी से उत्तर दिया-‘‘भई ! महॅंगाई दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। संगठन की तरफ से मिलने वाली राशि इतनी कम है कि वह जैसे-तैसे परिवार के खाना, कपड़ा के लिए ही पूरी हो पाती है। शेष खर्चों जैसे बच्चों की पढ़ाई, दवा-इलाज तथा मकान के किराए आदि के लिए तो इधर-उधर से व्यवस्था करनी ही पड़ती है। माना कि मैं संगठन का प्रवक्ता हूॅं। माना कि मैं पार्टी और उसकी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हूॅं लेकिन उसका खामियाजा मेरे बच्चे क्यों भुगतें ? उनका भविष्य, उनका स्वाभाविक विकास क्यों अवरूद्ध हो ? अपने बच्चों की चिंता करना मेरा पहला फर्ज है। और यही कारण है कि अतिरिक्त पारिवारिक खर्चों की पूर्ति के लिए मुझे इधर-उधर हाथ-पाॅंव मारना पड़ रहा है।’’

होते, होते उसकी यह बात संगठन के कर्ता-धर्ता लोगों तक पॅंहुची। मंत्रणा हुयी तो लोगों को उसकी बात में दम दिखा। संगठन के लोग ऐसे समर्पित व्यक्ति को खोना नहीं चाहते थे। अतः संगठन के कार्यालय भवन में पीछे की तरफ दो कमरे खाली कर के उसके परिवार के रहने की व्यवस्था कर दी गयी। साथ ही उसे प्रति माह दी जाने वाली राशि में भी यथासंभव वृद्धि कर दी गयी।

कुछ दिनों के बाद ही गाड़ी फिर पटरी से उतर गयी। संगठन के लोगों को अपेक्षा थी कि वह न सिर्फ संगठन के पत्र को ठीक ढ़ंग से स्थापित करे बल्कि संगठन के विस्तार एवं मजबूती में भी योगदान करे। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था। शीघ्र ही यह महसूस किया जाने लगा कि संगठन के मुखपत्र में न तो पहले की सी आक्रामकता थी न ही वैसी वैचारिक प्रतिबद्धता। उसके लेखन से भी अब पहले सा जुझारूपन गायब था। यही नहीं दिन-प्रतिदिन संगठन के क्रिया-कलापों तथा श्रमिक वर्ग की समस्याओं से भी उसका सरोकार कम होता जा रहा था। संगठन के कुछ लोग जो प्रारम्भ से ही उसको अत्यधिक तवज्जो दिए जाने के विरोधी थे, ने संगठन की एक बैठक में यह प्रश्न उठाया और उसकी निष्क्रियता तथा उदासीनता को ले कर उसे कटघरे में खड़ा किया। आरोपों के जबाब में उसने अपने लेखों का पुलिन्दा पेश करते हुए कहा कि उसने तो ऐसे-ऐसे लेख लिख रखे हैं जिन्हे पढ़ कर लोगों के दिमाग के तार झनझना जायें, क्रांति की चिनगारी भड़क उठे और सरकारें ड़ाॅंवाड़ोल हो जायें। लेकिन क्यों कि उसके ऊपर एक संगठन विशेष का प्रवक्ता होने की मुहर लगी हुयी है इसलिए कोई भी प्रकाशक उसका संकलन छापने को तैयार नहीं है। संगठन के विचारों को आम लोगों तक पॅंहुचाने तथा नए लोगों को संगठन से जोड़ने के लिए उसके लेखों का संकलन छपना अति आवश्यक है।

देखा गया कि उसके लेख वास्तव में काफी प्रभावोत्पादक थे। सामाजिक विषमता, दोषपूर्ण वितरण व्यवस्था, शोषक वर्ग की चालाकियों, शोषण के नए तौर-तरीकों, निजीकरण के षणयंत्रों तथा सर्वहारा वर्ग से जुड़ीं लगभग सभी समस्याओं का बहुत ही सजीव चित्रण था उसकी रचनाओं में। उसके लेख वास्तव में मानसिक उद्वेलन पैदा करने में सक्षम थे। संगठन के कर्ता-धर्ता ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति को हर हाल में अपने साथ रखना चाहते थे। अतः उसके लेखों का एक संकलन संगठन की तरफ से प्रकाशित कराया गया। न सिर्फ इतना बल्कि संगठन ने उस पुस्तक के प्रचार-प्रसार में भी अपनी पूरी ताकत झोंक दी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उस पुस्तक की खूब समीक्षायें हुयीं तथा स्थान-स्थान पर उस पर चर्चायें भी प्रायोजित की गयीं। इस प्रकार उस पुस्तक को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली और वह देखते ही देखते सुर्खियों में छा गया। उसकी पहचान दलित एवं सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के विशेषज्ञ के रूप में होने लगी। देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित सभा, समारोहों में उसे ससम्मान बुलाया और सुना जाने लगा। देखते ही देखते दो-तीन वर्षों के अंदर ही उसे आधा दर्जन संस्थाओं से सम्मान और पुरस्कार भी प्राप्त हो गए। इस प्रकार अब वह एक स्थापित और बिकाऊ नाम हो गया तथा कई बड़े प्रकाशक उसके आगे-पीछे मॅंड़राने लगे।

अब उसको उस छोटे से कस्बानुमा शहर तथा वहाॅं की सुविधाहीन जिन्दगी से ऊब सी होने लगी थी। संगठन के पत्र, तथा उसके अन्य क्रिया-कलापों में भी उसकी अब कोई खास रूचि नहीं रह गयी थी। वह संगठन हाईकमान से मिलने वाले निर्देशों की भी अब बहुत परवाह नहीं किया करता था। कारण कि अब वह इस स्थिति में आ चुका था कि अपनी लोकप्रियता तथा अपने सम्बन्धों को भुना सके। संगठन के अंदर उसके हिमायती रहे लोग अब अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगे थे। उसके असंतोषजनक व्यवहार से तंग आ कर आखिर एक दिन संगठन ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। वह तो जैसे इसी अवसर की प्रतीक्षा में ही था। उसने खुशी-खुशी वह शहर छोड़ दिया।

वह लेखक आजकल राजधानी स्थित अपने भव्य बॅंगले में रहने लगा है तथा मुॅंहमाॅंगी रायल्टी ले कर प्रकाशकों की फरमाइश पर लिखने लगा है। इतना ही नहीं वह कई सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं एवं समितियों का सदस्य भी नामित किया जा चुका है। अब प्रायः वह रेल की वातानुकूलित श्रेणी अथवा हवाई जहाज से यात्रा किया करता है। महानगरों के पंचतारा होटलों में आयोजित सेमिनारों में सर्वहारा वर्ग की समस्याओं पर लच्छेदार भाषण करता है। अब उसके लेखों तथा भाषणों में कर्म की प्रधानता की जगह नियतिवाद, आक्रोश की जगह धैर्य, क्रान्ति की जगह शान्तिपूर्ण समाधान, संघर्ष की जगह समझौते तथा पूॅंजीवादी व्यवस्था के उग्र विरोध की जगह पूॅंजीवाद और समाजवाद में सामंजस्य स्थापित किए जाने की सलाह होती है। पिछले कुछ समय से चर्चा है कि राज्यसभा का सदस्य नामित होने के लिए वह कई राजनीतिक दलों के सम्पर्क में है।

Related Stories