हीरा और बीरा
कहानी
अड़ियल हीरा आज फिर अड़ गया था। ‘सटाक्...सटाक्...सटाक्’ गुस्सा में भरे रामधनी ने हीरा के दोनों पुट्ठों पर ताबड़तोड़ कई कोड़े बरसा दिए। मार खा कर हीरा भी गुस्से में आ गया। अपने दोनों अगले पैरों को हवा में उठा कर वह इतनी तेजी से उछला कि लगा जैसे ताॅंगा पलट ही जाएगा। दाॅंत पीसता रामधनी ताॅंगे से नीचे कूद गया। एक हाथ से हीरा की नाक में कसे नाथ की रस्सी को पकड़ कर वह दूसरे हाथ से उसकी पीठ पर दे दनादन, दे दनादन कोड़े बरसाने लगा। ‘‘बहुत मुटा गए हो....? बहुत चर्बी चढ़ गयी है...? बहुत आरामतलबी सूझ रही है....? सवेरे-सवेरे नखरे शुरू हो गए तुम्हारे...? अभी उतारता हूॅं तुम्हारी चर्बी...।’’ रामधनी बड़बड़ाए जा रहा था और कोड़े बरसाए जा रहा था। हीरा ने भी जैसे न हिलने की कसम खा रखी थी। अपनी जगह पर अड़ा वह बार-बार उछड़ रहा था और नथूने फुला कर फुंफकार रहा था।
शोर सुनकर घर के अंदर से रामधनी का बेटा बीरा दौड़ते हुए आया। ‘‘क्या बापू, तुम भी सवेरे-सवेरे इस बेजुबान को सताने लगे। चलो, हटो....मैं देखता हूॅं।’’ बीरा ने कहा तो हाॅंफता हुआ रामधनी अंदर जा कर बरामदे में बैठ गया।
बीरा एक बाल्टी में पानी ले आया और हीरा के सामने रख कर उसका गला, पीठ और पुट्ठे को सहलाने लगा। बीरा को देखते ही हीरा शान्त हो पानी पीने लगा। जब वह पानी पी चुका तो उसके कान के पास मुॅंह ले जा कर बीरा बोला-‘‘हीरा, यार तुम भी बेवजह अड़ जाते हो। तुम तो जानते ही हो कि हम सब लोग तुम्हारे ही भरोसे जी रहे हैं। अगर तुम काम नहीं करोगे तो घर का खर्चा कैसे चलेगा ? जाओ, तुम काम पर जाओ....अब मुझे भी स्कूल जाना है।’’ उसके बाद हीरा का व्यवहार बिल्कुल ही बदल गया। वह सर झुका कर ऐसे खड़ा हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो।
‘‘जाओ बापू...हीरा तैयार है। लेकिन ध्यान रहे उसे मारना-पीटना मत।’’ बीरा ने अपने बापू से कहा। रामधनी ने ताॅंगा पर बिछे बिछौने को ठीक किया, उचक कर बैठा और हीरा को हाॅंकते हुए चल पड़ा। वह गाॅंव के बाहर आया तो पीपल के नीचे चार लोग उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनको ताॅंगे में बिठा कर वह शहर की ओर चला गया।
रामधनी के गाॅंव रानीपुर से शहर की दूरी पूरे चार किलोमीटर है। गाॅंव में जिसके पास अपनी सायकिल अथवा मोटर सायकिल नहीं है उसके लिए शहर जाने का एक मात्र साधन रामधनी का ताॅंगा ही होता है। हीरा को दाना-पानी देने तथा खुद नाश्ता करने के बाद रामधनी लगभग सात बजे सवेरे ताॅंगा ले कर शहर के लिए निकल पड़ता है। उसके बाद रात सात बजे तक उसकी शहर से गाॅंव और गाॅंव से शहर के बीच फेरी चलती रहती है। बस खुद खाना खाने और हीरा को खिलाने के लिए वह दोपहर में घंटा भर के लिए विश्राम लेता है।
भगवान ने भी खूब जोड़ी बनायी है। रामधनी जितना गुस्सैल हीरा उतना ही तुनकमिजाज। रामधनी जितना जिद्दी हीरा उतना ही अड़ियल। अगर हीरा का मिजाज सही है तो ताॅंगे को वह मोटर कार की तरह सर-सर सर-सर दौड़ाता है लेकिन अगर किसी बात पर बिदक गया तो फिर भगवान ही मालिक। वह जहाॅं अड़ जाता है वहाॅं से उसको एक कदम भी ड़िगा पाना कठिन हो जाता है। कितना भी मारो-पीटो वह टस से मस नहीं होता है। रामधनी के मन में कई बार आया कि वह हीरा को बेच दे लेकिन उसके बेटे बीरा की जिद के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका। उसका बेटा बीरा उस घोड़े हीरा पर जान छिड़कता है।
अब से छः साल पहले रामधनी जब इस घोड़े हीरा को खरीद कर ले आया था उस समय उसका बेटा बीरा सिर्फ चार साल का था। हीरा भी उस समय अभी बच्चा ही था। घर में हीरा क्या आया, बीरा के लिए जैसे कोई खिलौना आ गया। सवेरे, शाम जितनी भी देर तक हीरा घर में रहता, बीरा उसके पास ही रहा करता था। हीरा अपनी चारों टाॅंगें फैला कर जमीन पर पसर जाता था और बीरा उसके ऊपर चढ़ कर बैठ जाता था। बीरा कभी हीरा की पूॅंछ खींचता, कभी कान खींचता, कभी पीठ थपथपाता तो कभी उसके गले में हाथों को ड़ाल कर झूलने लगता था। उस समय हीरा या तो आॅंखें बंद किए चुपचाप पड़ा रहता था या फिर खुश हो कर बीरा को चाटने लगता था। बीरा हीरा से खूब बतियाता था और हीरा भी मानो उसकी हर बात को समझता था। धीरे-धीरे छः साल का समय बीत गया। बीरा दस साल का हो गया, स्कूल भी जाने लगा लेकिन सवेरे-शाम वह हीरा के पास ही रहता था। वह हीरा को दाना देता, पानी देता, उसे नहलाता, सहलाता और उसके साथ बातें किया करता था।
कुछ दिनों के बाद एक और घटना घट गयी। जाड़े के दिन थे। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। रामधनी शहर से आखिरी फेरी लगा कर वापस आ चुका था और खाना खा कर अलाव के पास बैठा आग ताप रहा था। दिन भर का थका हीरा भी खा, पी चुकने के बाद अपनी मड़ई में आराम से पसरा था। अचानक तभी ‘रामधनी....रामधनी....ओ बेटा रामधनी’ पुकारतीं केवट टोला की बुढ़िया गुलाबो आ गयीं। वह बहुत घबड़ायी हुयी थीं। जाड़े के दिन में भी वह पसीने से तर थीं।
‘‘क्या हुआ काकी, आप इतना परेशान क्यों हैं ?’’ रामधनी ने पूछा।
‘‘जल्दी करो बेटा। ताॅंगा निकालो और मेरे घर चलो। तुरन्त शहर के अस्पताल चलना होगा। बहू की तबियत बहुत खराब है। उसके पेट में बच्चा है।’’ गुलाबो एक साॅंस में ही कह गयीं।
रामधनी ने तुरन्त कपड़ा पहना, एक किनारे रखे ताॅंगे को खींच कर सामने ले आया और हीरा को लेने उसकी मड़ई में गया। हीरा आराम से जमीन पर पसरा हुआ था। रामधनी ने उसकी नाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश की लेकिन वह नहीं उठा। रामधनी ने उसकी पूॅंछ उमेठी लेकिन वह चुपचाप पड़ा रहा। रामधनी ने लकड़ी का पैना उठाया और उससे हीरा को पेट, पीठ, गले और पुट्ठे में गोदने लगा लेकिन हीरा टस से मस नहीं हुआ। वह आराम से पसरा रहा। फिर तो रामधनी को गुस्सा आ गया। उसने कोड़ा उठा लिया और हीरा को मारने लगा।
रामधनी मार कर, फटकार कर, डंड़े से गोद कर, नाक की नाथ खींच कर हर संभव कोशिश कर के थक गया लेकिन हीरा के ऊपर कोई असर नहीं हुआ। वह न उठने की जिद किए लेटा पड़ा रहा।
‘‘काकी बहुत मुश्किल है। मैं तो चलने को तैयार हूॅं लेकिन मेरा घोड़ा टस से मस नहीं हो रहा है। मैं सब कोशिश कर के हार गया वह उठ ही नहीं रहा है।’’ रामधनी ने कहा।
‘‘अरे बेटा कुछ भी करो...कैसे भी करो...ताॅंगा ले चलो नहीं तो मेरी बहू मर जाएगी। वह मारे दर्द के छटपटा रही है।’’ गुलाबो ने कहा और जोर-जोर से रोने लगी।
बीरा अंदर कमरे में बैठा पढ़ रहा था। अपने बापू और गुलाबो की बात और उसके बाद गुलाबो के रोने की आवाज सुन कर वह बाहर आया। तब तक उसकी माॅं भी आ गयी। बापू से पूछने पर उसे पूरी बात की जानकारी हुयी। ‘‘दादी, तुम परेशान न हो मैं अभी हीरा को ले कर आता हूॅं।’’ बीरा ने कहा और हीरा की मड़ई में घुस गया।
‘‘यार हीरा मान जाओ.....तुम्हारा जाना बहुत जरूरी है। बस अस्पताल तक ही तो जाना है। गुलाबो दादी की बहू बिरजू काकी की जिन्दगी का सवाल है भाई।’’ बीरा ने हीरा की पीठ को सहलाते और उसे पुचकारते हुए कहा। बीरा की बात सुनते ही हीरा जोर से हिनहिनाया और झटके से उठ कर खड़ा हो गया। उसकी नाथ पकड़े बीरा बाहर आ गया। बीरा के बापू, माॅं और गुलाबो उन दोनों को चकित हो कर देख रहे थे।