हाथी के दाॅत

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

1/25/20211 मिनट पढ़ें

शाम को आफिस से लौटकर अभी घर के गेट में घुसा भी नहीं था कि स्कूटर की आवाज सुनकर मेरी छोटी बेटी रीतू अन्दर से दौडती हुयी आयी और गोवर्धन भाई के आने की सूचना दे गई- ‘‘पापा-पापा, वो गाॅव वाले अंकल आए हैं। वो हमाले लिए ईक औल मटल लाए हैं।‘‘

‘‘अच्छा...? तो ईख चूसी तुमने ?‘‘ मैंने स्कूटर खड़ी करके बेटी को गोद में उठाते हुए पूछा।

‘‘हाॅ....चूसी है न.....वो देखो।‘‘ बाहर के छोटे से बरामदे में बिखरे ईख के छिलकों तथा चूसी हुयी गुल्लियों को दिखाते हुए बेटी ने उत्तर दिया।

‘‘सारी ईख चूस ड़ाली तुमने कि मेरे लिए भी कुछ छोड़ी है ?’’

‘‘है न......अभी तो ढेल छाली लक्खी है। मैंने तो बछ छोती-छोती दो ईक चूछी थी।’’ बेटी ने आॅंखे मटकाते अपनी तोतली भाषा में उत्तर दिया।

बेटी को गोद में लिए उससे बातें करता मैं घर के अन्दर गया तो देखा कि ड्राइंग रूम में सोफे के ऊपर आराम से पालथी मार कर बैठे गोवर्धन भाई टी0वी0 देखने में तल्लीन थे। मैंने नमस्कार किया तो उनका ध्यान भंग हुआ। ‘‘कहो हरी ? आ गए आफिस से ?’’ उन्होंने लगभग चैंकते हुए पूछा।

‘‘हाॅ भाई साहब.....और आप कब आए ?.‘‘मैंने बगल वाले सोफे पर बैठते हुए प्रश्न किया।

‘‘लगभग तीन-साढ़े तीन बजे पहॅॅॅॅुचा हॅू यहाॅ। जनता से आया हॅू.....लेट थी आज।‘‘ गोवर्धन भाई ने बताया और अपनी आदत के मुताबिक पीले-पीले दाॅत उघाड़ कर हॅस दिए।

गोवर्धन भाई का मन गाॅंव में ही रमता है। अगर कोई बहुत जरूरी न हो तो वे साधारणतया गाॅंव से बाहर नहीं निकलते हैं इसलिए उनके एकाएक आ धमकने का कारण जानने के लिए मैं व्यग्र हो रहा था। बेटी को गोदी से उतारने के बाद टी0वी0 की आवाज धीमी करके उनके सामने वाले सोफेे पर बैठते हुए मैंने पूछा-‘‘न कोई चिट्ठी न पत्री....ई एकाएक कैसे आना हुआ भाई साहब..? गाॅव-घर में सब कुशल-मंगल तो है न ?‘‘

‘‘हाॅ....हाॅं गाॅव में सब ठीके-ठाक है। सब कुछ वैसे ही रामभरोसे लस्टम-पस्टम चल रहा है। पाला से अरहर की फसल चैपट हो गयी अबकी.....चना का भी वही हाल समझो।‘‘

‘‘और....कोई खास बात...?‘‘ मैंने पुनः पूछा।

‘‘खास बात का होनी है...समझो कि ऊ हमारे पेट का दरद आजकल फिर से उभड गया है। हम तो बलिया के भृगुआश्रम वाले वैद्य जी की दवाई करा ही रहे थे। ठीक हो ही जाते। लेकिन तुम्हारी भौजाई नहीं मानीं। वह हमारे पीछे ही पड़ गयीं कि हरी के यहाॅ चले जाओ....वह शहर शहर में किसी अच्छे डाॅक्टर को दिखला देंगे....अच्छी दवाई दिलवा देंगे। सो तुम्हारी भौजाई की जिद के कारण तुम्हारे पास आना पड़ा।‘‘ गोवर्धन भाई ने बताया।

‘‘आप आ गए तो अच्छा ही किए। भाभी की बात सही है। हम यहाॅ अच्छे से अच्छे डाक्टर से आपकी जाॅच करा देंगे....अच्छी से अच्छी दवाई भी दिला देंगे, लेकिन भैया उससे कुछ फायदा तो होना नहीं। आप के साथ तो वही मसल है कि ‘कबीर दास की काली कमरी, चढ़े न दूजो रंग’। लाख अच्छे डाक्टर का इलाज हो चाहे लाख अच्छी दवाई, आप के लिए तो सब बेकार ही है क्यों कि आप अपनी आदत से तो बाज आयेंगे नहीं। शराब पीना छोडंेगे नहीं। जब कि आप को अच्छी तरह से पता है कि आपकी बीमारी की मुख्य जड़ यह शराब ही है।‘‘ मैंने कहा।

‘‘लो....तुम भी अपनी भौजाई की ही भाषा बोलने लगे। अरे भाई ! शराब तो मैं पिछले बीस सालों से पी रहा हॅू लेकिन यह पेट दर्द की बीमारी ससुरी तो बस ढाई-तीन सालों से ही शुरू हुयी है न। उसके पहले तो कहीं कुछ था नहीं। फिर गाॅव में तो मुझसे भी बढ़कर एक से एक धाकड़ पियक्कड़ पड़े हैं। हम जैसे लोग जितनी शराब एक हफ्ते में पीते हैं, उससे अधिक वे लोग एक दिन में ही डकार जाते हैं। लेकिन उन ससुरों को तो कुछ भी नहीं होता। सब के सब ..भले चंगे हंैं....मस्त, मलंग हैं। फिर ये बताओ कि जो लोग शराब नही पीते क्या उनको बीमारी नहीं होती....वे नहीं मरते। दूर क्या जाना अपने छोटके कक्का का ही उदाहरण ले लो। शराब पीना तो दूर उन्होंने तो अपनी जिन्दगी में कभी पान तक नहीं खाया, कभी बीड़ी तक नहीं पी...पूरे नियम, संयम से रहते रहे। फिर क्यों अल्सर हो गया था उनके पेट में....? ऐं....बोलो...?‘‘

‘‘भाई साहब ! आप तो अपने शराब पीने के औचित्य को सिद्ध करने के लिए कुतर्क पर उतर आए हैं। मुझे पता है कि आप शराब की बुराई नहीं बर्दाश्त कर सकते क्यों कि शराब आप के लिए अमृत से भी बढ़ कर प्यारी चीज है। लेकिन यह बताइए कि यदि शराब सचमुच बुरी चीज नहीं होती तो संसार के सारे महापुरूष, सारे समाज सुधारक इसकी निन्दा क्यों करते ? और सरकार मद्य निषेध की बात क्यों करती.......शराब की बुराइयों के प्रचार-प्रसार में और इससे होने वाले हानि के प्रति लोगों को जागरूक करने में सरकार प्रति वर्ष लाखों, करोड़ों रूपए क्यों खर्च करती ?‘‘

‘‘बिलकुल ठीक कहा तुमने। सरकार की यही दोहरी नीति तो मेरी भी समझ में नहीं आती है। एक तरफ तो सरकार जी-जान से इस प्रयास में जुटी है कि अधिक से अधिक लोग शराबी बन जायें ताकि अधिक से अधिक शराब बिके और सरकारी खजाने में अधिक से अधिक पैसा आए। इसके लिए हर वर्ष ठेकों की संख्या बढ़ाई जा रही है, नए-नए क्षेत्रों में, देहात के छोटे से छोटे गाॅवों तक में शराब की दुकानें खोली जा रहीं हैं और दूसरी तरफ वही सरकार शराब की बुराइयों का ढ़िंढ़ोरा भी पीट रही है। लाखों, करोड़ो रूपए खर्च करके हमारी सरकार जन-जागरण कर रही है कि-‘शराब पीना सामाजिक बुराई है, शराब जहर से भी बुरी चीज है, शराब पीना जहर पीने से भी भयंकर है, शराब पीने से आत्मा मर जाती है वगैरह वगैरह।’ यह तो वही बात हुयी कि ‘चोर से कहो कि चोरी करो और शाह से कहो कि जागते रहो’। अरे भाई ! मैं कहता हॅू कि यदि शराब सचमुच इतनी बुरी चीज है तो इसे बनने ही क्यों देते हो ? इस पर सीधे-सीधे प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगा देते ? सारे ठेके बंद कर दो, कानून बना दो, जो शराब पिए उसे जेल भेज दो। एक झटके में सारी समस्या खत्म। क्या जरूरत है इसकी बुराई का ढिंढ़ोरा पीटने की....और तरह-तरह की नौटंकी करने की।‘‘

छोटे से गाॅव में रहने वाले, सामान्य पढ़े-लिखे गोवर्धन भाई ऐसी गूढ़ और अकाट्य बात कह देंगे मुझको इसकी कत्तई उम्मीद नहीं थी। बात तो उनकी बिल्कुल सही थी। हमारी जो सरकारी मशीनरी एक तरफ शराब की बिक्री और उसके जरिए अधिकाधिक राजस्व अर्जित करने के लिए प्रयत्नशील है वही दूसरी तरफ मद्यपान से होने वाली बुराइयों के प्रचार-प्रसार में भी लगी है। एकदम से निरूत्तर हो कर रह गया मैं। गोवर्धन भाई के इस प्रश्न का मेरे पास सचमुच कोई जवाब नहीं था इसलिए मैंने बात का रूख दूसरी दिशा में मोड़ दिया-‘‘भाई साहब ! दरअसल सरकार को यह पता है कि समाज में आप जैसे धुरन्धर शराब प्रेमी भी हैं जो लाख कानूनों और प्रतिबन्धों के बावजूद शराब पीना नहीं छोडें़गे। इसीलिए सरकार इस पर प्रतिबन्ध नहीं लगा रही। देखा नहीं था आप ने मोरारजी देसाई के शासन काल में देश में नशाबन्दी लागू कर दी गई थी तो क्या हालत हो गई थी। चारों तरफ शराब की तस्करी होने लगी थी, लोग-बाग शराब के बदले स्पीरिट और अल्कोहल मिश्रित अंग्रेजी दवाइयाॅं पीने लगे थे, जगह-जगह चोरी-छिपे जहरीली शराब बनाने की भट्ठियाॅ खुल गयी थीं, और आए दिन जहरीली शराब पी कर लोग मरने लगे थे। समाज में इतनी अधिक अराजकता फैल गई थी कि पूछो मत। शायद यही कारण है कि नशेड़ियों से हार मान कर सरकार ने प्रतिबंध हटा लिया। सोचा होगा सरकार ने कि लोग जहरीली पी कर मरें और सरकार के लिए मुसीबत खड़ी करें उससे बढ़िया है कि असली वाली पी कर आराम से मरें।’’

‘‘तो क्या अब नशाबंदी समाप्त कर देने से ये सारी चीजें बन्द हो गयीं हैं क्या ? अब शराब की तस्करी नहीं हो रही है, कि गाॅव-गाॅव में कच्ची शराब बनाने की भट्ठियाॅ नहीं चल रही हैं, कि जहरीली शराब पी कर लोग मर नहीं रहे हैं. ? क्या चीज रूक गयी है ? हरी ! बात ऐसी नहीं है जैसी तुम कह रहे हो। सच्चाई यह है कि इस मामले में सरकार स्वंय ईमानदार नहीं है। सरकार स्वंय नहीं चाहती कि शराब की तस्करी बन्द हो, लोगों का शराब पीना बन्द हो या शराब की भट्ठियाॅ बन्द हों। कारण कि सरकार में बैठे पिच्चानबे प्रतिशत लोग तो स्वंय सुरा-प्रेमी हैं, और शराब के सारे ठेके भी उन्हीं लोगों या उनके भाई-भतीजों के पास हैं। रही तस्करी और जहरीली शराब की भट्ठियों की बात तो इन धन्धों का संचालन भी तो ये सफेदपोश लोग ही करते हैं। तुम क्या समझते हो कि ये सब धन्धे चुपके से होते हैं....चोरी-छिपे होते हैं। नहीं जी नहीं, सब कुछ खुलेआम, डंके की चोट पर पुलिस-प्रशासन की मर्जी से बल्कि सच कहें तो उनके संरक्षण में होता है। नीचे से ऊपर तक सभी की हिस्सेदारी होती है अवैध शराब की इस काली कमाई में। वरना यदि पुलिस, प्रशासन न चाहें तो आम आदमी की क्या मजाल कि रत्ती भर भी कोई गलत काम कर दे।‘‘

‘‘आप का कहना भी ठीक है। मैं मानता हूॅं कि कुछ भ्रष्ट पुलिस और माफियाओं के गठजोड़ के कारण अवैध शराब का धंधा फल-फूल रहा है लेकिन इसकी वजह से आप पूरी सरकार की मंशा पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकते। सरकार तो अपने दायित्व का निर्वहन कर ही रही है। उसकी बात मानना या न मानना तो लोगों की मर्जी पर है। अब कोई जानबूझ कर कुॅंवें में कूदे या गले में फाॅंसी लगा ले तो क्या किया जा सकता है। सरकार डंड़ा लिए सभी के पीछे-पीछे थोड़े न भाग सकती है।’’

‘‘नहीं हरी नहीं, सच्चाई यह नहीं है। सरकार अपने दायित्व का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन नहीं बल्कि सिर्फ फर्ज अदायगी कर रही है। देखो, जब तक तुम्हारी कथनी और करनी में समानता नहीं होगी, तुम्हारी बात का कोई असर नहीं होगा। कोई नहीं मानेगा तुम्हारी बात। मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार एक औरत अपने छोटे से बेटे को ले कर गाॅंधी जी के पास गयी और बोली कि बापू मेरा बेटा गुड़ बहुत खाता है। आप इसे समझाइए कि गुड़ न खाया करे। गाॅंधी जी ने कहा कि ठीक है तुम तीन दिनों के बाद इसे ले कर मेरे पास आना। पुनः तीन दिनों के बाद वह औरत अपने बेटे को ले कर गाॅंधी जी के पास गयी तो गाॅंधी जी ने उसके बेटे से कहा-‘बेटा ! ज्यादा गुड़ खाना अच्छी बात नहीं। इससे दाॅंत खराब हो जाते है। तुम गुड़ मत खाया करो’। औरत ने पूछा- बापू, सिर्फ इतनी सी बात कहने के लिए आप ने मुझे तीन दिनों के बाद दोबारा क्यों बुलाया। यह बात तो आप उस दिन भी कह सकते थे जब मैं पहली बार बेटे को ले कर आप के पास आयी थी। गाॅंधी जी बोले- नहीं, यह बात मैं उस दिन नहीं कह सकता था क्यों कि तब मैं खुद बहुत गुड़ खाता था। इन तीन दिनों में मैंने गुड़ खाना बंद कर दिया है तब मैं किसी और से यह बात कहने के लायक हो सका हूॅं।’’

‘‘अरे वाह ! ये तो आपने अच्छा तर्क दिया अपने शराब प्रेम के समर्थन में।’’

‘‘सिर्फ तर्क नहीं हरी यह सच्चाई है सच्चाई। अच्छा ये बताओ कि किसी भी नेता, मंत्री, पत्रकार या अफसर की कोई पार्टी बगैर शराब के पूरी होती है क्या ? और जिन्हें तुम लोग विद्वान, बुद्धिजीवी या समाज के पथ प्रदर्शक कहते हो......जो लम्बी-चैड़ी नसीहतें देते हैं.......फतवे जारी करते हैं......यानी कवि, लेखक, चिन्तक, विचारक वगैरह उनमें से क्या दो प्रतिशत भी लोग ऐसे हैं जो शराब न पीते हों। उनकी तो जब तक दो पैग हलक के अंदर नहीं जाता, बुद्धि ही नहीं खुलती....कलम ही नहीं चलती उनकी। मैं कहता हूॅं कि भाई ! यह ढ़कोसला करने की क्या जरूरत है। जब तुम खुद उसी मर्ज के मरीज हो तो फिर दूसरों को उपदेश क्यों देते फिरते हो ?

‘‘बड़े लोगों की बात मत करिए गोवर्धन भाई....वे जो चाहें करे...कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन हम जैसे मध्यम वर्ग के लोगों के लिए तो साक्षात बर्बादी का कारण है यह शराब।’’

‘‘अरे वाह ! क्या खूब कहा। मंत्री, संतरी और असरदार लोग पिएं तो शराब अमृत है और हम जैसे गरीब पिएं तो जहर ? पैसे वाले लोग अंगरेजी पियें तो पुष्टई है, बढ़िया है लेकिन हम देशी लोग देशी पियें तो खराब हानिकारक। यह कहाॅं का न्याय है भाई। सारा नियम कानून...सारी पाबन्दी हम गरीबों के लिए ही क्यों है ? अगर शराब पीना बुरी चीज है तो सभी के लिए बुरी है। पूरी तरह से बंद कर दो इसेे। न तुम पियो न हम पियें। किस्सा ही खतम।’’

गोवर्धन भाई के साथ मेरा तर्क-वितर्क न जाने अभी और कितनी देर तक चलता लेकिन मेरी बेटी ने आकर बीच में ही विराम लगा दिया। ‘‘पापा ! मम्मी कह लही है कि खाना तैयाल है।‘‘

‘‘चलिए भाई साहब ! खाना खा कर आप आराम करिए। मैं कल दिन में पता करूॅंगा कि किस डाक्टर को दिखलाना ठीक रहेगा....फिर कल शाम को चलेंगे डाक्टर के यहाॅ।‘‘ मैंने कहा और बहस जहाॅ थी वहीं छोड़ कर हम लोग उठ गए।

गोवर्धन भाई मेरे चचेरे बड़े भाई हैं और गाॅव में रहते हैं। पिताजी के मरने के बाद से अपने हिस्से की खेती-बाड़ी की देख-रेख भी मैंने उन्हीं को सौंप रखी है। बात व्यवहार से गोवर्धन भाई बहुत ही भले, नेकदिल और मिलनसार आदमी हैं, बस, उनके अन्दर एक ही ऐब है कि वे शराब के पुराने लती हैं। पेट दर्द की बीमारी उनको पिछले चार-पाॅच सालों से है। कई बार डाक्टरों को दिखाया गया, हर बार डाक्टर उन्हें शराब पीने से मना करते हैं। कहने-सुनने पर वे कुछ दिनों के लिए शराब पीना बन्द भी कर देते हैं, भविष्य में कभी भी न पीने की कसमें खाते हैं लेकिन तबीयत जरा सी सुधरी नहीं कि कसमें, वादे भूल फिर वही पुराना ढ़र्रा अपना लेते हैं।

अगले दिन आफिस में कई लोगों से राय-मश्विरा करने के बाद यह तय हुआ कि गोवर्धन भाई का इलाज मेडिकल कालेज के सीनियर प्रोफेसर डा0 सी0पी0 सिंह से कराया जाय। लोगों ने बताया कि शाम छः से आठ बजे तक वे अपने निवास पर प्राइवेट मरीज भी देखते हैं। मैं आफिस से लौटने के बाद गोवर्धन भाई को लेकर डा0 सी0पी0 सिंह के यहाॅ पहुॅचा। वहाॅ मरीज़ों की लम्बी लाइन लगी हुयी थी। हम भी लाइन में लग गए। नम्बर आने पर डाक्टर साहब ने गोवर्धन भाई की जाॅच की, रोग की हिस्ट्री पूछी और अल्ट्रासाउण्ड तथा खून, पेशाब आदि की कई प्रकार की जाॅचें लिख दीं। अगला सारा दिन तरह-तरह के जाॅच कराने तथा उनकी रिपोर्ट समेटने में ही लग गया। जाॅच की सभी रिपोर्टों के साथ दूसरे दिन शाम को हम लोग पुनः डाक्टर साहब के यहाॅ पॅंहुचे। डाक्टर साहब उन रिपोर्टों को काफी देर तक उलट-पुलट कर देखते, पढ़ते और अपनी आॅखों तथा होठों को विभिन्न मुद्राओं में सिकोड़ते, फैलाते रहे।

‘‘सब कुछ नार्मल तो है न डाक्टर साहब ?‘‘ डाक्टर साहब को अत्यधिक गंभीर देख कर मैं ने पूछा।

‘‘नार्मल ? अजी मुझको तो आश्चर्य है कि यह आदमी अभी तक जिन्दा कैसे है ? इसके फेफड़े बुरी तरह डैमेज़ हो चुके हैं....किडनी भी अफेक्टेड हैं....और आॅतों में भी सूजन है। दिस आल इज ड्यू टू स्मोकिंग एण्ड अल्कोहलिंग। ये श्रीमानजी तो बहुत पुराने नशेड़ी मालुम होते हंै।‘‘ मुझसे बात करते-करते डाक्टर साहब अचानक गोवर्धन भाई की तरफ मुड़े और पूछ बैठे-‘‘बाय द वे....कितने सालों से शराब और सिगरेट पी रहे हैं आप...?‘‘

गोवर्धन भाई डाक्टर साहब के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय बगले झाॅकने लगे अतः स्थिति मुझे ही संभालनी पड़ी। ‘‘आप की बात बिलकुल सही है सर, ये श्रीमान जी शराब कम से कम पिछले अट्ठारह-बीस वर्षों से पी रहे हैं....और बीड़ी-सिगरेट तो उससे भी काफी पहले से पीते रहे हैं। इसी कारण पहले भी कई बार बीमार पड़ चुके हैं। जब तबियत ज्यादा खराब हो जाती है और डाक्टर लोग मना करते हैं तो हफ्ते दस दिनों के लिए पीना बन्द कर देते हैं....लेकिन तबियत सॅंभलते ही फिर से शुरू हो जाते हैं।‘‘ मैंने बताया।

‘‘हॅू....तब तो मामला संगीन है। तब तो ये जिन्दगी और शराब इन दोनों में से किसी एक को चुन लें....दोनों साथ-साथ नहीं चलेगा। आइदर लाइफ आर अल्कोहल। अरे भई ! देखने से तो आप पढ़े-लिखे और समझदार दिखते हैं....आप बात की गंभीरता को समझते क्यों नहीं ? यह शराब तो जहर है जहर....बल्कि सच कहें तो यह ज़हर से भी अधिक बुरी चीज़ है। ज़हर तो आदमी को एक बारगी जान से खत्म कर देती है, लेकिन यह शराब तो न जीने देती है न मरने। धीरे-धीरे, घुला-घुला कर मारती है। यही हाल सिगरेट-बीड़ी का भी है। इनका धुवाॅ फेफड़े को छलनी कर देता है। आदमी को अन्दर ही अन्दर खोखला कर देता है।‘‘ डाक्टर साहब गोवर्धन भाई को समझाते रहे और स्टूल पर बैठे गोवर्धन भाई सिर झुकाए, बुत बने बैठे सुनते रहे।

‘‘हाॅ ड़ाक्टर साहब ! हम लोग भी इनको सालों से यही समझाते चले आ रहे हैं लेकिन ये किसी की सुनें तब न। गाॅव में इनकी संगत ही ऐसी ही बन गई है।‘‘ मैंने कहा।

‘‘हाॅ तो मिस्टर गोवर्धन राय ! अगर आप सिगरेट, शराब नहीं छोड़ सकते तब तो भई आइ एम साॅरी....मैं आपकी इलाज नहीं कर सकता। वैसे भी जब आप ने मरने की ठान ही ली है तो इलाज कराने की क्या जरूरत है....? क्या जरूरत है दवा इलाज में पैसे बर्बाद करने की....?‘‘

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं डाक्टर साहब। मैं भी इनको घर पर यही समझा रहा था कि अब से भी मान जाइए। अपने लिए न सही अपने बीबी-बच्चों के भविष्य के लिए अब शराब पीना बन्द कर दीजिए।‘‘

‘‘सिर्फ शराब ही नहीं, बीड़ी-सिगरेट भी, यदि गाॅजा, अफीम का सेवन करते हो तो वह भी बंद करना पड़ेगा। हर तरह का नशा छोड़ना पडे़गा इन्हें....तब मैं इलाज करूॅंगा...वर्ना ऐसे मैं हाथ नहीं लगाने का।‘‘ ड़ाक्टर साहब ने आॅंखें दिखाते हुए कहा।

‘‘आप इलाज शुरू करिए डाक्टर साहब....मैं इनकी तरफ से आश्वासन देता हॅॅू कि ये सभी प्रकार का नशा छोड़ देंगे। चाहे जैसे भी हो नशा छुड़ाया जाएगा इनसे। इनकी जिद के पीछे घर-परिवार को थोड़े न बरबाद होने देंगे हम लोग।‘‘ मैंने डाक्टर साहब को आश्वस्त किया। मुझसे आश्वासन पाने के बाद डाक्टर साहब ने गोवर्धन भाई की विधिवत जाॅच की और एक सप्ताह की दवाइयाॅ लिखीं। एक सप्ताह बाद उन्होंने पुनः चेक अप के लिए बुलाया।

मैंने गोवर्धन भाई को सलाह दी कि लौट कर गाॅंव जाने और चेक अप के लिए छठंे दिन पुनः वापस आने से अच्छा है कि वे एक सप्ताह के लिए मेरे यहाॅ ही ठहर जायें। एक सप्ताह बाद डाक्टर साहब से दोबारा चेक अप कराने और दवाइयाॅं लेने के बाद ही वापस गाॅव जायें। तब तक इलाज का असर भी पता चल जाएगा। गोवर्धन भाई को भी मेरी सलाह पसन्द आयी और वह मेरे यहाॅ ही ठहर गए।

दो दिनों तक तो सब ठीक-ठाक रहा। किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हुयी। लेकिन तीसरे दिन रात को लगभग नौ बजे जब हम लोग खाना खाने जा रहे थे तभी एकाएक गोवर्धन भाई के पेट में भयंकर दर्द उठा और वे चारपाई पर बुरी तरह लोटने, छटपटाने और चीखने, चिल्लाने लगे। हम लोगों के लिए यह सर्वथा नई चीज थी। हम घबड़ा गए। समझ में नहीं आ रहा था कि करें तो क्या करें। पत्नी ने सलाह दी कि मुझे तत्काल डाक्टर साहब से मिल कर स्थिति की जानकारी देनी चाहिए। गोवर्धन भाई को दर्द निवारक गोलियां खिलाने, तथा बड़ी बेटी को यह समझाने के बाद कि वह गरम पानी के बोतल से उनके पेट की सिंकाई करती रहे, मैं स्कूटर निकाल कर सीधे डाक्टर साहब के बंगले की तरफ भागा।

रात के लगभग दस बज रहे थे। डाक्टर साहब के घर के बाहर सन्नाटा पसरा था। मेरे द्वारा बार-बार काॅल-बेल दबाने और दरवाजा खटखटाने के बावजूद कोई उत्तर नहीं मिल रहा था। इधर मारे घबड़ाहट के मैं हलाकान हुआ जा रहा था। काफी देर के बाद डाक्टर साहब के नौकर ने दरवाजा खोला।

‘‘क्यों ? डाक्टर साहब हैं घर में ?‘‘ मैंने घबड़ाई आवाज में पूछा।

‘‘हाॅ....हैं तो। लेकिन काम क्या है आपको ? कहाॅ से आए हैं आप....?‘‘ नौकर ने प्रश्न किया।

मैं बुरी तरह घबड़ाया हुआ था। मुझे एक-एक पल भारी लग रहा था। अतः नौकर के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उसको लगभग धक्का देता हुआ मैं घर के अन्दर घुस गया और डाक्टर साहब को ढॅूढ़ते-ढॅूढ़ते भीतर के कमरे में पहुॅच गया। अन्दर का नजारा देख कर मैं सन्न रह गया। अन्दर के कमरे में हल्की रोशनी का हरे रंग का बल्ब जल रहा था। कमरे के बीचोबीच एक मेज रखा हुआ था और उसके चारों तरफ डाक्टर साहब सहित कुल पाॅच लोग बैठे हुए थे। मेज के मध्य में अंगे्रजी शराब की बड़ी सी बोतल तथा उसके बगल में एक प्लेट में नमकीन, दूसरे प्लेट में मछली के भुने हुए टुकड़े तथा एक तीसरे प्लेट में नींबू, प्याज बगैरह रखे थे। पाॅचांे लोगों के सामाने शीशे की गिलासों में शराब रखी थी तथा सभी की अॅगुलियों में सुलगता हुआ सिगरेट दबा था। पूरे कमरे में सिगरेट का धुॅवा इस बुरी कदर भरा था कि साॅंस लेना मुश्किल हो रहा था। वहाॅ मेरे अप्रत्याशित ढ़ंग से पॅंहुचते ही सभी लोग हक्का-बक्का हो मेरी तरफ देखने लगे।

‘‘क्या बात है मिस्टर ! ह्नाट्स प्राब्लम ?‘‘ सिगरेट का एक गहरा कश खींचने के बाद डाक्टर साहब ने मुझसे पूछा।

कमरे का नजारा देख मैं बुरी तरह अचकचाया हुआ था। समझ नहीं पा रहा था कि बोलूॅं तो क्या बोलूॅ। दरअसल मैं यहाॅं तक आने का अपना मकसद ही भूल चुका था। ‘‘जी....जी....कोई खास बात नहीं....एक मरीज़ को दिखलाना था।‘‘ बड़ी मुश्किल से मैं इतना ही बोल पाया।

‘‘इस समय मैं मरीज़ नहीं देखता....इट्स माई पर्सनल टाइम।‘‘ बिलकुल बदली-बदली सी आवाज में डाक्टर साहब ने कहा और सिगरेट को पुनः अपने होठों के बीच में दबा लिया।

‘‘जी....कोई बात नहीं....जी मैं कल आ जाऊॅगा...।‘‘ यह कहते हुए मैं तेजी से बाहर भाग आया।

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