गजाधर पाण्डे़ जिंदा हैं ?

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

3/23/20162 मिनट पढ़ें

सुल्तानपुर के गजाधर पाण्डे पिछले लगभग एक-डेढ़ महीने से बीमार चल रहे थे। गाॅव-जवार तथा पड़ोसी कस्बा मनियर के झोला छाप डाक्टरों, वैद्यों और नीम-हकीमों आदि के जो भी इलाज सहज उपलब्ध थे, वो कराए जा रहे थे लेकिन पाण्डे जी की हालत सुधरने के बजाय दिन-प्रतिदिन और बिगड़ती ही चली जा रही थी। सभी को ऐसा आभास हो चला था कि अब पाण्डे जी की चला-चली की बेला है, इसलिए उनके सगे-संबंधियों को खबर कर दी गई। खबर मिलते ही पाण्डे जी की दोनों बेटियाॅं, दोनों दामाद तथा कुछ अन्य रिश्ते-नातेदार आ पहुॅचे। इकलौता बेटा रामेश्वर और उसकी पत्नी भी जी-जान से पाण्ड़े जी की सेवा-टहल में जुट गए।


पाण्डे जी के घर पर जुटे सभी सगे-सम्बन्धी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे कि पंछी कब पिंजड़े से उड़े और वे लोग मातमपुर्सी की फ़र्ज अदायगी करके अपने-अपने ठिकाने को वापस लौटें, अपना काम धंधा देखें। लेकिन पाण्डे जी का प्राण-पखेरू न जाने किस कंदरा में दुबका बैठा था कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। प्रतीक्षा में पूरा दिन बीता, रात बीती और दूसरा दिन आ गया लेकिन स्थिति वहीं की वहीं रही। यानी पाण्ड़े जी की हालत स्थिर बनी हुई थी। उधर मातमपुर्सी के लिए जुटे मेहमानों की अधीरता बढ़ती जा रही थी। सभी का समय कीमती था और हर कोई अपना कोई न कोई जरूरी काम छोड़ कर आया था इसलिए वापसी के लिए व्यग्र था। दूसरा दिन बीतते-बीतते पाण्डे जी की छोटी बेटी का धैर्य जबाव दे गया। ‘‘भाभी ! बाबू जी की हालत तो कुछ समझ में ही नहीं आ रही है....कल से ही जस की तस बनी हुयी है। न जाने कब तक ऐसे ही पड़े रहें....। राजू के पापा को बड़ी मुश्किल से दो दिनों की छुट्टी मिल पायी थी। अब हमारा रूक सकना बहुत मुश्किल है....जाना जरूरी है सो हम वापस जा रहे हैं...। भगवान न करें, अगर कोई ऐसी वैसी बात हो जाय तो हमें खबर भेज दीजिएगा।‘‘ उसने अपनी भौजाई से सुबकते हुए कहा और नाक सुड़कती, आॅसू पोंछती अपने पति तथा बच्चों के साथ वापस लौट गयी।

पाण्डे जी की बड़ी बेटी को भी अपने घर-गृहस्थी की चिंता सताए जा रही थी। वह भी लौटने के लिए परेशान थी लेकिन लोक-लाज के कारण अभी तक मन मारे चुप बैठी थी। छोटी बहन को जाते देखा तो उसने भी हिम्मत की और घर-परिवार की जिम्मेदारियों का हवाला देकर अगले दिन सबेरे वह भी लौट गयी। फिर तो औरों को भी राह मिल गयी। पाण्डे़ जी की हालत जस की तस बनी रही और बाक़ी रिश्तेदार भी अपने काम-धंधे तथा व्यस्तताओं का हवाला दे कर एक के बाद एक वापस चले गए। घर में बस बेटा और बहू ही शेष रह गए। वे दोनों परानी भी पाण्ड़े जी की लम्बी, लाइलाज बीमारी से आजिज आ चुके थे। बेटा तो कुछ नहीं बोल रहा था लेकिन बहू पानी पी-पी कर ससुर जी को कोस रही थी और देवी-देवता से मनौती मना रही थी कि बुढ़ऊ जल्दी मरें तो उसे सेवा-टहल से छुट्टी मिले।

आखिर कब तक चलता ऐसे। पाण्डे जी न मर रहे थे, न ठीक हो रहे थे। चारपाई में लस्त-पस्त पड़े सभी की दया और परेशानी का सबब बने हुए थे। टोले-मोहल्ले के लोगों की राय हुई कि उन्हें सरकारी अस्पताल में दिखाया जाय, सो चारपाई समेत टैªक्टर में लाद कर पाण्डे जी को पड़ोसी कस्बा मनियर के सरकारी अस्पताल में लाया गया। सरकारी अस्पताल के सरकारी डाॅक्टर ने मरणासन्न मरीज़ को देखा तो उसके हाथ-पाॅव फूल गए। इलाज करने की ज़हमत उठाने के बजाय उसने मरीज को जैसे-तैसे टरकाने में ही समझदारी समझी।

‘‘अभी तक क्या बीमारी के बिगड़ने का इंतजार कर रहे थे तुम लोग....? जब बीमारी बिल्कुल बेकाबू हो गई, मरीज़ बिल्कुल मरने-मरने को हो गया तब उसे लेकर अस्पताल आए हो....जैसे अमृत पिला देंगे हम। ऐं...?‘‘ मरीज़ के साथ आए लोगों को डाॅटते हुए डाॅक्टर ने कहा।

‘‘दुहाई डाॅक्टर साहेब....अब आपे के हाथ में सब कुछ बा सरकार....। अब आपे भगवान हईं चाहे जइसे भी हो इनकर जान बचा लेईं सरकार....।‘‘ पाण्डे जी का बेटा रामेश्वर डाॅक्टर के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा।

रोगी के साथ आए लोगों का मन रखने के लिए डाॅक्टर ने आले का हुक कानों में फॅसाया और उसकी घुण्डी मरीज के सीने पर फिराने लगा। थोड़ी देर तक घुण्डी को सीने पर फिराने और नाड़ी टटोलने के बाद वह मुॅह बिचका कर गंभीर मुद्रा बनाते हुए बोला-‘‘ऊॅहुक....कोई चान्स नहीं....। बीमारी बहुत ज्यादे बिगड़ चुकी है। अब यहाॅ कुछ नहीं हो सकता। अगर रोगी की जान बचाना चाहते हो तो इसे तत्काल बनारस ले जाना होगा।‘‘

‘‘बनारस...?‘‘ डाॅक्टर की बात सुन कर रामेश्वर को झटका सा लगा। वह ऐसे चैंका जैसे अचानक सोते से जाग पड़ा हो।

‘‘हाॅ-हाॅ बनारस...। वह भी सरकारी अस्पताल में नहीं, बल्कि प्राइवेट नर्सिंग होम में...। बनारस में एक नया नर्सिंग होम खुला है, बस वहीं बच सकती है इनकी जान। नर्सिंग होम के डाॅक्टर को मैं एक पत्र लिख दूॅगा तो तुम्हें खर्चे में कुछ कन्सेसन हो जाएगा। अगर बाप की जान प्यारी है तो इन्हें तत्काल वहाॅं ले जाओ.....वरना तुम्हारी मर्जी।‘‘

सरकारी डाॅक्टर ने अस्पताल में उपलब्ध चालू किस्म की कुछ दवाईयाॅ तथा अंग्रेजी में लिखी एक चिट्ठी देकर उन्हें टरका दिया। डाॅक्टर साहब की सिफ़ारिसी चिट्ठी और लस्त पड़े रोगी को लेकर सभी लोग वापस घर आ गए।

‘‘अब क्या किया जाय.....ड़ाक्टर तो बाबू को बनारस ले जाने के लिए कह रहा हैै।’’ थके-हारे परेशान बेटे ने अपनी पत्नी से राय माॅंगी।

‘‘कवनो जरूरत नइखे अनारस-बनारस ले जाए के। ई बूढ़ी ठठरी के दवा-दारू करावे के मतलब गोईंठा में घी सुखावल बा। चुप्पे बइठऽ....जवन होनी होई से होई। अगर मरिए जइहें बुढ़ऊ तऽ कवन अजोधा के राज सून हो जाई।’’ बहू ने अपनी दो टूक राय बता दी।

पाण्ड़े जी के बेटे, बहू उन्हें बनारस ले जाने तथा उनके इलाज पर पाॅच-दस हजार और फालतू खर्च करने के कत्तई इच्छुक नहीं थे। वे पिछले दो महीनों से दवा कराते-कराते अघा चुके थे। इसलिए चुप्पी मार कर बैठ गए। लेकिन गाॅव, मुहल्ले वाले चुप बैठने दें तब न। हमारे गाॅवों की यही तो खूबी है कि हर कोई दूसरे के मामलों में टाॅग अड़ाए रहता है, हर कोई दूसरों की चिन्ता में घुला जाता है। वही बात थी कि-‘मुल्ला जी दुबले क्यों...? शहर के अंदेशे से।‘ सो अब गाॅव-मुहल्ले के लोग इस चिन्ता में दुबले होने लगे कि चाहे जैसे हो बनारस ले जा कर पाण्ड़े जी की जान बचा ली जाय।

‘‘अरे भइया ! रूपिया-पैसा का क्या मोह...? रूपिया-पैसा तो हाथ का मैल है....इसका तो आना-जाना लगा ही रहता है लेकिन जो आदमी एक बार चला जाएगा दुनिया से वह तो फिर नहीं आएगा न लौट के।’’

‘‘सौ बात की एक बात यह कि आदमी से ही रूपया, पैसा, धन-दौलत सब कुछ है.....आदमी ही ना रहे तो धन-दौलत किस काम का...?’’

‘‘और नहीं तो क्या......पैसा, रूपिया होता ही इसीलिए है कि गाहे-बगाहे बीमारी-हीमारी, काज-परोज पर काम आवे। वरना सब कुछ यहीं धरा रह जाता है...कोई साथ ले जाता है क्या बाॅंध कर...?’’

‘‘अरे भाई! ई घर-दुआर, बाग-बगीचा, खेती-बारी सारा ताम-झाम गजाधर पांड़े का ही तो बनाया हुआ है, तो अगर इसमें से दू-चार कट्ठा उनके दवा-इलाज में बिक ही जाय तो क्या बुरा है।’’

जितने मुॅह, उतनी तरह की बातें सुन-सुन कर पक गया था रामेश्वर। सुबह-शाम टोक-टोक कर लोगों ने उसकी नाक में दम कर दिया। जब काफी समय तक वह लोगों की बातें अनसुनी करता रहा तो गाॅव में काना-फूसी होने लगी कि पैसा बचाने के लिए वह अपने बीमार बाप का इलाज नहीं करा रहा है। आते, जाते रास्ते में लोग-बाग उसे सुना-सुना कर ताने और उलाहने देने लगे। उसे नालायक, कपूत और कसाई आदि तरह-तरह की उपाधियों से नवाजा जाने लगा। कई लोग तो सीधे उससे सवाल-जबाब पर उतर आए-‘‘ कहो रामेसर ! का सोचे अपने बाप को बनारस ले जाने के बारे में। अगर रूपिया, पइसा की दिक्कत हो तो बताओ...उधार-पइचा की व्यवस्था करी जाय।’’

आखिरकार जब रास्ता चलना दूभर हो गया तो न चाहते हुए भी सिर्फ लोक-लाज के कारण उसे बीमार बाप को लेकर बनारस जाना पड़ा। रामेश्वर ने इधर-उधर से जैसे-तैसे दस हजार रूपये और भाड़े की एक जीप की व्यवस्था की। जीप देखी तो ‘मुफ्त का चन्दन घिस मेरे नन्दन‘ की तर्ज पर मुहल्ले के तीन-चार निठल्लों ने भी हमदर्दी दिखाते हुए अपनी सेवायें प्रस्तुत कर दीं और सहायता के लिए साथ चलने को तैयार हो गए। उन लोगों की सोच यह थी कि गजाधर पाण्डे की बीमारी के बहाने ही उन्हें मुफ्त में बनारस घूमने, गंगा नहाने, विश्वनाथ भगवान का दर्शन करने तथा चार-छः दिनों होटल का चटपटा खाना खाने का अवसर मिलेगा और कहने के लिए रामेश्वर पर एक एहसान भी हो जाएगा। सो बहती गंगा में हाथ धोने के लिए चार निठल्ले साथ हो लिए।

पाण्डे जी को लेकर सभी लोग बनारस के उस विख्यात नर्सिंग होम में जिसके बारे में मनियर के सरकारी डाॅक्टर ने बताया था, पॅंहुचे। उस नर्सिंग होम के बारे में मशहूर था कि वहाॅ के सभी डाॅक्टर, डाॅक्टरनी विदेश के पढ़े हैं, वहाॅ के सारे उपकरण विदेशी हैं, और वहाॅ इलाज भी विदेशी तरीके से किया जाता है। नर्सिंग होम वालों ने पता ठिकाना नोट किया, जमानत के रूप में पाॅच हजार रूपए अग्रिम जमा कराए, और तत्काल पाण्डे जी को भर्ती कर लिया। नर्सिंग होम के जिस कक्ष में पाण्डे जी को रखा गया था, उसकी सामने वाली पूरी दीवार पारदर्शी काॅच की बनी हुयी थी। उस कक्ष के अन्दर रोगी के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाहरी व्यक्ति का जाना पूरी तरह से वर्जित था। अतः रामेश्वर सहित उसके साथ आए सभी लोग शीशे की दीवार के बाहर खड़े होकर अंदर की गतिविधियों को देखने लगे।

नर्सों ने जैसे ही स्ट्रैचर से उतार कर पाण्ड़े जी को झक्क सफेद चादर बिछे स्प्रिंग वाले पलंग पर लिटाया, तुरंत ही गले में आला लटकाए, आॅखों पर चश्मा चढ़ाए घुटनों तक लम्बा सफेद कोट पहने चार छोकरे डाॅक्टर आ धमके और पाण्डे जी के ऊपर एकदम से टूट पड़े। किसी ने उनकी आॅख देखी तो किसी ने नाक, किसी ने पेट दबाया तो किसी ने छाती, किसी ने नब्ज़ टटोली तो किसी ने साॅस, किसी ने उनके मुॅह के अंदर टाॅर्च की रोशनी फेंकी तो कोई स्टील के छोटे से हथौड़े से उनका तलवा ठकठकाने लगा। वे चारों जूनियर डाॅक्टर पाण्डे जी के शरीर के साथ यंॅू छेड़छाड़ कर रहे थे मानो विस्मय और कौतूहल में डूबा कोई अबोध बच्चा किसी नए खिलौने को उलट-पुलट कर उसे समझने का प्रयत्न कर रहा हो। वे चारों पाॅच-सात मिनट तक पाण्डे जी के शरीर के साथ मनमाना छेड़-छाड़ करते रहे। उसके बाद सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए अधपके वालों वाले एक वरिष्ठ डाॅक्टर साहब का उस कक्ष में आगमन हुआ। उनके आते ही चारों जूनियर डाॅक्टर बड़ी अदब से एक तरफ हट गए। गले में लटके आले की हुक अपने कानों में फॅसा कर उस वरिष्ठ डाॅक्टर ने पाण्डे जी के पेट, पीठ, छाती, कमर, आॅख, नाक, मुॅह, जीभ आदि अंग, प्रत्यंग का गहन परीक्षण किया। परीक्षण के दौरान वे बीच-बीच में जूनियर डाॅक्टरों से विचार-विमर्श भी करते जा रहे थे। जाॅच पूरी कर चुकने के बाद पाण्डे जी के बेटे को अंदर बुलाकर डाॅक्टर साहब ने बीमारी का इतिहास, भूगोल पूछा और मल, मूत्र, खून, बलगम, एक्सरे, अल्ट्रासाउण्ड आदि अनेकों प्रकार की जाॅच कराने की हिदायतें दे डाली। वहाॅ उपस्थित नर्सो को कुछ निर्देश देने तथा जाॅच का पर्चा पकड़ाने के बाद आगे-आगे सीनियर डाॅक्टर तथा उनके पीछे चारों जूनियर डाॅक्टर कक्ष से बाहर चले गए। उसके बाद नर्सो की सक्रियता प्रारंभ हुई। पाण्डे़जी के शरीर से खून, थूक, टट्टी, पेशाब आदि के नमूने लिए जाने लगे और इस प्रकार पहला पूरा दिन तमाम तरह के जाॅच कराने में ही बीत गया।

अगले दिन सुबह सारी जाॅच रिपोर्ट फाॅरेन रिटर्न सीनियर डाॅक्टर के समक्ष रखीं गयीं। डाॅक्टर एक-एक रिपोर्ट को पूरी तन्मयता से देखता, पढ़ता और समझता रहा तथा इस दरम्यान तरह-तरह की मुख-मुद्राएं बनाता रहा। पाण्डे़ जी के बेटे सहित गाॅव से आए अन्य सभी लोग शीशे की दीवार के उस पार कौतूहल में डूबे, साॅस रोके खड़े डाॅक्टर साहब की भाव-भंगिमाएं देखते रहे। जाॅंच की सारी रिपोर्टें देख चुकने के बाद डाॅक्टर ने फाइल बंद की और अपने बगल में बैठे दूसरे डाॅक्टर से ऐसे बातचीत करने लगा मानों किसी अति गंभीर विषय पर विचार-विमर्श कर रहा हो। फिर नर्सांे को बुलाकर उसने कुछ निर्देश दिए और चला गया। डाॅक्टर का निर्देश मिलते ही नर्सें बिजली की सी फुर्ती से काम करने लगीं। देखते ही देखते पाण्डे जी के नाक, कान, मुॅह, हाथ, पैर आदि अंगों में भाॅति-भाॅति की मशीनों के तार तथा रबड़ की मोटी-पतली नलियाॅ बाॅंध दी गयीं, भाॅति-भाॅति के रसायन भरीं प्लास्टिक की बोतलें लोहे के खंभेनुमा स्टैण्डों से लटका कर उन नलियों से जोड़ दी गयीं और इस प्रकार उनके शरीर के अंदर जाने कितने तरह की दवाईयाॅं और इंजेक्शन उन नलियों के माध्यम से उड़ेली जाने लगीं। पाण्डे जी के साथ गाॅव से आए लोग एक तो पहले ही उस मार्बल, मोजे़क, रंग-बिरंगी टाइल्स तथा चमचमाते काॅच के दरवाजों से सुसज्जित चार मंजिले नर्सिंग होम को देखकर दहशत खाए बैठे थे, उस पर पाण्डे जी के अंग-प्रत्यंग से बॅधी मशीनों तथा लकदक सफेद कपड़ांे में सजी-धजी सुन्दर, जवान नर्सांे की सक्रियता देख कर वे लोग पूरी तरह से आश्वस्त हो गए कि अब गजाधर पाण्डे अवश्य ही बच जायेंगे। उन लोगों का सोचना था कि निश्चित ही मौत भी ऐसे किलानुमा, भव्य इमारत में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी और स्वयं यमराज को भी वहाॅ अपना दूत भेजने से पहले चार बार सोचना पड़ेगा। सभी लोग मन ही मन अपने भाग्य को सराह रहे थे कि गजाधर पाण्ड़े के बहाने ही सही, उन्हें ऐसी आलीशान इमारत, ऐसी सुंदर, फुर्तीली नर्से, फिल्मी नायकों सरीखे सुन्दर-सुकान्त डाॅक्टर और इलाज की ऐसी अति आधुनिक मशीनें देखने का सुअवसर मिल सका।

पाण्डे़जी का इलाज शुरू होते ही गाॅव से साथ आए चारों लोग गंगा-स्नान और काशी-दर्शन के लिए निकल पड़े। नर्सिंग होम के बरामदे में अकेला बैठा रामेश्वर मन ही मन इलाज के अनुमानित खर्चे का हिसाब लगाता, परेशान होता रहा। नर्सिंग होम की भव्यता, डाक्टरों की फौज, नर्सो की सक्रियता, तरह-तरह की मशीनों, तथा इलाज के तौर-तरीकों को देख कर वह इतना आतंकित था कि मन ही मन वह उस घड़ी को कोस रहा था, जब गाॅव वालों के कहने में आकर वह अपने पिता को इलाज के लिए बनारस ले आया था। बाहर अकेला बैठा वह ईश्वर से बारम्बार यही प्रार्थना कर रहा था कि अब जो कुछ भी होना हो, बस एक दो दिन के अन्दर ही हो जाए। या तो पिताजी ठीक हो जायें या फिर दुनिया से चल बसें ताकि वह नर्सिंग होम के शिकंजे से शीघ्र मुक्ति पा सके। वह घबड़ा रहा था कि यदि नर्सिंग होम में तीन-चार दिनों से अधिक रूकना पड़ गया तो हो सकता है, गाॅव की कुछ जमीन बेचने की भी नौबत आ जाए।

नाना प्रकार की मशीनों से जकड़े पाण्डे़जी दो दिन, दो रात लगातार अचेत पड़े रहे। गाॅंव से उनके साथ आए लोग गंगा-स्नान और काशी-दर्शन का पुण्य कमाते रहे तथा रामेश्वर देवता, पितर गोहराता किसी चमत्कार की आशा में बैठा रहा। इस अवधि में पाण्ड़ेजी के शरीर में रबड़ की नलियों तथा इंजेक्शनों आदि के माध्यम से भाॅति-भाॅति की दवाइयाॅ उडे़ली जाती रहीं, दो नर्सें लगातार उनकी सेवा में जुटी रहीं, हर थोड़ी देर के बाद हाल-चाल लेने डाॅक्टर लोग आते-जाते रहे लेकिन नतीजा शून्य रहा। पाण्डे जी जैसे भर्ती हुए थे वैसे ही बेजान से पड़े रहे और तीसरे दिन भोर में उनके शरीर से लगी मशीनों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। रामेश्वर ने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। उसे लगा कि ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली और वह खर्च के एक तगड़े झटके से बच गया।

डाॅक्टरों द्वारा पाण्डे जी की मृत्यु की पुष्टि करते ही नर्सांे ने जिस तत्परता से उन्हें भर्ती किया था, उसी तत्परता से उनका मृत शरीर बाहर ले जाकर बरामदे में पटक दिया। थोड़ी देर बाद एकाउन्टेंट ने रामेश्वर को आॅफिस में बुला कर मृत्यु प्रमाण-पत्र तथा नर्सिंग होम का बिल पकड़ा दिया। बिल देखते ही रामेश्वर को गश सा आने लगा। ‘‘अरे बाप रे ! सिर्फ दो दिन में इतना खर्चा......अगर एक-आध हफ्ता रह जाते तब क्या होता ?’’ उसने अपनी सारी जेबें टटोल डालीं लेकिन फीस की रक़म पूरी नहीं हो सकी। गाॅव से साथ आए लोगों ने भी अपनी-अपनी जेबें खाली कर दीं, तब कहीं जाकर जैसे-तैसे नर्सिंग होम की फीस का जुगाड़ हो सका। पिता की लाश लेकर नर्सिंग होम से निकला तो रामेश्वर ंिकंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में था। साथ आए लोगों की राय थी कि पाण्डे़ जी का अंतिम संस्कार काशी में ही कर दिया जाय ताकि उन्हें सीधे स्वर्ग में स्थान मिल सके। लेकिन वैसा संभव नहीं हो सका कारण कि नर्सिंग होम की फीस अदा करने के पश्चात उन लोगों के पास कफ़न-दफन तो दूर ज़हर खाने तक के पैसे नहीं बचे थे और अजनबी शहर में कहीं से उधार मिल सकने की भी कोई गुजांइश नहीं थी। फलतः भाड़े की जीप में पाण्डे जी का शव लिए सभी लोग गाॅव लौट आए।

श्वसुर जी की लाश देखी तो बहू दहाड़ें मार-मार कर रोने लगी। बहू का रोना सुनकर आस-पड़ोस के लोग जुटने लगे। सगे-संबंधियों को भी खबर कर दी गई। लाश एक पुराने चादर से ढॅक कर बरामदे में रख दी गयी और अंतिम संस्कार की तैयारियाॅ की जाने लगीं। धीरे-धीरे टोले-मुहल्ले की ढेरों औरतें जुट आयीं और मुहर्रमी सूरत बना कर लाश के ईर्द-गिर्द बैठ गयीं।

कई रिश्तेदार आ चुके थे, अर्थी के लिए बाॅस काटा जा चुका था, लुहार अर्थी तैयार करने में जुटा था, ब्राह्मण और हज्ज़ाम भी आ चुके थे तथा कफन, धूप, लोबान, अगरबत्ती, घी, बताशा आदि आवश्यक सामग्री लाने हेतु एक आदमी को मनियर कस्बे के बाजार तक भेजा जा चुका था अचानक तभी वह अनोखी, अविश्वसनीय चमत्कारिक घटना घटित हुई जिसने पिता-पुत्र के संबंधों के बिगाड़ की नींव रख दी। हुआ यह कि चादर से ढ़ॅकी लाश में कुछ हरकत सी होने लगी। इस बात पर सर्वप्रथम लाश के सिरहाने बैठी तिवारी टोला की नवकी चाची ने गौर किया कि लाश में कुछ हरकत सी हुई है। उन्होंने जब यह बात औरों को बतायी तो सहसा किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। कौतूहलवश किसी ने चादर खिसकायी और ध्यान से देखा तो पाया कि सचमुच पाण्डे जी की साॅस चल रही थी। फिर तो अफरातफरी सी मच गयी। जल्दी से उनके मुॅह में पानी डाला गया, उन्हें जमीन से उठा कर चारपाई पर लिटाया गया, और पड़ोसी गाॅव त्रिकालपुर के वैद्य छोटकन तिवारी को बुलाने के लिए आदमी दौड़ाया गया। छोटकन तिवारी भागे-भागे आए। आते ही उन्होंने गजाधर पाण्डे़ को काढ़ा जैसी कोई दवा पिलायी और उनकी हथेली, पैर के तलवों तथा सीने पर सूखी मालिश कराने लगे। आधे-पौन घंटे के बाद पाण्ड़ेजी की साॅसों की गति कुछ बढ़ गयी। फिर थोड़ी ही देर में पाण्डे़जी आॅखें मिचमिचाने और आहिस्ता-आहिस्ता कराहने लगे। पाण्ड़ेजी की शव-यात्रा में शामिल होने के लिए जुटे गाॅव, जवार के लोगों और रिश्तेदारों ने कुदरत का यह चमत्कार अपनी आँखों से देखा और इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य खबर के साथ अपने-अपने घरों को लौट गए।

अब लगभग दो महीना हो चुका था पाण्ड़े जी को जीने और मरने के बीच अटके हुए। इस अवधि में सेवा-टहल करते-करते बेटे, बहू तंग आ चुके थे, दवा, दारू में भी अब तक कम से कम अठारह-बीस हजार रूपए खर्च हो चुके थे, लेकिन नतीजा शून्य था। उनके मरने से बेटे, बहू ने अभी राहत की साॅस ली ही थी कि वह पुनर्जीवित हो उठे। यानी ‘फिर बैतलवा डारे के डार।‘ ऐसे में उन दोनों का झुॅझलाना काफी हद तक स्वाभाविक ही था। थोड़ी देर पहले तक दहाड़ें मार-मार कर रो रही बहू अब ससुर जी को पानी पी-पी कर कोस रही थी। बेटा झुॅझलाया सा बैठा मन ही मन पछता रहा था कि उसकी मति मारी गयी थी जो लाश को लाद कर गाॅव तक ले आया। वहीं बनारस में ही गंगा जी में बहा दिया होता तो झंझट से मुक्ति मिल गयी होती।

बनारस से लौटने के बाद पाण्डे़ जी न सिर्फ पुनर्जीवित हो उठे बल्कि छोटकन तिवारी वैद्य की दवा से धीरे-धीर चंगे भी होने लगे। लेकिन उनका यह पुनर्जीवन उनके लिए बहुत कष्टकारी सिद्ध हुआ। अब अपने इकलौते बेटे-बहू के लिए वे एक बोझ बन चुके थे। ‘‘कौवे की जीभ खायी है बुड्ढे ने....अमरित का घड़ा पी कर आया है.....इसके लिए कोई रोग, व्याधि भी नहीं है। अच्छे खासे जवान लोग चट-पट मरे जा रहे है लेकिन इस बुड्ढे के लिए नरक में भी जगह नहीं है...। जाने किस जनम के बैर का बदला चुका रहा है हमसे जो छाती पर सवार खून पी रहा है...। हमारा चैन से जीना, खाना हराम हो गया है इस बुड्ढ़े के मारे।‘‘ बहू सारे दिन पाण्ड़े जी को सुना-सुना कर ताने देती रहती थी। केवल बहू की बात होती तो शायद पाण्डे़ जी यह सोचकर संतोष कर लेते कि वह दूसरे की जायी है, लेकिन स्वयं अपने जाए बेटे की उपेक्षा का दंश उनके लिए असह्य हो जाता। वे चारपाई में लेटे टुकुर-टुकुर ताकते रहते और बेटा बगल से यॅू निकल जाता जैसे उन्हें जानता तक न हो। पास बैठना तो दूर वह कभी भूले से भी उनका हालचाल तक नहीं पूछता था। पाण्डे़जी पड़े-पड़े कराहते रहते, भूख-प्यास के मारे उनकी अंतड़ियाॅ कुलबुलाती रहतीं लेकिन उन्हें न तो समय से खाना-पानी मिलता, न ही दवा-दारू। दरवाजे पर पड़े लावारिस कुत्ते से भी बदतर स्थिति हो गयी थी उनकी। अब खुद पाण्ड़ेजी को भी अपने पुनः जीवित हो उठने पर अफसोस होने लगा था। ‘‘अच्छा था इज्जत से मर गये होते......कम से कम यह जलालत तो नहीं झेलनी पड़ती, यह तरह-तरह की कुबोली तो नहीं सुननी पड़ती। हे भगवान ! बहुत हो चुका....अब तो रहम करो....दुनिया से उठा लो मुझे।’’ वे मन ही मन सोचते ईश्वर से फरियाद करते और अपनी विवशता पर आॅंसू बहाते रहते।

बुढ़ौती मेें हो रही दुर्गति को अपने भाग्य का लेखा मान कर पाण्ड़ेजी चुपचाप बेटे-बहू की उपेक्षा सह रहे थे कि तभी उनके सौभाग्य से एक दिन उनकी बड़ी बेटी और दामाद उनका हालचाल लेने आ पहुॅचे। भाई-भौजाई के रूखे व्यवहार से बेटी को कुछ ही घंटो के अंदर वस्तु स्थिति की भनक लग गयी। रात के समय अकेले में जब उसने पाण्डे़जी की दुखती रग पर हाथ रखी तो वे फूट पड़े और बच्चों की तरह हिलक-हिलक कर रोने लगे। ‘‘बस हमरा ऊपर एतना एहसान करऽ बेटी कि कहीं से जहर-माहुर ले आ के खिआ दऽ......। बहुत सहि चुकलीं....अब हमसे नईखे सहात....।’’ बिलखते पाण्ड़ेजी ने बेटी से कहा। बेटी से अपने पिता की तकलीफ नहीं देखी गयी। उसने अपने पति से बात की, फिर पाण्डे़जी को अपने साथ चलने के लिए मनाया और भाई-भौजाई के लाख विरोध के बावजूद अगले दिन सुबह उनको साथ लेकर अपने घर आ गई।

पाण्डे़जी के बेटा बहू उनके रहते जितने परेशान थे, उससे अधिक परेशान वे बेटी के साथ उनके चले जाने के कारण हो गए। उन्हें परेशानी लोक-लाज़ को लेकर नहीं, बल्कि इस बात की थी कि उनसे नाराज बुड्ढा अपनी सारी जमीन, जायदाद, कहीं बेटी-दामाद के नाम न कर दे। घर-बार तथा जमीन-जायदाद सभी कुछ अभी पाण्डे़ जी के ही नाम थी इसलिए उनके बेटे रामेश्वर और उसकी पत्नी का दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गयी। पति-पत्नी दिन-रात इसी चिन्ता में घुलने लगे कि अब करें तो क्या करें। पत्नी ने सुझाया कि चाहे जैसे भी हो हाथ-पैर जोड़ कर, चिरौरी-विनती कर के बुड्ढ़े को वापस लाया जाय लेकिन रामेश्वर जानता था कि उसके दुव्र्यवहार से आहत पिता आने को तैयार नहीं होंगे। सारा काम-धाम छोड़ वे दोनों रात-दिन बिगड़ी बात बनाने का उपाय ढ़ूॅंढ़ने लगे। कई दिनों तक मगज़मारी करने के बाद भी जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो रामेश्वर ने अपने बड़े साले राजनारायन शुकुल को बुलावा भेजा। राजनारायन शुकुल कचहरी में मुहर्रिर थे और कानूनी दाॅव-पेंच के अच्छे जानकार माने जाते थे। खबर मिलते ही शुकुल जी भागे-भागे आए। चाय-पानी और हाल-चाल के बाद जब बहन, बहनोई ने अपनी परेशानी बतलाई तो वे सहसा गम्भीर हो गए। बात वाकई चिन्ताजनक थी सो अकेले में बैठ कर चिन्तन-मनन करने लगे।

अधिक समय नहीं लगा। शुकुल जी के तिकड़मी दिमाग ने बहुत जल्दी ही समस्या का समाधान ढ़ूॅंढ़ लिया और दिमाग में उपाय के कौंधते ही उनके होठों पर एक कुटिल मुस्कान तैर गयी। उन्होंने बहनोई को पास बुलाया और पूछा-‘‘वो बनारस के अस्पताल से आपके पिताजी की मृत्यु का जो प्रमाण-पत्र मिला था, वह कहाॅ है ?‘‘

‘‘वह दवाई की पर्चियों, और एक्सरे, अन्ट्रासाउण्ड बगैरह की रिपोर्ट के साथ रखी है।‘‘ रामेश्वर ने कहा और पाॅलीथीन के थैले में रखा कागजों का पुलिन्दा ले जाकर साले साहब के सामने रख दिया।

शुकुल जी ने खोज कर उसमें से गजाधर पाण्डे का मृत्यु प्रमाण-पत्र निकाला और उसे देखने के बाद अपने बहनोई से बोले-‘‘पाण्डे़ महाराज ! कोर्ट-कचहरी का आदमी सेत-मॅंगनी काम नहीं करता इसलिए मिठाई-उठाई की व्यवस्था करिये तो बताऊॅं कि क्या करना है। आपकी समस्या का समाधान ढॅूढ लिया है मैंने।‘‘

‘‘ऐं.....क्या सच......? क्या उपाय सोचा, भैया ?‘‘ शुकुल जी की बहन विस्मय से चहक उठी, मारे खुशी के उसकी आॅखों से आॅसू चू पड़े। उत्सुकता के चरम में डूबे वे पति, पत्नी दोनों ही शुकुल जी के करीब खिसक आए और आतुर हो उनका मुॅह ताकने लगे।

कुटिल मुस्कान बिखेरते शुकुल जी कुछ देर तक खामोश रह कर अपने बहन, बहनोई की आतुरता बढ़ाते, मजा लेते रहे फिर उनके सामने अपनी योजना का रहस्योद्घाटन किया। उनकी योजना सुन रामेश्वर और उसकी पत्नी की बाॅछें खिल उठीं।

‘‘देखा...? इसे कहते हैं कोरट, कचहरी के आदमी का दिमाग वरना तुम तो हिम्मत ही हार गए थे। कहने लगे थे कि अगर बाबूजी ने खेती-बारी दीदी, जीजा के नाम लिख दी तो हम तो भूखों मर जाएंगे। अब बुढ़ऊ जायें हमारे ठेंगे पर।‘‘ भाई की काबिलियत पर इतराते हुए रामेश्वर की पत्नी बोली।

‘‘हाॅ भाई शुकुल जी! वाकई हम तो लोहा मान गए आपके दिमाग का...। हम तो कभी सोच ही नहीं सकते थे ऐसी बात...।‘‘ साले साहब के प्रति कृतज्ञता से नत, खुशियों से लबालब रामेश्वर ने कहा।

बहन, बहनोई के मुख से अपनी प्रशंसा सुनी तो फूल कर कुप्पा हो गए शुकुल जी। ‘‘अरे भइया ! इसी दिमाग की तो रोटी खाते हैं हम। अगर इतना शातिर दिमाग न रखें तो कौन पूछे हमें....? एक दिन भी नहीं टिक सकें कचहरी में।‘‘ अपनी काबीलियत पर आत्ममुग्ध हो शुकुल जी ने अपनी पीठ आप थपथपाई।

अगले ही दिन से शुकुल जी की सुझाई योजना पर कार्यवाही प्रारंभ हो गई। रामेश्वर ने तहसीलदार के न्यायालय में पिता के मृत्यु प्रमाण-पत्र के साथ एक हलफनामा दिया कि उनके पिता गजाधर पाण्डे का स्वर्गवास हो चुका है, और इकलौता पुत्र होने के नाते वह उनकी समस्त चल-अचल सम्पत्ति का एक मात्र कानूनी वारिस है। अतः गजाधर पाण्डे की अचल सम्पत्ति के कागजातों से उनका नाम खारिज करके उत्तराधिकारी के रूप में उसका नाम दर्ज कर दिया जाय। शुकुल जी के मार्गदर्शन में प्रयास चलता रहा, कागजी खानापूर्ति होती रही और प्रयास शनैः शनैः अंजाम की तरफ बढ़ता रहा। न्यूनतम निर्धारित अवधि समाप्त होते ही तहसीलदार के न्यायालय से आदेश हो गया और गजाधर पाण्डे़ मृतक की जमीनों की खतौनी में उनके कानूनी वारिस रामेश्वर पाण्डे का नाम अंकित हो गया। सारी कार्यवाही इतनी गोपनीय और नियोजित तरीके से हुई कि किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हो सकी। गाॅव के लोगों को भी तब जानकारी हुयी जब रामेश्वर ने अपने नाम खसरा, खतौनी ले ली।

उधर समय से खाना, पानी, दवा, दूध और बेटी की सेवा, सहानुभूति मिली तो पाण्डेजी के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार होने लगा। तबियत थोड़ी सॅभलते ही उन्हें अपने गाॅंव की याद आने लगी, घर और खेत, खलिहान की चिन्ता सताने लगी। चलने, फिरने के लायक होते ही बेटी, दामाद के लाख मना करने के बावजूद एक दिन सवेरे वे अपने घर-बार का हालचाल लेने चल दिए। गाॅव में घुसते ही उनके बाल-सखा महातम सिंह अपने बरामदे में बैठे मिल गए। दुआ-सलाम के बाद पाण्डे़ जी वहीं बैठ गए। कुशल, क्षेम के बाद महातम सिंह ने जो कुछ बताया, उसे सुनकर पाण्डे़ जी के पाॅव तले की जमीन ही खिसक गयी। पहले तो पाण्डे़जी को महातम सिंह की बातों पर विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन जब उन्होंने विस्तार से सब कुछ बताया और पाण्ड़ेजी को आया देख वहाॅ जुट आए गाॅव के दूसरे लोगों ने भी उनकी बातों की पुष्टि की तो पाण्डे़ जी के सामने सिवा विश्वास करने केे और कोई चारा न रहा।

बेटे की करतूत सुन कर पाण्ड़ेजी को जैसे काठ मार गया। वे कुछ देर तक वहीं संज्ञा शून्य से बैठै रहे। फिर थके, हारे से उठे और महातम सिंह के दरवाजे से ही वापस अपनी बेटी के घर लौट गए। अपनेे घर तक जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई।

पाण्डे़जी ने गाॅव में जो कुछ सुना था, उनका मन उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर पा रहा था। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि उनका बेटा उनके साथ इतना बड़ा छल कर सकता है। बात की पुष्टि के लिए उन्होंने अपने दामाद को तहसील भेजा तो सूचना सही निकली। दामाद ने भी जब सूचना की पुष्टि कर दी तो पाण्डे़जी आसमान से जमीन पर आ गिरे। लायक, नालायक जैसा भी था, रामेश्वर पाण्डे़ जी का सगा बेटा था। उसे अपनी सम्पत्ति से बेदखल करने का उनका कोई इरादा नहीं था। बेटी, दामाद ने भी उनसे इस तरह की कोई इच्छा नहीं जाहिर की थी। निःस्वार्थ सेवा की थी उन दोनों ने। चोर बेटे के दिल में ही था। बेटे ने जो घिनौनी हरकत की थी, उसे जान कर पाण्ड़ेजी के दिल को बहुत सदमा पहॅुचा था। अपने आप को ठगा-ठगा सा महसूस कर रहे थे वे ।

पाण्डे़जी अब दिन-रात बेचैन रहने लगे थे। उठते, बैठते, जागते, सोते हर समय उनके दिमाग में बस एक वही बात घुमड़ती रहती थी कि रामेश्वर ने ऐसी नीचता क्यों की। वे जितना सोचते, मन में रामेश्वर के प्रति गुस्सा उतना ही बढ़ता जाता। फिर तो ऐसा हुआ कि प्रतिशोध की भयानक ज्वाला में जलने लगे वे। उनके अंदर की सारी घृणा, सारा आक्रोश अपने बेटे, बहू के प्रति उमड़ आया था। चाहे जैसे भी हो, अपने धूर्त बेटे को सबक सिखाने का प्रण कर बैठे वे। जितना ही सोचते उनका मन उतना ही अधिक जिद पकड़ता जाता था। उन्होंने बेटी, दामाद से बात की, वकीलों से राय ली और तहसीलदार महोदय के न्यायालय में बयान हलफी दाखिल की-‘‘मैं गजाधर पाण्डे़ वल्द हरिद्वार पाण्ड़े, साकिन सुल्तानपुर, परगना खरीद तहसील बाॅसडीह, जिला बलिया, यह शपथपूर्वक बयान करता हॅू कि मैं अभी जीवित हॅू और अपने होश-हवास से पूरी तरह दुरूस्त हॅू। मेरे बेटे रामेश्वर द्वारा दाखिल मेरी मृत्यु का प्रमाण-पत्र फर्जी और सरासर गलत है। अतः सरकारी अभिलेखों में मुझे जीवित दर्ज किया जाय तथा मेरी समस्त अचल सम्पत्ति की खतौनी से रामेश्वर का नाम खारिज करके पूर्व की भाॅति मेरा नाम बहाल किया जाय।’’

रामेश्वर को बाप के हलफनामे की जानकारी मिली तो राजनारायण शुकुल के जरिये उसने भी पेशबंदी कर ली और इस प्रकार बाप, बेटे के बीच मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। तारीखें लगती रहीं और हर तारीख पर पाण्डे़जी गाॅव, जवार के मुअज्जम गवाहों के साथ उपस्थित होते रहे। जिरह, बहस होते गवाही गुजरते, धीरे-धीरे लगभग तीन साल का समय बीत गया, तब कहीं जाकर फैसले की घड़ी आयी। पाण्ड़ेजी ने सुन रखा था कि-‘सत्यमेव जयते‘ यानी सत्य की विजय होती है। सत्य परेशान, हो सकता है लेकिन पराजित नहीं। इसलिए वे अपनी जीत के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। लेकिन चाॅंदी के जूते में कितनी ताकत होती है शायद इस तथ्य से परीचित नहीं थे वे। यहाॅ भी राजनारायण शुकुल के दाॅव के आगे उन्हें मात खानी पड़ी। मुकदमें का फैसला करने से पूर्व तहसीलदार साहब ने नामांतरण की मूल पत्रावली तलब की जिसमें वाराणसी के प्रसिद्ध नर्सिंग होम के फाॅरेन रिटर्न डाॅक्टर के हस्ताक्षर से जारी मृत्यु प्रमाण-पत्र की छाया प्रति संलग्न थी। उस प्रमाण-पत्र के अनुसार गजाधर पाण्डे़ पुत्र हरिद्वार पाण्ड़े की मृत्यु लगभग चार साल पहले वाराणसी के उक्त नर्सिंग होम में हो चुकी थी। प्रतिवादी द्वारा अपने पक्ष में प्रमाण-पत्र की मूल प्रति भी प्रस्तुत की गई थी जिसका बनारस के नर्सिंग होम के रिकार्ड़ से सत्यापन भी करा लिया गया था। अतः उस पर अविश्वास करने का कोई कारण ही नहीं था। बेटे द्वारा प्रस्तुत उनके मृत्यु प्रमाण-पत्र की काट में पाण्डे़जी कोई कागजी साक्ष्य नहीं दाखिल कर सके। सो न्यायप्रिय हाकिम ने पत्रावली पर उपलब्ध साक्ष्यों एवं अभिलेखों के आधार पर पाण्ड़ेजी को मृत मानते हुए अपना निर्णय सुना दिया। पाण्डे़जी मुकदमा हार गए। उनका दावा खारिज हो गया।

बाप-बेटेे के बीच तलवारें खिंच चुकी थीं। एक तरफ जहाॅं बेटा किसी भी कीमत पर जीती बाजी हारने को तैयार नहीं था वहीं दूसरी तरफ बाप अपनी आखिरी साॅंस तक न्याय की लड़ाई लड़ने का संकल्प लिए बैठा था। अपने साथ हुए अन्याय से तिलमिलाए पाण्ड़ेजी मदद की आस में यहाॅ-वहाॅ भटकते रहे और हर खासो-आम के समक्ष अपना दुखड़ा रोते रहे। हर कोई उनसे सहानुभूति जताता, उनके साथ हुये अन्याय पर क्षोभ व्यक्त करता, उनके बेटे की नालायकी पर लानतें भेजता लेकिन सहायता के नाम पर हाथ खड़े कर देता था। उसी दौरान किसी ने बताया कि जिले के सबसे बड़े हाकिम जिलाधिकारी महोदय महीने में एक दिन जनता दरबार लगाते हैं जिसमें वे लोगों से सीधे मिलते और उनकी समस्याओं का तुरंत समाधान करते हैं। पाण्डे़जी के हताश, निराश मन को आशा की एक किरण दिखी। उन्होंने जनता दरबार की तिथि की जानकारी की, अपनी व्यथा को एक कागज़ पर लिपिबद्ध कराया और उसे लेकर जिलाधिकारी महोदय के दरबार में उपस्थित हुए। वहाॅं फरियादियों की भीड़ लगी थी। पाण्ड़ेजी भी उसमें शमिल हो गए। लम्बी प्रतीक्षा के बाद अपना नंबर आने पर उन्होंने जैसे ही अपनी बात कहनी प्रारंभ की कि जिलाधिकारी महोदय बोल पड़े-‘‘ठीक है, ठीक है, आपको पूरा न्याय मिलेगा, आप अप्लीकेशन दे दीजिए...चलिए नेक्स्ट।‘‘ जिलाधिकारी महोदय के नेक्स्ट कहते ही वहाॅ खड़े संतरी ने पाण्डे़जी को लाइन से बाहर खींच लिया और उनके पीछे खड़ा व्यक्ति अपनी फरियाद सुनाने लगा। अपना आवेदन-पत्र लिपिक को सौंप कर पाण्डे़जी लौट आए और कलक्टर साहब के न्याय की प्रतीक्षा करने लगे।

पाण्डे़जी के आवेदन-पत्र पर जिलाधिकारी कार्यालय से ‘नियमानुसार आवश्यक कार्यवाही करें‘ की टिप्पणी अंकित करने के बाद उसे अपर जिलाधिकारी के पास भेज दिया गया। अपर जिलाधिकारी ने वैसी ही टिप्पणी अंकित करके उक्त अर्जी उपजिलाधिकारी को तथा उपजिलाधिकारी ने तहसीलदार को भेज दी। फिर तहसीलदार के बाद नायब तहसीलदार और कानूनगो के यहाॅ से होती पाण्ड़ेजी की वह अर्जी अंततः क्षेत्रीय लेखपाल के पास पहुॅच गयी। लेखपाल निहायत ईमानदार और नमक-हलाल किस्म का व्यक्ति था। उसने राजनारायण शुकुल की नमक खायी थी सो नमक का फर्ज़ अदा करने शुकुल जी के पास जा पहुॅचा और पाण्ड़ेजी की अर्जी उनके सामने रख दी। शुकुल जी एक बार फिर सक्रिय हो गए। उन्होंने लेखपाल से लेकर तहसीलदार तक सभी की यथोचित सेवा कर दी और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। पाण्डे़जी जिलाधिकारी कार्यालय से लेकर तहसील कार्यालय तक चक्कर काटते रहे, फिरकी की तरह नाचते रहे लेकिन न कुछ होना था न हुआ। पाण्ड़ेजी की अर्जी कागजों के महासागर में बिला गई। पाण्ड़ेजी का यह वार भी खाली चला गया।

कुछ लोगों ने पाण्ड़ेजी को क्षेत्रीय विधायक यादवजी से मिलने की सलाह दी। लोगों का कहना था कि यादवजी बड़े सक्रिय एवं मिलनसार जन-प्रतिनिधि हैं। वे अमीर, गरीब सभी से मिलते हैं, सभी की परेशानी सुनते हैं और यथासंभव सहायता भी करते हैं। अतः वे समस्या का निराकरण करा सकते हैं। पाण्ड़ेजी ने अपनी व्यथा-कथा की एक अर्जी फिर से तैयार कराई और उसे जेब में रखकर विधायक जी की टोह में रहने लगे। कुछ दिनांे बाद विधायक जी लखनऊ से जिले में पधारे तो अपनी अर्जी लिए पाण्ड़ेजी उनके दरबार में उपस्थित हुए। विधायक जी अंदर वातानुकूलित कक्ष में थे और बाहर बरामदे में ढ़ेर सारे मुलाकाती प्लास्टिक की कुर्सियों में बैठे थे। किनारे पड़ी एक कुर्सी पर पाण्ड़े जी भी बैठ गए। लोग बारी-बारी से विधायक जी के कक्ष में जाकर तथा अपना दुखड़ा सुना रहे थे लेकिन लाइन बहुत घीमी गति से आगे बढ़ रही थी कारण कि बीच-बीच में कुछ विशिष्ट लोग भी आ जाते थे जो बरामदे में बैठे मुलाकातियों की तरफ उपहास भरी दृष्टि से देखते और तीर की भाॅंति सीधे विधायक जी के कक्ष में घुस जाते थे। पाण्डे़जी मन ही मन घबड़ा रहे थे कि कहीं ऐसा न हो उनका नंबर आने से पहले ही विधायक जी कहीं चले जायें और उनसे भेंट भी न हो सके। लेकिन सौभाग्यवश ऐसा हुआ नहीं। सुबह से बैठे पाण्डे़जी को आखिर दोपहर बाद अंदर जाने का अवसर मिल गया। पाण्डे़जी ने बहुत आशा और विश्वास के साथ करूणा भरी आवाज़ में अपनी व्यथा-कथा कही और विधायक जी ने भी बड़े धैर्यपूर्वक उनकी पूरी बात सुनी।

‘‘पाण्डे़जी ! सचमुच यह तो आपके साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ...। छिःछिःछिः...क्या समय आ गया है...सगे बेटे ने बाप के साथ ऐसी घिनौनी हरकत की...? थोड़ी सी जमीन की लालच में आप को मृत दर्ज करा दिया...? इस आधार पर तो वोटर लिस्ट से भी आपका नाम कट जाएगा और अगले आम चुनाव में आप वोट देने के अपने मौलिक अधिकार से भी वंचित हो जायेंगे।‘‘ विधायक जी ने सहानुभूति जताते हुए कहा।

‘‘जी सरकार ! हम बहुत भटक चुकलीं...तहसीलदार साहेब से ले के कलक्टर साहेब तक सबके आगे रो चुकलीं...कतहॅॅू सुनवाई नइखे होत। बड़ा उमेद से आपके पास आइल बानी। अब आपे कुछु करीं सरकार....।’’ हमदर्दी के चार शब्द सुनते ही पाण्डे़जी बिलख पड़े।

‘‘आप परेशान न होइए पाण्डे़जी...मैं चुप नहीं बैठूॅगा...आपके लिए कुछ ना कुछ करूॅंगा जरूर। आप ऐसा करिए कि अपना अप्लीकेशन छोड़ जाइए...मैं निश्चित रूप से विधानसभा के अगले सत्र में इस मामले को उठाऊॅगा। मैं कोशिश करूॅगा कि इस पूरे प्रकरण की जाॅच के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी गठित की जाय ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।‘‘ विधायक जी ने पाण्डे़जी को आश्वासन देकर विदा किया।

विधायक जी से मिलने के बाद पाण्डे़जी इस उम्मीद में बैठे रहे कि विधायक जी सीधे लखनऊ से कार्यवाही करेंगे और तब लेखपाल से लेकर तहसीलदार तक सभी खुद भागे-भागे उनके पास आयेंगे। लेकिन उनका यह सपना-सपना ही रह गया। धीरे-धीरे चार महीने का समय बीत गया, कहीं कुछ नहीं हुआ।

दूसरा कोई होता तो इतनी भाग-दौड़ के बाद थक, हार कर चुप बैठ जाता लेकिन पाण्डे़जी किसी दूसरी ही मिट्टी के बने हुए थे। वे इतनी आसानी से हार मानने वालों में नहीं थे। उनकी समझ में आ गया कि सारी समस्या की जड़ वह मृत्यु प्रमाण-पत्र ही है जो बनारस के नर्सिंग होम से जारी हुआ है। बस उसी के कारण वे कदम-कदम पर मात खा रहे हैं। अतः यदि किसी तरह पुनः उसी नर्सिंग होम से वे अपने जीवित होने का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लें तो शायद समस्या का समाधान मिल सके। पाण्डे़ जी ने उस नर्सिंग होम का पता लिया, बनारस गए और खोजते, पूछते उस नर्सिंग होम तक जा पहुॅचे। नर्सिंग होम की बहुमंजिली भव्य इमारत और प्रवेश द्वार पर कंधे से बंदूक लटकाए खड़े वर्दीधारी संतरी को देखकर पाण्ड़ेजी की अंदर घुसने की हिम्मत नहीं हो रही थी। बहुत हिम्मत करके वे अंदर घुसे और डरते, सहमते रिसेप्सन काउण्टर के पासपहुॅचे। रिसेप्सन काउण्टर पर बैठा कर्मचारी काउण्टर के दूसरी तरफ खड़ी एक गोरी, मोटी, थुलथुली नर्स के मुॅह से मुॅह सटाए किसी गंभीर वार्ता में तल्लीन था। पाण्डे़जी के पहुॅचने से उनकी वार्ता में व्यवधान पड़ा तो उन दोनों ने उन्हें ऐसे घूर कर देखा जैसे कच्चा चबा जायेंगे।

‘‘क्या बात है बाबा, किसे ढूॅढ रहे हो ?‘‘ रिसेप्सनिस्ट ने प्रश्न किया।

‘‘भइया ...हम डाॅकटर साहेब से मिले चाहत बानी...।‘‘ पाण्डेजी ने जबाब दिया।

‘‘किस डाॅक्टर से मिलना है....? यहाॅ तो छोटे, बड़े मिलाकर कुल बीस डाॅक्टर हैं।‘‘ नर्स बोली।

‘‘त....अइसन करऽ...कि सबसे बड़का डाॅक्टर साहेब से हमार भेंट करा दऽ...।‘‘ पाण्डेजी ने कहा।

‘‘बड़े डाॅक्टर साहब के पास इतनी फुर्सत नहीं कि वे ऐरे, गैरे, नत्थू खैरे सभी से मिलते रहें...कोई बीमारी हो तो फीस जमा करो और भर्ती हो जाओ वरना अपना रास्ता देखो।‘‘ रिसेप्सनिस्ट ने बात को सिरे से खारिज करते हुए कहा।

‘‘हमके कवनों बेमारी नाही बा बेटा। सिरिफ डाॅकटर साहेब से एगो बात कहे के बा...ड़ाॅकटर साहेब के गलती से हम बहुत बड़ा मुसीबत में फॅसि गइल बानी...।‘‘ पाण्ड़ेजी दोनों हाथ जोड़ कर बोले।

‘‘ड़ाक्टर साहब की गलती....? क्या मतलब....?’’ रिसेप्सनिस्ट बोल पड़ा।

‘‘हाँ बेटा....ड़ाकटर साहेब के तनी भर गलती हमरा खातिर काल बनि गइल बाऽ।’’

‘‘अच्छा...बाबा जी...चलो पहले अपना काम बताओ कि तुम किसलिए मिलना चाहते हो डाक्टर साहब से....। अगर हम जरूरी समझेंगे तो तुम्हारी भेंट करा देंगे उनसे।’’ नर्स बोली। उसे पाण्ड़े जी बातों में मजा आने लगा था।

पाण्डे़जी ने अपनी व्यथा-कथा आद्योपांत बता डाली और अपनी बात के समापन पर उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर बहुत आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि जैसे उनकी मृत्यु का प्रमाण-पत्र जारी हुआ था, वैसे ही इस अस्पताल से उनके जीवित होने का एक प्रमाण-पत्र जारी हो जाता तो उनकी सारी समस्या सुलझ जाती। रिसेप्सनिस्ट और नर्स बड़े चाव से पाण्डे़जी की राम कहानी सुनते रहे और उनकी बात समाप्त होते ही वे दोनों एक साथ ठहाका लगाकर हॅस पड़े।

‘‘अरे बूढे़ बाबा ! इस नर्सिंग होम में इंडियन मशीनें नहीं हैं...यहाॅ की सारी मशीनें फाॅरेन की हैं...दो-दो, तीन-तीन लाख कीमत है एक-एक मशीन की...। इनकी रिपोर्ट कभी गलत हो ही नहीं सकती। यदि इन मशीनों ने रिपोर्ट दी है कि तुम मर चुके हो तो समझो निश्चित ही तुम्हारी मौत हो चुकी है।‘‘ बड़ी मुश्किल से अपनी हॅसी रोक कर नर्स बोली।

‘‘हाॅ बाबा ! यहाॅ के डाॅक्टर भी कोई लल्लू पंजू या झोला छाप डाॅक्टर नहीं है। सबके सब फाॅरेन रिटर्न हैं...यदि उन्होंने तुम्हारी मृत्यु का प्रमाण-पत्र दिया है तो कुछ सोच समझ कर, देख-भाल कर ही दिया होगा..। इतने काबिल डाॅक्टर भला गलत सर्टिफिकेट कैसे दे सकते हैं..? .बोलो ?‘‘ रिसेप्सनिस्ट ने नर्स की बात का समर्थन किया।

‘‘लेकिन बेटा....हम त तोहरा सामने साक्षात जिन्दा खड़ा बानी......। का हम तोहके मुर्दा देखात बानी...?‘‘ पाण्डे़जी बोले।

‘‘अच्छा चलो । अपना रास्ता देखो। यहाॅ फालतू दिमाग मत चाटो। क्या सबूत है कि तुम वही गजाधर पाण्ड़े हो जिसकी मौत इस नर्सिंग होम में हुई थी। कोई फर्जी आदमी भी तो हो सकते हो तुम। अब चुपचाप भाग लो यहाॅ से वरना अभी पुलिस के हवाले कर दूॅगा...सारी उमर जेल में सड़ते बीत जाएगी...। समझे...?‘‘ एकाएक रिसेप्सनिस्ट के तेवर बदल गए। उसने बुरी तरह घुड़कते हुए कहा।

मिनट दो मिनट के लिए पाण्डे़ जी जैसे काठ हो गए। किकर्तव्यविमूढ़ से चुपचाप खड़े रहे। फिर हताश, निराश, सुस्त कदमों से बरामदे से बाहर आ गए। पाण्ड़ेजी की आखिरी कोशिश भी निष्फल हो चुकी थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब करें तो क्या करें, अब जाए तो कहाॅ जाए। हर तरफ से मिले धोखा, उपेक्षा और अपमान से उनका रोम-रोम सुलग रहा था, दिमाग में आक्रोश का तूफान घुमड़ रहा था और पूरे शरीर में एक अजीब तरह की बेचैनी सी घर करती जा रही थी। सहसा उनकी निगाहें नर्सिंग होम के खूबसूरत लाॅन में गमलों के पास सजा कर रखे चिकने, गोल पत्थरों पर पड़ीं। उन्होंने लपक कर दोनों हाथों में दो बड़े-बड़े पत्थर उठाए और पलट कर नर्सिंग होम के अंदर घुस गए। अगले ही पल पाण्डे़जी उन पत्थरों से नर्सिंगहोम की शीशे की दीवार पर पूरी ताकत से प्रहार करने और चीखने लगे...‘‘मैं भूत हॅू...मैं मर चुका हॅू....मैं भूत हॅू......मैं मर चुका हॅू...मैं भूत हॅू...मैं मर चुका हॅू...मैं भूत हॅू......।‘‘

जब तक नर्सिंगहोम के चैकीदार तथा अन्य लोग कुछ समझे और पाण्डे़जी को पकड़ने पहुॅचे, तब तक काॅच के ढेर सारे टुकड़ों के ऊपर गिरे पाण्डे़जी लहूलुहान हो चुके थे।

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