दृष्टिकोण

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

6/28/20211 मिनट पढ़ें

‘‘अनिल....ऐ अनिल। अरे बेटा अनिल।’’ शाम के समय आफिस से लौटने के बाद अभी कपड़ा उतार कर बैठा ही था कि ऐसा लगा जैसे घर के बाहर कोई मेरा नाम ले कर पुकार रहा हो। अगले ही पल धम..धम...धम...धम दरवाजा पीटने की आवाज भी आने लगी थी।

‘‘कौन है.... ? कौन...? आया अभी।’’ मैंने अंदर से ही आवाज दी और लपक कर दरवाजा खोला तो देखा कि बाहर पड़ोस की तिवराइन चाची खड़ी थीं। वह बुरी तरह परेशान दिख रही थीं। मारे घबड़ाहट के उनके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया था।

‘‘क्या बात है चाची....? आप इतनी घबड़ाई सी क्यों हैं ? कोई परेशानी...?’’ मैंने पूछा।

‘‘अरे बेटा जल्दी चलो। हम औरत की जात अकेली बहुत परेशानी में पड़ गयी हूॅं। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूॅं....कैसे करूॅं। हे भगवान...तुम्हारा ही आसरा है अब तो।’’ तिवराइन चाची वैसे ही घबड़ाए स्वर में बोलीं।

‘‘अरी चाची आप इतना परेशान क्यों हो रही हैं ? मैं हूॅं न....। आप पहले तो आराम से हो जाइए....थोड़ी साॅंस ले लीजिए। फिर बताइए कि बात क्या है ?

‘‘बात ये है बेटा कि रमेश की औरत को अस्पताल ले चलना है। दर्द के मारे छटपटा रही है बेचारी। रमेश अभी परसों ही वापस गया है अपनी नौकरी पर। मैंने बहुत मना किया था उसे कि अभी मत जा....समय पूरे हो गए हैं बहू के....बस तीन, चार दिन और रूक जा....बढ़ा ले अपनी छुट्टी लेकिन उसने एक नहीं सुनी मेरी। मुझको साॅंसत में छोड़ कर चला गया। अब समझ में नहीं आता कि क्या करूॅं मैं। अब वो जमाना तो रहा नहीं कि दाई, चमाईन बच्चा पैदा करा दें। जाने कितने तरह के नखरे हो गए हैं अब तो।’’ चाची अपनी रौ में बोले चली जा रही थीं।

‘‘अरी चाची तो इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है। रमेश भैया नहीं हैं तो क्या हुआ मैं तो हूॅं न...। बताइए कहाॅं ले चलना होगा भाभी को।’’

‘‘वो मधुरिमा ड़ाक्टर के यहाॅं दिखाने जाया करती थी। उन्हीं के अस्पताल में ले चलना है। पहली डिलीवरी है अभी....इसमें खतरा भी बहुत रहता है। हे भगवान....शुभ-शुभ निपट जाए सब कुछ।’’

‘‘अच्छा आप बिल्कुल भी मत घबड़ाइए। घर जाइए और अस्पताल चलने की तैयारी करिए। मैं चैराहे से आटो रिक्सा ले कर तुरन्त आ रहा हूूॅं।’’

तिवराइन चाची को उनके घर भेज कर मैं आटो लेने चैराहे की तरफ भागा। तिवराइन चाची मेरी पड़ोसन हैं। उनके पति का निधन हो चुका है। तीनों बेटियों की शादी हो चुकी है। और उनके एक मात्र बेटे रमेश जो उम्र में मुझसे लगभग दो साल बड़े हैं, बिहार राज्य के किसी कस्बे में बैंक में नौकरी करते हंै। रमेश भाई अपनी नौकरी पर अकेले रहते हैं और तिवराइन चाची अपनी बहू के साथ यहाॅं अपने पुश्तैनी मकान में। जब कभी भी छोटी-मोटी कोई भी जरूरत पड़ती है, तिवराइन चाची मुझको ही याद करती हैं।

मैं आटो रिक्सा ले कर पॅंहुचा तो घर में ताला बंद किए तथा जरूरत के सामानों की ड़ोलची, झोला लिए चाची बिल्कुल तैयार बैठी थीं। रमा भाभी को ले कर हम नर्सिंग होम पॅंहुचे और आवश्यक खानापूर्ति के बाद उनको वहाॅं भर्ती करा दिया गया। थोड़ी देर के बाद नर्सें रमा भाभी को ले कर लेबर रूम में चली गयीं। मैं तिवराइन चाची के साथ बाहर बरामदे में रखी बेंच पर बैठ गया। सामने टॅंगी दीवाल घड़ी में भागते एक-एक पल को गिनते हम दोनों खुशखबरी की प्रतीक्षा करने लगे।

लेबर रूम के बाहर बैठे हमें प्रतीक्षा का एक-एक क्षण भारी लग रहा था। तिवराइन चाची की आकुलता देखते ही बनती थी। हर थोड़ी देर के बाद वह बेंच से उठ कर लेबर रूम तक जातीं कभी दरवाजों से कान लगा कर अंदर की आहट लेने की कोशिश करतीं तो कभी पंजों के बल उचक कर लेबर रूम की खिड़की में लगे शीशे से अंदर झाॅंकने का प्रयास करतीं, फिर आ कर मेरे पास बेंच पर बैठ जाती थीं। लगभग दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद लेबर रूम से नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनायी पड़ी। चाची का चेहरा खुशी के मारे खिल उठा। हम दोनों ही उठ कर लेबर रूम की ओर भागे। चाची लपक कर लेबर रूम के अंदर घुस गयीं और मैं बाहर बरामदे पर ही ठिठक गया। लगभग दस मिनट के बाद लेबर रूम का दरवाजा हल्का सा खुला और हाथ में दवाइयों की एक पर्ची थामे बुझा-बुझा सा चेहरा लिए चाची बाहर आयीं। उनका उतरा चेहरा देख मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से काॅंप उठा।

‘‘क्या हुआ चाची...? अंदर से क्या खुशखबरी लायीं ?’’ दो कदम आगे बढ़ कर मैंने उत्सुकता से पूछा।

‘‘लड़की पैदा हुयी है।’’ बहुत ही दुःखी और मरियल सी आवाज में चाची ने जबाब दिया।

‘‘बधाई हो चाची....। अब तो आप दादी बन गयीं। चलिए पहले मिठाई खिलाइए जल्दी से।’’ तिवराइन चाची की उदासी भाॅंप कर मैंने माहौल को हल्का करने के उद्ेश्य से अतिरिक्त खुशी दिखाते हुए कहा।

‘‘हाॅं बेटा ! मैं दादी तो जरूर बन गयी लेकिन यदि लड़की के बजाय लड़का पैदा हुआ होता तो बात ही कुछ और होती। कितनी आस लगाए बैठी थी मैं....। कितने देवता, पितरों की मनौती मना रखी थी। कहते हैं कि पहलौठी का लड़का शुभ होता है। पर हमारे यहाॅं तो शुरूआत ही गलत हुयी। भगवान जाने आगे क्या होगा।’’ चाची ने भारी मन से कहा।

‘‘अरे छोड़िए भी चाची....आप भी कैसी दकियानूसी की बातें करने लगीं। आज दुनिया कहाॅं से कहाॅं पॅंहुच गयी है और आप हैं कि वही पुरानी लकीर पीटे जा रही हैं। अब आज के समय में भला लड़का और लड़की में फर्क कहाॅं रह गया है ? आप ही बताइए आज कौन सा ऐसा काम है जो लड़कियाॅं नहीं कर रही हैं। अब तो लड़कियाॅं मोटर, रेल और हवाई जहाज भी चला रही हैं। पुलिस फोर्स और सेना में भी जा रही हैं। चाची ! अगर सच कहें तो आजकल लड़कियाॅं लड़कों से आगे ही निकल रही हैं। हर क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले बढ़िया कर रही हैं।

‘‘हाॅं बेटा ! मैं भी देख रही हूॅं कि जमाना काफी बदल चुका है। लड़कियाॅं भी पढ़, लिख रही हैं, नौकरी कर रही हैं, मोटर-गाड़ी चला रही हैं। लेकिन लाख पढ़, लिख ले बेटी, बेटा की जगह तो नहीं ले सकती है न। बेटी से खानदान का नाम तो नहीं चलता है न।’’

‘‘नहीं...ऐसी बात नहीं है चाची। एक नहीं दुनिया में तमाम ऐसी लड़कियाॅं हुयी हैं जिन्होंने अपने माॅं, बाप का नाम रोशन किया है। फिर हमें यह मान कर चलना चाहिए कि भगवान जो भी करता है भले के लिए ही करता है।’’

‘‘हाॅं बेटा ! अब तो यही सोच कर संतोष करना है कि भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है। अच्छा तुम जाओ दवा की दुकान से ये दवाइयाॅं ले आ दो। नर्स ने मॅंगवाया है।’’ चाची को जैसे अकस्मात ध्यान आया और उन्होंने मुट्ठी मे पकड़ी दवा की पर्ची तथा रुपए मुझको पकड़ा दिया।

नार्मल डिलेवरी थी इसलिए दो दिनों के बाद ही रमा भाभी को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी और उन्हें ले कर हम घर आ गए।

बच्ची की बरही मनाने की बात चली तो चाची ने कोई उत्सुकता नहीं दिखलायी। उनका मत था कि अगल-बगल के दो-चार परिवारों को आमंत्रित कर के बरही की रस्म पूरी कर ली जाय जब कि रमा भाभी बहुत धूम-धाम करने के पक्ष में थीं। सास-बहू का मतभेद रमेश तक पॅंहुचा तो मेरे पास उनका फोन आया। उनका कहना था कि उनकी पहली संतान की बरही खूब धूम-धाम से होनी चाहिए। सारे प्रबन्ध की जिम्मेदारी उन्होंने मुझको सौंप दी। मैं अपने हिसाब से तैयारी में जुट गया। बरही के एक दिन पहले रमेश भाई भी आ गए थे। अपनी पत्नी की इच्छा जान कर उन्होंने इंतजाम को सवाया कर दिया था। लड़की की बरही में इतना खर्च, इतनी धूम-धाम देख तिवराइन चाची ने बहुत नाक-भौं सिकोड़ा, बहुत जली-कटी सुनायी लेकिन उनकी बातों को न तो बेटे ने कान दिया और न ही बहू ने।

लगभग दो महीने के बाद रमा भाभी कुछ दिनों के लिए अपने मायके चली गयीं। तिवराइन चाची अपने घर में अकेली रह गयी थीं इसलिए रोज शाम उनकी खोज-खबर लेना मेरी जिम्मेदारी हो गयी थी। ऐसे ही एक दिन शाम को आफिस से लौटने के बाद उनका हालचाल लेने गया था। मैं उनके घर के अंदर वाले बरामदे में बैठा था और चाची किचन में मेरे लिए चाय बना रही थीं। अचानक तभी उनके कमरे में रखे फोन की घंटी बज उठी।

‘‘अनिल बेटे, देखना तो जरा किसका फोन है।’’ चाची ने किचन से आवाज लगायी। मैंने लपक कर फोन उठाया तो उधर से चाची की छोटी बेटी उषा की आवाज थी।

‘‘चाची ! उषा दीदी का फोन है लखनऊ से।’’ मैंने बताया तो चाची गैस का बर्नर बंद कर के दौड़ी हुयी आयीं और फोन की ओर लपकीं। चाची के हाथ में फोन का चोगा थमा कर मैं अलग हट गया। वह अपनी बेटी से बातें करने लगीं। उधर से उनकी बेटी ने जाने क्या कहा कि चाची एकदम से चहक उठीं। ‘‘अरे ! कब....? अच्छा...अच्छा...। कोई बात नहीं बेटी,.....सब ईश्वर की मर्जी है। दुनिया में हर कोई अपना भाग्य ले कर पैदा होता है। कोई कुछ कहे, तुम अपना ध्यान रखना।’’ चाची का चेहरा खुशी से खिल उठा था। वह काफी देर तक हॅंस-हॅंस कर बातें करती रहीं।

‘‘क्या बात है चाची बहुत खुश नजर आ रही हैं आप ?’’ जब बात कर के उन्होंने फोन रख दिया तब मैंने पूछा।

‘‘अरे ! खुशी की बात है तो खुश नहीं होऊॅंगी ? आज बेटी पैदा हुयी है उषा को। वही खुशखबरी देने के लिए उसने फोन किया था।’’

‘‘बधाई हो चाची....बधाई हो। ऐसे काम नहीं चलेगा। मिठाई खिलानी पड़ेगी अब तो।’’

‘‘हाॅं रे ! भला मिठाई क्यों नहीं खिलाऊॅंगी। ये ले रूपए....जा चैराहे से बिहारी की दुकान से लड्डू खरीद ला।’’ चाची ने कहा और अपने आॅंचल के छोर में बॅंधी गाॅंठ खोल कर सौ रुपए का एक नोट मेरी तरफ बढ़ा दिया।

‘‘अरे छोड़िए चाची, मैं तो ऐसे ही मजाक कर रहा था।’’

‘‘नहीं बेटा नहीं...। इसमें मजाक की क्या बात है। खुशी का मौका है तो मिठाई खिलाने का पद तो बनता ही है।’’

‘‘चाची ! उषा दीदी की तो यह दूसरी बेटी है न। एक बेटी तो उनको शायद पहले भी थी।’’ चाची की प्रतिक्रिया जानने के लिए मैंने उन्हें जानबूझ कर कुरेदा।

‘‘कोई बात नहीं बेटा। लड़का या लड़की पैदा करना कोई अपने वश में थोड़े न है। सब ऊपर वाले की मर्जी है। भगवान ने आज बेटी दी है तो वही कल बेटा भी देगा। खुद मुझे भी तो लगातार तीन बेटियों के बाद रमेश पैदा हुआ था। बेटा हुआ हो या बेटी कोई बात नहीं...। बस भगवान सुखी रखे मेरी बेटी को।’’ चाची अविराम बोलती जा रही थीं। उनकी बातों में या उनके चेहरे पर रंचमात्र भी दुःख अथवा अफसोस का नामोनिशान नहीं था।

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