डीहबाबा

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

10/10/20201 मिनट पढ़ें

‘‘ऐसा है मुन्ना ! अभी प्यार करने की उमिर नहीं है तुम्हारी। ई ससुरी प्यार-मोहब्बत एतनी आसान चीज नहीं है कि तुम्हारे जैसे अबोध बालक समझ सकें उसकी तासीर को। लक्षण हमको बीमारी का दिख रहा है....। तुम लभेरिया के शिकार हो रहे हो। और इससे पहिले कि बीमारी जियादा बढ़ जाय, तुम कमरा बदल दो। कमरा ही नहीं अल्लापुर मुहल्ला ही छोड़ दो।’’ डीह बाबा ने कहा और अपनी आॅंखें बंद कर के चिंतन की मुद्रा में चले गए। खामोश मैं अपराधी की तरह गरदन झुकाए उनके सामने बैठा था।

दो मिनट के बाद उन्होंने आॅंखें खोलीं और बोले-‘‘अइसा करते हैं सलोरी के साहू लाॅज में बोल देते हैं....फिलहाल किसी लड़के के साथ एडजस्ट हो जाओ। फिर कौनो बेवस्था किया जाएगा।’’

‘‘लेकिन दद्दा वह कहती है कि मेरे लिए जान दे देगी। अगर उसने फाॅंसी या कुछ जहर-माहुर.......।’’

‘‘अबे ! तू बिल्कुल्ले बकचोद है क्या बे ? वह कुछ नहीं करेगी......जहर-माहुर कुछ नहीं खायेगी। तुम्हारे जइसे चूतियों की कमी है क्या इलाहाबाद में ? किसी दूसरे लौण्डे को फाॅंस लेगी वह। स्साले....अण्डरबीयर का नाड़ा बाॅंधने का सहूर नहीं अभी और चले हैं प्यार करने।’’ मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हो पायी थी कि डीह बाबा एकदम से चीख पड़े। फिर मेरी कुछ और कहने की हिम्मत नहीं हुयी।

डीहबाबा उर्फ दद्दा उर्फ ओमप्रकाश चैबे। सर्टिफिकेट के अनुसार उनके माॅं-बाप का दिया नाम था ओमप्रकाश चैबे, यूनिवर्सिटी के लड़के आपस में बात करते समय उनको डीहबाबा कहते थे और उनसे बात करते समय उनके लिए दद्दा सम्बोधन उच्चारित करते थे। ओमप्रकाश चैबे से डीहबाबा बनने की उनकी कहानी बहुत लम्बी और घटनाप्रद है। पूरी कहानी को सिलसिलेवार ढ़ंग से सुनाने के लिए न तो मेरे पास समय है और न ही आपके पास धैर्य। तो चलिए यथासंभव संक्षेप में सुनाते हैं डीहबाबा की कथा।

कहानी शुरू होती है बीसवीं सदी के आठवें दशक से। यह वह वक्त था जब आज का प्रयागराज शहर अफसराबाद हुआ करता था। आइएएस हो, पीसीएस हो या कि सबार्डिनेट सर्विसेज हर साल थोक के भाव में अफसर पैदा किया करता था यह शहर। न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि बिहार, मध्यप्रदेश और तब उत्तर प्रदेश का अंग रहे आज के उत्तराखण्ड के गाॅंव-कस्बे, कोने-अॅंतरे से सतुआ-पिसान की गठरी बाॅंधे, आॅंखों में अफसर बनने का खाब लिए हजारों लड़के हर साल इस शहर की गोद में आ गिरते थे। हजारों माॅं-बाप अपने खाने, कपड़े, इलाज तथा अन्य जरूरतों में कटौती कर के हर महीने इस उम्मीद के साथ इलाहाबाद के पते पर मनीआर्डर भेजा करते थे कि उनके बेटे के अफसर बनते ही उनके सारे दुःख-दलिद्दर दूर हो जायेंगे। हर साल आने वाले उन्हीं हजारों लड़को में एक थे ओमप्रकाश चैबे जो जुलाई उन्नीस सौ तिहत्तर में समस्तीपुर-इलाहाबाद सिटी फास्ट पैसेंजर ट्रेन से इलाहाबाद पॅंहुचे थे।

बलिया जिले के सरयू नदी किनारे के एक छोटे से गाॅंव के रहने वाले ओमप्रकाश चैबे यूपी बोर्ड की उन्नीस सौ इकहत्तर की हाईस्कूल की परीक्षा में जिले में दूसरे तथा उन्नीस सौ तिहत्तर की इण्टरमीडिएट की परीक्षा में जिले में सातवें स्थान पर आए थे। इसका नतीजा यह हुआ कि उनके प्राइमरी स्कूल में अध्यापक पिता ने अफसर बनने के लिए उनको इलाहाबाद पठा दिया। पिछला रिकार्ड अच्छा था इसलिए यूनिवर्सिटी में आराम से एडमिशन भी हो गया और हास्टल में कमरा भी मिल गया।

बी.ए. के बाद चैबे जी ने एम.ए. फिलाॅसफी में एडमिशन लिया और आइएएस की तैयारी में जुट गए। उस जमाने में प्रीलिम जैसी कोई चीज नहीं होती थी। सीधे मुख्य परीक्षा और उसके बाद साक्षात्कार। चाॅंस नहीं गॅंवाना था इसलिए जमकर मेहनत की और अपने पहलेरे ही प्रयास में उन्होंने मुख्य परीक्षा की बाधा पार कर ली। रिजल्ट आते ही यूनिवर्सिटी से ले कर बलिया के उनके गाॅंव तक ढिंढ़ोरा पिट गया। यहाॅं जाने कितने हैं जो तीन-तीन, चार-चार सालों से मुख्य परीक्षा की बाधा लाॅंघने के लिए तरस रहे हैं और कहाॅं चैबे जी ने पहले ही चांस में छलाॅंग लगा दी। चर्चा का विषय बन गए चैबे जी। जिधर से भी निकलते लड़के रास्ते में रोक कर नमस्ते करते, बातें करते। लेकिन बेचारे साक्षात्कार में रह गए।

‘‘का बताईं मरदे, इण्टरभ्यूवा में हम नरभसा गए। ऊ सरवा सब जौन-जौन प्रश्न पूछे थे हमको सब आवत रहा लेकिन जाने का हो गया था ओ टाइम कि मुॅंह से बकारे नहीं निकल रहा था। अइसा लगता था जइसे कौनो बुरी शक्ति हमारी जिभ पकड़ कर बइठ गयी हो।’’ साक्षात्कार दे कर लौटने पर चैबे जी ने अपने साथियों को बताया।

‘‘कौनो बात नाहीं गुरू, अगली साल तो सिलेक्सन पक्का समझो।’’ साथियों ने हौसलाअफजाई की।

हिम्मत नहीं हारा चैबे जी ने। ‘बन का गीदड़, जाएगा किधर ? आज नही ंतो कल हाथ तो आना ही है उसे।’ उन्होंने मन को समझाया और अपने अभियान में जुटे रहे। लेकिन दैवयोग से उसी साल विश्वामित्र की तपस्या में मेनका का पदार्पण हो गया।

‘‘सर ! हास्टल में कोई मिलने आया है आपसे।’’ शाम लगभग पाॅंच बजे अपनी मित्र-मंड़ली के साथ यूनिवर्सिटी रोड़ के यादव की दुकान पर चाय पी रहे चैबे जी को उनके हास्टल के एक जूनियर ने सूचना दी। जल्दी-जल्दी दो घूूंट में चाय को हलक के नीचे उतार कर चैबे जी हास्टल की ओर भागे।

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