दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

8/20/20231 मिनट पढ़ें

जिस प्रकार बहू के आते ही सास भूल जाती है कि वह भी कभी बहू थी, ठीक उसी प्रकार अधिकांश मॉं-बाप भी यह भूल जाते हैं कि वे भी कभी बच्चे थे। चौंतिस वर्षीय सिनहा जी तथा उनकी तीस वर्षीया पत्नी इस उम्र तक पॅंहुचने के बाद जितने समझदार और संजीदा हो पाए थे उतनी ही समझदारी और अनुशासन वे अपने तीन साल के बेटे बंटी से भी चाहते थे। सिनहा दंपति बंटी को अपने मनचाहे सॉंचे में ढ़ालने के प्रयास में जी-जान से जुटा हुआ था। बंटी यह मत करो, बंटी वह मत करो, बंटी ऐसा करो, बंटी वैसा करो आदि तमाम तरह के निर्देशों के चाबुक बंटी पर सारे दिन चलते ही रहते थे। लेकिन बंटी था कि अपनी बाल-सुलभ शरारतों के कारण बार-बार अनुशासन भंग कर दिया करता था। प्यार से, दुलार से, ड़ॉंट-फटकार से सिनहा दंपति पालतू तोते की तरह शिष्टाचार के तौर-तरीके सिखाता था लेकिन बंटी जब अपनी पर आता तो सारा सिखाया-पढ़ाया पल भर में ही मटियामेट कर देता था। जैसे जमीन पर गिरा कोई व्यक्ति धूल झाड़ कर फिर से चल देता है ठीक वैसे ही बंटी डॉंट-मार के थोड़ी देर के बाद ही पुनः वही काम करने लगता था जिसके लिए उसे डॉंट-मार पड़ी होती थी।

कहना न होगा कि तीन साल का इकलौता बेटा बंटी सिनहा दंपति के लिए चिन्ता और परेशानी का सबब बना हुआ था। उसी इकलौते कुल चिराग से सारी आशायें थी, सारे सपने थे और वह था कि अपने बचपने से मुक्त ही नहीं हो रहा था। उन पति-पत्नी की प्रमुख चिंता बंटी के एडमिशन को ले कर थी। चाहे जैसे भी हो बंटी का एडमिशन शहर के सबसे मशहूर कान्वेण्ट स्कूल में कराने के लिए वे पति-पत्नी कृत-संकल्प थे। उस स्कूल में थ्री प्लस उम्र के बच्चों को लिया जाता था और बंटी थ्री प्लस हो चुका था। लेकिन उस नामी स्कूल में एडमिशन करा लेना आकाश कुसुम तोड़ लाने के समान था। मामला ‘एक अनार, सौ बीमार’ वाला था। शहर में वही एक प्रतिष्ठित स्कूल था और सारे अभिवावक अपने बच्चों को चाहे जैसे भी हो उसी में भर्ती कराने की होड़ में शामिल थे।

पता चला कि उस स्कूल में एडमिशन के लिए पहले बच्चों का लिखित टेस्ट और उसके बाद इंटरव्यू हुआ करता है। मुश्किल से ढ़ाई महीने का समय रह गया था नए सत्र के एडमिशन के लिए टेस्ट होने में। श्रीमती सिनहा इन दिनों ठोंक-पीट कर बंटी को उसी टेस्ट के लिए तैयार करने में जुटी हुयी थीं। लेकिन बंटी था कि बात की गंभीरता को समझ ही नहीं रहा था। श्रीमती सिनहा उसको पढ़ाने के लिए बैठतीं तो वह खेलने भाग जाता था। सुबह का सिखाया-पढ़ाया शाम तक भूल जाया करता था। पति-पत्नी परेशान थे कि अगर टेस्ट में पास नहीं हो पाया तो उस स्कूल में बंटी का एडमिशन कैसे हो पाएगा।

अचानक तभी एक दिन बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया। बंटी को नियंत्रित करने का एक अचूक नुस्खा खुद-ब-खुद श्रीमती सिन्हा के हाथ लग गया। हुआ यूॅं कि दोपहर का समय था, बंटी कुछ शरारत कर रहा था और श्रीमती सिनहा उसको ड़ॉंट लगा रही थीं कि तभी दरवाजे के बाहर आवाज सुनाई पड़ी-‘‘भगवान के नाम पर साधु को कुछ भिक्षा दे दो माता....भोले भण्ड़ारी तुम्हारा कल्याण करेंगे। अलख निरंजन।’’

श्रीमती सिनहा ने खिड़की से झॉंका तो पाया कि गेरुवा रंग के गंदे-संदे कपड़े पहने, कंधे से बड़ा सा झोला और रस्सी में बॅंधा कमंड़ल लटकाए, लम्बी खिचड़ी दाढ़ी-मूूॅंछ तथा लम्बे उलझे बालों वाला एक साधु उनके दरवाजे के बाहर खड़ा था। उनके दिमाग में तत्काल एक आइडिया कौंधा। उन्होंने बंटी को पकड़ा और लगभग घसीटती हुयी दरवाजे तक ले आयीं।

‘‘लो बाबा, इस लड़के को पकड़ ले जाओ। यह मेरी एक बात भी नहीं मानता है। बहुत बदमाशी करता है।’’ श्रीमती सिनहा ने बंटी को आगे की ओर ठेलते हुए उस साधु से कहा।

भिखमंगा साधु माजरा समझ गया। उसने बंटी कीे तरफ ऑंखें तरेरते हुए बोला-‘‘क्या कहा..? यह लड़का बदमाशी करता है ? अपनी मम्मी का कहना नहीं मानता है....? फिर तो इसे मैं जरूर ले जाऊॅंगा।’’

‘‘हॉं बाबा....ले जाओ। यह मेरी बात बिल्कुल भी नहीं मानता है।’’

‘‘तो लाओ, इसको ड़ाल दो मेरी झोली में।’’ साधु ने अपने कंधे से लटक रहा बड़ा सा थैला उतार कर सामने फैलाते हुए कहा।

साधु का ड़रावना चेहरा देखते और उसकी बातें सुनते ही बंटी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। मारे ड़र के वह कॉंपने लगा। अपनी मम्मी के पैरों से चिपट कर सिसकते हुए बोला-‘‘नईं मम्मी.....नईं.....। अब मैं बमाछी नहीं कलूॅंगा।’’

‘‘सही-सही बोल....फिर शरारत करेगा ?’’

‘‘नईं......कब्बी नईं कलूॅंगा।’’

‘‘मेरी हर बात मानेगा....?’’

‘‘मानूगॉं.....।’’

‘‘दूध पिएगा कि नहीं.....?’’

‘‘पीऊॅंगा.....।’’

‘‘पढ़ाई करेगा कि नहीं ?’’

‘‘कलूॅंगा....।’’

श्रीमती सिनहा को उस समय जितनी भी शर्तें याद आयीं, उन्होंने साधु के सामने बंटी से मनवा लीं। उसके बाद उन्होंने बंटी को सुनाते हुए उस साधु से कहा-‘‘ठीक है बाबा.....चलो, आज इसको छोड़ दो। अगर आज के बाद फिर कभी शरारत करेगा तो मैं इसको तुम्हारे पास भेज दूॅंगी।’’

‘‘हॉं.....यह अगर फिर शरारत करे तो मुझको खबर भेजना। मैं आ कर इसे ले जाऊॅंगा।’’ साधु ने ऑंखें चमकाते हुए कहा और भिक्षा ले कर चला गया।

साधु तो भिक्षा ले कर चला गया लेकिन वह श्रीमती सिनहा के हाथों में बंटी को नियंत्रित करने का एक नुस्खा थमा गया। शाम को उन्होंने उस नायाब नुस्खे के बारे में पतिदेव को बताया तो वे भी बहुत प्रसन्न हुए।

अब बंटी दूध पीने में जरा सी भी आनाकानी करता तो श्रीमती सिनहा धमकाने लगतीं-‘‘रुको, अभी तुमको साधू बाबा के पास भेजती हूॅं।’’ और बंटी ड़र के मारे चुपचाप दूध पी लेता था। उसे पढ़ाने के लिए बुलातीं तो साधु का नाम लेते ही वह चुपचाप पढ़ने बैठ जाया करता था। दोपहर में सोने का मन होता तो वह खेल रहे बंटी से कहतीं-‘‘बंटी ! चलो अब सो जाओ नहीं तो साधू बाबा को बुला दूॅंगी।’’ खिलौने छोड़ कर बंटी चुपचाप ऑंखें बंद कर के बिस्तर में लेट जाता था। इस प्रकार अब बंटी का खाना-पीना, जागना-सोना, पढ़ना-लिखना और खेलना-कूदना सब कुछ उसकी मम्मी की इच्छानुसार नियंत्रित होने लगा था।

कुछ दिनों तक तो सब ठीक-ठाक चलता रहा, बंटी भय की ड़ोर में बॅंधा रहा लेकिन एक दिन उसका बाल-मन विद्रोह कर बैठा। दोपहर बाद का समय था। दो घंटे तक सिखाने, पढ़ाने, रटाने के बाद श्रीमती सिनहा ने बंटी को खाना खिलाया और बिस्तर में जा कर सो जाने के लिए कहा। लेकिन सवेरे से पढ़ाई में लगे बंटी का मन अब खेलने का हो रहा था। मम्मी के आदेश की अनसुनी कर के उसने कमरे की फर्श पर अपने खिलौनों का थैला पलटा और खेलने बैठ गया।

‘‘बंटी ! चलो, अब खेल बंद करो और चुपचाप सो जाओ।’’ श्रीमती सिनहा ने दोबारा कहा। लेकिन बंटी अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। वह खेल में मगन रहा जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।

‘‘बंटी, मैं कुछ कह रही हूॅं ?’’ श्रीमती सिनहा तेज आवाज में बोलीं। बंटी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह अपने खिलौना कार में चाबी भरने में जुटा रहा।

‘‘बंटी, चलो, मेरे पास आ कर सो जाओ नहीं तो मैं साधू बाबा को बुला दूॅंगी। वह झोले में ड़ाल कर ले जाएगा तुम्हें।’’ श्रीमती सिनहा ने आखिरी अस्त्र आजमाया।

आश्चर्य कि बंटी पर उनकी इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ।

अपनी ड़ॉंट और धमकी बेअसर होती देख श्रीमती सिनहा गुस्से में भरी उठीं और बंटी के गाल पर एक थप्पड़ लगा कर उसको घसीट लीं।

‘‘इतनी देर से कह रही हूॅं तुम्हें सुनाई नहीं दे रहा है....? चलो, सो जाओ चुपचाप।’’ उन्होंने ड़ॉंटते हुए कहा।

‘‘नईं...ई...ई....ई....मैं नईं छोऊॅंगा। मैं अबी खेलूॅंगा।’’ बंटी ने चीखते हुए कहा और अपनी मम्मी का हाथ झटक दिया। फिर तो श्रीमती सिनहा का पारा एकदम से गरम हो गया। उन्होंने तड़ातड़-तड़ातड़ उसकी अच्छी-खासी पिटाई कर दी। उधर बंटी ने भी जैसे मम्मी की बात न मानने की जिद पकड़ ली थी। वह फर्श पर लोटने लगा, हाथ-पॉंव पटकने और चीखने लगा। थोड़ी देर तक रोने और हाथ-पॉंव पटकने के बाद बंटी उठा और पुनः अपने खिलौनों के संग खेलने लगा।

शाम को सिनहा जी लौटे तो श्रीमती सिनहा ने उनको बंटी की गुस्ताखी के बारे में बतलाया। सुन कर सिनहा जी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं। बंटी को साजने के लिए संयोग से जो एक उपाय हाथ लग गया था वह भी बेअसर होता दिख रहा था। उन्होंने बंटी को अपने पास बुलाया और ड़ॉंट कर पूछा-‘‘क्यों जी....मम्मी की बात क्यों नहीं मानी तुमने ?’’

बंटी कुछ नहीं बोला। गुब्बारे सा मुॅंह फुलाए चुप खड़ा रहा।

इतने में श्रीमती सिनहा दूध का गिलास ले कर आ गयीं।

‘‘चलो, दूध पीओ।’’ सिनहा जी ने ड़ॉंटते हुए कहा लेकिन बंटी खामोश खड़ा रहा जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं हो।

‘‘मैं कहता हूॅं दूध पीओ।’’ सिनहा जी तेज आवाज में गरजे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बंटी ने अपना मुॅंह दूसरी ओर घुमा लिया।

अब तो सिनहा जी को भी गुस्सा आ गया। उन्होंने बंटी के गाल पर तड़ तड़ा तड़ तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए। बंटी गला फाड़ कर रोने लगा लेकिन फिर भी उसने दूध नहीं पी। वह काफी देर तक फर्श पर बैठा रोता रहा। फिर अचानक चुप हो गया और उठ कर घर से बाहर जाने लगा।

‘‘बाहर कहॉं जा रहे हो ?’’ सिनहा जी डपटे।

‘‘मैं गुच्छा हो गया हूॅं। मैं घल छे जा लहा हूॅं।’’ अपने नन्हे हाथों से ऑंसू पोछते, सिसकते बंटी ने कहा।

‘‘किससे गुस्सा हो गए हो..? कहॉं जा रहे हो..?’’ श्रीमती सिनहा ने पूछा।

‘‘मुझे मम्मी भी मालती हैं....पापा भी मालते हैं....मैं छब छे गुच्छा हूॅं। मैं छादू बाबा के पाछ जा लहा हूॅं।’’ बंटी ने कहा और गेट से बाहर निकल गया।

सिनहा जी कौतूहलवश उसके पीछे चल पड़े कि देखें बंटी आखिर जाता किधर है ?

बंटी गेट से निकला और चौराहे की तरफ, जिधर उस दिन भिक्षा लेने के बाद साधु गया था उधर को चल दिया। उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बस चलता चला जा रहा था। जब वह काफी आगे निकल गया तो सिनहा जी उसे पकड़ने के लिए दौड़े।

‘‘नईं...मैं घल नहीं जाऊॅंगा। मुझको छब लोग मालते हैं। घल नईं जाऊंगा। मुझे छादू बाबा के पास भेज दो....।’’ सिनहा जी पकड़ने लगे तो बंटी ने चीखते हुए कहा और वहीं सड़क पर पसर गया।

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