दादी के आँसू

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

10/13/20221 मिनट पढ़ें

गलत नहीं कहा है किसी ने कि मूल से अधिक प्यारा सूद होता है। अगर किसी को इस कथन की सत्यता के बारे में रंचमात्र भी संदेह हो तो वह खुशियों में सराबोर सावित्री चाची को देख कर अपनी शंका का निवारण कर सकता है। उनको देख कर समझ में आ जाएगा कि किस को कहते हैं जमीन पर पाॅंव नहीं पड़ना, किस को कहते हैं फूले नहीं समाना, किस को कहते हैं मन में हजार-हजार लड्डू फूटना, किस को कहते हैं इतराना, और किस को कहते हैं खुशी के मारे फूल कर कुप्पा हो जाना। सचमुच सावित्री चाची के पाॅंव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे आजकल। खुशी का आलम यह था कि इन दिनों सारी-सारी रात नींद भी नहीं आती थी उनको। इन दिनों उनकी रातें जागी आॅंखों से सपने देखने, भाॅंति-भाॅंति के खयाली पुलाव पकाने, स्मृति पर जोर ड़ाल कर शादी की विभिन्न रस्मों के लिए जरूरी सामानों की फेहरिश्त बनाने और विभिन्न कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करने में ही बीत जाती थीं।

सच बात तो यह थी कि सावित्री चाची को खुद अपने आप से और अपने सौभाग्य से ईष्र्या होने लगी थी। कुल-खानदान, टोला-मुहल्ला से ले कर जान-पहचान और रिश्ते-नाते तक में भला कौन ऐसा था जिसके बेटे और पोते इतने बड़े अफसर हुए हों। सावित्री चाची के इकलौते बेटे प्रकाश चन्द्र ड़िप्टी कलक्टर थे।

‘‘अरे नहीं भाई ड़िपुटी कलट्टर नहीं है। ड़िपुटी कलट्टर तो हमारा परकाश तभी था जब वह नौकरी में भर्ती हुआ था। अब तो तरक्की कर के बहुत ऊपर पॅंहुच गया है। कोई और बड़ा अफसर हो गया है। बताते हैं लोग कि बस अब एक तरक्की और करेगा तो सीधे कलट्टर बन जाएगा। यानी अभी कलट्टर से बस एक सीढ़ी नीचे है मेरा बेटा।’’ अगर कोई सावित्री चाची के बेटे को ड़िप्टी कलक्टर कहता है तो वह तुरन्त एतराज करती हैं और उसको समझाने लगती हैं।

हाॅं तो सावित्री चाची के इकलौते बेटे प्रकाश चन्द्र इन दिनों कानपुर में अपर जिलाधिकारी के पद पर तैनात थे। प्रकाश चन्द्र के बड़े बेटे मुन्नू बाबू यानी नवीन प्रकाश ने आई0आई0टी0 रूड़की से इंजिनियरिंग की पढ़ाई थी और आजकल मुम्बई में साफ्टवेयर की किसी विदेशी कम्पनी में नौकरी कर रहे थे।

‘‘अरे ! सत्तर हजार रुपिया महीना तनखाह पाता है मेरा मुन्नू। पूरे सत्तर हजार...।’’ लोगों को यह बताते समय सावित्री चाची अपने दोनों हाथों को कंधे के समानान्तर फैला कर, और आॅंखें फाड़ कर ईशारों से ऐसे हाव-भाव प्रदर्शित करती थीं कि सुनने वाला हॅंसे बगैर नहीं रह पाता था।

सत्तर हजार रुपया महीना पगार पाने वाले सावित्री चाची के उन्हीं पोते मुन्नू बाबू की शादी थी। जब से शादी की खबर आयी है सावित्री चाची की खुशी का कोई ओर-छोर नहीं है। पूरे मुहल्ले में फिरकी की तरह नाचती फिर रही हैं वह। घूम-घूम कर सभी को बताती फिर रही हैं। रात-दिन, चैबीसों घंटे बस उसी शादी की बात और उसकी ही तैयारी के सिवा और कुछ भी नहीं सूझ रहा है उनको। बस मन के किसी कोने में जरा सा मलाल है तो इस बात का कि ए0डी0एम0 साहब यह शादी अपनी नौकरी से यानी कानपुर से कर रहे थे। यदि यही शादी यहाॅं गाॅंव से सम्पन्न होती तो बात ही कुछ और होती। हीत-नात, दयादी-पट्टीदारी और गाॅंव-जवार के लोगों पर अपना रोब-रूतबा गाॅंठने तथा अपनी हैसियत दिखाने का अवसर मिलता सावित्री चाची को। देखने वाले देखते कि कितना बड़ा अफसर है उनका बेटा।

‘‘प्रकाश ठीक ही कर रहा है जो अपने बेटे की शादी गाॅंव से नहीं कर रहा है। वरना इस भुच्च देहात में उतने ठाट-बाट, धूम-धाम का इन्तजाम कैसे हो पाएगा भला ? एक से बढ़ कर एक बड़े लोग, साहब-सूबा, मंत्री-संत्री, सेठ-साहूकार आयेंगे शादी में। उनके लायक उठने-बैठने की जगह भी तो होनी चाहिए। सैकड़ों तो मोटर, गाड़ियाॅं आयेंगी। उनके लिए भी तो रास्ता और खड़ी करने की जगह होनी चाहिए। यहाॅं गाॅंव में कोई बढ़िया चीज, सामान भी तो नहीं मिलेगा। और खाने-पीने, आने-जाने, रहने-ठहरने की परेशानी होगी सो अलग। अरे भाई ! अब वो जमाना तो रहा नहीं कि कद्दू की सब्जी, पूड़ी, आलूदम और बूॅंदी, दही से निपट जाय शादी-ब्याह। आजकल तो काज-परोज में इतनी तरह की चीजें बनती हैं, खाने-पीने के इतने सारे आइटम होते हैं कि आदमी उन्हें देख-देख कर ही अघा जाय। यहाॅं देहात में न तो वो सब सामान मिलेगा और न ही वैसा बनाने वाले कारीगर। कानपुर बड़ी जगह है....वहाॅं बढ़िया अर-इंतजाम हो जाएगा।’’ पतिदेव यानी मास्टर साहब ने समझाया तो सावित्री चाची के मन का मलाल कुछ कम हुआ।

‘‘ए परकाश के बाबूजी ! सुनते हैं कि कानपुर की गाड़ी में भीड़ बहुत होती है। एक-दो दिन में बलिया चले जाइए और सीट का रिजरवेशन करवा लीजिए। नहीं तो भीड़-भड़क्का में सामान ले कर जायेंगे कैसे.....?’’ एक दिन सवेरे उठते ही सावित्री चाची ने कहा।

‘‘ठीक है। ऐसा करते हैं कि सत्रह तारीख की शादी है तो पन्द्रह की रात का रिजर्वेशन करा लेते हैं। सोलह को सवेरे पॅंहुच जायेंगे कानपुर।’’ मास्टर साहब का इतना कहना था कि पजामे से बाहर हो गयीं चाची। ‘‘आप भी गजबे बात करते हैं....। सत्रह कीे शादी है तो सोलह को सवेरे पॅंहुचेंगे ? हम कोई हीत-नात या मेहमान हैं काऽ जो ऐन शादी के टाइम पर पॅंहुचेंगे। चार-पाॅंच दिनों पहले से तो हल्दी, मटकोड़ और संझा-पराती शुरू हो जाती है। बाइस तरह के तो रसम पूरे करने होते हैं शादी-बियाह में। बहू कौन दो-चार बेटे, बेटियों की शादी कर चुकी है कि उसको रसम-रिवाज के बारे में पता होगा। भला बूढ़-पुरनिया के बिना कौनो काज-परोज होता है क्या ? हमें पहिले चल के बहू को विधि-विधान बताना होगा, एक-एक रसम की तैयारी करनी, करानी होगी। कम से कम सात-आठ दिन पहले तो चलना ही पड़ेगा।’’

‘‘हे भगवान ! तुम रह गयी गॅंवार की गॅंवार ही। अरी बूढ़ी दाई, वो जमाना गया जब पन्द्रह दिनों पहले से ही दुलहा-दुलहिन को लगन लग जाया करता था। अब चट मॅंगनी, पट ब्याह का जमाना है। शहरों में किसी के पास इतनी फुरसत नहीं कि हफ्ता, दस दिन तक रस्म-रिवाज करे और सॅंझा-पराती गाए, गवाए। समझी ?’’ मास्टर साहब बोले।

‘‘अच्छा, अपना कायदा-कानून अपने पासे रखिए और कल सवेरे जा कर टिकट रिजरब करा आइए। इनके कहने से बिना रसम, रिवाज के शादी हो जाएगी। बहुत अंगरेज बन रहे हैं। अरे ! इसी बात के लिए तो हफ्ता दिन पहिले चलना है हमको कि बहू से कोई रसम-रिवाज छूट ना जाए।’’ सावित्री चाची ने घुड़का तो मास्टर साहब हॅंसते हुए बाहर चले गए।

अगले दिन अपने खानदानी पुरोहित भरत पाठक को बुला कर चाची ने हल्दी, मटकोड़, पीतर, कोहबर से ले कर कुॅंवा पूजन और कंगन छुड़ाई आदि तक एक-एक रस्म की साइत और समय पूछ कर कागज पर लिखवा लिया।

‘अरे ! मटकोड़ के लिए और दुलहिन उतारने के लिए बाॅंस की दउरी, चढ़ावे के लिए ड़ाल और परिछावन के लिए सूप भी तो चाहिए होगा। पता नहीं वहाॅं शहर में ये सब चीज मिले कि नहीं मिले। इसके बिना रसम कइसे होगा ?’ अचानक ध्यान आया तो सुदामा ड़ोम को बुलवा कर उन्होंने ड़ाल, दउरी और सूप तैयार करने के लिए कह दिया।

पता नहीं बहू को सिंधोरा का ध्यान होगा कि नहीं....। उसने मॅंगावाया होगा कि नहीं। एक दिन आधी रात को ध्यान आया चाची को। सवेरे बाजार खुलते ही बैजनाथ पटहेरा के यहाॅं से सिन्दूर और एक चटक लाल रंग का बड़ा सा सिन्धोरा मॅंगवाया उन्होंने। उसके बाद इलाही मियाॅं चूड़ीहार को बुलावा भेजा। खबर मिलते ही इलाही मियाॅं अपनी चूड़ी, कंगन, काजल, बिन्दी, टिकुली, आलता, महावर, रिबन, चोटी बगैरह की झाॅंपी लिए हाजिर हो गए। घंटा भर से अधिक समय तक सामानों की उलट-पुलट करती रहीं सावित्री चाची और छाॅंट, बीन कर दुल्हन के लिए चूड़ी, टिकुली, आलता, नाखून पालिस, तथा चोटी और हेयर पिन आदि ढ़ेर सारा सामान खरीद ड़ाला।

अब बारी आयी नेग की। ‘‘अरे ! मुन्नू की दुलिहन को मुॅंह दिखायी भी तो देनी होगी।’’ मास्टर साहब को टोका उन्होंने।

‘‘तो चलो किसी दिन बलिया....। खरीद लो जो कुछ खरीदना हो।’’

‘‘ना जी ना...। आप के साथ नहीं जाऊॅंगी मैं। आप हर बात में टोका-टाकी करने लगते हैं....जल्दबाजी करने लगते हैं। चीज-सामान को ठीक से देखने और मोल-तोल भी नहीं करने देते हैं। मुझे पैसा दे दीजिए....किसी दिन रमरतिया के साथ बलिया जा कर अपने मन का बाजार करूॅगी मैं।’’

मास्टर साहब से पैसा ले कर वह घर में चैका-बरतन करने वाली कहारिन की बेटी रामरती के साथ एक दिन सवेरे छपरा वाली पैसेन्जर से बलिया गयीं। मास्टर साहब के चुप्पे इधर-उधर से बचा कर लगभग तीन हजार रुपया चोरौंधा इकट्ठा कर रखा था उन्होंने। उसे भी लेती गयीं। सुबह से शाम तक जाने कितनी दुकानें छान चुकने के बाद उन्होंने दुल्हन के लिए एक चटक लाल, बड़े-बड़े छापे वाली बनारसी साड़ी तथा सोने के बड़े-बड़े झालरदार झुमके खरीदे।

‘‘अरे ! शादी, बियाह के घर में दुनिया भर का तो काम फैला रहता है। कोई अपने जइसे जिम्मेदारी से काम करने वाली दाई भी तो होनी चाहिए। अकेली बहू क्या-क्या सॅंभालेगी भला ?’’ एक दिन दोपहर में बैठे-बैठे अचानक मास्टर साहब को टोका उन्होंने।

‘‘तो...? तो तुम काहे परेशान हो रही हो ? जिसके बेटे की शादी है वह करेगा नौकर, दाई की व्यवस्था।’’

‘‘आप तो अइसे बात कर रहे हैं जैसे हम कोई गैर हैं। मैं ई कह रही थी कि काहे ना अपने साथ रमरतिया को भी लेते चलें। रहेगी वहाॅं तो काम-धाम में हाथ बॅंटायेगी, गीत-गवनई करेगी और कुछ नेग-चार भी पा जाएगी।’’

‘‘ठीक है जैसा तुम समझो। चलो दो की जगह तीन लोगों का रिजर्वेशन करा लेते हैं।’’ मास्टर साहब ने कहा और चाची के कहे अनुसार तीन लोगों का रिजर्वेशन करा आए।

‘‘अरे ! पूजा-पाठ के लिए शुद्ध देशी घी भी तो चाहिए होगा। पता नहीं वहाॅं शुद्ध घी मिले कि नहीं मिले। सुना है शहर में घी में चर्बी मिला कर बेचते हैं सब।’’ सहसा ध्यान आया तो फिरंगी अहीर के घर से खरीद कर चार किलो के ड़िब्बे में देशी घी मॅंगावाया उन्होंने।

ऐसे ही महीना भर पहले से जैसे-जैसे याद आता गया एक-एक सामान मॅंगाती गयीं, जुटाती गयीं और सहेजती गयीं सावित्री चाची। जाने की तिथि आते-आते इतने अधिक सामान हो गए कि उन्हें सही-सलामत कानपुर तक ले जाना एक समस्या हो गयी।

ढ़ेर सारे सामानों से लदी-फदी सावित्री चाची रमरतिया और मास्टर साहब के साथ शादी से छः दिन पहले ही कानपुर पॅंहुच गयीं। वहाॅं ए0ड़ी0एम0 साहब के सरकारी आवास में आॅंगन के दूसरे छोर पर एक स्टोर रूम था। सावित्री चाची और रमरतिया को उसी में ठहराया गया। गाॅंव से लाए सूप, दउरी, ड़ाल, सिंधोरा आदि उटपटाॅंग चीजों को देख कर साहब की बीबी तो केवल मुॅंह बिचका कर रह गयीं लेकिन उनकी छोटी बेटी ने कह ही दिया-‘‘अरी दादी ! यह सब क्या आलतू-फालतू सामान ले आयी हैं आप।’’

‘‘अरी नन्हकी ! ई सब आलतू-फालतू नहीं बहुत जरूरी चीजें हैं बेटी। शादी में रसम-रसम पर जरूरत पड़ती है इन चीजों की।’’

‘‘दादी प्लीज ! मेरा नाम तृप्ति है। तृप्ति कह कर बुलाइए। यह नन्हकी, फन्हकी पसंद नहीं है मुझको।’’ ए0डी0एम0 साहब की बेटी ने तुनक कर कहा और गुस्से में पाॅंव पटकती चली गई।

‘‘ई देखो नन्हकी को....। अभी काल्ह तक दादी, दादी किए गोदी में चिपकी रहती थी.....किस्सा-कहानी सुनाने के लिए नाक में दम किए रहती थी....और आज अंग्रेजी बतिया रही है।’’ पोती की बात को उन्होंने हॅंसी में उड़ा दिया।

‘‘अरे ! शादी-बियाह का घर ऐसा होता है कहीं....? ना गाना ना बजाना, ना रिश्तेदारों, नातेदारों की भीड़, ना कोई तैयारी। कहीं कोई सुनगुन ही नहीं है। सारे लोग हाथ पर हाथ धरे ऐसे आराम से बइठे हैं जैसे कोई बात ही न हो।’’ ए0डी0एम0 साहब के घर का रंग-ढ़ंग देखा तो सावित्री चाची रामरती से बोलीं।

‘‘हाॅं ईआ, यहाॅं तो लगता ही नहीं है कि पाॅंच दिन के बाद इस घर में शादी होने वाली है। पता नहीं बड़े शहर में शादी ऐसे ही शान्ती से होती है क्या।’’ रामरती ने उनकी हाॅं में हाॅं मिलायी।

ए0ड़ी0एम0 साहब के घर में व्याप्त शान्ति और निश्चिन्तता को देख कर सावित्री चाची के आश्चर्य का ठिकाना न था। सर्वाधिक आश्चर्य उनको इस बात से थी कि किसी ने भी उनके लाए सामानों में रुचि नहीं दिखलायी। वह चाह रही थीं कि बहू और पोतियाॅं आ कर पूछें कि वह गाॅंव से क्या-क्या ले आयी हैं। फिर वह अपने साथ लाए एक-एक सामान सभी को दिखायें और वे सभी उन सामानों की प्रशंसा करें। लेकिन यहाॅं तो जैसे किसी को फुरसत ही नहीं थी। कोई मतलब ही नहीं था। सब अपने-अपने में मस्त और मगन थे। सवेरे जब वह लोग यहाॅं पॅंहुची थीं बस तभी एक बार बहू उनके कमरे में आयी थी और उनकी चारपाई, बिस्तर आदि का प्रबन्ध करने के बाद जो गई तो फिर दुबारा उनके कमरे में झाॅंकने तक नहीं आयी। दोनों पोतियाॅं भी बस तभी एक बार दिखी थीं। उनको नमस्ते करने आयी थीं। उसके बाद किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली। झाड़ू-बुहारू से ले कर खाना बनाने, और परस कर खिलाने तक हर काम के लिए दाई, नौकर लगे थे। वे समय-समय पर चाय, नाश्ता और खाना उनके कमरे में ही पॅंहुचा दिया करते थे।

सारा दिन उन्होंने जैसे-तैसे काटा। लम्बी यात्रा की थकान होने के कारण थोड़ी देर आराम किया। लेकिन मन नहीं माना तो शाम होते ही शादी की तैयारियों का जायजा लेने निकल पड़ीं। ‘‘अरी बहू ! मर-मसाला कूटना हो, चावल बीनना, फटकना हो, गेहूूॅं धोना, सुखाना हो, आटा, बेसन चालना, रखना हो या धोती, साड़ी बगैरह रंगना-रंगाना हो.....जो भी काम बाकी रह गया हो बताओ। मैं इसी सब के लिए तो रमरतिया को अपने साथ ले आयी हूूॅं।’’

‘‘नहीं अम्मा जी.....कोई काम नहीं है। कैटरर को ठेका दे दिया गया है। वही करेगा सब इन्तजाम।’’ बहू ने कहा तो मुॅंह ताकती रह गयीं वह।

‘‘ठेका....? किस बात ठेका दी हो बहू.....?’’

‘‘अरी अम्मा जी, शादी के एक दिन पहले से ले कर एक दिन बाद तक के चाय, नाश्ता, खाना, पीना सभी चीज का ठेका एक हलवाई को दे दिया गया है। वही सब इन्तजाम करेगा। खुद ही सामान भी ले आएगा और बनाएगा, खिलाएगा भी। हमें कुछ नहीं करना है। बस पैसा दे देना है उसको।’’

‘‘अच्छा....? तो नाश्ता, खाना का भी ठेका होता है...?’’

‘‘हाॅं अम्माजी। यहाॅं शहर में तो शुरू से अंत तक पूरी शादी के खाने-पीने का ठेका हो जाता है। हलवाई को बस ये बताना होता है कि किस टाइम खाने या नाश्ते में कौन सी चीज चाहिए।’’

‘‘फिर तो हलवाई बाजार का गंदा-संदा, शुद्ध-अशुद्ध जो चाहे बनाए, खिलाए....। लाख मन घिनाए खाना ही पड़ेगा।’’

‘‘तो क्या किया जाय। जब सारे रिश्ते-नाते के लोग जुटेंगे तो इतने ढ़ेर सारे लोगों के लिए बनाना और खिलाना-पिलाना कौन करता भला ? घर के किचन में इंतजाम भी तो मुश्किल था। सो हलवाई को सहेज दिया गया है।’’

‘‘हाॅं भाई तुम लोग नए जमाने की बिटिया, बहुरिया हो। नया रीति-रिवाज है। नही तो हमारे समय में एक बारात के बराबर हीत-नात का खाना, नाश्ता तो घर की औरतें ही सॅंभाल लेती थीं। हफता, दस दिन पहिले से ही जुट जाते थे लोग और हफता भर बाद तक रहते थे।’’

बहू ने कोई उत्तर नहीं दिया। उनके सामने से हट कर अपने कमरे में चली गई।

‘‘अरी बहू ! मुन्नू नहीं दिख रहा है....। अभी आया नही क्या बम्बई से ?’’ थोड़ी देर बाद अचानक ध्यान आया तो पूछा सावित्री चाची ने।

‘‘ना अम्मा जी.....वह पन्द्रह तारीख को वहाॅं से चल कर सोलह को पॅंहुचेगा यहाॅं।’’

‘‘क्या....? सत्रह को उसकी शादी है और सोलह को आएगा वह। तो फिर तिलक कब होगा, हल्दी कब चढ़ेगी....? हल्दी की साइत तो चैदह तारीख की शाम को ही है। मैं भरत पंड़ित से हर रसम की साईत लिखा कर ले आई हूॅं।’’

‘‘अब क्या करें अम्मा जी। बेचारे को छुट्टी ही नहीं मिली तो कैसे आता भला। उसी दिन सोलह को ही जल्दी-जल्दी हो जाएगा सारा रस्म।’’

‘‘अरे वाह रे वाह....। भला ऐसी भी कौन सी नौकरी है जिसमें शादी के लिए भी छुट्टी नहीं मिलती। रसम, रिवाज सगुन-साइत से होता है कि ऐसे ही मनमाना जब चाहा जैसे चाहा कर लिया। कोई मुसलमान, क्रिस्तान की शादी है क्या...? भाई तुम लोगों का तो कोई हिसाबे समझ में नहीं आ रहा है।’’ सावित्री चाची विफर पड़ीं। मूड़ आफ हो गया उनका।

अब क्या करें सावित्री चाची और क्या करे रमरतिया। यहाॅं तो करने को कुछ था ही नहीं। बस खाओ, पीओ और पड़ कर सो रहो। इतना ही काम रह गया था उनके जिम्मे। अगले दिन से एक-एक पल पहाड़ हो गया उनके लिए। समय काटे नहीं कट रहा था। वो तो अच्छा हुआ कि रमरतिया को साथ लेते आयी थीं तो बोलने, बतियाने का एक सहारा हो गया था। वरना यहाॅं तो बात करने की भी फुरसत नहीं थी किसी के पास। हर कोई अपने में व्यस्त और मस्त था। ‘ठीक कह रहे थे मास्टर साहेब....सोलह तारीख को ही आना चाहिए था मुझे। जब कोई रसम, रिवाज ही नहीं होना है, तो बेकार इतनी जल्दी आ गयी।’ मन ही मन पछताने लगी थीं सावित्री चाची। यहाॅं हाथ पर हाथ धरे खाली बैठी रमरतिया भी ऊबने लगी थी। न कोई काम न धाम बस तीनों टाइम खाओ और आलसी की तरह कमरे में पड़े रहो। हाॅं मास्टर साहब को जरूर आराम हो गया था। रोज सुबह तीन-चार अखबार तथा पत्रिकायें मिल जाती थीं उनको। सारे दिन वे उसी में ड़ूबे रहते थे और सुबह-शाम पड़ोस में स्थित पार्क में टहल आते थे।

जैसे-तैसे चार दिन का समय कटा। पन्द्रह तारीख की शाम से ले कर सोलह तारीख की दुपहर तक के बीच ए0डी0एम0 साहब की सास, ससुर, सालों, सरहजों, सालियों, साढ़ुओं और उनके दर्जन भर बच्चों से पूरा घर भर गया। साहब की पत्नी और उनकी दोनों बेटियाॅं उन सब के साथ ऐसे घुल-मिल गयीं जैसे पानी में दूध। फिर तो पूरे घर में ए0डी0एम0 साहब के ससुराल वालों का ही साम्राज्य हो गया। सावित्री चाची और रमरतिया कुजात की तरह एक कोने में पड़ी रहीं। वो तो कहो सोलह तारीख को दोपहर में सावित्री चाची की बेटी रेखा आ गयीं तो कुछ राहत महसूस हुयी उन्हें।

सोलह को ही दोपहर बाद वह कमरे में अपनी बेटी रेखा तथा रमरतिया के साथ बैठी बातें कर रही थीं कि अचानक ‘‘भैया आ गया....भैया आ गया’’ का शोर सुनायी पड़ा। रमरतिया को बाहर भेज कर पता कराया तो मालुम हुआ कि बम्बई से मुन्नू बाबू यानी नवीन प्रकाश आ गए है। पोते को देखने के लिए बेचैन सावित्री चाची अपने आप को रोक नहीं सकीं। वह जैसे थीं वैसे ही दौड़ पड़ीं। अपनी सगी, ममेरी और मौसेरी बहनों से घिरा मुन्नू बरामदे में खड़ा था।

‘‘अरे मुन्नू ! तू इतना बड़ा हो गया रे। पूरे छः साल के बाद देख रही हूॅं तुझे.....। सच, तुझे देख कर आॅंखें जुड़ा गयीं मेरी। मेरा लाल....मेरा हीरा....मेरा धन...इधर आ तो जरा।’’ यह कहते हुए पोते को धधा कर कलेजे से लगा लिया सावित्री चाची ने। पोता भी दादी के सीने से यूॅं चिपक गया जैसे दूध पीता बच्चा हो। दादी और पोते का यह मिलन देख कर वहाॅं खड़ीं उसकी बहनें मुॅंह पर हाथ रख फी...फी फी...फी करके हॅंस पड़ीं।

अब शादी को एक ही दिन बचा था। एक दिन में ही सारी रस्में पूरी करनी थीं। सावित्री चाची को आतुरता थी कि जल्द से जल्द एक-एक कर के सभी रस्में निपटाई जायें लेकिन वहाॅं कुछ सुनगुन ही नहीं हो रहा था। कोई साॅंस ही नहीं ले रहा था। आखिर कब तक चुप रहतीं वह। शाम होते ही फट पड़ीं-‘‘अरी बहू ! यह कैसी शादी हो रही है....? मुझको तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। न हल्दी न मटकोड़ न संझा-पराती न पीतर न्यौताई....कोई रसम ही नहीं हो रहा है। एकदम्मे से फिरंगी हो गई हो क्या तुम लोग। शादी-ब्याह का शुभ काम ऐसे होता है क्या कहीं....? मुन्नू कहाॅं है....बुलाओ कम से कम हल्दी तो लग जाए....चुमावन तो हो जाए। पाॅंच बार हल्दी लगनी है अब से कल तक के बीच।’’

‘‘अम्मां जी...मुन्नू तो अपनी बहनों के साथ बाजार गया है.....शापिंग करने।’’ मुन्नू की मम्मी ने बताया।

‘‘बाजार गया है....? ई का हो रहा है भाई.....? कल उसकी शादी है और आज वह बाजार घूम रहा है....? लगन लगने के बाद दुल्हे को बाजार-हाट जाना चाहिए....? तुमको मालुम नहीं क्या....? हद्द हो गयी। तुम लोग तो बिल्कुल अंगरेज हो गई हो जैसे....?’’

बहू के ऊपर जी भर बरस चुकने के बाद सावित्री चाची ने आॅंगन के एक कोने में चटाई बिछाई और रमरतिया के साथ बैठ कर देवी, देवताओं और पीतरों को न्यौतने का गीत शुरू कर दीं-‘‘गइया के गोबरा महादेव अॅंगना लिपाइ। सुनीं हे शिव। शिव के दोहाइ। सुनीं हे शिव। गज मोतिया हे महादेव चउका पुराइ। सुनीं हे शिव। शिव के दोहाइ....।’’ साथ देने के लिए कोई भी नहीं आया। रमरतिया के संग सगुन के रूप में पाॅंच गीत गा कर वह उठ गयीं।

सवित्री चाची बात बे बात टोका-टाकी करती रहीं लेकिन किसी को भी उनकी परवाह नहीं थी। सत्रह तारीख की दोपहर में बस नाम करने के लिए जल्दी-जल्दी दो-चार रस्में हुयीं और शाम होते ही सारी औरतें और लड़कियाॅं सजने, सॅंवरने में जुट गयीं। बारात लखनऊ जानी थी। थोड़ी देर में एक दर्जन से अधिक छोटी, बड़ी गाड़ियाॅं दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गयीं। घर के अंदर सावित्री चाची और रमरतिया तथा बाहर दो चैकीदारों को छोड़ कर बाकी सारे के सारे मर्द, औरतें, लड़के, लड़कियाॅं बारात में चले गए। सावित्री चाची द्वारा यहाॅं-वहाॅं से जुटा कर बड़े शौक से गाॅंव से ले आए सामानों की तरफ किसी ने देखा तक नहीं। कमरे के एक कोने में रखे सूप, दउरी, ड़ाल, सिन्होरा उनको मुॅंह चिढ़ाते रहे। सारी रात बिस्तर में पड़ी करवटें बदलतीं तथा बदले जमाने को कोसती रहीं वह। बगैर किसी रस्म-रिवाज और विधि-विधान के जैसे यह शादी हो रही थी उसे पचा नहीं पा रही थीं सावित्री चाची। शादी न हो नाटक-तमाशा हो जैसे....गुड्डे, गुड़ियों का खेल हो जैसे।

अगले दिन सवेरे नहा-धो कर वह पूजा पर बैठने ही जा रही थीं कि बाहर शोर हुआ। पता चला कि बारात लौट आयी है। अपने आप को रोक नहीं पायीं वह। उन्होंने रमरतिया से दोनों दउरी ले चलने को कहा और उसके साथ बाहर गेट की तरफ दौड़ पड़ीं। वह अपनी बहू को बताने जा रही थीं कि नई दुिल्हन को घर में ऐसे ही नहीं लाया जाता है। दरवाजे पर परिछावन कर के दउरी में डेग ड़लवाते हुए दुल्हा, दुल्हन दोनों को एक साथ कोहबर तक ले आया जाता है। लेकिन यह क्या जब तक वह बाहर बरामदे तक पॅंहुचीं तब तक नवीन की बहनें दुल्हन को कार से उतार कर घर के अंदर ले जा चुकी थीं। नई उमर की लड़कियाॅं और लड़के दुल्हन को चारों तरफ से घेरे हुए थे। हॅंसी-मजाक, चुहलबाजी करते लड़कों और लड़कियों की झुण्ड़ के पीछे खड़ीं सावित्री चाची अपनी बहू यानी नवीन की माॅं को ढूॅंढ़ती रहीं लेकिन उनका कहीं अता-पता नहीं था। पूछने पर मालूम हुआ कि उनकी वाली कार अभी वापस नहीं आयी थी।

ढ़ेर सारे लड़के-लड़कियों के शोर-गुल में पूरी तरह अप्रासंगिक बनी सावित्री चाची एक किनारे खड़ीं भकुए की तरह तमाशा देखती रहीं। उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। हार कर सभी को कोसतीं, बड़बड़ातीं वह गाॅंव से लायी दोनों दउरी लिए रमरतिया के साथ अपने कमरे में लौट आयीं।

गुस्से में भरी सावित्री चाची ने सोच लिया था कि अब वह कुछ नहीं बोलेंगी। किसी से बात तक नहीं करेंगी। जो मन करे, जैसे मन करे वैसे करें सब। लेकिन उनका गुस्सा कुछ ही समय में कपूर की तरह उड़ गया। उनका मन पोते की बहू को देखने के लिए ललचाने लगा। समस्या यह थी कि इसके लिए कहें तो किससे कहें। बिन बुलाए जाने में उन्हें अपमान लग रहा था। वैसे ही वह बहुत अपमानित महसूस कर रही थीं कि पूरी शादी निपट गयी और किसी ने उनसे कुछ पूछा तक नहीं। उनकी इच्छा थी कि नवीन की माॅं आयें और उन्हें बाइज्जत ले जा कर बहू की मुॅंह दिखायी की रस्म करायें। लेकिन सारे घर में सन्नाटा सा पसरा हुआ था। औरतें, मर्द, लड़कियाॅं, बच्चे सारे लोग यहाॅं-वहाॅं पसरे रात के जागरण की खुमारी उतार रहे थे। मन मारे वह चुपचाप अपने कमरे में पड़ी रहीं।

आखिर दोपहर बाद उन्हें दुल्हन देखने का बुलावा आया। मुन्नू की माॅं आयीं और बोलीं-‘‘चलिए अम्मा जी अपने पोते की बहू देख लीजिए।’’ वह तो जैसे इसी की प्रतीक्षा में बैठी ही थीं। झट मुॅंह दिखायी के लिए लाया सारा सामान साड़ी, ब्लाउज, चूड़ी, टिकुली, आलता, महावर, कंघी चोटी और सोने के झुमके का सेट आदि ले कर वह दुल्हन देखने जा पॅंहुचीं। दुल्हन ने लपक कर पाॅंव छुए तो वह निहाल हो उठीं। मखमल के ड़िब्बे से झुमके तथा पालीथीन के पैकेट से साड़ी, ब्लाउज निकाल कर अन्य सामानों के साथ दुलहन की गोद में रखते हुए वह बहुत चिरौरी करती सी बोलीं-‘‘दुलहिन ! हम तो दो दिन बाद वापस गाॅंव चले जायेंगे। हमारी लायी साड़ी, कपड़ा, झुमका, चूड़ी एक बार हमारे सामने पहन लेती तुम तो देख कर हमारा जी जुड़ा जाता। मेरा इतने शौक से खरीदना सवारथ हो जाता।’’ सिर झुकाए खामोश बैठी दुल्हन ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन उसको घेर कर बैठीं लड़कियाॅं ही..ही..ही..ही कर के जोर से हॅंस पड़ीं। मानो उन्होंने कोई बहुत बड़ी बेवकूफी भरी बात कह दी हो सावित्री चाची ने।

‘‘अरी दादी ! ये क्या उठा लायीं। इतना डार्क रेड़ कलर और उस पर इतने बड़े-बड़े प्रिंट....? ऐसी साड़ी भला कौन पहनता है आजकल।’’ नवीन की बड़ी बहन दीप्ति बोली।

‘‘और दादी, आप के जमाने के इतने बड़े झुमकों का भी फैशन नहीं रहा अब। आजकल तो लटकन वाले छोटे-छोटे टप्स का फैशन है।’’ दीप्ति से छोटी तृप्ति ने कहा।

‘‘कोई बात नहीं....झुमके काफी वजनी हैं। इन्हें बदल कर तीन नहीं तो दो टप्स तो आराम से आ जायेंगे।’’ नवीन की मौसेरी बहन झुमकों को हथेली पर रख कर उसका वजन अंदाजते हुए बोली।

दीप्ति ने दुल्हन की गोद में रखा दादी का दिया सारा सामान उठा कर बड़ी बेमरौव्वत से एक तरफ रख दिया। जल-भुन कर रह गयीं सावित्री चाची। इन छोकरियों को भला क्या पता कि कितने मन से, कितनी साध से घंटों बाजार में भटकने और दर्जनों दुकानें छानने के बाद ये सारी चीजें खरीदा था सावित्री चाची ने। असहज और अपमानित तो वह जिस दिन से आयी थीं उसी दिन से महसूस कर रही थीं लेकिन अब तो हद हो गयी। कितने अरमानों से आयी थीं पोते की शादी के लिए। कितने मन से एक-एक चीजें जुटा कर ले आयी थीं। परिवार में सबसे बड़ी, बुजुर्ग थीं इसलिए उन्हें उम्मीद थी कि हर काम, हर रस्म उनसे पूछ-पूछ कर उनके कहे अनुसार होगा। लेकिन यहाॅं तो जैसे किसी को उनकी जरूरत ही नहीं। झूठ-मूठ, मुॅंह छूने के लिए भी किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। बिना रीति-रीवाज, बिना पूजा-पाठ, बिना रसम पूरा किए चट-पट कब शादी निपट गयी कुछ पता ही नहीं चला। ‘चलो, यही आना आखिरी आना होगा मेरा। परकाश की इन दोनों बेटियों की शादी में नहीं आऊॅंगी मैं। लाख बुलाए तो भी नहीं। एक बार में ही मन भर गया। चाहे जो भी हो जाए यहाॅं अब दोबारा नहीं आना है अपमानित होने के लिए।’ सावित्री चाची ने मन ही मन संकल्प किया और अगले ही दिन गाॅंव वापसी के लिए मास्टर साहब से जिद करने लगीं।

‘‘क्या कह रही हो....कि कल वापस लौट चलें ? भला कल वापस चलना कैसे हो पाएगा ? कल तो रिसेप्सन है। रिसेप्सन यानी बहूभोज। और अपना रिजर्वेशन तो परसों रात की गाड़ी में है।’’ मास्टर साहब ने बताया तो मन मार कर दो दिन और रूकना पड़ा सावित्री चाची को।

अगले दिन रात को बॅंगले के बाहर विशाल लाॅन में तने खूबसूरत पाण्ड़ाल में रिसेप्सन का आयोजन था। फूलों से सजे मंच पर दुल्हे-दुल्हन की कुर्सियाॅं लगी थीं। आमंत्रितों की अच्छी-खासी भीड़ आ चुकी थी। दुल्हा-दुल्हन भी आ कर कुर्सियों पर बैठ चुके थे। लोगों का आना-जाना, मिलना-जुलना, नाच-गाना, हॅंसी-मजाक, खाना-पीना चल रहा था। हर तरफ वीड़ियोग्राफी हो रही थी। केमरों के फ्लैश लगातार चमक रहे थे। वहाॅं सभी उपस्थितों की निगाहें दुल्हे-दुल्हन पर लगी थीं। लेकिन दुल्हे यानी नवीन प्रकाश की निगाहें भीड़ में किसी और को ही तलाश रही थीं। वह कुछ देर तक मंच के सामने रखे सोफों और कुर्सियों पर निगाहें दौड़ाता रहा फिर चुपचाप उठा और मंच से उतर कर किसी को कुछ बताए बगैर कहीं चला गया। लोगों ने सोचा शायद टायलेट के लिए गया होगा। पाॅंच मिनट बीता, दस मिनट बीता, पन्द्रह फिर बीस मिनट बीत गये दुल्हा लौट कर नहीं आया। मंच पर दुल्हन अकेली बैठी थी और दुल्हा नदारद। सभी को चिन्ता होने लगी कि अचानक वह गया तो कहाॅं गया। सभी की परेशान निगाहें उसे इधर-उधर तलाश रहीं थीं कि तभी अपने दोनों हाथों से दादी को थामे वह बॅंगले के अंदर से आता दिखायी दिया। जो जहाॅं था वहीं काठ बना देखने लगा। दादी को पकड़े वह मंच पर आया और उन्हें दुल्हन के बगल में यानी अपनी कुर्सी पर बिठा कर स्वंय उसके हत्थे पर बैठ गया। सावित्री चाची ने दुल्हन को देखा तो सहसा अपनी आॅंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ उन्हें। दुल्हन उनके द्वारा ले आयी बड़े छापे की लाल बनारसी साड़ी, हाथों में उन्हीं की लायी लाल, हरी कामदार चूड़ियाॅं तथा कानों में उनके लाए बड़े-बड़े झुमके पहने बैठी थी। अपनी दोनों आॅंखें मल कर उन्होंने एक बार फिर देखा। आॅंखें फैला कर तिबारा देखा। इतने में दुल्हन उठी और अपने हाथों में आॅंचल का छोर ले कर पूरे आदर के साथ झुक कर दादी के पाॅंव छूने लगी। फिर उसके बाद तो अपने आप को सॅंभाल नहीं सकीं सावित्री चाची। उनकी दोनों आॅंखें सावन के उमड़े बादलों की तरह झरने लगीं।

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