करोना का बोया ज़हर

लेख

Akhilesh Srivastava Chaman

4/17/20201 मिनट पढ़ें

इस देश भारत वर्ष उर्फ हिन्दुस्तान में हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के लोगों का सह-अस्तित्व किसी बहुत बड़े अजूबे से कत्तई कम नहीं है। दोनों सर्वथा विपरीत, फिर भी एक साथ। एक उगते सुर्य को नमन करता है तो दूसरा चाॅंद को। एक पूरब दिशा में मुॅंह कर के आराधना करता है तो दूसरा पश्चिम की ओर। एक तैंतिस हजार कोटि देवी-देवताओं के अस्तित्व में विश्वास करता है तो दूसरा सिर्फ एक अल्लाह के अतिरिक्त किसी को भी स्वीकार नहीं करता। मत-विश्वास, खान-पान, रीति-रिवाज और रहन-सहन में अपार विभिन्नताओं के बावजूद दोनों सम्प्रदायों के लोग एक-दूसरे की आवश्यकता बनें सदियों से साथ-साथ रहते चले आ रहे हैं। लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि महामारी कोरोना ने इनके सह-अस्तित्व पर ग्रहण सा लगा दिया है।
लाख मत भिन्नता और टकराव के बावजूद सच्चाई यही है कि आम हिन्दू और आम मुसलमान साम्प्रदायिक नहीं है। दोनों ही समुदायों में सम्प्रदाय के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले अधिकतम दस प्रतिशत लोग ही हैं जो शेष नब्बे प्रतिशत शांति और सद्भाव के समर्थको के सम्मुख सदैव से हारते रहे हैं। जिन्ना की लाख कोशिशों के बावजूद देश के आम मुसलमान ने मुस्लिम लीग के विद्वेष को समर्थन नहीं दिया। स्वतंत्रता के बाद भी अनेक मुस्लिम नेता थे जो आजीवन दोनों समुदायों के सह-अस्तित्व की पौध को सींचते रहे। यदि थोड़ा पीछे चलें तो भी हम सह-अस्तित्व की ऐसी ही स्थिति पाते हैं। बाबर और राणा सांॅंगा के बीच हुयी लड़ाई में सुलतान महमूद लोदी और मेवात के हसन खाॅं राणा के साथ थे। इसी प्रकार अफगानों की सेना का सेनापति हेमू हिन्दू था। हिन्दूओं के कट्टर विरोधी औरंगजेब की सेना में भी कई सेनापति हिन्दू थे। राणा प्रताप और शिवाजी की सेना में भी बडें पदों पर मुसलमान नियुक्त थे। लेकिन यह साझी विरासत आज गंभीर खतरे में है।
हिन्दू और मूस्लिम दोनों ही समुदायों के कुछ कट्टरपंथी उपद्रवी समय-समय पर साम्प्रदायिकता की आग भड़काते रहते हैं, कुछ समय के लिए वे आंशिक रूप से सफल भी हो जाते हैं लेकिन फिर दोनों ही समुदायों के आम जन नफरत की धूल झाड़ कर एक साथ चल पड़ते हैं। लेकिन कोरोना की महामारी और इसकी आड़ में तबलीगी जमात के लोगों ने कुछ ही दिनों में वह काम कर दिया है जो साम्प्रदायिक कट्टरपंथी पिछले सत्तर सालों में नहीं कर सके थे। जमातियों का अपने धार्मिक जमावड़े में जाने और उनके संक्रमित हो जाने तक तो उनका दोष नहीं कहा जा सकता लेकिन उसके बाद उनके द्वारा की जा रहीं हरकतें आम हिन्दुओं के मन में उनकी मंशा को ले कर प्रश्न खड़ा करने लगी हैं। लाख अनुरोध और चेतावनी के बाद भी उनका मेडिकल जाॅंच के लिए सामने न आना, अस्पतालों में इधर-उधर थूकना, नंगे घूमना, नर्सों के साथ अश्लील हरकतें करना, ड़ाक्टरों से बदतमीजी करना, पुलिस पर हमले करना, चिकित्सा में सहयोग नहीं करना, लाक डाउन के बावजूद भीड़ में एकत्र हो कर नमाज पढ़ना आदि ऐसे कृत्य हैं जो गैर मुसलमान जनता में न सिर्फ जमातियों बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के प्रति गुस्सा, नफरत और अविश्वास पैदा कर रहे हैं।
जमातियों की गैरजिम्मेदाराना हरकतें तो चिंताजनक हैं ही उससे अधिक चिंताजनक हैं मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों तथा मौलानाओं द्वारा उनका समर्थन करना। मौलानाओं तथा पढ़े लिखे मुसलमानों को चाहिए था कि वे जमातियों के कृत्यों की निंदा करते और उनको चिकित्सकों तथा प्रशासन के साथ सहयोग करने के लिए समझाते। लेकिन उल्टे उनके गलत कृत्यों का बचाव कर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने भारत के आम मुसलमान का बहुत ज्यादा अहित किया है। मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाने के लिए अवसर की ताक में रहने वालों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया है। साम्प्रदायिक विद्वेष की सूख रही फसल को जैसे नया जीवन मिल गया है। सदैव तटस्थ और साम्प्रदायिकता से उदासीन रहने वाले अधिकांश हिन्दुओं के मन में भी आज मुसलमानों के लिए आक्रोश भर रहा है। दुःख की बात है कि इस आक्रोश और साम्प्रदायिक विद्वेष का सर्वाधिक नुकसान मुस्लिम समुदाय के उस वर्ग को होगा जो रोज कुॅंवा खोद कर पानी पीने वाला है। स्थिति यह है कि आज आम हिन्दू मुसलमान फल वालों, सब्जी वालों और छोटे दुकानदारों से सामान खरीदने से कतराने लगे हैं। ताज्जुब नहीं यदि स्थिति सामान्य होने पर हिन्दू समुदाय के लोग मुसलमान नाई, दर्जी, मिस्त्री और दुकानदारों से भी बचने लगें। यदि मुस्लिम नेता, मौलाना और बुद्धिजीवी अभी भी स्थिति सॅंभालने के लिए सामने नहीं आए तो करोना के बहाने तबलीगियों ने जो जहर बो दिया है वह मुस्लिम समुदाय के लिए बहुत नुकसानदायक होने वाला है।

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