छूत

लघु कथा

Akhilesh Srivastava Chaman

6/3/20221 मिनट पढ़ें

वे दोनों पतंगे महानगर में पैदा हुए थे तथा महानगर में ही पले, बढ़े और जवान हुए थे। वे दोनों बचपन से ही अपने बड़े, बुजुर्गों के मुॅंह से दीपक और पतंगे के अमर-प्रेम की कहानियाॅं सुनते चले आ रहे थे। उन्होंने सुन रखा था कि दीए के साथ पतंगे का प्रेम सनातन है। उन्होंने सुन रखा था कि जहाॅं कहीं भी आदर्श प्रेम की चर्चा होती है दीए और पतंगे के प्रेम का ही उदाहरण दिया जाता है। उन्होंने सुन रखा था कि हॅंसते-हॅंसते दीए की लौ में जल कर अपना प्राणोत्सर्ग कर देना उनकी जातीय परम्परा है। उन्होंने सुन रखा था कि दीए के बगैर पतंगे का जीवन अधूरा और निरर्थक है। अतः उन दोनों की हार्दिक इच्छा थी कि वे भी किसी दीए से प्यार करें, उसकी गरमाई का अद्भुत आनन्द लें, और अंततः उसकी लौ में जल कर अपनी जातीय परम्परा का निर्वहन करें। लेकिन समस्या यह थी कि प्यार करने के लिए उन्हें दीया कहाॅं से मिले। उन्होंने तो आज तक दीए की शक्ल भी नहीं देखी थी। महानगर में तो हर तरफ बिजली के छोटे बड़े बल्ब, मरकरी राड़, तथा सोडि़यम और हैलोजन लाइटें जगमगा रही थीं। उन्होंने अपने समाज के बड़े-बुजुर्गों से दीए की हुलिया पूछी, उसके रूप, रंग आकार, प्रकार तथा संभावित ठिकाने के बारे में जानकारी ली और प्रेम दीवाने दोनों सिर पर कफन बाॅंध कर दीए की तलाश में निकल पड़े।

महानगर की सीमा छोड़ वे दोनों गाॅवों की तरफ उड़ चले। लम्बी यात्रा के बाद आखिरकार उन्हें गाॅंव के बाहर, एक पुराने मंदिर की दहलीज पर अपनी पूरी मस्ती में लहराता एक नन्हा सा दीया दिखलायी पड़ा। दोनों मारे खुशी के उछल पड़े, उनकी रास्ते की थकान छू-मंतर हो गयी और अगले ही पल वे दीए के करीब पॅंहुच गए।

दीए की आॅंच अपनी जवानी पर थी। वे दोनों काफी देर तक दीए की झूमती, लहराती लौ के साथ छेड़छाड़ करते, उसके चारों तरफ चक्कर काटते और उसकी गरमाई का आनन्द लेते रहे। यूॅं ही मस्ती करते, आनन्द लेते कितना समय बीत गया इसका उन्हें ध्यान ही नहीं रहा। अचानक उन्हें लगा कि दीए की आॅंच कुछ मंद होने लगी है।

‘‘क्या बात है भई ! तुम्हारा जोश और ताप शिथिल क्यों पड़ने लगा ?’’ एक पतंगे ने दीए की लौ से प्रश्न किया।

‘‘अब मेरा अंत समय निकट है। मैं अब बस कुछ ही क्षणों की मेहमान हूॅं क्यों कि मेरा जीवन-रस यानी तेल समाप्त हो चला है।’’ दीए की बाती ने काॅंपती आवाज में जबाब दिया।

‘‘दोस्त ! अब यह दीया बुझने को है। इससे पहले कि इसकी मद्धिम पड़ती आॅंच बुझ कर धुयें में बदल जाय हमें यहाॅं से चल देना चाहिए। आओ ! कहीं अन्यत्र चलें और किसी दूसरे जवान दीए की तलाश करें।’’ एक पतंगे ने दूसरे से कहा।

‘‘अरे ! क्या कह रहा है तू ? महानगर में आदमियों की बस्ती में रहते-रहते तुम्हें भी आदमी के चरित्र की छूत लग गयी है क्या ? दोस्त ! हमें अपनी पहचान नहीं भूलनी चाहिए। हम पतंगे हैं इन्सान नहीं। दीए के साथ हमारा प्रेम आदर्श और अनन्य है। हमारा फ़र्ज यही है कि इस दीया के बुझने से पहले हम स्वयं मिट जायें ताकि हमारे आदर्श प्रेम पर कोई अॅंगुली न उठा सके।’’ दूसरे पतंगे ने आॅंखें तरेरते हुए पहले से कहा और दीए की टिमटिमाती लौ में समा गया।

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