कार बनाम सब्ज़ी

व्यंग्य

Akhilesh Srivastava Chaman

7/23/20241 मिनट पढ़ें

आज जनसंदेश टाइम्स अखबार  में छपी व्यंग्य कहानी।

ऊॅंट जब तक पहाड़ के नीचे नहीं आता, उसको गलतफहमी रहती है कि सबसे ऊॅंचा वहीं है। औकात तो तब पता चलती है जब सेर का सवा सेर से सामना होता है। पड़ोसियों सहकर्मियों और रिश्तेदारों पर रोब जमाने के लिए बैंक से कर्ज ले कर कार खरीदने के बाद मुझको भी अपनी हैसियत के बारे में कुछ ऐसी ही गलतफहमी हो गयी थी। यह बात और है कि पोर्च में खड़ी कार के सड़क पर निकलने के अवसर महीने में बस चार बार यानी हर रविवार को ही आया करते थे। वह भी इस विवशता के कारण कि कार के लम्बे समय तक खड़ी रहने से कहीं उसकी बैट्री डाउन न हो जाय। लेकिन पिछले हफ्ते कुछ ऐसा हुआ कि कार खरीदने के बाद अपनी हैसियत को ले कर बनी मेरी गलतफहमी एक झटके में दूर हो गयी।

वाकया कुछ इस प्रकार है। रविवार का दिन था। कार को टहलाने के लिए मैं बाहर निकला था। अपनी कालोनी की लेन से निकल कर मैंने मुख्य सड़क पर कार को अभी मोड़ा ही था कि अचानक सामने से सब्जी का एक ठेला आ गया। बहुत बचाने के बावजूद मेरी कार और सब्जी के ठेले में हल्की टक्कर हो गयी। गलती दोनों की ही थी। मेरी गलती यह थी कि मैंने मोड़ पर हार्न नहीं बजायी थी और सब्जी वाले की गलती यह थी कि उसने ‘हरी ताजी सब्जी ले लो.....हरी ताजी सब्जी’ की आवाज नहीं लगायी थी।

टक्कर होते ही मैं तुरन्त कार से बाहर आ गया। नुकसान दोनों का ही हुआ था। मेरे कार की दाहिनी तरफ वाली हेड़ लाइट टूट गयी थी तथा हेड़ लाइट के बगल का हिस्सा हल्का सा पिचक गया था। उधर ठेला के पलटने से सारी सब्जियॉं सड़क पर बिखर गयी थीं। कुछ सब्जियॉं कार के पहिए से कुचल गयी थीं और कुछ सड़क के किनारे स्थित नाले में चली गयी थीं।

मैं अपनी घायल कार को देखने लगा था और सब्जी वाला अपना ठेला सीधा कर के नाले में जाने से शेष रह गयीं सब्जियॉं बटोरने लगा था। अचानक मेरे दिमाग में कौंधा कि ऐसी दुर्घटनाओं के मौकों पर जो पक्ष पहले आक्रामक हो जाता है जीत उसी की होती है। अतः मैंने अक्लमंदी से काम लिया और सब्जी वाले को कुछ बोलने का मौका दिए बगैर ही उस पर पिल पड़ा-‘‘क्यों बे ! तुझे दिखायी नहीं देता है ? अंधा है क्या....?’’

‘‘बाबूजी ! मैं अंधा हूॅं तो आप ही कौन सा देख कर चल रहे थे।’’

‘‘तूने ठेले को गली में एकाएक क्यों मोड़ दिया था....?’’

‘‘आप ने मुड़ने से पहले हार्न क्यों नहीं बजायी थी...?’’

‘‘मुझे क्या पता था कि तू एकदम से सामने आ जाएगा।’’

‘‘वही बात मेरे साथ भी तो है। मुझे कोई सपना थोड़े न आ रहा था कि उधर से आप कार ले कर आ रहे हैं।’’

‘‘मेरा कम से कम हजार-बारह सौ का नुकसान करा दिया तूने.....इसे कौन भरेगा....?’’ मैं ऑंखें तरेर कर बोला।

‘‘मेरा भी तो नुकसान हुआ है। मेरी भी तो ढ़ेर सारी सब्जियांॅं नाले में चली गयी हैं। इसकी भरपाई कौन करेंगा ? देखिए बाबूजी ! गलती दोनों की ही है। ऐसा करिए कि अपना नुकसान आप बर्दाश्त करिए और अपना मैं।’’ ठेले वाले ने मामला सुलटाने की गरज से कहा।

‘‘अबे चल। बहुत चालाक बनता है तू। चुपचाप बारह सौ रुपए निकाल कर धर दे वरना जाने नहीे दूॅंगा तुझे।’’ मैंने उसे ललकारते हुए कहा और ठेले के सामने आ कर खड़ा हो गया। अपनी गली में तो कुत्ता भी शेर होता है और यहॉं मैं अपनी गली में ही था।

‘‘अच्छा...आपका नुकसान तो मैं भरूॅं लेकिन मेरा नुकसान कौन भरेगा.....?’’ सब्जी वाले ने भी तुर्की-ब-तुर्की जबाब दिया।

‘‘अरे ! बहुत होगा तेरी सौ-दो सौ की सब्जियॉं बरबाद हुयी होंगी। चल उतना पैसा तू काट ले बारह सौ में से। बाकी तो दे।’’ मैंने कहा

हम दोनों की तू-तू मैं-मैं सुन कर घटना स्थल पर मुहल्ले के कई लोग जुट आए।

‘‘छोड़िए भाई साहब....बेचारे सब्जी वाले से क्या हर्जाना लेंगें। आखिर उस गरीब का भी तो नुकसान हुआ ही है।’’ मेरे पड़ोसी वर्मा जी बोले।

‘‘वैसे ठेला वाला भी ठीक ही कह रहा है। अपना-अपना नुकसान दोनों लोग बर्दाश्त कर लीजिए।’’ दूसरे पड़ोसी शर्मा जी बोल पड़े।

‘‘अरे हॉं....ऐसे कैसे छोड़ दूॅं ? गाड़ी की मरम्मत कोई मुफ्त में हो जाएगी क्या। हर्जाना लिए बगैर हर्गिज नहीं छोड़ूॅंगा इसे।’’ मैंने दोनों पड़ोसियों को को झटक दिया।

मुहल्ले के कई दूसरे लोगों ने भी समझाया लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ा रहा। आखिरकार बीच-बचाव कर के लोगों ने रास्ता निकाला। यह तय हुआ कि पहले मैं अपनी कार की मरम्मत करा लूॅं और इस बीच सब्जी वाला भी अपने नुकसान का हिसाब लगा ले। फिर जिसका अधिक नुकसान हुआ होगा, उसे दूसरा पक्ष अपना नुकसान काट कर बाकी पैसों की भरपाई कर देगा। सब्जीवाला रोज ही हमारी गली में फेरी लगाता था अतः उसके कहीं भागने की संभावना नहीं थी।

अगले दिन मैंने कार की मरम्मत कराई। ड़ेन्ट पेन्ट कराने तथा हेड़ लाइट बदलवाने के कुल आठ सौ पच्चीस रुपए लगे थे। यहॉं भी मैंने चतुराई से काम लिया। आठ सौ पच्चीस की जगह मिस्त्री से मैंने नौ सौ पिचहत्तर यानी डेढ़ सौ रुपए अधिक का बिल बनवा लिया था। मेरा सोचना था कि सब्जी वाले के नुकसान के सौ-सवा सौ काटने के बाद भी मेरी जेब से खर्च हुआ पूरा पैसा मुझे मिल जाएगा।

वायदे के अनुसार तीसरे दिन सवेरे सब्जीवाला मेरे घर आ गया।

‘‘हॉं बाबूजी ! कितने पैसे लगे आपकी गाड़ी की मरममत में....?’’ उसने आते ही पूछा।

‘‘पूरे नौ सौ पिचहत्तर रुपए लगे हैं। चलो अपनी नुकसान के पैसे काट कर बाकी मुझको वापस करो।’’ मैंने अकड़ते हुए कहा और कार मरम्मत का पर्चा उसे थमा दिया।

ठेले वाले ने अपनी जेब से एक पर्ची निकाली, कुछ जोड़-घटाना किया और बोला-‘‘ठीक है बाबूजी। आप मुझे सात सौ पैंसठ रुपए दे दीजिए।’’

‘‘मैं तुम्हें रुपए दूॅं....? वो क्यों.....?’’

‘‘क्यों कि मेरा कुल सत्रह सौ चालिस रुपए का नुकसान हुआ है।’’ उसने कहा और अपनी पर्ची मुझे थमा दी। उस पर लिखा था-आलू दो किलो-सौ रुपए, भिण्ड़ी तीन किलो-तीन सौ रुपए, तरोई दो किलो-एक सौ साठ रुपए, टमाटर दो किलो-एक सौ साठ रुपए, परवल दो किलो-दो सौ रुपए, नीबू आठ अदद-दो सौ रुपए, हरी मिर्च एक किलो-तीन सौ रुपए और अदरक एक किलो तीन सौ बीस रुपए। कुल योग सत्रह सौ चालिस रुपए। सब्जियों के दाम पढ़ कर मेरे तो पसीने छूटने लगे थे।

ठेले वाले ने सब्जी का जो हिसाब दिखाया उसे देख कर मेरी क्या स्थिति हुयी होगी आप स्वंय अंदाजा लगा सकते हैं। वही बात थी कि ‘चौबे जी गए थे छब्बे बनने दूबे बन कर लौटे’। मैं मन ही मन पछताने लगा था कि काश ! मैंने उस दिन जिद नहीं की होती। अपना-अपना नुकसान बर्दाश्त करने का ठेले वाले का प्रस्ताव मान लिया होता। तो कम से कम इस सात सौ पैंसठ रुपए का चूना तो नहीं लगता। हॉं इस घटना (दुर्घटना) से एक सीख जरूर मिली कि आज के समय में सब्जी खाना कार रखने से ज्यादा खर्चीला शौक है।

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