सुशील के आफिस तथा नीलू और रोहित के कालेज के लिए निकल चुकने के बाद रेखा अभी नाश्ता करने के लिए बैठी ही थी कि उसके मोबाइल का रिंग टोन बजने लगा। देखा तो स्क्रीन पर कोई अनजान नम्बर चमक रहा था। एक बार मन में आया कि फोन रिसीव न करे। सारे ही दिन तो जाने कहाॅं-कहाॅं से कम्पनियों वालों के आलतू-फालतू फोन आते रहते हैं। लेकिन फिर जाने क्या सोच कर उसने फोन रिसीव कर लिया।
‘‘हाॅं जी, आप दिल्ली से रेखा जी बोल रही हैं ?’’ रेखा के हैलो करते ही दूसरी तरफ से किसी महिला की आवाज आयी।
‘‘हाॅं....मैं रेखा बोल रही हूॅं। आप कौन...?’’
‘‘मैं इलाहाबाद से बोल रही हूॅं। आप की मम्मी की तबियत बहुत खराब है। वह आप से मिलना चाहती हैं। हो सके तो आ कर मिल लीजिए।’’ बस इतनी सी सूचना देने के बाद फोन कट गया।
रेखा ने पलट कर उस नम्बर पर फोन लगाया और दूसरी तरफ से हलो होते ही प्रश्न किया-‘‘आप कौन बोल रही हैं ? क्या हुआ है मेरी मम्मी को ?’’
‘‘आप की मम्मी पिछले दो महीने से लगातार बीमार चल रही हैं। उन्होंने आप का नम्बर दे कर मुझे खबर करने के लिए कहा था।’’ उधर से महिला ने कहा लेकिन अपने बारे में उसने कुछ भी नहीं बताया।
सुन कर बेचैन हो गयी रेखा। कुछ देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रही। मन में तमाम तरह की आशंकायें उठने लगीं। पता नहीं वास्तविकता क्या है। अगर सचमुच मम्मी की तबियत ज्यादे खराब है तो भाई ने क्यों नही फोन किया ? यह अनजान महिला कौन थी ? कुछ देर तक उहापोह में पड़े रहने के बाद उसने मम्मी से मिलने जाने का मन बनाया और सूटकेश में कपड़े वगैरह रखने लगी।
‘‘सुनो, आज खबर मिली है कि मम्मी की तबियत बहुत खराब है। मैं उनसे मिलने के लिए तुरन्त जाना चाहती हूॅं।’’ शाम को सुशील के आफिस से आते ही रेखा ने मम्मी की बीमारी और उनको देखने जाने की अपनी इच्छा की बात बताई।
‘‘लेकिन अचानक ? इतनी जल्दी रिजर्वेशन कहाॅं मिलेगा। कल तत्काल में देखते हैं। मिल जाय तो परसों चली जाना।’’
‘‘कोई बात नहीं। मैं बगैर रिजर्वेशन के जनरल बोगी में ही चली जाऊॅंगी।’’
‘‘अरे हाॅं....। जनरल ड़िब्बे में घुसने तक को तो मिलेगा नहीं और ये इलाहाबाद तक चली जायेंगी। कभी देखा है जनरल ड़िब्बे में कैसे दरवाजे तक लटके रहते हैं लोग ? कोई घंटे-दो घंटे का सफर है क्या।’’
‘‘अब जैसे भी हो मुझे तो जाना ही है।’’
‘‘तो ऐसा करो कल सवेरे की ट्रेन से चली जाओ लेकिन स्लीपर में बैठ लेना। टी0टी0 बहुत करेगा पेनाल्टी ले कर टिकट बना देगा। दिन-दिन ही शाम तक पॅंहुच जाओगी।’’ सुशील ने सुझाया।
देर रात तक अपने जाने की तैयारी तथा अगले दो-तीन दिनों तक के लिए पति और बच्चों के नाश्ते, खाने आदि की व्यवस्था करने के बाद रेखा जब बिस्तर में गयी तो थकी होने के बावजूद उसकी आॅंखों में नींद नहीं थी। रात काटना पहाड़ हो गया था। दिमाग में बस मम्मी ही घूमती रहीं। उधर बिस्तर के आधे हिस्से में लेटे सुशील सब कुछ से बेखबर खर्राटे ले रहे थे। उसका मन ईष्या से भर उठा। ऐसा लगा जैसे सुशील के खर्राटे उसके औरतपन का मजाक उड़ा रहे हों। मम्मी ठीक ही कहती थीं। औरत की जाति निकृष्ट होती है। बचपन से ले कर बुढ़ापे तक माॅं-बाप से ले कर पति और बच्चों तक सभी की सुनती रहो और सभी की चिन्ता में घुलती रहो।
जैसा सुशील ने सुझाया था वैसा ही हुआ। रेखा ने सवेरे की ट्रेन पकड़ ली। ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार से आगे की तरफ भागी जा रही थी लेकिन रेखा का मन स्मृतियों की ड़ोर पकड़े पीछे और पीछे की ओर। जल्दी ही वह चालिस साल पहले के समय में गुजरने लगी थी। तीन भाई-बहनों में वह सबसे बड़ी थी। लगभग आठ साल की वह, उससे तीन साल छोटी शोभा और उससे ढ़ाई साल छोटा भाई विजय। माॅं उन दोनों बहनों और भाई के बीच हमेशा भेदभाव करती थीं। उन दोनों को सादी रोटी मिलती तो विजय को देशी घी का पराठा। उन दोनों को आधा गिलास दूध मिलता तो विजय को मलाई पड़ा पूरा भरा गिलास। उन दोनों को बहुत कहते-सुनते जेब खर्च के लिए अठन्नी, चवन्नी मिल पाती तो विजय को बगैर कहे रुपए-दो रुपए की नोट। अबोध वह अक्सर जिद पकड़ लेती थी कि विजय को चार बिस्किट मिले हैं तो वह भी चार ही लेगी, दो नहीं। या कि विजय को पूरा रसगुल्ला मिला है तो उसे भी पूरा ही चाहिए आधा नहीं। उसे विजय के बराबर चीजें तो नहीं मिल पाती थीं लेकिन मम्मी की गालियाॅं और ज्यादा जिद करने पर मार अवश्य मिल जाती थीं।
मम्मी गुस्से में होतीं तो अक्सर सुनातीं-‘‘बेहया.....हरामजादी बेटे की बराबरी करने चली है। इन्हीं से वंश चलेगा ? बुढ़ापे में यही काम आयेंगी जैसे। मरते समय मुॅंह में यही तुलसी-गंगाजल ड़ालेगी जैसे। तब तो पता नहीं कहाॅं रहेगी। मरने की खबर सुनेगी तो भी आयेगी कि कोई बहाना बना देगी।’’ उन दिनों रेखा की समझ में ये बातें बिल्कुल भी नहीं आती थीं। वह नहीं समझ पाती थी कि विजय लड़़का क्यांे हो गया और वह क्यों लड़की। विजय लड़का होने के कारण अच्छा कैसे है और वह लड़की होने से खराब क्यों ?
हाॅं पापा जरूर ऐसा नहीं करते थे। वे उन तीनों को बराबर प्यार करते थे। बल्कि उसे तो ऐसा लगता था कि पापा उसको बाकी दोनों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही प्यार करते थे। पैसा हो या कोई खाने-पीने की चीज, पापा सभी को बराबर-बराबर देते थे। मम्मी तब भी अपने हिस्से की चीजें विजय को खिला दिया करती थीं। लड़कियों के प्रति पापा का प्यार-दुलार देख कर मम्मी उनको भी चार बातें सुना देती थीं-‘‘हाॅं....हाॅं खूब सर चढ़ा लो......मनबढ़ बना दो। कल को पराए घर जा कर नाक कटायेंगी तब पता चलेगा। लाख कहती हूॅं कि लड़की की जाति को शुरू से ही दबा कर, झुका कर रखना चाहिए तो सुनते ही नहीं।’’ न तो पापा मम्मी की उन बातों पर ध्यान देते थे और न ही रेखा की समझ में कुछ आता था।
अपने अतीत की यात्रा में खोई रेखा को पता ही नहीं चला कि दिल्ली से चले कितनी देर हुयी है और ट्रेन कहाॅं तक पॅंहुच चुकी है। वो तो उसका ध्यान तब भंग हुआ जब टी0टी0 ने पूछा-‘‘मैडम, आपका टिकट ?’’
‘‘जी, मेरा जनरल टिकट है। एकाएक जाना पड़ रहा है। आप बैलेंस ले कर स्लीपर का टिकट बना दीजिए।’’ रेखा ने कहा और पैसे दे कर टिकट बनवा लिया। खिड़की के पार ताकती कुछ देर तक पीछे भागते पेड़ों, खेतों को देखती रही फिर उसका मन खुद पीछे भागने लगा।
पापा असमय ही छोड़ गए थे। उनकी मृत्यु एक रोड एक्सीडेण्ट में हो गयी थी। वो तो गनीमत थी कि तब तक उन दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी और विजय बी0ए0 के दूसरे साल में था। पापा के ही विभाग में उसको मृतक आश्रित कोटे से नौकरी मिल गई थी। पापा के फण्ड, इंश्योरंेस आदि के पैसे तो मिले ही, मम्मी को पेंशन भी मिलने लगी थी। इसलिए किसी प्रकार की आर्थिक दिक्कत सामने नहीं आयी। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा था। मम्मी विजय की शादी के लिए यहाॅं-वहाॅं बात चलाने लगी थीं। तभी अचानक एक दिन मम्मी ने खबर भेज कर उन दोनों बहनों को तुरन्त आने को कहा। दोनों बहनें भागी-भागी पॅंहुची तो पता चला कि विजय यूनिवर्सिटी में अपने साथ पढ़ने वाली एक लड़की से शादी करने पर अड़ा है और मम्मी उसके लिए तैयार नहीं हैं। मम्मी के इंकार का मुख्य कारण था लड़की का विजातीय होना। लड़की कुर्मी या कोइरी जैसी किसी जाति की थी जब कि रेखा के मायके वाले पाण्ड़ेय ब्राह्मण। उन दोनों बहनों को मम्मी ने विजय को समझाने के लिए बुलाया था।
हर कोशिश कर के देख लिया गया लेकिन विजय पर किसी के भी समझााने-बुझााने का असर नहीं हुआ था। वैसे भी मम्मी के लाड़-दुलार के कारण वह बचपन से ही जिद्दी और ऐंठू स्वभाव का था। उसका हठ देख रेखा और शोभा ने उल्टे मम्मी को ही समझाया कि वही समझौता कर लें। जिन्दगी विजय को जीनी है। जिसके साथ चाहे, जैसे चाहे उसे अपने तरीके से जीने दें। वैसे भी अंतर्जातीय विवाह अब कोई अनहोनी बात नहीं रह गयी है। लेकिन मम्मी के सर पर चढ़ा जातिगत श्रेष्ठता और कुलीनता का बोध उनको समझौता नहीं करने दे रहा था। वह भी अपनी जगह अड़ी रहीं। दोनों बहनें आखिर क्या करतीं। उनसे जितना बन पड़ा कोशिश करने के बाद अपने-अपने घर लौट गयीं। बाद में पता चला कि विजय ने उसी लड़की के साथ कोर्ट में शादी कर ली थी। धीरे-धीरे दोनों बहनें भी अपने-अपने परिवार में व्यस्त होती चली गयी थीं।
ट्रेन लेट हो गयी थी। इलाहाबाद पॅंहुचते-पॅंहुचते शाम हो गयी। जाड़े का दिन होने के कारण अॅंधेरा जल्दी घिर आया था। स्टेशन से रिक्सा ले कर रेखा घर पॅंहुची तो देखा कि विजय ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठा सिगरेट पी रहा था और उसके सामने वाले सोफे पर शीशा, कंघी, चिमटी लिए बैठी एक औरत अपने बाल सॅंवार रही थी। रेखा खुद-ब-खुद समझ गयी कि वह विजय की पत्नी होगी। रेखा को अचानक आया देख कर विजय हड़बड़ा गया। रेखा ने देखा कि उसकी आॅंखों में खुशी के बजाय हैरानी के भाव थे।
‘‘अरे दीदी आप ? अचानक ? नमस्ते.....आइए बैठिए।’’ उसने जबरन खुशी दिखाने की कोशिश करते हुए कहा और अपनी पत्नी की तरफ देख कर बोला-‘‘सीमा, ये बड़ी दीदी हैं.....रेखा दीदी।’’
‘‘नमस्ते।’’ सीमा उसकी तरफ देख कर, दोनों हाथ जोड़ कर फुसफुसायी और अपना शीशा, कंघा ले कर अंदर चली गयी।
‘‘मम्मी कहाॅं हैं विजय....? उनकी तबियत कैसी है ?’’ रेखा ने खड़े-खड़े ही पूछा।
‘‘मम्मी....? वो ऊपर हैं......अपने कमरे में।’’
‘‘ऊपर....? ऊपर भी बन गया है क्या ? रेखा ने चैंक कर पूछा।
‘‘हाॅं....उधर लाॅन की ओर से ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाॅं हैं।’’ विजय ने बताया तो रेखा अपना सूटकेश लिए सीढ़ियों की ओर बढ़ गयी।
ऊपर जाने पर रेखा ने देखा कि गले तक रजाई ओढ़े मम्मी बिस्तर में पड़ी थीं। उनका शरीर बुखार में तप रहा था। दोहरे बदन वाली थुलथुल मम्मी सूख कर लकड़ी हो गयी थीं। रेखा ने उनके तपते सर पर हाथ रखा तो वह फूट-फूट कर रोने लगीं। उनसे लिपट कर रेखा भी रो पड़ी। थोड़ी देर तक रो लेने के बाद जब दोनों सामान्य हुयीं तो हालचाल की बातें शुरू हुयीं।
मम्मी से बातचीत के पश्चात जो कहानी मालूम हुयी उसका लब्बो-लुबाब यह था कि उनके लाख विरोध के बावजूद विजय ने अपनी मनपसंद लड़की सीमा के साथ शादी कर ली थी। सीमा को पता था कि मम्मी उसकी शादी के खिलाफ़ थीं इसलिए वह पहले से ही मम्मी के प्रति नफरत से भरी हुयी थी। घर में आते ही उसने मम्मी को तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया था। माॅं के लिए सर्वाधिक परेशानी की बात यह थी कि सीमा मांसाहारी थी जब कि पाण्ड़ेय परिवार शुद्ध शाकाहारी। किचन में यदा-कदा अंडे भी आने लगे थे। बाहर से पका-पकाया मीट, मुर्गा भी आने लगा था। मम्मी का खाना-पीना, चैन से जीना दूभर हो गया था।
गनीमत थी कि पापा के मरने के बाद मिला पैसा मम्मी के खाते में था। इसलिए जब साथ रह पाना मुश्किल लगने लगा तो मम्मी ने ऊपर दो कमरे, किचन और लैट्रिन-बाथरूम का सेट बनवा लिया और अलग रहने लगीं। गीता नाम की एक नौकरानी रोज सवेरे, शाम आ कर झाड़ू-बुहारू कर जाती और उनके लिए दो रोटी बना कर रख जाती थी। एक ही घर में रहने के बावजूद माॅं-बेटे में कोई संवाद नहीं था। मम्मी बीमार थीं लेकिन विजय को उनकी कोई परवाह नहीं थी। वह गीता के साथ ड़क्टर के यहाॅं जाती थीं। उन्होंने गीता से ही कह कर रेखा को फोन कराया था।
‘‘दीदी, हमें एक पार्टी में जाना है। लौट कर मिलते हैं।’’ विजय यह खबर देने के लिए ऊपर आया और अपनी पत्नी के साथ कहीं निकल गया।
मम्मी की नौकरानी गीता आयी तो चाय बना। उसके साथ मिल कर रेखा ने खाना बनवाया। खुद खाया, मम्मी को खिलाया। फिर मम्मी के बगल में चारपायी ड़ाल कर लेट गयी। मम्मी सारी रात रोती रहीं, विजय और उसकी बीबी की शिकायत करती रहीं तथा बचपन में दोनों बेटियों के साथ किए अपने दो-रंगे व्यवहार पर पश्चाताप करती रहीं।
मम्मी को बीमार, असहाय हालत में देख रेखा चिन्तित हो गयी। सर्वाधिक चिन्ता उसे इस बात को ले कर थी कि मम्मी का न तो ठीक से इलाज हो रहा था और न ही देखभाल। उसके साथ विवशता थी कि वह एक-दो दिन से अधिक रुक नहीं सकती थी। सवेरा होते ही उसने सुशील से बात की और उनकी रजामंदी के बाद मम्मी को अपने साथ चलने के लिए तैयार किया। विजय रात में शायद पार्टी से देर से लौटा था। सवेरे वह मिलने के लिए ऊपर आया।
‘‘विजय, मम्मी की तबियत कुछ अधिक ही गड़बड़ दिख रही है। मैं कुछ दिनों के लिए इनको अपने साथ दिल्ली ले जाना चाहती हूॅं। शायद जगह बदलने से कुछ आराम मिले इनको।’’ रेखा ने विजय से कहा।
‘‘ठीक है, जैसा आप लोगों को सही लगे। अगर मम्मी जाने को तैयार हैं तो ले जाइए।’’ विजय ने इतनी सहजता से कहा जैसे वह खुद मम्मी से छुटकारा पाना चाहता हो।
मम्मी का ट्रेन से जा पाना संभव नहीं था सो रेखा ने एक टैक्सी की और मम्मी को ले कर दिल्ली आ गयी। आने के बाद फोन पर सारा हाल बताया तो जयपुर से शोभा भी आ गयी। बेहतर इलाज और दोनों बेटियों की सेवा-सुश्रुधा मिली तो मम्मी का स्वास्थ्य बहुत तेजी से सुधरने लगा। दरअसल उनकी बीमारी शरीर से अधिक मन की थी। उनको दवा से अधिक जरूरत किसी के संग-साथ और प्यार के दो बोल की थी।
एक दिन सवेरे चाय ले कर आयी तो रेखा ने पाया कि मम्मी तकिया में मुॅंह छुपाये हिलक-हिलक कर रो रही थीं। देख कर वह परेशान हो गयी।
‘‘क्या हुआ मम्मी......आप रो क्यों रही है ? क्या तकलीफ है आप को....? क्या तबियत गड़बड़ लग रही है ? बताइए मम्मी.....कुछ बताइए तो सही कि बात क्या है।’’ रेखा बार-बार पूछती रही लेकिन मम्मी कुछ नहीं बोलीं बल्कि और भी जोर-जोर से रोने लगीं। रेखा ने आवाज दे कर शोभा को बुलाया। दोनों बहने मम्मी के अगल-बगल बैठ गयीं। उनके आॅंसू पोछने लगीं, उनको पुचकारने लगीं, उनके रोने की वजह पूछने लगीं लेकिन मम्मी थीं कि बस रोये जा रही थीं।
मम्मी काफी देर रो चुकने के बाद खुलीं-‘‘मुझको कोई तकलीफ नहीं है बेटी, मैं तो अपनी करनी पर रो रही हूॅं। तुम लोगों के बचपन में तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय किया है मैंने। मैं सोचा करती थी कि बेटियाॅं तो परायी हैं, ब्याह कर चली जायेंगी। बेटा साथ रहेगा...बुढ़ापे का सहारा होगा.....इसलिए तुम दोनों के हिस्से का प्यार भी मैं उस नालायक को ही देती रही। ये बातें ही जब-तब मेरे मन को कचोटती रहती हैं।’’
‘‘अरे मम्मी.....आप भी कैसी बेमतलब की बातों को ले कर परेशान होती रहती हैं। आप ही नहीं मैं तो समझती हूॅं कि कमोवेश हर माॅं ऐसा ही करती है। हर माॅं के मन में बेटी के मुकाबले बेटे के प्रति कुछ अतिरिक्त स्नेह रहता है। खुद हम लोग भी इससे अछूते नहीं हैं।’’ रेखा ने कहा।
‘‘देखो, इलाहाबाद का मकान मेरे नाम से है। बैंक में कुछ पैसा भी है। मेरी इच्छा है कि मकान और पैसा तुम दोनों के नाम कर दूॅं।’’ मम्मी बोलीं।
‘‘नहीं मम्मी....हरगिज नहीं। आप के आशीर्वाद से हम लोगों के पास जरूरत भर को काफी है। जितना है हम उतने में ही खुश और संतुष्ट हैं। आप के मकान और पैसे की हमें कोई लालच नहीं। विजय का हक विजय को मिलने दीजिए।’’ शोभा ने कहा।
‘‘हाॅं मम्मी, शोभा बिल्कुल ठीक कह रही है। अगर आप ऐसी बातें करेंगी तो मैं कल ही आप को वापस इलाहाबाद छोड़ आऊॅंगी। आप क्या समझती हैं कि आपके मकान और पैसों के लालच में मैं आपको अपने पास ले आई हूॅं। माॅं के लिए भले ही बेटे और बेटियाॅं अलग-अलग होती हैं लेकिन बच्चों के लिए तो माॅं एक ही होती है न। हम बेटी हैं तो क्या हुआ, आपके प्रति हमारी भी उतनी ही जिम्मेदारी बनती है जितनी कि विजय की। बस, हम जो भी कर रहे हैं इसी भावना से कर रहे हैं। अपना फर्ज अदा कर रहे हैं हम।’’ रेखा ने थोड़ा डाॅंटने के अंदाज में कहा तो मम्मी अपने दोनों हथेलियों में मुॅंह छुपा कर फफक पड़ीं।