भाई-भाई

लघु कथा

Akhilesh Srivastava Chaman

1/5/20241 मिनट पढ़ें

भारत माता नाम की एक ही माॅं के बेटे होने के कारण आपस में वे दोनों भाई-भाई थे। बचपन दोनों का एक साथ गुजरा था। चोर-सिपाही, गोट-पिटाई, गुल्ली-डंडा, कंचा, कबड्डी साथ-साथ खेलते हुए ही बड़े हुए थे दोनों। समझदारी की उम्र आने तक वे दोनों सिर्फ बच्चे थे। बस मनुष्य प्रजाति के बच्चे। लेकिन समझदारी आते ही उनको अलग-अलग पहचान मिल गयी। एक ने मूॅंछ कटा कर कतरी हुयी दाढ़ी रख ली तो दूसरे ने दाढ़ी कटा कर रोबीली मूॅंछ। एक ने टखनों तक ऊॅंची पतली मोहरी का पजामा पहनना शुरू कर दिया तो दूसरे ने पाॅंच गज लम्बी धोती। एक ने सर पर गोल जालीदार टोपी रख ली तो दूसरे ने बड़ी सी पगड़ी। एक ने कंधों पर काली, हरी चित्तीदार अंगौछा रखा तो दूसरे ने गले में केसरिया दुपट्टा। अपने ईष्टदेव की तलाश में एक पूरब दिशा में निकला तो दूसरा पश्चिम की ओर।

इन सारे बदलावों के बावजूद उन दोनों का भाईचारा खतम नहीं हुआ है। आज भी वे दोनों अपने बचपन की भाॅंति ही साथ मिल कर खेला करते हैं। अंतर सिर्फ इतना आया है कि उनके खेल और खेलने के तरीके बदल गए हैं। अब दोनों ने अपनी-अपनी आँखों पर मजहब का चश्मा पहन लिया है और मजहब का खेल खेलने लगे हैं। पश्चिम दिशा की तरफ मुॅंह कर के बैठने वाला भाई पूरब वाले को का़फिर बोलता है तो सवेरे-सवेरे पूरब की ओर लोटा भरा जल ढ़रकाने वाला दूसरे को म्लेच्छ। टोपी वाला भाई पगड़ी वाले को जुल्मी कहता है तो पगड़ी वाला टोपी वाले को आस्तीन का साॅंप। एक आरती की गोटी को अजान की गोटी से पीट देता है तो दूसरा मस्जिद की गिल्ली को मंदिर के डंडे से उछाल देता है। एक अल्पसंख्यक नाम का धोबीपाट लगा कर दाॅंव बचने का प्रयास करता है तो दूसरा देशभक्ति की लॅंगड़ी से उसको चित कर देता है। जब बहुत अधिक खुश होते हैं तो दोनों मिल कर दंगा-दंगा खेलने लगते हैं।

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