बेताल कथा
व्यंग्य
कल दिन की बात है। लगभग साढ़े ग्यारह-बारह बजे के आसपास का समय रहा होगा। स्नान-ध्यान तथा जलपान आदि से निपटने के बाद मैं अपने पढ़ने की मेज पर बैठा किसी रचना का मुड बना रहा था कि तभी अचानक किसी आकस्मिक आपदा की भाॅंति, श्रीमान बेताल जी मेरे घर आ धमके। कोई नई बात नहीं थी। बेताल जी यदा-कदा मेरे घर आते रहते हैं। विशेष रूप से तब जब उनके दिमाग में कोई नई योजना कुलबुलाती है तब उस पर चर्चा करने और मेरी राय जानने के लिए वे जरूर आया करते हैं। तो कल भी वे आए। ड़ायरी, पेन, अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर छपवायी पुस्तक तथा अपनी चैदह पृष्ठों में अंकित वायोडाटा आदि सामग्री से भरे झोले को सेंट्रल टेबिल पर रख कर सोफे में धॅंस गए। मेरी पत्नी ने उनको देखते ही कड़ाही में पक रही सब्जी में जल्दी से दो आलू और ड़ाल दिया तथा दाल में थोड़ा पानी बढ़ा दिया। क्यों कि अब तय था कि आगमन की चाय, दोपहर का भोजन तथा विदाई की चाय ग्रहण किए बगैर शाम चार बजे से पहले वे टलने वाले नहीं थे।
बताता चलूॅं कि बेताल जी शहर के सर्वश्रेष्ठ कवि, लेखक और वक्ता हैं। दुनिया भले ही इस बात को न माने लेकिन अपने बारे में खुद बेताल जी की ऐसी ही धारणा है। उनके आत्मविश्वास की पराकाष्ठा यह है कि बड़े से बड़े कवियों, लेखकों की रचनाओं को वे चुटकी बजाते खारिज कर दिया करते हैं। बेताल जी का वास्तविक नाम तो बीर कुमार है लेकिन जिस दिन से हिन्दी साहित्य के उद्धार के कार्य का बीड़ा उठाया, उसी दिन से उन्होंने अपना नाम बीर कुमार बेताल रख लिया था। उनका कहना है कि वे प्राचीन काल वाले वही बेताल हैं जो महाराज विक्रम के कंधे पर लटका दुनिया के तमाम गूढ़ प्रश्नों का उत्तर तलाशता फिरता था। चूॅंकि बहुत सारे प्रश्न उस समय अनसुलझे रह गए थे इसलिए उस अधूरे कार्य को अंजाम तक पहॅंुचाने के लिए उन्होंने नए रूप में अवतार लिया है।
हाॅं तो बेताल जी मेरे घर आए, सोफे में स्थान ग्रहण किया और मठरी कुतरते हुए एक रहस्यमयी मुस्कुराहट के साथ बोले-‘‘गुरू ! मेरे दिमाग में एक आइडिया आया है। बहुत जबरदस्त आइडिया। सोचा तुमसे चर्चा कर के उसकी रूप-रेखा फाइनल करूॅं।’’
‘‘आप के अति उर्वर मस्तिष्क में कैसा आइडिया आया है बन्धु !’’ मैंने प्रश्न किया।
‘‘मेरा मन है कि क्यों न हम लोग एक साहित्यिक संस्था का गठन करें। ‘‘मसिजीवी सम्मान मंच’ या‘ कलमकार सेवा अकादमी’ या ‘साहित्य संवर्द्धन संस्थान’ या ‘सृजन मूल्यांकन संस्थान’ जैसा कोई भारी-भरकम नाम रखा जा सकता है उस संस्था का।’’
‘‘लेकिन उस संस्था का कार्य क्या होगा ? मेरा मतलब उस संस्था को गठित करने के पीछे उद्देश्य क्या है आपका ?’’ मैंने उत्सुकता जाहिर की।
‘‘उस संस्था के माध्यम से हम साहित्यकारों का सम्मान किया करेंगे। आप देख तो रहे हैं कि पुरस्कारों और सम्मानों के क्षेत्र में कितनी धांधली, कितनी बेइमानी चल रही है। ‘अंधा बाॅंटे रेवड़ी, आप-आप को दे’ वाली स्थिति हो गयी है। गली, मुहल्ले और कस्बे स्तर के कवि, लेखकों के तो सम्मान पर सम्मान हो रहे हैं, पुरस्कार पर पुरस्कार मिल रहे हैं और हमारे, आप जैसे राष्ट्रीय स्तर के रचनाकारों की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं है। इसके लिए हमें स्वंय पहल करनी होगी। अब समय आ गया है कि हम जागें, उठें और कुछ करें।’’
‘‘लेकिन क्या करेंगे....कैसे करेंगे कुछ सोचा तो होगा आपने ?’’
‘‘हाॅं सोचा है न। वही डिस्कस करने के लिए तो आया हूॅं। दरअसल आज एक हाथ से देने और दूसरे हाथ से लेने का जमाना है। अब वह समय नहीं है कि आप ताउम्र इस उम्मीद में कलम घिसते रहें, कागज काले करते रहें कि देर-सवेर आपकी रचनाओं का मूल्यांकन होगा ही। यदि आप किसी को कुछ लाभ पहॅंुचाने की स्थिति में नहीं हैं तो आपको कोई भी नहीं पूछने वाला। खुद को चर्चित, सम्मानित, पुरस्कृत और स्थापित करने के लिए हमें स्वयं प्रयास करना होगा।’’
‘‘जी ! बात तो आपकी काफी हद तक सच है कि हिन्दी साहित्य का वर्तमान युग गिरोहबंदी और ‘अहो रूपं, अहो ध्वनि’ का युग है। लेकिन इस बुराई को दूर करने की आपकी योजना क्या है ?’’
‘‘भैया ! आप तो जानते ही हैं कि काॅंटे को काॅंटे से ही निकाला जाता है। अपनी संस्था के माध्यम से हम यही काम करेंगे। मेरा एक स्व-वित्तपोषित पुरस्कार, सम्मान कार्यक्रम शुरू करने की योजना है। सैकड़ों कवि लेखक ऐसे हैं जो बेचारे किसी संस्था के द्वारा पुरस्कृत, सम्मानित होने के लिए लालायित घूम रहे हैं। उनको संगठित कर के हम एक नया गिरोह बनायेंगे। उसके बाद शहर-शहर में सम्मान कार्यक्रमों का आयोजन करेंगे। किसी रचनाकार से पाॅंच हजार की सहयोग राशि ले कर हम उसे दो सौ की शाल, पाॅंच रुपए की माला, एक अदद सूखा नारियल, कुछ पंक्तियों का सम्मान पत्र और ग्यारह सौ रुपए राशि का पुरस्कार तो दे ही सकते हैं। फिर जिनको हम सम्मानित, पुरस्कृत करेंगे कल को वे हमें सम्मानित, पुरस्कृत करेंगे। यानी आम के आम, गुठलियों के दाम।’’ बेताल जी ने अपनी भावि संस्था के उद्देश्य का खुलासा किया।
‘‘अरे बेताल जी ! आप क्यों झूठी वाहवाही और प्रायोजित सम्मान को ले कर नाहक परेशान हो रहे हैं। जुगाड़ से मिले इन सम्मानों का कोई महत्व होता है क्या ? असल चीज है रचनाकार का काम। समय के प्रवाह में सिर्फ काम ही टिकता है। प्रेमचंद, निराला, रेणु या मुक्तिबोध को कोई पुरस्कार अथवा सम्मान मिला था या नहीं, यह आज कोई नहीं जानता है लेकिन उनकी रचनाओं का सम्मान आज भी बना हुआ है।’’ मैंने कहा।
‘‘अरे भाई ! आप भी कहाॅं इक्कीसवीं शताब्दी में उन्नीसवीं शताब्दी की बात ले बैठे। पता है आपको कि प्रेमचंद ने कितनी गरीबी झेली थी, निराला को कितने फाॅंके करने पड़े थे। दवा-इलाज के अभाव में मुक्तिबोध की कितनी कष्टदायक असमय मृत्यु हुयी थी। सम्मान की आस में हम पूरी जिंदगी होम कर दें और कोई जिक्र तक ना करे। भई ! मैं तो इसे समझदारी नहीं मानता हूॅं। गोस्वामी जी ने भी कहा है ‘‘सकल पदारथ हैं जग माहीं, करम हीन नर पावत नाहीं।’’ इसलिए यश पाने के लिए कर्म तो हमें करना ही होगा।’’
‘‘बेताल जी ! मेरी समझ से असली यश तो वह है जो रचनाकार को मरने के बाद मिलता है। प्रेमचंद या निराला ने भले ही अपने जीवन में कष्ट उठायें हों लेकिन आज भी उनका यश है। उनके नाम बहुत आदर के साथ लिये जाते हैं।’’
‘‘घंटा आदर के साथ लिए जाते हैं। अरे ! आप हैं किस दुनिया में ? आप यश की बात कर रहे हैं ? मैं तो देख रहा हूॅं कि इन महान रचनाकारों का और भी अधिक अपयश हो रहा है। उनकी सुनियोजित तरीके से छीछालेदर की जा रही है। रेणु की शताब्दी वर्ष के आयोजन में उनकी रचनाओं पर बात करने के बजाय इस बात की गणना की जा रही है कि उनके कितनी महिलाओं के साथ अनैतिक सम्बन्ध थे। खुर्दबीन से ढ़ूॅंढ़ कर प्रेमचंद की कहानियों में ऐसी-ऐसी कमियाॅं निकाली जा रही हैं जिके बारे में प्रेमचंद ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी। कोई उनको दलित विरोधी साबित करने पर तुला है तो कोई ब्राह्मण विरोधी। कोई उनको सवर्ण मानसिकता वाला सिद्ध करने पर जुटा है तो कोई दक्षिणपंथी। और तो और ऐसे कंुठित और आत्ममुग्ध लेखकों जो प्रेमचंद की नाखून के बराबर भी नहीं ठहरते हंै, को जबरन उनके समकक्ष स्थापित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है। निराला के साथ भी ऐसा ही है। लोग उनकी कविताओं से अधिक चर्चा उनके कुटेव की करने लगे हैं।’’
अब मेरे चुप हो जाने की बारी थी। कारण कि साहित्यिक विमर्श की समकालीन स्थिति पर टिप्पड़ी करते हुए बेताल जी ने जो कटु यथार्थ कह दिया था उसका उत्तर मेरे पास नहीं था। एक बार फिर बेताल के प्रश्न ने विक्रम को असमंजस में ड़ाल दिया था।