हिन्दी बाल साहित्य की कमजोरियाॅं
टिपण्णी
यद्यपि बड़ों के लिए भी कम आकर्षक, कम प्रेरक और कम उपयोगी नहीं होता फिर भी बाल साहित्य का सीधा और सामान्य सा अर्थ है बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य। चूॅंकि बच्चों का शैक्षिक और मानसिक स्तर बड़ों से सर्वथा भिन्न होता है, अतः यह स्वाभाविक ही है कि उनके लिए रचा गया साहित्य भी कुछ भिन्न प्रकार का होना चाहिए। पुनः यदि यह माना जाय कि साहित्य का वास्तविक और अंतिम उद्देश्य मनुष्य के संस्कारों को परिष्कृत, परिमार्जित कर के उसको एक बेहतर सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित करना है तो ऐसे में बाल साहित्य की भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। कारण कि बालक गीली मिट्टी का एक लोंदा होता है जिसे अभी मनचाहा आकार दिया जाना होता है। एक ऐसा आकार कि बच्चा आने वाले कल की हर प्रकार की चुनौतियों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सके। अब एक प्रश्न उठता है कि इस अनगढ़ बचपन को एक सुन्दर, सार्थक आकार देने का काम किस प्रकार किया जा सकता है।
आज भौतिकता की दौड़ में शामिल कामकाजी माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं है, साथ ही एकल परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-ताई आदि बुजूर्गों की उपस्थिति की संभावना भी नहीं बची है। बच्चों को रोबोट बनाने की होड़ में जुटे अंग्रेजीदां विद्यालय उनको अपने पाठ्यक्रम से इतर रंच मात्र भी दायें-बायें झाॅंकने की अनुमति नहीं देते हैं। घर-घर में घुसे दूरदर्शन के गैरजिम्मेदार चैनल और सर्वसुलभ इंटरनेट अपनी पूरी क्षमता के साथ हिंसा, क्रूरता, असहिष्णुता तथा अंधविश्वास आदि की विकृतियाॅं परोसने में लगे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि बच्चों को मानवीय मूल्यों और संस्कारों की बात कौन बताए ? व्यावहारिक जीवन की सच्चाई, चुनौतियाॅं और उनसे पार पाने की शिक्षा उन्हें कौन दे ? कहना न होगा कि ऐसी स्थिति में बच्चों को सॅंवारने का सारा दारोमदार बाल साहित्य पर आ कर टिक जाता है।
हिन्दी बाल साहित्य का प्रारम्भ सन् 1882 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रयासों से प्रकाशित बाल-दर्पण से माना जाता है। यद्यपि कुछ लोग इसे स्वीकार नहीं करते फिर भी इसकी विधिवत शुरूआत सन् 1915 में प्रकाशित ‘शिशु’ तथा 1917 में प्रकाशित ‘बालसखा’ नामक पत्रिकाओं से देखने को मिलती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी बालसाहित्य का लिखित इतिहास सौ वर्ष से भी अधिक पुराना हो चुका है। सौ वर्षों का कालखण्ड़ किसी भी चीज के बनने अथवा बिगड़ने के लिए बहुत बड़ा समय होता है। अब सहज ही एक प्रश्न उठता है कि क्या सौ वर्षों की लम्बी यात्रा के बावजूद हिन्दी बाल साहित्य की स्थिति इतनी सुद्ढ़ हो सकी है जो हमें पूरी तरह से आश्वस्त कर सके ? या यह बंगाली, मराठी, अथवा किसी विकसित विदेशी भाषा के बाल साहित्य के समकक्ष खड़ा हो सके ? यदि नहीं तो फिर इसके कारण क्या हैं ? मेरी समझ से हिन्दी बाल साहित्य की दुर्बलताओं के कुछ प्रमुख कारणों को इस प्रकार समझा जा सकता है।
1- उपेक्षा- न जाने क्यों और कैसे हिन्दी के साहित्य जगत में यह धारणा बन गयी है कि बाल साहित्य लेखन बहुत हल्का और निम्नस्तर का कार्य है। इस धारणा के चलते बाल साहित्य के लेखक को साहित्यकार नहीं बल्कि बाल-साहित्यकार कहा जाता है। यानी दलित साहित्य लिखने वाला साहित्यकार है, महिला साहित्य लिखने वाला साहित्यकार है, आदिवासी साहित्य लिखने वाला साहित्यकार है, अन्य तमाम विधाओं में लिखने वाला साहित्यकार है लेकिन बच्चों के लिए लिखने वाला साहित्यकार नहीं बल्कि बाल-साहित्यकार है। यानी साहित्यकार से कमतर है। इस उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण का परिणाम यह है कि हिन्दी का कोई भी स्थापित और प्रतिष्ठित साहित्यकार बाल साहित्य लिखने से परहेज करता है। उसे इस बात का ड़र सताता है कि कहीं उस पर बाल-साहित्यकार का स्टीकर न चस्पा हो जाय। उसके साहित्य को मुख्यधारा से खारिज कर के हासिए पर न ड़ाल दिया जाय। न सिर्फ इतना, बल्कि यह भी देखा गया है कि किसी बाल साहित्य लिखने वाले लेखक को यदि प्रौढ़-साहित्य में मान्यता मिलने लगी तो वह ‘बाल-साहित्यकार’ के लेबल से मुक्ति पाने के लिए बाल-साहित्य लिखना बंद कर देता है। उदाहरण के लिए हम मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, डा0 रामकुमार वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, प्रयाग शुक्ल, चित्रा मुद्गल तथा मालती जोशी आदि तमाम साहित्यकारों के नाम ले सकते हैं। इन सभी साहित्यकारों ने प्रारम्भ में बाल साहित्य लिखा है लेकिन प्रौढ़ साहित्य में पहचान बनते ही इन्होंने बाल साहित्य की तरफ से मुॅंह फेर लिया।
मजे की बात यह कि ऐसी दुःखद स्थिति सिर्फ हिन्दी में ही है, अन्य भाषाओं में नहीं। बंगला में बड़े से बड़े लेखक ने बाल साहित्य लिखा है और पूरे मनोयोग से लिखा है। किन्तु उनकी प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आयी। यही बात मराठी में भी है। वहाॅं भी प्रायः हर नामचीन साहित्यकार ने बाल साहित्य लिखा है। जहाॅं तक मेरी जानकारी है अंग्रेजी और फ्रेंच आदि कई विदेशी भाषाओं में तो बाल साहित्य को प्रौढ़ साहित्य के मुकाबले अधिक सम्मान मिलता है। लेकिन हमारी हिन्दी में बाल साहित्य लिखने वाले को अव्वल तो साहित्यकार माना ही नहीं जाता और यदि कृपा करके मान भी लिया गया तो दोयम दर्जे का। जब तक हिन्दी में भी बच्चों के लिए लिखने वालों को बाल-साहित्यकार की जगह साहित्यकार नहीं माना जाएगा और उनको समान दृष्टि से नहीं देखा जाएगा कोई भी गंभीर साहित्यकार बाल साहित्य रचने से कतराता रहेगा। परिणाम यह होगा कि हिन्दी बाल साहित्य में स्तरीय साहित्य की कमी बनी ही रहेगी। यह अन्य भाषाओं के बाल साहित्य के मुकाबले दयनीय बना ही रहेगा।
2-कसौटी-हिन्दी बाल साहित्य की एक दूसरी दुर्बलता है इसमें किसी मानक कसौटी या यूॅं कहें कि गंभीर समीक्षा का अभाव। स्वस्थ समीक्षा से न सिर्फ रचनाकार को अपनी रचना की कमियों की जानकारी मिलती है बल्कि तमाम नई संभावनाओं के द्वार भी खुलते हैं। समीक्षा का एक अन्य लाभ यह होता है कि आम पाठक को बेहतर साहित्य के चयन में सहूलियत हो जाती है। वर्तमान हिन्दी प्रौ़ढ़ साहित्य तथा बाल साहित्य का आविर्भाव लगभग साथ-साथ (भारतेन्दु युग में) होने के बावजूद विकास की दौड़ में प्रौढ़ साहित्य, बाल साहित्य के मुकाबले काफी आगे निकल चुका है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिन्दी प्रौढ़ साहित्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेई, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा0 राम विलास शर्मा, डा0 नागेन्द्र और विजयदेव नारायण साही से ले कर नामवर सिंह, देवीशंकर अवस्थी, डा0 विश्वनाथ त्रिपाठी, परमानन्द श्रीवास्तव और कुॅंवरपाल सिंह आदि सरीखे समीक्षकों की एक लम्बी कतार है, जब कि बाल साहित्य में हमें दूर-दूर तक एक भी गंभीर और समर्पित समीक्षक नहीं दिखता है। सीधी सी बात है कि जब कसौटी ही नहीं होगी तो खरे और खोटे का विभेद भी नहीं हो सकेगा। और यदि खरे और खोटे के मध्य विभेद नहीं होगा तो सब धान बाइस पसेरी होगा।
अव्वल तो हिन्दी बाल साहित्य में समीक्षा या आलोचना नाम की चीज है ही नहीं और खानापूर्ति के लिए यदा-कदा, यत्र-तत्र जो थोड़ी बहुत समीक्षा दिख जाती है वह भी प्रकारांतर से ‘ठकुर सुहाती’ तथा ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ के सिवा और कुछ नहीं है। आलोचना की प्रथम शर्त है निष्पक्षता और निर्ममता। कोई अच्छी बात आलोचक से छूट जाए तो छूट जाए लेकिन गलत, कमजोर और नकारात्मक बात उससे कत्तई नहीं छूटनी चाहिए। कारण कि रचना के सकारात्मक पक्ष को उद्घाटित किया जाए अथवा नहीं, वह तो अपनी जगह यथावत रहेगा ही, लेकिन नकारात्मक पक्ष का निराकरण तभी संभव हो सकेगा जब उसे इंगित किया जाए या सामने ले आया जाय। दरअसल आलोचना सूप का काम करती है जो सार को बचा लेती है और थोथा को खारिज कर देती है। लेकिन हिन्दी बाल साहित्य में आलोचना न होने के कारण यहाॅं ‘थोथा चना बाजे घना’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हिन्दी बाल साहित्य में जो कुछ भी है सब अच्छा ही अच्छा है, बुरा कुछ है ही नहीं।
हिन्दी बाल साहित्य में आलोचना के अभाव का मेरी समझ से चार कारण हैं-
1-आलोचना के लिए अपेक्षित साहस और तटस्थता का अभाव। इसके पीछे संभवतः कारण यह है कि बाल साहित्य की लंका में सारे ही बावन गज के हैं। बल्कि सच कहें तो बौने अपने आप को सबसे ऊॅंचा सिद्ध करने की जुगत में हैं। ऐसे में स्वस्थ आलोचना की मंशा रखने वाला भी सोचता है कि बेमतलब किसी से बुराई क्यों ली जाय।
2-बाल साहित्य के रचनाकार को आलोचना की कोई परवाह नहीं है। यहाॅं आलोचना और आलोचक को वह प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त है जो प्रौढ़ साहित्य में है। इसीलिए आलोचना की दृष्टि रखने वाले समर्थ लोगों में भी आलोचना के प्रति उदासीनता रहती है।
3-बाल साहित्य का रचनाकार ही समीक्षक और आलोचक भी है। इसके चलते यहाॅं भाईचारा निभाने की परम्परा खूब फली-फूली है। अव्वल तो उन्हीं पुस्तकों की समीक्षा की जाती है जो अपने खास मित्रों की होती हैं और साथ ही समीक्षा में इस बात का भी पूरा ध्यान रखा जाता है कि आज हम जिस पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं उसका लेखक कल हमारी पुस्तक की समीक्षा करेगा। यानी हम आज जो बोयेंगे कल वही काटना होगा। इस प्रकार प्रशंसा पाने के लोभ में एक-दूसरे की पीठ खूब अच्छी तरह खुजायी जाती है।
4-चैथा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि यदि सब कुछ के बावजूद कोई समीक्षा या समीक्षात्मक लेख लिख भी दिया जाय तो उसे प्रकाशित करने के लिए कोई पत्रिका नहीं है। बाल पत्रिकायें जो सिर्फ बाल पाठकों को ध्यान में रख कर प्रकाशित की जाती हैं, में समीक्षा प्रकाशित करने की न तो कोई प्रथा है और न ही उसकी कोई उपादेयता। इसके लिए प्रौढ़ साहित्य की पत्रिकाओं को सामने आना चाहिए ताकि अभिवावक वर्ग के पाठकों तक बाल साहित्य की सही और अद्यतन स्थिति पहॅंुच सके। अफसोस कि हिन्दी की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकायें इस ओर से घोर उदासीन बनी हुयी हैं। कुछ गिनी-चुनी पत्रिकायें हैं जो साल में एक बार बाल-दिवस के अवसर पर अपने नवम्बर अंक में बाल साहित्य पर एक या दो समीक्षात्मक लेख प्रकाशित करके अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेती हैं।
3-प्रतिस्पद्र्धा का अभाव- यह मानी हुयी बात है कि प्रतिभा सदैव प्रतिस्पद्र्धा से निखरती है। किसी भी चीज का सर्वोत्तम प्रतिस्पद्र्धा के कारण ही प्राप्त होता है। सोना जितना अधिक तपता है उतना ही अधिक खरा हो कर निकलता है। हिन्दी बाल साहित्य में समीक्षा के अभाव का दुष्परिणाम यह है कि यहाॅं भाजी और खाजा सब टके सेर बिक रहा है। यहाॅं बाल साहित्य और बचकाना साहित्य में कोई भेद ही नहीं है। यहाॅं खराब, कमजोर या अधोमानक कुछ है ही नहीं। जो भी है सब अच्छा, उत्तम और मानकों पर खरा है। (मूॅंदहु आॅंखि कतो कुछ नाहीं )। कहना न होगा कि यह प्रवृत्ति हिन्दी बाल साहित्य के लिए मीठे जहर का काम कर रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि हिन्दी बाल साहित्यकारों के मध्य बेहतर और उत्तमोत्तम रचने की प्रतिस्पद्र्धा ही नहीं है। ऐसी धारणा बन गई है कि कुत्ता-बिल्ली, बंदर-भालू, बादल-वर्षा, नदी-पहाड़, राजा-रानी आदि को पात्र बना कर अल्लम-गल्लम जो कुछ भी लिख दिया जाएगा वह बाल साहित्य के नाम पर खप जाएगा। यही कारण है कि आज हिन्दी बाल साहित्य में ऐसी अगंभीर रचनाओं और अगंभीर रचनाकारों की बाढ़ सी आयी हुयी है।
4-सरकारी नीति की मार-प्रौढ़ शिक्षा, साक्षरता, उत्तर साक्षरता तथा आपरेशन ब्लैकबोर्ड आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं से भी हिन्दी बाल साहित्य की काफी क्षति हुयी है। इन योजनाओं के अंतर्गत नवसाक्षरों तथा बाल पाठकों के लिए पुस्तकों की बड़े पैमाने पर खरीददारी होती है। इस खरीददारी में मोटे मुनाफे की गंुजाइश होती है। और इस मुनाफे की गुंजाइश के चलते रातों-रात कुकुरमुत्ते की तरह सैकड़ों नए प्रकाशक पैदा हो गए हैं। चूॅंकि ये प्रकाशक शुद्ध रूप से व्यवसायी हैं, साहित्य से इनका कोई लेना-देना नहीं होता अतः इनको छप रही सामग्री की गुणवत्ता की कोई परवाह नहीं होती। ये लोग अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रख कर पुस्तकें छापते हैं। यदि सरकार ने विज्ञान पर जोर दिया तो सैकड़ों पुस्तकें विज्ञान पर छप गयीं, यदि सरकार ने पर्यावरण, प्रदूषण को महत्व दिया तो सैकड़ों पुस्तकें पर्यावरण, प्रदूषण पर छप गयीं और यदि यदि सरकार ने संस्कुति और नैतिक शिक्षा की आवश्यकता जतलाई तो सैकड़ों पुस्तकें भारतीय संस्कृति और नैतिक शिक्षा पर आ गयीं। विशेष बात यह कि बाल साहित्य में प्रकाशकों की आवश्यकता को देखते हुए आर्डर पर माल तैयार करने वाले सैकड़ों नए लेखक भी पैदा हो गए हैं। मानों वे रचनाकार नहीं रचना उत्पादित करने वाले कारखाने हों। और तो और अब स्वंय अपना पैसा दे कर पुस्तकें छपवाने वाले लेखकों की भी बाढ़ सी आ गई है। खुद के पैसे से किताबें छपवाना और उन्हें घूम-घूम कर बाॅंटना एक शगल सा बन गया है। कहना न होगा कि ऐसे लेखकों की भरमार तथा इस तरह की सरकारी योजनाओं के चलते प्रकाशकों के दोनों ही हाथों में लड्डू है।
प्रत्यक्षतः तो ऐसा आभास होता है कि इन सरकारी योजनाओं से बाल साहित्य को काफी प्रश्रय मिल रहा है और इसकी समृद्धि हो रही है लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। इस प्रकार के विपुल प्रकाशन और भारी खरीद से प्रकाशकों, आर्डर पर माल सप्लाई करने वाले लेखकों और खरीद की प्रक्रिया से जुड़े अधिकारियों का भले ही भला हो गया हो लेकिन बाल साहित्य का अंततोगत्वा अहित ही हुआ है। अहित इस रूप में हुआ है कि बाल साहित्य के नाम पर छपने वाली इस सामग्री में कूड़े का ढ़ेर जमा हो गया है, बाल साहित्य के उद्ेश्य का लोप हो गया है तथा पिष्टपेषण की बहुलता हो गई है। साहित्यिक कृति की पाण्डुलिपि देखते ही प्रकाशक नाक-भौं सिकोड़ने लगता है और कहता है-‘‘भई, अब तो बाल साहित्य में कथा, कहानी या कविता की माॅंग ही नहीं रही। अब तो बस सूचनापरक साहित्य जैसे- ‘छींक क्यों आती है ?’, ‘आकाश में बिजली क्यों चमकती है ?’, ‘समुद्र का पानी खारा क्यों होता है ?’ ‘नाखून क्यों बढ़ता है ?’ आदि किस्म की चीजों का मार्केट है।’’
5-अगंभीर लेखक-प्रकाशकों की इस प्रवृत्ति के कारण हिन्दी बाल साहित्य में मौलिकता तथा नवीनता का का भी संकट पैदा हो गया है। अपने पैसे से पुस्तकें छपवा कर रातों-रात बाल साहित्यकार का तमगा लगा लेने को आतुर लेखकों की नई पौध को नवीनता और मौलिकता की कोई खास परवाह नहीं हैं। जब स्थापित होने के लिए किसी प्रकार के संघर्ष की जरूरत नहीं तो फिर मौलिकता फेर में माथा खराब करने की जरूरत ही क्या है। एक तरफ तो गूगल, इंटरनेट तथा पंचतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर आदि प्राचीन ग्रन्थ ऐसे लेखकों के लिए बहुत सहज ही कच्चामाल उपलब्ध करा देते हैं, दूसरी तरफ पैसा ले कर पुस्तकें छापने वाले प्रकाशक पलक-पाॅंवड़े बिछाए बैठे हैं। ऐसे में लेखक बनते भला कितनी देर लगती है। कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ दिया और पुस्तक तैयार। इस प्रकार की दो-चार पुस्तकें छपा कर बाल साहित्यकार बन गए और येन-केन-प्रकारेण पुरस्कार/सम्मान हथियाने की जुगाड़ में लग गए। आज पुरस्कारों और सम्मानों का क्या हाल है यह तो सर्वविदित ही है। अतः ऐसे जुगाड़ू लोग इन्हें आसानी से प्राप्त भी कर लेते हैं। ऐसे बाल साहित्यकारों और उनकी कृतियों से बाल साहित्य की जो छवि निर्मित होती है वह बाल साहित्य की जड़ों में मट्ठा ड़ालने का काम करती है।
यह सच है कि आज हमारे जीवन में विज्ञान का काफी दखल हो चुका है, सच है कि आज के बच्चे बहुत तार्किक और जागरूक हो चुके हैं और यह भी सच है कि आज बच्चों को विज्ञान तथा सामान्य ज्ञान की शिक्षा दिया जाना बहुत जरूरी है। लेकिन बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनमें साहित्यिक, सांस्कृतिक अभिरूचि पैदा करना भी उतना ही जरूरी है। कारण कि विज्ञान जहाॅं व्यक्ति को शुष्क, आत्मकेंद्रित और भौतिकवादी बनाता है वहीं साहित्य उसे मानवीय मूल्यों से संस्कारित करता है। यदि समाज में समरसता कायम रखनी है, आदमी के अंदर आदमीयत को बचाए रखना है तो बाल साहित्य के गुणात्मक ह्रास तथा बाल साहित्य से हो रहे साहित्य के मूल तत्व के पलायन को रोकना ही होगा। वरना सामाजिक सहिष्णुता तो नष्ट होगी ही अंततोगत्वा हिन्दी साहित्य के हितों पर भी कुठाराघात होगा। यदि बाल साहित्य की अनदेखी की गई तो आज हिन्दी में जो साहित्यिक पाठकों का रोना रोया जा रहा है, वह आने वाले समय में और भी अधिक विकराल रूप ले सकता है। इसी प्रकार यदि हिन्दी बाल साहित्य को स्थापित करना है तथा उसे अन्य भाषाओं के साहित्य की बराबरी में खड़ा करना है तो उसमें स्वस्थ समीक्षा का श्रीगणेश करना ही होगा। आज नहीं तो कल किसी न किसी को झाड़ू उठाना ही होगा। और संम्बन्धों, गुटों तथा वादों की सीमा से ऊपर उठ कर निर्ममतापूर्वक सही तथा गलत, खरे और खोटे के मध्य विभाजन करना ही होगा।