बादल फिर घिरे हैं

बाल कविता

Akhilesh Srivastava Chaman

7/13/20231 मिनट पढ़ें

झर रहा आकाश
बादल फिर घिरे हैं।

भींगते तरु
भींगतीं लिपटीं लतायें,
दादुरों के शोर
से ऊबीं दिशायें,
उग रहीं
नव-सृष्टि की संभावनायें
इस धरा की कोख
के दिन फिर फिरे हैं।

झर रहा आकाश
बादल फिर घिरे हैं।

ये फुहारों की
जवानी जॉंचते हैं,
जेठ की अति
की कहानी बाँचते है,
मेघना की ताल
के संग नाचते हैं
पवन हैं या
मद्यपायी सिरफिरे हैं।
झर रहा आकाश
बादल फिर घिरे हैं।

रच रहा मौसम
अनूठी इक फंतासी,
नद चली सागर
मिलन को थी पियासी,
बह रहे पानी
के चेहरे पे उदासी
क्यों नहीं अब नाव
कागज के तिरे हैं ?

झर रहा आकाश
बादल फिर घिरे हैं।

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