‘‘बच्चे मन के सच्चे, सारी जग की आॅंख के तारे। ये हैं ऐसे फूल कि जो भगवान को लगते प्यारे।‘‘ आम जनमानस में दशकों से गुनगुनाया जा रहा फिल्म ‘दो फूल’ का यह मधुर गीत यथार्थ के अत्यधिक निकट है। सचमुच नन्हें-मुन्ने बच्चे मोहक खुशबू बिखेरते रंग-विरंगे फूल ही तो हैं जो अपनी निष्कलुषता और भोलेपन के कारण हर किसी के मन को भा जाते हैं, हर किसी से हिल-मिल जाते हैं और अपने, पराए हर किसी के प्रिय हो जाते हैं। साथ ही चूॅंकि बच्चे छल, फरेब, मद, लोभ, ईष्र्या, द्वेष और स्वार्थपरता आदि सांसारिक बुराइयों से सर्वथा परे होते हैं इसलिए उनमें ईश्वरीय तत्व की प्रधानता होती है। यानी वे ईश्वर की प्रतिमूर्ति होते हैं।
मेरी समझ से मानव जाति के आपसी वार्तालाप के दौरान किसी भी भाषा, बोली में कही-सुनी जाने वाली सम्पूर्ण प्रचलित शब्दावलियों में ‘बच्चा’ (या इसका पर्याय) एक अकेला ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही मन में एक पुलक सी जग जाती है। कानों में इस शब्द के पड़ते ही आॅंखों के समक्ष एक हॅंसता, खिलखिलाता, उछलता, कूदता, रूठता, मचलता, किलकारी भरता या कोई मस्ती भरी शरारत करता एक नन्हा सा अबोध चेहरा उभर आता है। एक ऐसा निर्दोष चेहरा जो हमारे सभ्य समाज की चिन्ताओं, चालाकियों और वर्जनाओं से सर्वथा मुक्त होता है। एक ऐसा चेहरा जिसे देखने, सुनने या जिसके साथ बोलने, बतियाने मात्र से तन, मन की सारी थकान, सारा संत्रास और सारा संताप छू-मंतर हो जाता है। एक ऐसा चेहरा जिसके साथ होने मात्र से हम कुछ देर के लिए अपने वर्तमान से दशकों पीछे मीठे, सुहाने बचपन में पॅंहुच जाते हैं। बच्चा प्रकृति या दूसरी तरह से कहें तो ईश्वर के सबसे करीब होता है और शायद इसीलिए पाप- पुण्य, सही-गलत, उचित-अनुचित या लाभ-हानि आदि हर दुनियावी बलाओं से बेफिक्र होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में बच्चों को भगवान का स्वरूप तथा बच्चियों को देवी स्वरूपा मान कर पूजा जाता है। उत्तर भारतीय परिवारों में आज भी एक परम्परा चली आ रही है कि कोई शुभ कार्य करने जाते समय लोग अबोध बच्चों का चरण स्पर्श कर के जाते हैं। सच कहें तो हमारी दुनिया से सर्वथा भिन्न बच्चों की एक अलग दुनिया ही होती है। एक ऐसी दुनिया जहाॅं दुःखों, चिन्ताओं, और जिम्मेदारियों की पॅंहुच नहीं होती है। एक ऐसी दुनिया जहाॅं सिर्फ आनन्द ही आनन्द, सिर्फ खुशी ही खुशी और सिर्फ मस्ती ही मस्ती होती है।
दरअसल बच्चा मनुष्य और मनुष्यता का बीज रूप होता है। जिस प्रकार एक नन्हें से बीज के अंदर विशाल वृक्ष का स्वरूप छिपा होता है ठीक उसी प्रकार बच्चे के अंदर मनुष्य और मनुष्यता का भविष्य। बच्चों के महत्व को ले कर दुनिया के विद्वानों ने अनेकों प्रकार के मत व्यक्त किए हैं। बिलियम वर्ड्सवर्थ ने बहुत पहले कहा था कि- ‘‘child is the father of man*’। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था कि-‘‘मैं यह देख कर हैरत में पड़ जाता हूॅं कि किसी देश या व्यक्ति का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं। मैं ज्योतिष की गिनतियों में दिलचस्ची नहीं रखता। मुझे जब हिन्दुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो मैं बच्चों की आॅंखों और उनके चेहरों को देखता हूॅं। बच्चों में मुझे भावि भारत की झलक दिख जाती है।’’
Gordon B. Hinckley ने भी बच्चों के लिए लगभग यही बात कही है-‘If we are worried about the future then we must look today at the upbringing of children.**
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि बच्चा की परिभाषा क्या है। या कि बच्चा कहा किसे जाता है। जीव विज्ञान की दृष्टि से मनुष्य के जन्म से ले कर तरूणावस्था के बीच की आयु को बच्चा कहा गया है। हमारी पुरानी मान्यताओं में तो मनुष्य की गर्भावस्था की स्थिति को भी बच्चा ही माना गया है क्यों कि माॅं के गर्भ में आने के साथ ही मनुष्य का अस्तित्व प्रारम्भ हो जाता है और उसमें सुनने, समझने तथा महसूस करने की शक्ति का श्रीगणेश भी हो जाता है। महाभारत में वर्णित चक्रव्यूह भेदन से सम्बन्धित अभिमन्यु की कहानी भी इस धारणा को पुष्ट करती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ द्धारा 1989 में बच्चों के अधिकार के सम्बन्ध में पारित घोषणा की धारा-1 के अनुसार मनुष्य के अट्ठारह वर्ष से कम आयु की अवस्था को बच्चा माना गया है। पुराने समय में दुनिया के अधिकांश देशों में बच्चों को सम्पूर्ण मानवीय गुणों के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाता था। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक बच्चों को एक स्वतंत्र सामाजिक प्राणी के रूप में नहीं स्वीकारा जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी तक स्थिति यह थी कि कानून में बच्चों की सुरक्षा, उनके अधिकार तथा उनके प्रति कर्तव्य को ले कर कोई अवधारणा नहीं थी। एक सर्वमान्य स्थापित मत यह था कि बच्चों का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और पिता को अपने बच्चों को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में रखने तथा मनचाहे ढंग से उनका पालन-पोषण करने का अधिकार है। बीसवीं शताब्दी में बच्चों के स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा ने जन्म लिया तथा उनके अधिकारों की बात स्वीकार की गयी।
भले ही उम्र के आधार पर शून्य से अठारह वर्ष तक की आयु को ‘बच्चा’ की संज्ञा दी गयी है किन्तु यह अवधि इतनी लम्बी है और इस अवधि में मनुष्य के अंदर होने वाले शरीरिक, मानसिक विकास का विस्तार इतना विस्तृत एवं विविधतापूर्ण है कि सटीक अध्ययन के लिए इस अवस्था के पुनः वर्गीकरण की आवश्यकता है। शारीरिक, मानसिक विकास, सोच-समझ की क्षमता, तथा आचार, व्यवहार के आधार पर बचपन की इस अवस्था को मुख्यतया तीन भागों में बाॅंटा गया है। 1-शिशु, 2-बालक तथा 3-किशोर।
लगभग पाॅंच वर्ष से पूर्व की आयु का बालक पूर्णतया अबोध होता है तथा देश-दुनिया से बेखबर कल्पनालोक में विचरण करता है। इस आयु के बच्चे में सही, गलत की समझ नहीं होती और दूसरों की नकल करने की प्रवृत्ति प्रबल होती है। इस आयु का बच्चा हॅंसने, रोने के साथ-साथ टूटी-फूटी भाषा में बोलने तथा बड़ों का अनुकरण करने का प्रयास भी करने लगता है। वह अपने परिवेश की चीजों के प्रति कौतूहल से भरा होता है तथा उन्हें जानने तथा पहचानने भी लगता है। अतः पाॅंच वर्ष से पूर्व तक की आयु को शैशव काल तथा इस उम्र के बच्चे को शिशु की संज्ञा दी गयी है। सामान्यतया पाॅंच वर्ष की आयु से बच्चों की पढ़ाई-लिखाई प्रारम्भ होती है और इसके साथ ही उनके जीवन में एक नए काल का श्रीगणेश होता है। विद्यालय जाने, नए वातावरण में रहने तथा विभिन्न प्रकार के लोगों से मिलने-जुलनेे के कारण बच्चे का सम्पर्क क्षेत्र बढ़ता है और उसकी सीखने, समझने की क्षमता का विकास होता है। इस आयु के बच्चों को सही, गलत की पहचान होने लगती है, उनमें भय, साहस, राग, द्वेष तथा ईष्र्या आदि मानवीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है और अपने को अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। अतः पाॅंच से ग्यारह वर्ष तक आयु वर्ग के बच्चों को बालक की श्रेणी में रखा जाता है। यह बच्चे के जानने, समझने और सीखने का समय होता है। इस उम्र का बच्चा सिर्फ देखता ही नहीं बल्कि सोचता भी है। वह विविध मुद्दों पर तर्क-वितर्क करने लगता है तथा अपने परिवेश की घटनाओं का कार्य-कारण सम्बन्ध जानने का प्रयास भी करने लगता है।
सामान्यतया बारह, तेरह वर्ष की उम्र से बच्चों में शारीरिक विकास बहुत तेजी से होने लगता है। इस आयु में बच्चों में द्वितीयक वृद्धि प्ररम्भ हो जाती है। उनमें जननांगों का विकास होता है तथा विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण पैदा होता है। लड़कों की आवाज भारी हो जाती है तथा उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूॅंछ उगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। लड़कियाॅं रजस्वला होती हैं तथा उनमें शरीरिक विकास की गति अपेक्षाकृत अधिक तीव्र हो जाती है। इस उम्र तक आते-आते बच्चे पूरी तरह से जागरूक तथा संवेदनशील हो जाते हैं। वे चीजों के बारे में अपनी स्वतंत्र मत निर्धारित करने लगते हैं। उनमें स्मरणशक्ति, चिन्तन, जिज्ञासा, तर्क, विश्लेषण, अन्वेषण आदि की क्षमता बढ़ जाती है तथा जिम्मेदारी की भावना पैदा हो जाती है। इस उम्र में लड़के, लड़कियों दोनों में ही लज्जा, आत्ममुग्धता, आत्मसम्मान, प्रेम, घृणा, भय, क्रोध एवं आक्रोश आदि भावनायें चरम पर होती हैं। यह उम्र बच्चों के विकास का संक्रमण काल होता है। यही उनके गिरने, सॅंभलने और बनने, बिगड़ने का समय होता है। इस आयु के बच्चों को किशोर या तरूण कहा गया है। अ्रग्रेजी में इसी आयु को ‘टीन एज’ कहा गया है।
बचपन का अपरोक्त वर्गीकरण सामान्य स्थितियों को ध्यान में रख कर किया गया है। अलग-अलग स्तर के परिवारों तथा अलग-अलग परिवेश में पले बच्चों के शारीरिक, मानसिक विकास में भिन्नता स्वाभाविक है। वर्तमान समय में टेलीविजन, कम्प्यूटर और इंटरनेट आदि ने बच्चों को समय से पहले ही उनकी उम्र के मुकाबले अधिक बड़ा और समझदार बना दिया है। इसलिए बचपन का उपरोक्त वर्गीकरण अब काफी हद तक बेमानी हो चुका है।
कानून की दृष्टि में विभिन्न कार्यों के लिए बच्चों की अलग-अलग आयु निर्धारित है। उन्नीसवीं शताब्दी में सात साल से कम उम्र के बच्चों को किसी भी प्रकार के अपराध के लिए जिम्मेदार नहीं माना जाता था। सात वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को अपने अपराध के लिए जिम्मेदार माना जाता था और उन्हें अपराध के लिए वयस्क के बराबर सजा दी जाती थी। आज की स्थिति यह है कि अधिकांशतः देशों में बारह वर्ष या उससे अधिक आयु के बच्चों को ही अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है तथा उन्हें सामान्य जेलों में नहीं बल्कि विशिष्ट सुधार गृहों में रखा जाता है। अपने देश के कानून में अलग-अलग किस्म के कार्यों के लिए बच्चों की अलग-अलग आयु निर्धारित की गयी है। बाल श्रम निरोधक कानून 1986 के अंतर्गत चैदह साल की उम्र तक को बच्चा माना गया है और इस उम्र से कम उम्र के बच्चों से श्रम कराना अपराध घोषित किया गया है। भारतीय दण्ड संहिता में अपराध के लिए जिम्मेदारी हेतु बच्चे की उम्र सात से बारह वर्ष निर्धारित है। इस आयु के बाल अपराधियों को सामान्य जेलों में नहीं बल्कि सुधार गृहों में रखा जाता है ताकि उन्हें सुधरने और एक जिम्मेदार नागरिक बनने का अवसर प्राप्त हो सके। अपहरण से रोक के लिए बने कानून में सोलह वर्ष के लड़कों तथा अठारह वर्ष की लडकियों को बच्चा माना गया है। महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाव के लिए 2005 में बने कानून में भी अठारह वर्ष तक की आयु की लड़कियों को बच्चा की श्रेणी में रखा गया है। इसी प्रकार बाल विवाह निषेध अधिनियम में लड़कों की उम्र इक्कीस वर्ष तथा लडकियों की उम्र अठारह वर्ष निर्धारित है।
वस्तुतः बच्चे हमारा भविष्य हैं हमारी उम्मीद हैं और हमारे सुखद सपने हैं। बच्चे हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के वाहक हैं। बच्चे कल के राष्ट्र निर्माता हैं और कर्णधार हैं। बच्चे हमारे अधूरे सपनों के साकारकर्ता हैं। बच्चे जैसा बनेंगे हमारा समाज और राष्ट्र भी वैसा ही बनेगा। बच्चों को अशिक्षित और उपेक्षित रख कर हम स्वस्थ एवं उन्नत समाज या राष्ट्र की कल्पना नहीं कर सकते। बच्चे कुम्हार की चाक पर रखे गीली मिट्टी के लोंदे हैं जिन्हें अभी गढ़ा जाना और आकार दिया जाना शेष है। इसलिए बच्चों को लेकर हमें हमें गंभीर होना होगा और उनके साथ बहुत सावधानी एवं संवेदनशीलता बरतनी होगी।