आवारा सपना
व्यंग्य
Akhilesh Srivastava Chaman
8/12/20241 मिनट पढ़ें
आज जनसंदेश टाइम्स अखबार में छपी व्यंग्य कहानी।
आपने आवारा पुरुषों और आवारा औरतों के बारे में जरूर सुना होगा। न सिर्फ सुना होगा बल्कि ऐसी कुछ विभूतियों का दर्शन लाभ भी किया होगा। और आवारा जानवरों के बारे में तो कहना ही क्या। वे तो हमारे यहाॅं गाॅंव व कस्बों से ले कर शहरों तक यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरते पाए जाते हैं। लेकिन क्या आपने कभी आवारा सपनों के बारे में सुना है ? या आपने खुद कभी आवारा सपना देखा है ? शायद नहीं। लेकिन मुझको यह सुअवसर मिला है। मुझे अक्सर आवारा सपने आते रहते हैं। तो आइए आज आपको अपने एक आवारा सपने से मिलवाते हैं।
आवारा तो आवारा। भला एक जगह चैन कहाॅं उसे ? आवारा सपना मुझको ले कर पहॅंुच गया एक अनजाने देश में। अनजाने देश के एक अनजाने शहर में। अनजाने शहर के एक अनजाने पाॅंच सितारा होटल में। वहाॅं एक बड़े से कमरे में लकदक कपड़ों में सजे-धजे तीन अनजाने आदमी बैठे विचार-विमर्श कर रहे थे।
‘‘यह राजा तो भई अब गड़बड़ करने लगा है। अब यह अपने मन से भी फैसले लेने लगा है। ये लक्षण ठीक नहीं हैं। अभी से सचेत हो जाना चाहिए हमें।’’ उन तीनों में से एक ने कहा।
‘‘हाॅं, मैंने भी गौर किया है कि राजा को बीच-बीच में जनता का कल्याण करने, मॅंहगाई कम करने, जमाखोरी रोकने और भ्रष्टाचार मिटाने आदि के दौरे पड़ने लगे हैं। कभी-कभी वह प्रजा हित की बातें करने लगता है।’’ दूसरा बोला।
‘‘लेकिन राजा की यह आदत तो ठीक नहीं है। इसको राजा बनाया हमने, इसकी ताजपोशी के लिए पैसा बहाया हमने तो इसका फर्ज है कि हमारे इशारों पर चले। वह अपने मन की कैसे कर सकता है भला ?’’ तीसरे ने कहा।
‘‘सही बात है। इसको राजा बनाने में हमारा जो पैसा लगा है उसे ब्याज सहित वसूलना हक है हमारा। अगर हम जिंसों और जन सुविधाओं के दाम बढ़ायेंगे नहीं तो अपने पैसे वसूलेंगे कैसे ? फिर जब देखो तब राजा मॅंहगाई का रोना क्यों रोने लगता है ? पहले ने कहा।
‘‘दरअसल बात यह है कि राजा दो नावों पर सवारी करने की कोशिश करने लगा है। हमारे साथ-साथ वह प्रजा को भी साधने की चेष्टा कर रहा है। यह बात हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। हमने जो पैसा लगाया है इसकी ताजपोशी में उसका कम से कम दस गुना तो वसूल होना ही चाहिए।’’ दूसरे ने कहा।
‘‘ऐसा करते हैं कि उससे दो टूक बात कर लेते हैं। या तो राजा खुद को बदल ले, हमारे कहेनुसार चले नहीं तो हम राजा ही बदल देंगे। राजा बनने के लिए इसके जैसे जाने कितने सत्ता लोलुप नेता हाथ बाॅंधे खड़े हैं कतार में। सारे के सारे हमारे ईशारे पर भाॅंगड़ा और नागिन डांस करने को तैयार हैं।’’ उन तीनों में से पहले ने अपना फैसला सुनाया।
उन तीनों की बातें चल ही रही थीं कि उसी बीच मेरा आवारा सपना वहाॅं से निकल गया। वह राजा के महल में जा पहॅंुचा। मैंने देखा राजा किंचित चिंतित और आक्रोशित मुद्रा में बैठा हुआ था। राजा के सामने उसका परम प्रिय मंत्री बैठा हुआ था। वह मंत्री राजा से भी अधिक परेशान और चिंताग्रस्त दिख रहा था।
‘‘देखो भाई ! ऐसे नहीं चलने वाला। भला यह भी कोई बात हुयी ? प्रजा की इतनी हिम्मत हो गयी कि वह हमारे रहन-सहन, वेशभूषा, हमारे घूमने-फिरने और हमारे यारों-दोस्तों पर टीका-टिप्पड़ी करे ? प्रजा की यह मजाल कि वह हमारे फैसलों पर नजर रखे ? आखिर राजा हूॅं मैं। मनमाना करने का अधिकार है मुझे। कहावत भी है कि-‘किंग कैन डू नो राॅंग’। मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता इस दो कौड़ी की जनता की आलोचना को।’’ तमतमाए राजा ने अपने मंत्री से तैश में .कहा।
‘‘जी। आप बिल्कुल सही फरमा रहे हैं हुजूर। आदर्श प्रजा का कर्तव्य है कि वह अपनी आॅंखें बंद रखे। और अगर देखे भी तो ‘लाली मेरे लाल की जित देखूॅं तित लाल’ की भावना से देखे। जनता को चाहिए कि वह अपने दिमाग को खोपड़ी के डब्बे से निकाल कर किसी लाॅकर में रख दे। सोचने या तर्क करने की गंदी आदत को तिलांजलि दे दे। और अगर सोचे भी तो ‘कोउ नृप होय हमें क्या हानी’ की भावना से सोचे।’’ मंत्री ने राजा की हाॅं में हाॅं मिलायी।
‘‘दरअसल जनता अधर्म की राह पर चल पड़ी है। जबकि मुझे ईश्वर में अगाध आस्था है। देखो, इसीलिए तो मैंने देश को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। मैं तो पूरी तरह ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’ की भावना से काम कर रहा हूॅं। क्या तुम्हें नहीं लगता कि मैं राजधर्म का यथेष्ठ पालन कर रहा हूूॅं।’’
‘‘आप अपनी बिल्कुल जगह सही हैं महाराज। दोष प्रजा के आचरण में हैं। प्रजा को चाहिए कि वह अपने मन बुद्धि और समस्त इंद्रियों की एकाग्रता के साथ सिर्फ राजा की बातों को सुने। न सिर्फ सुने बल्कि राजा के कहे को ही अंतिम सत्य माने। मनुस्मृति में हमारे आदि पुरुष मनु महाराज ने भी लिखा है कि ‘राजा देवता का अंश होता है। राजा का अपमान करना स्वयं देवता का अपमान करना है’।’’ राजा के परम प्रिय सलाहकार मंत्री ने राजा की चिंता संग अपनी चिंता मिलायी।
‘‘तो क्या तुमको ऐसा नहीं लगता है कि हमारी प्रजा पथभ्रष्ट और कर्तव्यच्युत हो गयी है ?’’
‘‘जी महाराज। मुझको भी ऐसा ही लगता है। इस देश की प्रजा लालची, पतित और नमकहराम हो गयी है। वह देशद्रोहियों के बहकावे में आ गयी है।’’
‘‘जरूर ऐसा ही है। मेरा वह प्रतिद्वंदी जो लम्बे समय से राजगद्दी पाने के सपने देख रहा है संभवतः उसी ने भड़काया है प्रजा को।’’
‘‘आप बिल्कुल दुरूस्त फरमाते हैं राजन। राजगद्दी के लिए वर्षों से ललचा रहा आपका प्रतिद्वंदी निरंतर षणयंत्र करता रहता है। वह आगे भी षणयंत्र करता रहेगा। इसलिए हमें सोचना चाहिए कि इस समस्या का समाधान कैसे हो ? ऐसी स्थिति में हमें करना क्या चाहिए ?’’
‘‘ऐसी प्रजा जो विरोधियों के बहकावे में आ जाय मुझको कत्तई पसंद नहीं है। हमें गूॅंगी बहरी और अंधी प्रजा चाहिए। हमें ऐसी प्रजा चाहिए जिसने अपने मस्तिष्क से सोचने समझने और तर्क-वितर्क करने की क्षमता को निकाल फेंका हो। प्रजा ऐसी होनी चाहिए जो अपने राजा को ‘त्वमेव माता च् पिता त्वमेव’ की भावना से देखे। अब एक ही रास्ता है। या तो प्रजा खुद को बदल ले वरना हमें प्रजा बदलना होगा।’’ राजा ने अपने मंत्री से कहा।
राजा और उसके परम प्रिय सलाहकार मंत्री की वार्तालाप के बीच से उठ कर मेरा आवारा सपना एक चैराहे पर पहॅंुच गया। वहाॅं अलग-अलग जाति, वर्ण, सम्प्रदाय और अलग-अलग वेशभूषा वाले ढ़ेर सारे लोग एकत्रित थे। वहाॅं जुटे बढ़ी हुयी दाढ़ी, बिखरे बालों, गंदे कीचट कपड़ों, पिचके पेटों, धॅंसी हुयीं आॅंखों, सूखे चेहरों और सूखी लकड़ी जैसे हाथ-पैर वालों को देख कर आसानी से समझ में आ गया कि हो न हो ये ही वे लोग हैं जिन्हें राजा और उसका परम प्रिय मंत्री प्रजा के नाम से सम्बोधित कर रहे थे। मेरा सपना प्रजा प्रजाति के उन्हीं लोगों के बीच घुस कर बैठ गया।
‘‘भाई ! किसी ने अखबार पढ़ा आज का ? खबर है कि एक किसान ने अपने गन्ने के खेत में आग लगा दी और उसी आग में कूद कर फसल के साथ-साथ खुद भी जल मरा।’’ किसी एक ने कहा।
‘‘हाॅं पढ़ा था मैंने। पिछले तीन महीनों के अंदर यह आठवां किसान है जिसने आत्महत्या की है। क्या करें बेचारे ? किसानों की तकलीफ सुनने वाला कोई है भी तो नहीं।’’ दूसरे ने कहा।
‘‘ऐसा नहीं है भाई ! राजा अपने हर भाषण में किसानों की चिंता करता है। सदैव उनके भले की बातें करता है। किसानों के कल्याण के लिए वह बड़ी-बड़ी घोषणाएं करता है। राजा कुछ भला करे चाहे ना करे, वह चिंता करता है यही क्या कम है ?’’ किसी ने तुरंत बात काटी।
‘‘भैया ! मेरे भतीजे ने भी फाॅंसी लगा कर जान दे दी है। उसके बाप ने जमीन बेच कर के उसे इंजीनियरी की पढ़ाई करायी थी। पढ़ने के बाद वह लड़का चार सालों से बेकार घूम रहा था। नौकरी ढू़ॅंढ़-ढ़ॅंूढ़ कर थक गया तो बेचारे ने फाॅंसी लगा ली।’’ कोई तीसरा बोला।
‘‘तो इसमें भला राजा का क्या दोष है ? राजा ने कहा था क्या तुम्हारे भतीजे से कि इंजीनियरी की पढ़ाई करो। जितना पैसा उस लड़के ने पढ़ाई में बरबाद किया उतने में कहीं ढ़ाबा खोल सकता था। कहीं किराने की दुकान खोल सकता था। और कुछ नहीं तो चाय-पकौड़ा का खोमचा लगा सकता था। इस प्रकार वह खुद भी बारोजगार हो जाता और दो-चार दूसरों को भी रोजगार देता।’’ भीड़ की तरफ से आवाज आयी।
‘‘मेरे साले के बेटे ने तो अपनी पत्नी और दो अबोध बच्चों सहित जहर खा कर खुदकशी कर ली है। वह जिस विभाग में नौकरी करता था सरकार ने खर्च में कटौती करने के लिए वहाॅं से एक तिहाई कर्मचारियों की छॅंटनी कर दी है। वह बेचारा भी छॅंटनी के चपेटे में आ गया था।’’ एक किनारे उदास बैठे आदमी ने कहा।
‘‘इसका मतलब तुम्हारे साला का बेटा कायर और कामचोर था। वह सरकारी नौकरी के चक्कर में पड़ा ही क्यों ? बेचारा राजा देश की अर्थव्यवस्था ऊपर उठाने की परवाह करे कि आम आदमी के घर-परिवार और नौकरी की फिक्र करे ? वैसे भी सरकारी कर्मचारी देश के लिए बोझ होते हैं।’’ भीड़ में से कोई बोला।
‘‘भाई, जो भी कहो लेकिन मॅंहगाई बहुत बढ़ गयी है। कम आमदनी वालों को तो परिवार के लिए दोनों जून का भोजन जुटा सकना भी कठिन हो गया है।’’ पीछे से कोई बोला।
‘‘अरे कृतघ्न ! अरे अधर्मी ! मॅंहगाई तो तुम्हें दिख रही है लेकिन इतना भव्य मंदिर तुम्हें नहीं दिख रहा ? बेकारी तो तुम्हे दिख रही है लेकिन राजा जो हम प्रजा के कल्याण के लिए नित्य ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर दो घंटे पूजा-पाठ करता है, हवन आरती करता है वह नहीं दिख रहा ? राजा बेचारा जो देश से ले कर विदेशों तक के एक-एक मंदिर में जा कर देश के विकास और जनता की खुशहाली के लिए प्रार्थनायें करता फिर रहा है तुम्हें वह नहीं दिखता ?’’ भीड़ में से कोई गुर्राया।
‘‘हाॅं भाई ! सही कहा आपने। बहुत भाग्यशाली हैं हम लोग जो हमें ऐसा धर्मात्मा राजा मिला है। उसकी दिनचर्या का तीन चैथाई समय तो जन कल्याण के लिए पूजा-पाठ करने और मंदिरों में घंटा नगाड़ा बजाने में ही व्यतीत होता है। यह हमारी कृतघ्नता है कि हम ऐसे महान प्रजावत्सल राजा की आलोचना करते हैं। सारी हैरानी परेशानी मॅंहगाई बेकारी भूल कर हमें राजा की कुशलता के लिए व्रत उपवास और अरदास करना चाहिए।’’ किसी बुजुर्ग ने कहा।
अचानक तभी ‘‘अरे ! अभी तक सो रहे हैं ? आज टहलने नहीं जायेंगे क्या ? चलिए उठिए।’’ पत्नी ने तेज आवाज में कहा तो नींद टूट गयी। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। बहुत झल्लाहट हुयी पत्नी पर जो उसने ऐसे मजेदार सपने के बीच जगा दिया था।
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