अपराध
लघु कथा
राजन बाबू पिछले दो दिनों से बहुत असमंजस में थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर करें तो क्या करें। एक तरफ गाढ़ी कमाई के दो हजार रूपए थे तो दूसरी तरफ वर्षों पुराना सम्बन्ध। सम्बन्धों में कोई खटास न आ जाय इस ड़र से वे बात को पिछले एक साल से टालते आ रहे थे। लेकिन अब ऐसा लगने लगा था कि मिश्रा जी से दो टूक बात किए बगैर बात नहीं बनेगी।
लगभग एक साल पहले की बात है। राजन बाबू के पड़ोसी मिश्रा जी एक दिन शाम के समय बहुत हड़बड़ी में आए और आते ही बोले-‘‘राजन बाबू ! मुझे इस समय दो हजार रुपयों की सख़्त जरूरत है। अगर आप के पास हो तो मुझे उधार दे दीजिए। मैं कोशिश करूॅंगा कि महीने भर के भीतर आप को वापस कर दूॅं।’’
मिश्रा जी की हड़बड़ाहट, उनके बात करने के ढ़ंग तथा उनके चेहरे की भाव-भंगिमा को देख कर राजन बाबू को लगा कि हो न हो जरूर कोई खास बात है तभी मिश्रा जी इस कदर परेशान नजर आ रहे हैं। राजन बाबू मना नहीं कर सके। ‘‘अरे ! ठीक है मिश्रा जी। आदमी ही तो आदमी के काम आता है। आप रुपए ले जाइए....जब आप को सुविधा हो तब आराम से वापस कर दीजिएगा।’’ राजन बाबू ने कहा और तुरन्त दो हजार रुपए उधार दे दिए ।
दिन, हफ्ते होते-होते कई महीने बीत गए लेकिन मिश्रा जी ने रुपए वापस करने का नाम नहीं लिया। राजन बाबू संकोच में कुछ कहते नहीं थे और मिलने पर मिश्रा जी ऐसा व्यवहार करते जैसे उन्हें कुछ याद ही न हो। धीरे-धीरे सात महीने बीत गए। एक दिन बातचीत के दौरान राजन बाबू ने ईशारे में कहा-‘‘मिश्रा जी ! आजकल हाथ बहुत तंग चल रहा है। नई कक्षाओं में बच्चों के एड़मिशन कराने तथा किताबें, कापियाॅं खरीदने में घर का बजट गड़बड़ा गया है।’’
‘‘हाॅं राजन बाबू ! आजकल तो स्कूलों की फीस और बच्चों की किताबें कापियाॅं इतनी मॅंहगी हो गयींे हैं कि एक आम आदमी अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा भी नहीं सकता। इन अंग्रेजी स्कूल वालों ने तो लूट मचा रखी है लूट।’’ मिश्रा जी ने कहा और मॅंहगी शिक्षा व्यवस्था तथा शिक्षा के व्यावसायीकरण पर एक अच्छा-खासा भाषण दे ड़ाला। राजन बाबू एक अच्छे श्रोता की तरह उनका व्याख्यान सुनते रहे।
उस दिन भी राजन बाबू अपने पैसों के लिए खुल कर नहीं कह पाए और बात आई, गई हो गई। अब धीरे-धीरे एक साल बीतने को आ गया था। इस समय राजन बाबू को वास्तव में पैसों की आवश्यकता थी। उन्होंने तय कर लिया था कि आज साफ-साफ तगादा करेंगे अपने पैसों के लिए। वे शाम के समय अपने लाॅन में टहल रहे थे कि हाथ में सब्जी का थैला लिए मिश्रा जी चैराहे की तरफ से आते दिख गए। राजन बाबू झट गेट खोल कर बाहर निकल आए और मिश्रा जी के करीब पॅंहुचते ही बगैर किसी भूमिका के बोल पड़े-‘‘मिश्रा जी ! पिछलेे साल आपने दो हजार रुपए उधार लिए थे। कृपया उसे वापस कर दीजिए।’’
‘‘अरे भाई ! मैं कब कह रहा हूॅं कि मैंने उधार नहीं लिया था। लेकिन आप ने तो हद कर दी। राह चलते ऐसे टोक रहे हैं जैसे मुझे खजाना दे दिया हो आप ने....या आप के दो हजार रुपए ले कर मैं मुहल्ला छोड़ कर भागा जा रहा हूॅं। किसी की इज्जत, प्रतिष्ठा का ध्यान ही नहीं आप को।’’ राजन बाबू की बात सुनते ही मिश्रा जी हत्थे से उखड़ गए। वे धाराप्रवाह बोलते चले जा रहे थे और राजन बाबू ऐसे एकटक उनका मुॅंह देखे जा रहे थे मानो अपने रुपयों के लिए टोक कर उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो ।