अंधी-दौड़
कहानी
रात के लगभग साढ़े नौ बजे का समय था। लाल साहब यानी अविनाश लाल और उनकी पत्नी निर्मला देवी साथ-साथ बैठे खाना खा रहे थे। सामने टी0वी0 पर निर्मला देवी का मनपसन्द सीरियल चल रहा था। अचानक तभी मोबाइल फोन का ट्यून बजने लगा। निर्मला देवी ने लपक कर मोबाइल को उठाया और बटन दबा कर कान से लगा लिया। इस बीच लाल साहब ने रिमोट उठा कर टी0वी0 की आवाज बहुत धीमी कर दी।
‘‘खूब खुश रहो बेटा। बिल्कुल ठीक हैं हम लोग। क्या......? क्या...सच......? क्या बिल्कुल ही फाइनल कर लिया है तुम लोगों ने.....? तो...तो ठीक है भाई....जैसी तुम्हारी मर्जी....। जैसा उचित समझो तुम लोग। अब हम क्या कहें इस बारे में...।’’ फोन पर बात करते-करते अचानक रोआंसी हो गयीं निर्मला देवी।
पत्नी के सवाल, जबाब से अंदाजा लग गया कि बेटे से बात हो रही है। ‘‘क्यों...बिट्टू का फोन है क्या...?’’ अविनाश लाल ने पूछा तो उनकी पत्नी ने मोबाइल उनको थमा दिया।
‘‘हाॅं बिट्टू....खुश रहो बेटा। अच्छा...? अच्छा.....तो ठीक है। ठीक है....जैसा उचित समझो तुम लोग। अरे, तो थोड़ा पहले बताना चाहिए था न....। चलो देखता हूॅं....। अगर कल या परसों के किसी ट्रेन में रिजर्वेशन मिल जाता है तो आ जाायेंगे हम लोग। हाॅं भाई.....तत्काल कोटे में देख लेंगे....। जैसा भी होगा तुम्हें बता देंगे। अच्छा....ठीक है...। ठीक है.....खुश रहो।’’
बेटे से बात करने के बाद अब खाने का मन नहीं रहा। सामने रखी थाली से एक-दो कौर टूॅंगने के बाद उन्होंने थाली परे खिसका दी और खाने की मेज से उठ गए। निर्मला देवी की मनःस्थिति भी लगभग वैसी ही थी। पति के उठते ही दोनों थालियाॅं मेज से हटा कर उन्होंने भी हाथ धो लिया।
‘‘आपने तुरन्त फोन काट क्यों दिया.....और एकदम से हामी क्यों भर ली ? बिट्टू को समझाया क्यों नहीं कि जल्दबाजी में कोई कदम न उठाए....। अपने निर्णय पर वह फिर से दोबारा विचार करे।’’ बिस्तर में आ कर पति के बगल में लेटने के बाद निर्मला देवी ने कहा।
‘‘तुम क्या समझती हो कि हमारे समझाने से वह मान जाएगा। आज के बच्चे भौतिकता की जिस अन्धी-दौड़ में शामिल हैं उसमें ठहरने, सोचने और बड़ों की बात सुनने, समझने का समय ही नहीं है उनके पास। अपने निजी मामलों में किसी भी प्रकार की दखलन्दाजी कत्तई पसन्द नहीं करते आज के बच्चे। वैसे भी आज के बच्चे हमसे, तुमसे ज्यादा समझदार हैं। वक्त इतनी तेजी से बदला है कि आज के दौर में बड़े-बुजुर्ग आउटड़ेटेड़ हो चुके हैं। अगर तुम्हें इस बात का भ्रम है कि समझाने, बुझाने से वह मान जाएगा, तो चलो, चल कर समझा लेना....देखते हैं कितनी मानता है तुम्हारी।’’ अविनाश लाल ने कहा और करवट घूम गए। निर्मला देवी ने भी दूसरी दिशा में करवट ले ली।
एक दूसरे की तरफ पीठ किए लेटे पति, पत्नी दोनों में से किसी की भी आॅंखों में नींद नहीं थी। निर्मला देवी की आॅंखों में बिट्टू का सारा बचपन सजीव था तो अविनाश लाल की आॅंखों में अपने बचपन से ले कर अब तक के विस्थापन दर विस्थापन की पूरी कहानी सिनेमा की रील की भाॅंति चल रही थी। वह सोच रहे थे बिट्टू कुछ अलग तो कर नहीं रहा। खुद उन्होंने भी तो यही किया था। सुख-सुविधा की तलाश में गाॅंव से बनारस और बनारस से लखनऊ कस्तूरी-मृग की भाॅंति भागते रहे थे। अब बिट्टू यदि उससे आगे की उड़ान ले रहा है तो इसमें बुराई ही क्या है। उनकी सामथ्र्य सिर्फ लखनऊ तक की थी तो लखनऊ आ कर थम गए। बेटे की सामथ्र्य आगे की है तो वह आगे तक जा रहा है। बिट्टू उनकी सलाह पर कान नहीं दे रहा है तो इसमें भी कुछ नया नहीं है। उन्होंने ही अम्मा, बाबूजी की बात कहाॅं मानी थी उस समय। तब उन्होंने अपने मन वाली की थी तो अब बिट्टू अपने मन की कर रहा है। ठीक ही तो कहा है किसी ने कि इतिहास अपने आप को दुहराता है, सो दुहरा रहा है।
लगभग पाॅंच दशक पुरानी बात होगी। गाॅंव के अपने अटारीदार कच्चे खपरैल घर के ठीक सामने मुॅंह चिढ़ाते खड़े इंस्पेक्टर साहब के दो मंजिले पक्के मकान को देख कर अन्नू यानी अविनाश चन्द्र लाल नामक बच्चे के मन में एक टीस सी उठती थी। राजसी वस्त्रों में सजे-धजे किसी महाराजा के सामने कोई दीन-हीन फटेहाल भिखारी खड़ा हो जैसे, किसी अति सुन्दर रूपवती के बराबर में कोई काली-कलूटी कुरूपा खड़ी हो जैसे, किसी सुन्दर-सुकांत छः फुटे जवान के बगल में कोई बौना कुबड़ा खड़ा हो जैसे ठीक वैसा ही लगता था उस चमचमाती पक्की हवेली के सामने खड़ा मिट्टी का वह पुराना खपरैल मकान। तब वह छोटा सा बच्चा अन्नू मन ही मन यह संकल्प लेता था कि बड़े होने और नौकरी से लगने के बाद सबसे पहला काम वह यही करेगा कि अपने कच्चे घर को पक्का कराएगा। ठीक अपने घर के सामने स्थित इंसपेक्टर साहब के मकान की तरह पक्का बनवाएगा। होश सॅंभालने से लेकर नौकरी पाने तक की अवधि में उस बच्चे के मन ने इस संकल्प को असंख्य बार दुहराया होगा। नौकरी से लगने के लगभग दो वर्षों बाद जैसे ही कुछ पैसे एकत्र हुए उसने सामने का कच्चा बरामदा गिरवा कर उसे पक्का कराया तथा मकान केे टूट-फूट वाले हिस्सों की भी मरम्मत करा दी। अम्मा और विशेष रूप से बाबूजी की आॅंखों की चमक देखने लायक थी उस समय। सीमित आय और अधिक खर्चे के कारण बाबूजी जो काम लाख चाहने के बावजूद खुद ताउम्र नहीं करा सके थे उसे अपने बेटे के हाथों होते देख फूले नहीं समाए थे। पिता की खुशी देख अविनाश लाल को भी बहुत संतोष हुआ था।
ऐसे ही धीरे-धीरे कर के पूरे मकान को पक्का कराने का ईरादा था अविनाश लाल का। लेकिन आदमी की सोची हर बात पूरी कहाॅं हो पाती है भला। उनके माॅं-बाप को बेटे की शादी की चिन्ता सताने लगी। उनके ऊपर शादी के लिए चैतरफा दबाव पड़ने लगा। सो थोड़ा ना-नुकुर के बाद शादी करनी पड़ी। फिर शादी के बाद तो जीवन की सारी प्राथमिकतायें ही बदल गयीं। उन्होंने जैसे-तैसे छः महीने अकेले काटे उसके बाद पत्नी को अपने साथ ले आने की आवश्यकता महसूस होने लगी। उन दिनों बनारस में नियुक्ति थी उनकी। अर्दली बाजार मुहल्ले में दो कमरों का किराए का एक मकान ले कर वह पत्नी को साथ ले आए।
अभी तक तो वह अपने एक सहकर्मी के साथ साझे में किराए की एक कोठरी में रहा करते थे, होटल से खाने की टीफिन मॅंगा लिया करते थे, और अवकाश के दिनों में घर चले जाया करते थे, इसलिए एक किराएदार के रूप में किन-किन परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है इसका कोई खास अनुभव नहीं था उनको। लेकिन पत्नी के साथ स्थायी रूप से रहने, और गृहस्थी बसाने के बाद उन्हें समझ में आया कि किराए के मकान में रहना कितना कष्टदायक है। मकान मालकिन अत्यधिक कर्कशा थी। जब देखो तब लड़ने को तैयार रहती थी। दरवाजा खुला क्यों रह गया, यहाॅं पानी कैसे गिरा, रात में इतनी देर से क्यों आए, इतने मिलने-जुलने वाले क्यों आते हैं, टी0वी0 की आवाज तेज क्यों है आदि बात, बेबात वह टोका-टाकी करती रहती थी। वहाॅं जैसे-तैसे एक साल का समय कटा। शान्त प्रकृति के अविनाश लाल के लिए जब रोज-रोज की चिकचिक असह्य हो गयी तो उन्होंने मकान बदल लिया।
नए मकान में मकान मालिक की तरफ से तो किसी प्रकार की दिक्कत नहीं थी लेकिन वहाॅं पानी की बहुत किल्लत थी। अविनाश लाल मकान के प्रथम तल पर रहते थे जहाॅं पानी बहुत कम समय के लिए पॅंहुच पाता था। जरूरत का ज्यादातर पानी आॅंगन में लगे हैण्डपम्प से भर कर ले जाना पड़ता था। बेटा बिट्टू उन दिनों गर्भ में था इसलिए निर्मला देवी का पानी के लिए बार-बार सीढि़यों पर उतरना-चढ़ना सुरक्षित नहीं था। पानी की समस्या के अलावे वहाॅं एक दूसरी दिक्कत यह भी थी कि ऊपर का हिस्सा होने के कारण उनका कमरा गर्मियों में तपता बहुत था। तपते कमरे में पंखे की हवा लू जैसी लगती थी। अतः उस मकान को भी छोड़ना पड़ा। तीसरा मकान और सभी दृष्टियों से तो ठीक था लेकिन उसके बगल से शहर का गंदा नाला बहता था और अविनाश लाल मकान के जिस पिछले हिस्से में रहते थे उसकी खिड़कियाॅं नाले के तरफ ही खुलती थीं। नाला के कारण वातावरण में हमेशा एक दुर्गन्ध सी व्याप्त रहती थी। मुसीबत यह थी कि यदि खिड़की को बंद रखें तो कमरे में अॅंधेरा, घुटन और सीलन रहता था, और यदि खिड़की खोलें तो कमरे में मक्खी, मच्छर और दुर्गन्ध भर आता था। अविनाश लाल तो सवेरे आफिस चले जाते थे लेकिन निर्मला देवी छोटे से बच्चे को ले कर सारे दिन परेशान हो जाती थीं। फलतः उस मकान को भी छोड़ना पड़ा। इस प्रकार दूसरी औलाद यानी रिंकी के पैदा होने तक लगभग छः सालों की अवधि में उन्हें किराए के चार मकान बदलने पड़े थे।
शादी के बाद अचानक बढ़ी जिम्मेदारियों, खर्चों और व्यस्तताओं के कारण गाॅंव के कच्चे मकान को पक्का कराने का सपना अधूरा ही रह गया था। थोड़ी सी साॅंस लेने की फुरसत मिली तो अविनाश लाल ने उस अधूरे छूट गए काम को पूरा करने का मन बनाया। लेकिन तब उनकी पत्नी विरोध में कमर कस कर खड़ी हो गयीं। ‘‘गाॅंव के मकान में पैसा लगाने का क्या औचित्य है भला ? यहाॅ शरणार्थियों की तरह हम लोग इस घर से उस घर, इस गली से उस गली, इस मुहल्ले से उस मुहल्ले मारे-मारे फिर रहे हैं....। यह नहीं होता कि कहीं एक छोटा सा प्लाट ले कर दो कमरे बनवा लें जहाॅं सुकून से रहा जा सके। चले हैं गाॅंव में घर बनवाने.....गोंइठा में घी सुखाने।’’
‘‘अरे ! तुम कैसी बात कर रही हो निर्मला....? वह अपना पुश्तैनी घर है भाई...। उससे कुल-खानदान की मान-मर्यादा जुड़ी हुयी है.....पुरखों की आत्मा बसी है वहाॅं। उसे ठीक-ठाक रखना हमारी जिम्मेदारी है।’’ अविनाश लाल ने पत्नी को समझाने की कोशिश की।
‘‘अरे बाबा ! मैं कब कहती हूूॅं कि पुश्तैनी मकान नहीं है वह। लेकिन अपना और बच्चों का भविष्य भी तो देखो। जब तक नौकरी करनी है तब तक तो तुम्हें शहर में ही रहना है और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी शहर में ही होनी है। ऐसे में कब तक बंजारों की तरह सामान उठाए यहाॅं-वहाॅं भागते फिरेंगे ? बच्चे तो रहने के लिए गाॅंव जाने से रहे। रिटायरमेंट के बाद भी तुम भले ही गाॅंव में जा कर रहना, मैं तो वहाॅं रहने वालीे नहीं। सारी उम्र शहर में रहने के बाद मुझसे तो रहा नहीं जाएगा उस देहात में। इसलिए पहले यहाॅं बनारस में सर छुपाने भर को दो कमरों का इन्तजाम कर दो फिर गाॅंव का मकान तुड़वा कर महल, दोमहला बनवाना मैं कुछ नहीं बोलूॅंगी।’’ पत्नी ने दो टूक बोल दिया।
पत्नी की बातों में दम दिखा अविनाश लाल को। उन्हें लगा कि यहाॅं बनारस में छोटा ही सही अपना एक घर होना ही चाहिए। भावनात्मक स्तर पर लाख जुड़ाव हो गाॅंव से लेकिन भौतिक सुविधाओं के अभाव में गाॅंव में स्थायी रूप से रह सकना वाकई मुश्किल काम था। बाबूजी, अम्मा के बाद उस घर का कोई भविष्य नहीं दिख रहा था उनको इसलिए उसमें पैसा फॅंसाना कत्तई समझदारी नहीं थी। पत्नी की बात दिमाग में क्लिक कर गयी और उसी दिन से बनारस में एक भूखण्ड़ की तलाश शुरू हो गयी। थोड़ी छान-बीन के बाद पाण्ड़ेपुर के पास बस रही एक नई कालोनी में एक भूखण्ड़ का सौदा कर लिया उन्होंने। खबर सुनी तो बाबूजी ने टोका भी-‘‘अरे बेटा अन्नू ! यहाॅं गाॅंव में इतने लम्बे-चैड़े मकान के रहते हुए बनारस में जमीन लेने का क्या तुक है भाई। सरकारी नौकरी का क्या भरोसा कि कब, कहाॅं बदली हो जाय। मरम्मत करा के इसी को ठीक-ठाक रखो। यह घर, यह खेती-बारी हमारे बाद तुम्हें ही तो सॅंभालनी है।.एक अकेले कहाॅं-कहाॅं रहोगे तुम ?’’
अम्मा ने भी यही सब समझाया था। वह भी बनारस में जमीन लेने के पक्ष में नहीं थीं। उन लोगों का मानना था कि बनारस में मकान बनवा लेने के बाद बेटा गाॅंव-घर से कट जाएगा। लेकिन अम्मा व पिताजी की सलाह एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दी थी उन्होंने। गाॅंव वाले घर की मरम्मत के लिए जुटाए रूपयों से बनारस में प्लाट का बैनामा कराया फिर कुछ अपने पास की बचत और कुछ बैंक से कर्ज ले कर जल्दी ही दो कमरों का मकान भी बनवा लिया। उसके बाद जब शुभ साइत के अनुसार, पूजा-पाठ करा के सपरिवार अपने मकान में रहने के लिए आए तो लगा कि वास्तव में एक बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है उन्होंने।
बनारस में मकान बन जाने के बाद तो गाॅंव के मकान की बात ही बिसर गयी। दरअसल मकान का काम एक ऐसा काम है जो कभी पूरा होता ही नहीं। लाख कर लो कुछ न कुछ कमी हमेशा बनी ही रहती है। सो जो भी थोड़ा बहुत पैसा जुटता बनारस के मकान को रंगाने-पुताने, सजाने, सॅंवारने में ही लग जाता था। फिर धीरे-धीरे बच्चे भी बड़े हो गए और स्कूल जाने लगे तो उनकी पढ़ाई का खर्च बढ़ गया। इस प्रकार गाॅंव के मकान को तुड़वा कर पक्का बनवाना तो दूर अब तो उसके ढ़ॅंाचे को सही-सलामत बचाए रखना भी मुश्किल पड़ने लगा था। वे मौका लगा कर साल में एक बार गाॅंव जाते और घर की थोड़ी, बहुत मरम्मत या लिपाई-पुताई करा के लौट आते थे।
घीरे-धीरे पन्द्रह साल का समय बीत गया। वे बनारस में ही जम और रम गए थे कि अचानक एक ही जिले में बारह वर्षों या उससे अधिक समय से नियुक्त रहे कर्मचारियों को अन्यत्र स्थानान्तरित करने का सरकारी फरमान जारी हो गया। तमाम लोगों की ही तरह अविनाश लाल भी उसकी चपेट में आ गए और उनका स्थानान्तरण लखनऊ स्थित विभाग मुख्यालय में हो गया। एक तो अपना मकान होने के कारण बनारस में अच्छी-खासी गृहस्थी जम गयी थी और दूसरे बच्चे भी बड़ी कक्षाओं में पॅंहुच गए थे इसलिए परिवार को अपने साथ लखनऊ ले आना संभव नहीं था। फलतः अविनाश लाल को अकेले ही लखनऊ आना पड़ा। कुछ दिनों के ही लखनऊ प्रवास में उनको समझ में आ गया कि अभी तक बनारस में रहते हुए वे कॅंुवें के मेढ़क बने हुए थे। कहाॅं बनारस की गंदी, सॅंकरी गलियाॅं और कहाॅं लखनऊ की साफ-सुथरी चैड़ी सड़के; कहाॅं बनारस की बिजली, पानी की जानलेवा किल्लत और कहाॅं लखनऊ की बिजली, पानी की अबाध आपूर्ति; कहाॅं बनारस में कहीं आने-जाने के लिए रिक्शा वालों की चिरौरी करने की विवशता और कहाॅं लखनऊ के कोने-कोने में दौड़तीं सिटी बसें, आटो रिक्शे, और टेम्पो। यही नहीं धीरे-धीरे उन्हें अनुभव हुआ कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तथा चिकित्सीय सुविधा आदि की दृष्टि से भी लखनऊ, वाराणसी के मुकाबले बेहतर जगह है। प्रदेश की राजधानी होने के कारण हर लिहाज से बेहतर जन-सुविधायें उपलब्ध थीं इस शहर में। छुट्टियों में घर जाने पर जब यहाॅं की विशेषताओं के बारे में बताते तो पत्नी और बच्चे भी बहुत उत्सुकता से उनकी बातें सुना करते थे। वाराणसी से स्थानान्तरित हो कर लखनऊ आने के बाद पहले वर्ष तो वे वाराणसी या कहीं उसके आसपास वापसी के लिए प्रयत्नशील रहे लेकिन दूसरा साल आते-आते उनका निर्णय बदल गया। अब लखनऊ का आकर्षण उनके सर चढ़ कर बोलने लगा था। अब यहीं रहने का मन बना लिया था उन्होंने। उस साल बेटा हाईस्कूल में तथा बेटी आठवीं में थी। उनकी वार्षिक परीक्षायें समाप्त होते ही वे परिवार को लखनऊ ले आए और यहीं बच्चों का एड़मिशन करा दिया।
लखनऊ में किराए के मकान में रहते हुए पुनः कमोवेश वही परेशानियाॅं पेश आने लगीं जैसी कि बनारस में थीं। एक साल बीतते-बीतते परिवार में सभी एकमत हो गए कि अब वापस बनारस जा कर रह सकना संभव नहीं है, अतः बनारस का मकान बेच कर लखनऊ में नया बसेरा बना लेना चाहिए। खाली भूखण्ड़ खरीद कर नए सिरे से मकान बनवाना काफी श्रमसाध्य कार्य था इसलिए तय हुआ कि कोई बना बनाया पुराना मकान खरीद लिया जाय। मकान की तलाश प्रारम्भ हुयी, दलालों की मदद ली गयी और थोड़ी भाग-दौड़ के बाद ही एक नया, अधूरा बना मकान पसंद कर लिया गया। उस मकान की विशेषता यह थी कि लम्बे भूखण्ड़ के आधे हिस्से में दो कमरे किचन का सेट बना हुआ था और शेष आधा हिस्सा खाली था जिसे जरूरत पड़ने पर बेचा भी जा सकता था या उसमें अपनी आवश्यकतानुसार और निर्माण कराया जा सकता था। सो बनारस का मकान बेच कर तथा उसमें कुछ और पैसे मिला कर लखनऊ में मकान खरीद लिया उन्होंने। लखनऊ आने के बाद गाॅंव से दूरी और अधिक बढ़ गयी। अब गाॅंव के मकान को बनवाना तो दूर उसे देखने जाने का भी समय निकाल पाना मुश्किल हो गया उनके लिए।
समय गुजरता गया। बेटी की शादी हो गयी और बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के नोएड़ा में किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकर हो गया। एक साल बाद उन्होंने बेटे की ही पसंद से उसकी शादी भी कर दी। लड़की उसी के साथ नौकरी में थी। बेटा, बहू नोएड़ा में फ्लैट ले कर रहने लगे।
कुछ दिनों नोएड़ा में रह लेने के बाद बेटे के दिलो-दिमाग पर एन0सी0आर0 का चकाचैंध हावी होने लगा। उसको लखनऊ अब बहुत पिछड़ा, गंदा और उबाऊ शहर लगने लगा।
‘‘पापा ! लखनऊ में तो कोई स्कोप है नहीं। मैं चाहता हूॅं कि नोएड़ा में एक फ्लैट ले लूॅं।’’ एक बार छुट्टियों में लखनऊ आने पर बेटे ने कहा।
ठीक है.....जैसी तुम्हारी मर्जी।’’ अविनाश लाल ने बहुत निस्पृह भाव से उत्तर दिया। उनको पता था कि यदि मना करेंगे तो भी बेटा उनकी सुनने वाला नहीं।
‘‘पापा ! मैंने एक फ्लैट देख रखा है वहाॅं, लेकिन पैसे कुछ कम पड़ रहे हैं। फ्लैट पचपन लाख का है जब कि मेरे पास अभी कुल चालीस लाख की ही व्यवस्था हो पा रही हैं। पन्द्रह लाख आप दे दें तो मैं खरीद लूॅं उसे।’’
‘‘पन्द्रह लाख.....? मैं दे दूॅं....? मैं कहाॅं से दूॅंगा बेटा ? मेरे पास तो जो कुछ भी था सब तुम लोगों को पढ़ाने-लिखाने में और रिंकी तथा तुम्हारी शादी में लग गया। लाख दो लाख कहो तो व्यवस्था कर सकता हूॅं।’’
‘‘पापा ! ऐसा क्यों न करें कि इस मकान का आधा खाली पड़ा हिस्सा बेच दें। वैसे भी दो कमरों का सेट आप और मम्मी के रहने भर को काफी है। मैंने पता किया है। साढ़े बारह, तेरह लाख के आसपास इसको बेचने से मिल जायेंगे। बाकी दो, ढ़ाई लाख आप अपने जी0 पी0 एफ0 से लोन ले लीजिए।’’
बेटे ने बिना लाग-लपेट के ऐसा कहा तो भौंचक अविनाश लाल उसका मुॅंह ताकते रह गए। बेटे की बात सुन कर असहज हो गए वे। कोई उत्तर देते नहीं बना उनको। बेटा तो अगले दिन वापस चला गया लेकिन वे लगातार कई दिनों तक परेशान रहे। मकान के खाली पड़े हिस्से में एक तरफ उन्होंने अमरूद, पपीता, और नींबू के पेड़ लगा रखे थे तथा दूसरी तरफ फूलों की क्यारियाॅं बना रखी थीं। सुबह, शाम जब भी अवसर मिलता खुरपी लिए उन्ही पेड़-पौधों की सेवा में लगे रहते थे। कभी मन होता तो वहीं कुर्सी ड़ाल कर पत्नी के साथ बैठ जाते थे। जाड़ों की सुबह धूप तथा गर्मियों की शाम खुली हवा के लिए बड़ी मुफीद जगह थी वह। वह अपने को बहुत खुशकिस्मत मानते थे कि उनके पास इतनी खुली जगह थी। वरना शहरों की फ्लैट संस्कृति में किसी के पास खुली जगह कहाॅं रह गयी है अब। उस जगह को बेचने का कोई इरादा नहीं था उनका। उन्हें उलझन में देख पत्नी ने समझाया-‘‘इसमें परेशान होने की क्या बात है। यह घर, जमीन, मकान, पैसा सब कुछ लेना तो आखिर उसी को है। अभी ले ले या हमारे न रहने पर ले। अगर बेचने को कह रहा है तो बेच दीजिए खाली हिस्सा। मना कर के बुरा बनने से क्या फायदा। हम दो परानी के रहने को यह दो कमरा ही बहुत है।’’
ऊहापोह में पड़े अविनाश लाल को निर्णय लेने में चार दिन लग गए और इन चार दिनों में बेटे का चार बार फोन आ गया। हर बार उसकी एक ही रट रहती कि जल्द से जल्द जमीन बेच कर पैसे की व्यवस्था कर दीजिए वरना फ्लैट हाथ से निकल जाएगा। आखिर न चाहते हुए भी, मात्र बेटे का मन रखने के लिए मकान के उस आधे खाली हिस्से को बेच दिया उन्होंने। दो लाख रूपए जी0पी0एफ0 से लोन लिया और बाकी का प्रबन्ध बैंक की एफ0ड़ी0 बगैरह तुड़ा कर की। इस प्रकार जैसे-तैसे पन्द्रह लाख पूरे कर के बेटे को थमा दिया। अपना हाथ पूरी तरह से खाली करते दुःख तो बहुत हुआ लेकिन फिर भी संतोष था कि बेटा पैसे को कहीं गलत काम में नहीं लगा रहा है। नोएड़ा में फ्लैट खरीदने के बाद गृह प्रवेश के समय बेटे के बुलावे पर जब नोएड़ा गए तो बेटे-बहू की खुशी देख कर उनके मन का सारा संताप जाता रहा।
लगभग दो साल बाद सेवानिवृत हो गए अविनाश लाल। बेटे का बहुत आग्रह था कि वे लोग उसके पास आ कर रहें। अविनाश लाल और उनकी पत्नी का जी भी एक ही जगह और एक सी दिनचर्या से ऊब गया था। वे लोग भी कुछ बदलाव चाहते थे। सो घर में ताला ड़ाल, उसे पड़ोसियों के भरोसे छोड़ कर पति-पत्नी बेटे के पास नोएड़ा आ गए। बेटे के तीन कमरों वाले फ्लैट के पीछे वाले कमरे में वे लोग आबाद हो गए।
सब कुछ बहुत मजे में चल रहा था। बेटा और बहू एक ही साथ एक ही मल्टीनेशनल कम्पनी में काम कर रहे थे और दोनों को मिला कर लगभग एक लाख महीना वेतन मिल रहा था। बेटे बहू को खुश देख अविनाश लाल व उनकी पत्नी भी खुश थे कि अचानक तभी उनकी खुशियों पर उल्कापात हो गया। बहू का एक ममेरा भाई अमेरिका में रहता था। वह कुछ दिनों के लिए भारत आया हुआ था। एक दिन अपनी बहन से मिलने आया तो वह भारत की गरीबी व पिछड़ेपन को कोसने तथा अमेरिका की सम्पन्नता का गुणगान करने लगा। उसने अमेरिका की सम्पन्नता, वहाॅं की सुख-सुविधा भरी जिन्दगी और वहाॅं के वैभव का ऐसा मोहक वर्णन किया कि अविनाश लाल के बेटे, बहू ने भी अमेरिका जाने का सपना पाल लिया। योजनायें बनने लगीं। पता चला तो अविनाश लाल ने समझाया -‘‘बेटा ! यहाॅं तुम लोगों को किस चीज की कमी है जो अपना देश, अपना घर, अपने रिश्ते-नाते छोड़ कर अमेरिका जाने के लिए सोच रहे हो ?’’
‘‘पापा ! आप समझते नहीं। अमेरिका अमेरिका है और इण्डि़या इण्डि़या। यहाॅं जितने काम के लिए मुझे साठ हजार मिल रहे हैं उतने ही काम के लिए अमेरिका में कम से कम दो लाख मिल सकते हैं। मैं और मीनू मिल कर सवा तीन, साढ़े तीन लाख बड़े आराम से कमा सकते हैं अमेरिका में। यानी यहाॅं से साढ़े तीन गुना अधिक।’’
‘‘अरे बेटा ! इतने पैसे की जरूरत ही क्या है तुम लोगों को। कौन दो-चार बेटियों की शादी करनी है जो दान, दहेज जुटाने की चिन्ता है। तुम दोनों जितना कमा रहे हो वही बहुत है तुम्हारे लिए।’’
‘‘पापा ! आप समझते नहीं। आज की तारीख में समय बहुत बदल चुका है। आज अगर आदमी ढ़ंग से जीना चाहे तो चाहे जितना भी पैसा हो कम पड़ जाय। यही देखिए पैसे की कमी के कारण ही तो मुझे यह तीन कमरों का फ्लैट लेना पड़ा। अगर पैसे होते तो मैं चार कमरे का या उससे भी बड़ा लग्जरी फ्लैट ले सकता था। फिर दूसरी बात ये कि अगर हमारे अंदर तीन लाख महीना कमाने की काबिलियत है तो हम एक लाख पर ही संतोष क्यों करें। तीन लाख क्यों न कमायें।’’
अविनाश लाल की समझ में आ गया कि वे समय की रफ्तार में काफी पीछे छूट चुके हैं। उनकी पीढ़ी और उनके बेटे की पीढ़ी के जीवन-दर्शन में दूर-दूर तक कोई साम्य नहीं है। आज की पीढ़ी पैसा, भौतिक सुविधा और दिखावा के पीछे दीवानी है। अब बेटे को समझा पाना या उसे बाॅंध पाना उनके बूते की बात नहीं। सो उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा।
बेटा, बहू के सिर अमेरिका का भूत क्या चढ़ा कि उन दोनों का दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गयी। जब देखो तब उसी की चर्चा, उसी की फिक्र, उसी की तैयारी। उधर निर्मला देवी शादी के तीन वर्षों के बाद भी बहू की सूनी गोद को ले कर परेशान थीं। एक तो बेटे ने शादी इतनी देर से की और शादी हो जाने के तीन वर्षों के बाद भी उसे कोई औलाद न होना निर्मला देवी के लिए चिन्ता का विषय बना हुआ था। वह पोता खिलाने की आस में दुबली हुयी जा रही थीं। वह कई दिनों तक चुपके-चुपके अपनी खोजी नजरों से बहू की देह को टटोलती रहीं। जब उनको इत्मिनान हो गया कि कहीं कुछ नहीं है तो मौका देख कर एक अवकाश के दिन, जब बहू नहा कर बालकनी में बाल सुखा रही थी, उन्होंने बड़े प्यार से कहा-‘‘बहू ! अब तो तीन साल से भी अधिक बीत गए तुम लोगों की शादी के....अब तक तो एक नन्हा-मुन्ना आ ही जाना चाहिए था इस सूने घर में।’’
‘‘अरी मम्मी जी ! कर लेंगे....बच्चा भी कर लेंगे लेकिन अभी तो इस बारे में सोचने की भी फुर्सत नहीं है हमारे पास। अभी तो कैरियर बनाना है....काफी आगे जाना है। अगर अभी से बच्चे के झमेले में पड़ गए तब तो सारा कैरियर चैपट हो जाएगा।’’
‘‘झमेला....? बहू यह क्या कह रही हो तुम....? बाल-बच्चे झमेला हैं, तो फिर शादी, यह नौकरी, यह पैसा, यह मकान....सब किसके लिए है....? किसके लिए रात-दिन हाय-हाय कर के कमा रहे हो तुम दोनों...?’’
कोई जबाब नहीं दिया बहू ने। सास को उसने ऐसी उपहास भरी निगाहों से देखा मानो बहुत बड़ी बेवकूफी की बात कह दी हो उन्होंने। या कि वह जिस स्तर की बात कह रही है उसे समझ सकना कूप-मंड़ूक सास जी के वश मेें नहीं है। अपने व्यक्तिगत जीवन में सास की यह दखलन्दाजी उसे बिल्कुल भी पसन्द नहीं आयी। वह बालकनी से उठी और तौलिया से बाल पोछती अपने कमरे में चली गयी। अवाक निर्मला देवी किंकर्तव्यविमूढ़ सी वहीं खड़ी रह गयीं। वह समझ नहीं पा रही थीं कि आखिर कौन सी ऐसी खराब बात कह दी उन्होंने जो बहू ऐसे तुनक कर हट गयी।
बाद में अकेले में मौका देख कर उन्होंने बहू से हुयी बात पतिदेव को बतायीं तो वह भी उन्हीं पर बिगड़ने लगे-‘‘गलती तुम्हारी है। तुम्हें क्या जरूरत थी बहू से ऐसी बातें करने की....? उनकी निजी जिन्दगी में क्यों दखल देती हो तुम....? उनकी मर्जी बच्चे पैदा करें या न करें....। अपनी जिन्दगी वे जैसे चाहें वैसे जियें। तुम्हें बोलना ही नहीं चाहिए।’’ अपमान का घूॅट पी कर रह गयीं निर्मला देवी।
जैसे-तैसे कुछ दिन बीते। अविनाश लाल तथा उनकी पत्नी नोएड़ा की मशीनी जिन्दगी से बुरी तरह ऊब गए। आकाश में उन्मुक्त उड़ने वाले पंछी को पिंजड़े के अंदर बंद कर दिया जाय जैसे, ठीक वही स्थिति हो गयी थी उन लोगों की। बेटा, बहू तो जैसे पैसा कमाने की मशीन बन चुके थे। दोनों हर समय हड़बड़ी में रहते। एक सुबह निकलते तो देर गए रात को वापस लौटते। वे कब खाते, कब सोते, कब आपस में बोलते-बतियातेे और फिर कब काम पर निकल जाते थे कुछ पता ही नहीं चलता था। किसी के पास बैठने या बोलने, बतियाने के लिए समय ही नहीं था उन दोनों के पास। वे बूढ़ा, बूढ़ी आखिर कितना टी0वी0 देखते, कितनी बातें करते, कितना अखबार पढ़ते और कितनी देर सोते। अपरिचित जगह में कहीं किसी के यहाॅं आने-जाने, बोलने-बतियाने की भी गुंजाइश नहीं थी सो वे लोग वहाॅं की दिनचर्या से बहुत शीघ्र ही ऊब गए।
‘‘बिट्टू ! अब हम लोग लखनऊ वापस जाना चाहते हैं। वहाॅं लम्बे समय तक घर को खाली छोड़ना ठीक नहीं है।’’ एक दिन सवेरे आफिस के लिए निकल रहे बेटे से अविनाश लाल ने कहा।
‘‘तो ठीक है....। डायनिंग अेबिल के पास रखे पैड में ‘गणेश टूर एण्ड ट्रेवेल्स’ का नम्बर लिखा है ....आप फोन कर दीजिएगा.....वह टिकट की व्यवस्था कर देगा।’’ बेटे ने कहा और दरवाजे से बाहर निकल कर लिफ्ट में घुस गया।
अविनाश लाल अवाक् रह गए। बेटे के सीधे-सपाट जबाब से एक धक्का सा लगा उनको। वह उम्मीद कर रहे थे कि उनके लौटने की बात सुन कर बेटा ना-नुकुर करेगा। अभी कुछ दिन और रूकने के लिए उनसे इसरार करेगा लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। उसने चट वापसी के टिकट की व्यवस्था बता दी। उन्होंने बेटे के बताए अनुसार फोन किया। ट्रेवेल एजेन्सी वाले ने तीसरे दिन की रात वाली ट्रेन में आरक्षण करा दी और पति-पत्नी लखनऊ लौट आए।
कुछ हाथ-पाॅंव बहू, बेटे ने मारे, कुछ मदद बहू के ममेरे भाई ने की और उन दोनों के अमेरिका जाने का जुगाड़ बन गया। फोन पर यह खबर देते समय बेटा इतना खुश था मानों दोनों जहान की सम्पदा मिल गयी हो उसेे। ‘‘पापा ! हमारे अमेरिका जाने का प्लान सक्सेस हो गया। इस जाॅब को छोड़ कर हम दोनों साथ ही वहाॅं नई कम्पनी ज्वाइन करेंगे। अभी फिलहाल ढ़ाई लाख मन्थली का आफर है हम दोनों के लिए।’’
अविनाश लाल ने उस दिन भी उसे जी भर समझाया था-‘‘बेटा ! पैसे और सुख-सुविधा के पीछे ऐसी दीवानगी ठीक नहीं। अच्छी-खासी इज्जत की नौकरी है, लाख, सवा लाख महीने की कमाई है तुम दोनों की, नोएड़ा में अपना फ्लैट है, यहाॅं लखनऊ में अपना मकान है....पुराना ही सही वहाॅं गाॅंव में भी एक घर है ही। अब इससे अधिक और क्या चाहिए तुम्हें ? अपना देश, अपना घर और अपने लोगों को छोड़ कर इतनी दूर जाने की क्या जरूरत है भला। लाख अच्छा हो परदेश आखिर परदेश ही होता है बेटे.....सुखःदुख में अपने ही काम आते है।’’ लेकिन बेटे को न तो समझना था न ही उसने समझा। उसके सिर पर तो पैसे की हवस और अमेरिकी सम्पन्नता के चकाचैंध का भूत सवार था। सो वह पासपोर्ट, बीजा की तैयारी में जुट गया। बेटे का रूख देखकर अविनाश लाल समझ गए कि ‘अंधे के आगे रोना, अपना दीदा खोना’ है। इसलिए चुप हो कर बैठ गए।
और आज रात को खाना खाते समय बेटे का फोन आया कि सब कुछ फाइनल हो चुका है। छः दिनों बाद की फ्लाइट से वे पति-पत्नी अमेरिका जा रहे हैं। वह चाहता है कि जाने से पहले कुछ सामान बेच दे और शेष सामान फ्लैट के पीछे वाले कमरे में रख कर सामने के दोनों कमरे किराए पर दे दे। इसी सब प्रबन्ध के लिए उसने अविनाश लाल को तत्काल नोएड़ा आने के लिए फोन किया था जिसे सुन कर पति-पत्नी दोनों का जी कसैला हो आया था।
बिस्तर में लेटे, अतीत की यादों में खोए अविनाश लाल को अचानक पत्नी की सिसकियाॅं सुनायी दीं। पलटे तो देखा कि आॅंचल में मुॅंह छिपाए उनकी पत्नी सुबक रही थीं।
‘‘यह क्या पागलपन है निर्मला ? तुम रो रही हो ? बिट्टू के जाने को ले कर परेशान हो ? मैं तो खुश हूॅं। मैं तो चाहता हूॅं कि बिट्टू अमेरिका जाये, वहाॅं की सम्पन्नता के पीछे छिपी सच्चाई को नजदीक से देखे, भौतिकता की चकाचैंध से उसका मोह भंग हो और वह जाने कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती है। उसे पता चले.कि दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं। अमेरिका में सुविधा है, सम्पन्नता है तो उसकी बहुत तगड़ी कीमत भी चुकानी पड़ती है। वहाॅं इंसान इंसान नहीं रह जाता, मशीन बन जाता है। देखना एक दिन ये दोनों खुद ही ऊब जायेंगे वहाॅं की मशीनी जिन्दगी से। मुझे तो उस दिन की प्रतीक्षा रहेगी जब आकर्षण और तृष्णा के वशीभूत अमेरिका जा रहा मेरा बेटा ऊब, खीझ और वितृष्णा से भरा वहाॅं से वापस आ जाएगा। तुम भी भगवान से यही मनाओ कि ऐसा हो। अमेरिका के मोहपाश में बॅंधे जा रहे बिट्टू का बहुत जल्द मोहभंग हो और वह वापस लौटे।’’ अविनाश लाल ने पत्नी के आॅंसूू पोछते हुए कहा और सीने से लगा कर उनकी पीठ सहलाने लगे।