अमुक जी
व्यंग्य
अमुक जी तो भई अमुक जी ही हैं। अपने ढ़ंग के अलग, अनोखे, अनन्य, अकेले और अलबेले व्यक्तित्व के स्वामी। अगर पूरे देश में नहीं तो कम से कम उत्तर भारत यानी हिन्दी भाषी प्रदेशों का हर वह व्यक्ति जो कवि, श्रोता, लेखक, पाठक, मुद्रक, प्रकाशक तथा साहित्यिक गोष्ठियों, कार्यशालाओं के आयोजक आदि किसी न किसी रूप में साहित्य से जुड़ा है, वह अमुक जी से जरूर परिचित है। (ऐसा खुद अमुक जी का मानना है)। लोग अमुक जी के काम के बारे में भले न जानते हों लेकिन उनके नाम से जरूर परिचित हैं। उनके काम के बारे में लोगों के न जानने के पीछे कारण यह है कि जो चीज इस भौतिक जगत में अस्तित्व में ही नहीं है, उसे कोई कैसे जान सकता है भला। अमुक जी का मानना है कि काम हो चाहे ना हो लेकिन नाम बड़ा होना चाहिए। क्यों कि आज के दौर में बस नाम की पूछ है न कि काम की। अमुक जी के पास मौलिक लेखन के नाम पर भले ही कुछ न हो लेकिन आदि काल से ले कर वर्तमान तक के हिन्दी के लगभग सभी नामचीन कवियों, लेखकों के कथनों, विचारों और उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए वक्तव्यों आदि के उद्धरणों का अद्भुत संकलन है अमुक जी के पास। यानी कहा जा सकता है कि ‘कट, कॉपी, पेस्ट’ की कला में महारत हासिल है अमुक जी को। अपनी इस कला की बदौलत कई पुस्तकें लिख डाली हैं अमुक जी ने।
आप सोच रहे होंगे कि ये अमुक जी आखिर हैं क्या बला, तो मैं बता दूॅं कि अमुक जी हिन्दी साहित्य के स्वयंभू आल इन वन हैं। वे एक कवि, लेखक, आलोचक, समीक्षक, सम्पादक, व्यवस्थापक, आयोजक, संयोजक, वक्ता, प्रवक्ता, मठाधीश, उस्ताद, गुटबाज, तिकड़मबाज, अखाडेबाज, अड़ंगेबाज, मार्गदर्शक, शोधकर्ता और साहित्य के इतिहासवेत्ता आदि सब कुछ एक साथ हैं। हम, आप और साहित्य की समझ रखने वाले अन्य लोग भले ही इस बात को स्वीकार न करें लेकिन स्वयं अमुक जी अपने आप को ऐसा ही बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न मानते, बताते और दर्शाते हैं।
अमुक जी हिन्दी के डाक्टर हैं। तीन-तिकड़म कर के या पूर्व के शोध ग्रन्थों से सामग्री खुरच कर चाहे जैसे भी अर्जित किया हो लेकिन डाक्टर उपाधिधारी अमुक जी स्वयं को विराट तथा अन्य सभी को बौना मानने के लिए प्रतिबद्ध हैं। नाम के आगे डाक्टर का अलंकरण जुड़ा होने के कारण अमुक जी हिन्दी साहित्य के बारे में बोलने, बकने और लिखने, छपाने आदि का सर्वाधिकार अपने पास सुरक्षित मानते हैं। साहित्य की सर्वोच्च उपाधि सम्पन्न अमुक जी दूसरों के कहे और लिखे को बगैर देखे, बगैर जाने, बगैर सुने, बगैर पढ़े, बगैर समझे और बगैर सोचे-विचारे सिरे से खारिज कर देने को अपना गौरव समझते हैं। भले ही व्यक्तित्व के सम्मुख प्रश्न चिह्न और कृतित्व के सम्मुख एक बड़ा सा शून्य हो, फिर भी अमुक जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कई शोध हो चुके हैं। इसमें खास बात यह है कि उन पर शोध करने वाले शोधार्थी को अपने स्तर से कुछ भी श्रम नहीं करना पड़ता है। अमुक जी ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक शोध प्रबंध स्वयं तैयार कर रखा है। निर्धारित राशि ले कर हर शोधार्थी को वे मामूली फेर-बदल के साथ वही शोध प्रबंध पकड़ा दिया करते हैं।
पेशे से अध्यापक अमुक जी बोलने का बढ़िया अभ्यास है। यह बात और है कि वे एक ही बात को हर बार, हर जगह हर किसम के आयोजन में बोला करते हैं। यहॉं तक कि जो बात उन्होंने आज से दस साल पहले कही थी आज भी उसी को दुहराया करते हैं और उम्मीद है कि आगे भी अपने जीवन पर्यन्त उसी को दुहराते रहेंगे। दरअसल अमुक जी का मानना है कि पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने तक उन्होंने जितना पढ़ लिया वही अंतिम और सम्पूर्ण है। उसके बाद तथा उससे आगे कुछ और पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।
आत्मश्लाघा और आत्मगौरव का बखान अमुक जी के वक्तव्य का अनिवार्य अंग होता है। चाहे कोई भी जगह हो, कोई भी अवसर हो और कैसा भी आयोजन हो अमुक जी को अगर माइक मिल गई तो अपने सम्बोधन के आधे से अधिक समय तक वे अपनी उपलब्धियों के विवरण वाचन में ही लगा देते हैं। अपने छात्र जीवन से ले कर वर्तमान तक अमुक जी ने कितनी गोष्ठियों, सेमिनारों और कार्यशालाओं आदि साहित्यिक आयोजनों में भाग लिया है, किन-किन कमेटियों में सदस्य नामित रहे हैं, किन आयोजनों में उनको बतौर अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बुलाया गया है, इन कार्यों हेतु आने-जाने में उन्होंने कब किस श्रेणी में रेल अथवा वायुयान द्वारा यात्रायें की हैं, किन-किन शहरों को अपनी चरण धूलि से पवित्र किया है, किन-किन हस्तियों को अपने दर्शन से उपकृत किया है, किन-किन श्रेणी के होटलों में ठहरे हैं, किस आयोजन में उनको शाल ओढ़ाया गया था, कहॉं उन्हें पुष्प गुच्छ दे कर सम्मानित किया गया था और कहॉं कितनी राशि का लिफाफा पकड़ाया गया था, ऐसी एक-एक बात का विवरण उनके पास उपलब्ध है। कहीं भी बस मौका मिलने भर की देर होती है, अमुक जी अपनी इन उपलब्धियों की सूची सिलसिलेवार सुनाने लगते हैं।
आत्ममुग्धता के चरम तक आत्ममुग्ध अमुक जी अहम् ब्रह्मासि, तथा ‘एको अहम, द्वितियो नास्ति’ की भावना के जीते-जागते प्रमाण हैं। अमुक जी को भ्रम है कि वे हिन्दी साहित्य के सूर्य हैं और बाकी सारे कवि, लेखक, समीक्षक, आलोचक महज टिमटिमाते तारे हैं जो उनकी आभा के कारण आलोकित हो रहे हैं। यदि उनकी आभा न रहे तो हिन्दी का साहित्य जगत अंधकारमय हो जाएगा। अतः रात-दिन अहर्निश वे हिन्दी साहित्य के विकास की चिंता में दुबले होते रहते हैं। अपने सम्मुख किसी दूसरे की प्रशंसा सुनना अमुक जी के लिए नाकाबिले बर्दाश्त है। उनकी निगाह में सिर्फ वही व्यक्ति अच्छा और योग्य है जो उनको सर्वज्ञ माने, उनकी प्रशंसा करे और उनकी हॉं में हॉं मिलाए।
अमुक जी पिष्टपेषण और पैरोडी की कला में सिद्धहस्त हैं। अपनी इस योग्यता के बल पर उन्होंने कुछ लेख, कहानियॉं और कविताएं भी लिख डाली हैं। उदाहरण के लिए अगर किसी पुराने कवि की कविता है कि-‘ढ़ोल बजाता भालू आया, बंदरिया ने नाच दिखाया’ तो अमुक जी की कविता है-‘बंदर जी ने ढ़ोल बजाया, भालू जी ने नाच दिखाया’। कुछ अज्ञानी और खुरपेंची किस्म के लोगों का कहना है कि अमुक जी ने वरिष्ठ रचनाकारों की रचनाओं की चोरी की है। किन्तु अमुक जी ऐसे लोगों को भाव नहीं देते हैं। उन्हें अपने विरोधी खेमे का कह कर उनके अनर्गल आरोपों को वे सिरे से खारिज कर दिया करते हैं। बात भी सही है, किसी विचार अथवा कल्पना पर किसी एक की कापी राइट तो होती नहीं है। जो कल्पना कभी द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी या मैथिली शरण गुप्त या सोहनलाल द्विवेदी के मन में आयी होगी वही दोबारा अमुक जी के मन में भला क्यों नहीं आ सकती ?
पंचतंत्र एवं हितोपदेश की कहानियों, अकबर बीरबल के लतीफों, तेनाली राम के किस्सों तथा प्रचलित लोक कथाओं में पात्रों के नाम तथा शब्दों को आंशिक रूप से बदल कर उन्हें अपनी मौलिक कहानी के रूप में प्रस्तुत करने का कार्य अमुक जी ने बड़े पैमाने पर किया है। मेरा मानना है कि अमुक जी के इस कार्य को साहित्यिक चोरी कह कर अनावश्यक तूल देने के बजाय इसके पीछे छिपी उनकी विराट सेवा भावना को देखा जाना चाहिए। अपनी मौलिक रचना के रूप में ही सही, विस्मृति की तरफ जा रहीं हमारी दंतकथाओं को सुरक्षित एवं संरक्षित करने का जो महान कार्य अमुक जी ने किया है उसके लिए हिन्दी जगत का उनके प्रति आभारी होना चाहिए। न सिर्फ इतना मेरा तो मत है कि पिष्टपेषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने तथा दो-तीन भिन्न रचनाओं को मिला कर एक नई रचना को जन्म देने की कला के विकास के लिए उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए। इसके लिए ‘चौर्य एवं पिष्टपेषित साहित्य’ के नाम से एक अन्य विधा को मान्यता देने तथा इस विधा में महारत प्राप्त साहित्यकारों जिनमें अमुक जी अग्रणी हैं, को पुरस्कृत करने का प्रस्ताव मैं निवेदित करता हूॅं।
अमुक जी सरल भले न हों लेकिन पानी की तरह तरल अवश्य हैं। इतने तरल कि जिस किसी भी बरतन में रख दो उसी के आकार में ढ़ल जाया करते हैं। सच कहें तो तरलता का यह गुण ही अमुक जी की सफलता का राज है। ‘वक्त पड़े बॉंका तो गदहे को कहो काका’ अमुक जी की सफलता का मूल मंत्र है। सम्पर्क बनाने और सम्पर्कों का लाभ उठाने की कला अमुक जी को बखूबी आती हैं। उनको सिर्फ अॅंगुली पकड़ाने भर की देर होती है, पहॅंुचा और आगे बढ़ कर अगले का गला तक वे खुद पकड़ लिया करते हैं। जिससे हित साधन की संभावना होती है उसके सम्मुख अमुक जी ‘त्वमेव माता च् पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धु च् सखा त्वमेव’ की मुद्रा में नत मस्तक हो जाया करते हैं। यह बात और है कि मतलब सध जाने के बाद उस व्यक्ति को इस्ंितजा के ढ़ेले की तरह फेंक दिया भी करते हैं।
अब बताइए, ऐसे प्रतिभाशाली, सर्वगुण सम्पन्न अमुक जी की निंदा करने वालों को मूरख, अज्ञानी,ईर्ष्यालु और साहित्य द्रोही न कहा जाय तो और क्या कहा जाय। और कोई माने या न माने लेकिन मेरा तो मानना है कि अमुक जी प्रातः वंदनीय हैं और हिन्दी साहित्य का हित उनके ही हाथों में सुरक्षित है।