अमुक जी के शोधछात्र

व्यंग्य

Akhilesh Srivastava Chaman

8/1/20231 मिनट पढ़ें

अमुक जी बहुत बड़े विद्वान व्यक्ति हैं। दूसरे लोग माने चाहे न मानें, अमुक जी खुद ऐसा ही मानते हैं। खुद को विद्वान मानने के लिए उनके पास कई ठोस कारण भी हैं। जिस व्यक्ति के नाम के आगे डाक्टर लगा हो, जिसने लगातार लगभग चैंतिस सालों तक किसी डिग्री कालेज में छात्रों को कई-कई घंटों तक अपने रटे-रटाये लेक्चर का घूूंट पिलाया हो, चैंतिस सालों के अध्यापन की अवधि में जिसे कम से कम दो हजार विद्यार्थियों का गुरू कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हो और जिसके बताए नुस्खों की बदौलत दर्जन भर से अधिक छात्र, छात्रायें शार्टकट द्वारा पी.एच.डी. यानी डाक्टरेट का तमगा पा चुके हों, उस व्यक्ति के विद्वान होने की संभावनायें तो भाई साहब बनती ही हैं। कम से कम अमुक जी के शैक्षिक अभिलेख तो उनके विद्वान होने की पुष्टि करते ही हैं।

इस बात के लिए अमुक जी की तारीफ करनी पड़ेगी कि पढ़ाने के मामले में उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ रंच मात्र भी भेदभाव नहीं किया है। जो लेक्चर उन्होंने बीसवीं सदी के नवें दशक में अपनी पहली कक्षा में दिया था, बगैर किसी परिवर्तन के शब्दशः वही लेक्चर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक देते रहे थे। दरअसल डिग्री कालेज में अपनी नियुक्ति के साथ ही अमुक जी ने उन सभी संभावित विषयों जो उन्हें पढ़ाने थे, पर विभिन्न लेखकों की पुस्तकों से कट, पेस्ट, काॅपी कर के नोट्स बना लिए थे। उन नोट्स को उन्होंने कामा, अर्द्ध विराम, पूर्ण विराम और उदाहरण, कोटेशन सहित पूरी तरह से चाट लिया था यानी कंठस्थ कर लिया था। प्रारम्भिक कुछ महीनों तक तो पढ़ाते समय उन्हें नोट्स को सामने रखने की आवश्यकता पड़ती थी लेकिन बाद में सारा कुछ उनके मस्तिष्क के टेप रिकार्डर में ज्यों का त्यों टेप हो गया था। फिर तो वे कक्षा में आते, छात्रों की हाजिरी लेते और टेपरिकार्डर आन कर दिया करते थे। इस प्रकार उनके चैंतिस सालों के अध्यापन काल तक हर वर्ष कक्षा में उनकी जिह्वा के टेपरिकार्डर से एक ही टेप बजता रहा था।

चूॅंकि अमुक जी मेरे विशिष्ठ मित्र हैं इसलिए यदा-कदा उनके यहाॅं मेरा आना-जाना होता रहता है। एक दिन शाम के वक्त गया तो देखा कि अमुक जी अपने चार शिष्यों जिनमें तीन छात्रायें और एक छात्र थे, से घिरे बैठे उन्हें कुछ टोटके बता रहे थे।

‘‘क्यों जी....अभी तुम ट्यूशन पढ़ा रहे हो क्या ?’’ मैंने अमुक जी के बराबर वाली कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।

‘‘ट्यूशन...? कैसी बात करते हो यार। मैं कोई हाई स्कूल या इण्टर का मास्टर हूॅं क्या जो ट्यूशन पढ़ाऊॅंगा ? मैं ठहरा डिग्री कालेज का प्रोफेसर। दो लाख रुपए महीना वेतन मिलता है मुझको। मैं भला क्यों ट्यूशन पढ़ाऊॅंगा ?

‘‘दरअसल इन छात्रों-छात्राओं को कापी-किताब लिए बैठा देखा तो मुझको लगा कि शायद तुम इन्हें ट्यूशन दे रहे हो।’’ मैने कहा।

‘‘ये चारों शोध छात्र हैं। ये लोग मेरे निर्देशन में शोध कर रहे हैं। समय-समय पर अपने शोध की प्रगति बताने के लिए ये लोग आते रहते हैं।’’ अमुक जी मेरी बात को बीच में ही काट कर बोल पड़े।

‘‘अच्छा....अच्छा। तो क्या विश्वविद्यालय ने तुमको भी शोध कराने के लिए अधिकृत कर दिया है क्या ?’’ मैंने चैंकते हुए पूछा।

‘‘और नही ंतो क्या...। मेरे निर्देशन में तीन छात्र शोध कर चुके हैं, ये चार कर रहे हैं और पाॅंच लोग मेरे हाॅं कहने की प्रतीक्षा में लाइन में लगे हुए है। नित्य सुबह-शाम मेरी खुशामद कर रहे हैं।’’ अमुक जी ने गर्वीली आवाज में कहा।

‘‘बड़ी अच्छी बात है। जिस विद्याार्थी को तुम्हारे जैसा योग्य गुरू मिल जाय, जाहिर है उसका शोध भी कुछ खास किस्म का ही होगा। वैसे किस विषय पर शोध कर रहे हैं ये चारों लोग...? जरा बताओगे क्या उसके बारे में ?’’ मैंने उत्सुकता जाहिर की।

‘‘क्यों नहीं...क्यों नही। देखो, ये जो बायीं ओर बैठी हैं वह प्रतिभा रानी हैं। इनके शोध का विषय है -‘मानव जीवन पर हरि नाम का प्रभाव’।’’

‘‘क्या मतलब....? मैं समझा नहीं।’’

‘‘बताता हूॅं...बताता हूॅं।’’ अमुक जी ने बताना शुरू किया-‘‘देखो, कहा जाता है कि ‘यथा नाम तथा गुण’। अर्थात आदमी का जैसा नाम होता है वैसा ही उसका गुण भी हो जाता है। प्रतिभा रानी जिन लोगों के नाम के आगे, पीछे या बीच में ‘हरि’ शब्द आता है, उनके जीवन पर पड़े हरि शब्द के प्रभाव के बारे में शोध कर रही हैं। इन्होंने हरिराम, हरिनाम, हरिशंकर, हरिकृष्ण, हरिनाथ, हरिप्रसाद, हरिप्रकाश, हरिमोहन, हरिदेव, हरिलाल, हरिपाल, हरिमीत, हरिप्रीत, हरि नारायण, हरिचरन, हरिलगन, हरिमगन, हरिहर आदि नामों की एक लम्बी सूची तैयार की है। अब इन नामों वाले व्यक्तियों को तलाश कर ये उनसे बातचीत करेंगी और उनके आचार-विचार तथा जीवन की दशा का अध्ययन करेंगी। ये इस बात का शोध करेंगी कि नाम में ‘हरि’ शब्द होने के कारण उन लोगों के जीवन पर क्या और कितना प्रभाव पड़ा है।’’

‘‘अरे वाह ! ये तो सचमुच अपने तरह का एक नया काम होगा ?’’ मैंने कहा। (यह टिप्पड़ी यद्यपि मैंने व्यंग्य मेें की थी लेकिन अमुक जी ने इसे अपनी प्रशंसा समझी थी।)

‘‘और इनसे मिलो। ये हैं कुमारी सलोनी राय। इनके शोध का विषय है-‘मानव जीवन पर ‘शंकर’ नाम का प्रभाव’। इन्होंने राम शंकर, श्याम शंकर, रमा शंकर, क्षमा शंकर, जय शंकर, विजय शंकर, शिव शंकर, देवी शंकर, उमा शंकर, दुर्गा शंकर, हरि शंकर, लक्ष्मी शंकर, शीतला शंकर, काली शंकर, आभा शंकर, प्रभा शंकर, ब्रह्मा शंकर, कृपा शंकर, दया शंकर, माया शंकर, रेवा शंकर, मेवा शंकर, सेवा शंकर, बाल शंकर, लाल शंकर आदि ऐसे नामों जिनके साथ ‘शंकर’ शब्द जुड़ा हो की सूची बनायी है। सलोनी इन नामधारी लोगों से मिल कर उनके आचरण पर शंकर शब्द के प्रभाव का अध्ययन करेंगी।’’

‘‘बस...बस...बस। अब आगे बताने की आवश्यकता नहीं है। मैं समझ गया कि इन बाकी दो लोगों में से कोई एक राम नाम के प्रभाव तथा दूसरा कृष्ण नाम के प्रभाव पर शोध कर रहा होगा। क्यों कि राम को तथा कृष्ण को मिला कर हिन्दुओं में बहुत सारे नाम होते हैं।’’ मैं बोल पड़ा।

‘‘बिल्कुल ठीक समझा तुमने। इन दोनों के शोध भी कुछ ऐसे ही मौलिक विषयों पर हैं।’’ अमुक जी ने बताया।

‘‘अच्छी बात है। तुम इन बच्चों की तैयारी कराओ....मैं अब निकल रहा हूॅं। मुझे कहीं एक और जगह भी जाना है।’’ मैंने कहा और अमुक जी कुछ बोलें उससे पहले ही उनके घर से निकल गया।

लौटते समय रास्ते भर मैं यही सोचता आया कि अमुक जी के दिशा निर्देशन में शोध कर के निकले छात्र जिन विद्यालयों में अध्यापक नियुक्त होंगे उन विद्याालयों में पढ़ने वाले छात्रों का भविष्य कितना उज्ज्वल होगा।

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