अधर्मी
कहानी
बेचैन वर्मा जी बार-बार करवटें बदल रहे थे। हर थोड़ी देर बाद सिरहाने रखी टार्च जला कर घड़ी में समय देखते फिर ऑंखें मूॅंद कर सोने की चेष्टा करने लगते थे। आज अपनी आदत के विपरीत वे लगभग साढ़े नौ बजे ही बिस्तर में घुस गए थे और इस समय रात के दो बज रहे थे। चार घंटे से भी अधिक समय बीत चुका था उनको सोने का प्रयास करते-करते लेकिन कमबख्त नींद थी कि उनकी ऑंखों तक फटकने का नाम ही नहीं ले रही नहीं थी। घर के सभी दरवाजे, खिड़कियॉं बंद होने के वावजूद बाहर लाउड़स्पीकर पर ढ़ोलक, हारमोनियम और झाल-मजीरे के साथ गूॅंज रही ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ के टेक की कानफोड़ू आवाज जबरदस्ती अंदर घुसी चली आ रही थी। रामचरित मानस के अखण्ड पाठ का यह शोर उनके कानों में पिघले शीशे की तरह पड़ रहा था। आज एक बार फिर वर्मा जी अपने आप को बुरी तरह से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। रह रह कर अपने आप पर कोफ्त हो रही थी उनको। कारण कि इस सारी समस्या की जड़ भी तो वे खुद ही थे। न होता बॉंस न बजती बॉंसुरी। अब, जब बॉंस का पेड़ उन्होंने बो दिया था, सींच कर बड़ा कर दिया था, तो बॉंसुरी तो बजनी ही थी। उसका स्वर उन्हें अच्छा लगे या बुरा इसकी परवाह ही कौन करता है।
वर्मा जी स्थानीय अग्रवाल इण्टर कालेज में अंग्रेजी के अध्यापक हैं। इस छोटे से शहर में नौकरी ज्वाइन करने के बाद पूरे अठारह वर्षों तक वे सक्सेना जी के मकान में बतौर किराएदार आबाद रहे थे। आज से लगभग बाइस वर्षों पहले की बात है यह। तब समय ही कुछ और था। तब लोगों की ऑंखों में पानी हुआ करता था। बड़े, छोटे का लिहाज हुआ करता था। तब समाज में पैसे की नहीं आदमी की बात और जज्बात की कीमत हुआ करती थी। लोग जुबान से निकली बात और सम्बन्धों को पैसे के ऊपर वरीयता दिया करते थे।
उन दिनों नौकरी के लिए इतनी मारा-मारी भी नहीं थी। कालेज की पढ़ाई समाप्त करने के तुरन्त बाद ही वर्मा जी को कस्बानुमा इस शहर के अग्रवाल इण्टर कालेज में नियुक्ति मिल गयी थी। नियुक्ति के बाद आवास की तलाश में भटकते वर्मा जी एक दिन दीवानी के मशहूर वकील सक्सेना जी से टकरा गए थे और सक्सेना जी ने उनको तत्काल लपक लिया था। शहर के हृदय स्थल में सक्सेना जी का लम्बा-चौड़ा दो मंजिला पुश्तैनी मकान था। इतना लम्बा-चौड़ा कि कई कमरे हमेशा बंद ही पड़े रहते थे। भूतल पर उनका चैम्बर और बैठका था। परिवार प्रथम तल पर रहता था। वकालत बहुत अच्छी चलती थी इसलिए सक्सेना जी को किराए की भी कोई लालच नहीं थी। वर्मा जी को हाथांे-हाथ लेने के पीछे उनका मकसद कुछ और था। ‘स्वारथ लागि सबै करि प्रीती’।
सक्सेना जी ने वर्मा जी को बहुत आग्रहपूर्वक अपने यहॉं रहने के लिए बुलाया और मकान के निचले हिस्से में अपने चैम्बर से लगे कमरे का दरवाजा बंद कर के पूरब तरफ के दो कमरे, बरामदा तथा शौचालय व स्नानघर वर्मा जी के लिए अलग कर दिया। वर्मा जी ने किराया के लिए पूछा तो सक्सेना जी ने हाथ जोड़ दिया। बोले-‘‘अरे मास्टर साहब ! आप गुरू हैं। आप सारी दुनिया को विद्या दान करते हैं। भला आप से मैं किराया लूॅंगा ? बस आप इतनी कृपा करिएगा कि मेरे बच्चों को पढ़ा दिया कीजिएगा। मुझको तो कचहरी के झमेले से ही फुरसत नहीं मिलती। बच्चों को देखने का समय ही नहीं मिलता। सुबह नौ बजे कचहरी जाता हूॅं तो आते-आते शाम के छः बज जाते हैं। उसके बाद दो-तीन घंटे चैम्बर में भी बैठना ही होता है। यूॅं समझिए कि अब से मेरे तीनों बच्चों के गार्जियन आप ही हैं। आप इनकी पढ़ाई-लिखाई देख लिया करिए....यही आपका किराया है।’’
‘‘वो तो ठीक है....। आप के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तो मैं देख लूॅंगा। लेकिन आपके मकान में बगैर किराया दिए नहीं रहूॅंगा। कोई दो-चार दिनों या दो-चार महीनों की बात तो है नहीं। अब तो न जाने कितने समय तक रहना हो यहॉं। इसलिए किराया तो आप को लेना ही पड़ेगा।’’ वर्मा जी ने दो-टूक कहा था।
‘‘अगर ऐसी बात है तो ठीक है, चलिए.....आप को जो समझ में आए किराया दे दीजिएगा। लेकिन मैं अपने मुॅंह से कुछ नहीं मॉंगूगा।’’ सक्सेना जी ने उत्तर दिया। दरअसल उनको पैसे की तो कोई कमी थी नहीं। उनको तो एक ऐसा जिम्मेदार ट्यूटर चाहिए था जो उनके बच्चों को पढ़ा सके। इसी स्वार्थ के चलते उन्होंने वर्मा जी को अपने यहॉं रखने का फैसला किया था।
बहरहाल वर्मा जी सक्सेना जी के मकान में आबाद हो गए थे। उस समय सक्सेना जी के बड़े बेटे राहुल की उम्र 10 साल, छोटे बेटे रोहित की उम्र आठ साल और बेटी अर्चना की उम्र लगभग पॉंच साल की थी। उन तीनों को वर्मा जी ने अपने बच्चों की तरह अपना लिया। कुछ दिनों में ही हालत यह हो गयी कि वे तीनों बच्चे केवल सोने के लिए ही अपने घर जाते थे वरना सारे समय वर्मा जी और उनकी पत्नी के पास ही बने रहते थे। प्रायः खाना भी वे वर्मा जी के यहॉं ही खा लिया करते थे। वर्मा जी के बच्चे सक्सेना जी के मकान में ही पैदा हुए और उनके बच्चों के ही साथ खेलते-कूदते बड़े हुए थे। सक्सेना जी के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई वर्मा जी की देखरेख में हुयी। चूॅंकि सक्सेना जी की वकालत जमी-जमायी बहुत अच्छी थी इसलिए बड़े बेटे को उन्होंने वकालत की पढाई करायी। छोटा बेटा पॅालीटेकनिक कर के जे0ई0 हो गया और बेटी भी एम0 ए0 में पॅंहुच गई।
वह सस्ती का जमाना था। जमीन उन दिनों कौड़ियों के दाम मिला करती थी। वर्मा जी चाहते तो शहर में जमीन ले कर अपना स्वयं का मकान बनवा सकते थे लेकिन सक्सेना जी के यहॉं इतना अधिक आराम और इतनी सुविधा थी कि इस दिशा में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं। हालांकि उनकी पत्नी समय-समय पर कहती रहती थीं कि कहीं एक टुकड़ा जमीन ले कर अपना मकान बनवा लेना चाहिए लेकिन वर्मा जी उनके प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर देते थे। कहते-‘‘अरे ! कौन सा हमें स्थायी रूप से यहॉं रहना है। जब तक नौकरी है तब तक यहॉं हैं, रिटायरमेंट के बाद अपने गॉंव लौट चलेंगे। वहॉं बाप-दादा का बनवाया घर वीरान पड़ा रहे और हम यहॉं नया मकान बनवायें, भला यह कौन सी समझदारी है ?’’
वर्मा जी को पूरा विश्वास था कि सक्सेना जी और उनके बेटे जिन्हें उन्होने अपनी सगी औलाद की तरह माना है और पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया है, उनको अपने घर से जाने ही नहीं देंगे। लेकिन ऐसा सोचना वर्मा जी का भ्रम निकला। सक्सेना जी के बेटे जैसे-जैसे बड़े होते गए, घर-परिवार के मामलों में उनका हस्तक्षेप बढ़ता गया। एक रात सक्सेना जी का बड़ा बेटा राहुल अपनी मॉं से जो बातें कह रहा था उसे सुन कर वर्मा जी को अपने कानों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ।
‘‘मम्मी, मेरी समझ से वर्मा अंकल की अभी कम से कम पन्द्रह साल की तो नौकरी बाकी ही होगी। क्या तब तक यहीं रहते रहेंगे ये लोग ? पता है कितना नुकसान हो रहा है उनके रहने से ? चार बार बढ़ोत्तरी करने के बाद वे कुल बारह सौ रुपया महीना किराया दे रहे हैं। अगर थोड़ी सी मरम्मत करा दी जाय, कमरों और बाथरूम में टाइल्स लगवा दिए जाय तो उतने ही पोर्शन का तीन हजार बहुत आराम से मिलने लगेगा।’’
‘‘तो ये सब मुझसे क्यों कह रहे हो....? अपने बाप को समझाओ। उन्होंने तो जैसे जिन्दगी भर के लिए पट्टा लिख दिया है इन लोगों के नाम।’’ यह सक्सेना जी की पत्नी की आवाज थी।
बस उसी रात सोच लिया था वर्मा जी ने कि जितनी जल्दी हो सके सक्सेना जी का मकान खाली कर देना है। उनसे मकान खाली करने के लिए कहा जाय उससे पहले उनको खुद किसी दूसरे मकान में चले जाना चाहिए। वैसे भी अब सक्सेना जी का मतलब सध चुका था। उनके तीनों बच्चे पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो चुके थे। अतः वर्मा जी के रहने, न रहने से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
‘‘बहुत लम्बा समय हो गया यहॉं रहते हुए। मैं सोच रहा हूॅं कि अब हमें यह मकान बदल देना चाहिए। वैसे भी अब सक्सेना जी के बेटों की शादियॉं होंगी तो उनको जगह की आवश्यकता पड़ेगी। वे खाली करने के लिए कहें, उससे पहले ही खाली कर देना ठीक होगा।’’ वर्मा जी ने अपने मन की बात पत्नी को बतायी तो प्रकरण ने अलग मोड़ ले लिया। किराए का एक मकान खाली कर के पुनः किसी दूसरे किराए के मकान में जाना उनकी पत्नी को कत्तई मंजूर नहीं था।
‘‘जैसे अठारह साल बीते वैसे छहः-आठ महीने और सही.....लेकिन अब तो यहॉं से अपने मकान में ही चलेंगे।’’ लोहा गरम देख वर्मा जी की पत्नी ने चोट किया। किशोर हो चुके बेटे ने भी मॉं की हॉं में हॉं मिलायी। अंततः तय हुआ कि चाहे जैसे भी हो शहर के किसी कोने-अॅंतरे में दो कमरे का अपना मकान बनवाया जाएगा। और जब तक मकान बन नहीं जाता है तब तक सक्सेना जी के मकान में ही रहा जाएगा।
वर्मा जी ने सोचा कि संकोच में पड़े सक्सेना जी कुछ कहें उससे पहले खुद ही पहल कर देना ठीक रहेगा। अतः एक इतवार की सुबह जब सक्सेना जी बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे, वर्मा जी ने कहा-‘‘भाई साहब, मैं सोच रहा हूॅं कि कोई छोटा सा प्लाट ले कर, दो कमरे बनवा कर मैं भी इसी शहर का बाशिन्दा बन जाऊॅं। वैसे तो यह काम मुझको बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था लेकिन चलिए जब जागे तभी सवेरा।’’
‘‘हॉं.....ठीक बात है। कहीं कोई प्लाट देखा है क्या आपने....?’’ सक्सेना जी ने अखबार एक तरफ रखते हुए पूछा।
‘‘जी नहीं.....अगर कहीं देखूॅंगा तो आप को सबसे पहले बताऊॅंगा। वैसे इस काम में मैं बिल्कुल अनाड़ी हूॅं। जब तक आप नहीं मदद करेंगे कुछ हो नहीं पाएगा। आप ही कहीं देख-दाख कर एक छोटा सा प्लाट दिलवा दीजिए।’’
‘‘देखता हूॅं.....बात करता हूॅं इस लाइन में काम करने वाले लोगों से...।’’ सक्सेना जी ने आश्वस्त किया। मन ही मन वर्मा जी की समझदारी पर बहुत प्रसन्नता हुयी उनको।
वर्मा जी उसी दिन से एक अदद प्लाट की तलाश में जुट गए। उनके साथ-साथ सक्सेना जी भी रुचि लेने लगे थे।
‘‘ऐसा करिए वर्मा जी कि आप एक सहकारी आवास समिति बना लीजिए। आपका काम आसान हो जाएगा। नागरिकों की आवासीय समस्या को हल करने के लिए शासन द्वारा सहकारी आवास समीतियों को विशेष सुविधायें दी जाती हैं। अपने चार-छः साथियों को तैयार करिए....मैं भी आप लोगों के साथ जुड़ जाऊॅंगा....आठ-दस लोग मिल कर एक समिति बना लेते हैं। समिति के नाम कोई बड़ी सी जमीन ले कर आपस में बॉंट लिया जाएगा।’’ एक रविवार के दिन सक्सेना जी ने कहा और वर्मा जी को सहकारी आवास समिति से सम्बन्धित सारी बातें समझायीं।
वर्मा जी ने अपनी ही तरह दूर-दराज के जिलों के रहने वाले सहकर्मी अध्यापकों से बात की और उनको साथ ले कर सक्सेना जी के निर्देशन में एक सहकारी आवास समिति का गठन कर लिया। सक्सेना जी ने सुझाया कि शहर के अंदर बहुत सारी सरकारी जमीनें पड़ी हैं। अगर उन्हें लम्बी अवधि के पट्टे पर ले लिया जाय तो काफी कम पैसों में बेहतर जमीन मिल सकती है। सक्सेना जी के ही माध्यम से शहर के बस अड्डे के पीछे स्थित एक जमीन की जानकारी मिली जो एक गड्ढ़े और झाड़-झंखाड़ के रूप में थी। यह जमीन नजूल की सरकारी जमीन थी जहॉं पूरे शहर का कूड़ा-कचरा ड़ाला जाता था।
‘‘देखिए वर्मा जी, जमीन का पता लगाना मेरा काम और उसे सोसायटी के नाम एलाट कराना आपका काम।’’ सक्सेना जी ने कहा।
‘‘भाई साहब, मैं तो सिर्फ कोशिश ही कर सकता हूॅं....। बाकी तौर-तरीका तो आप को ही बताना होगा।’’
‘‘तो लीजिए....तरीका भी सुन लीजिए। जमीन को आवंटित करने और पट्टे पर देने का अधिकार जिलाधिकारी को है। और वर्तमान जिलाधिकारी महोदय भी एक अध्यापक के ही बेटे हैं। अध्यापकों का वे बहुत सम्मान करते हैं। अगर इमोशनली ब्लैकमेल कर के आप अध्यापक लोग उनको शीशे में ढ़ाल सकें तो काम हो जाएगा।’’
सक्सेना जी के कहेनुसार वर्मा जी उस जमीन को प्राप्त करने के प्रयास में लग गए। उन्होंने साथ के कुछ अन्य अध्यापकों से बात की। फिर एक शाम कई अध्यापक योजनाबद्ध तरीके से जिलाधिकारी से मिलने उनके आवास पर गए।
‘‘महोदय, हमें यह जान कर बहुत प्रसन्नता हुयी कि हमारे एक अग्रज अध्यापक के सुपुत्र इस जिले की सर्वोच्च कुर्सी को सुशोभित कर रहे हैं। हम सभी अध्यापकों के लिए यह बहुत गर्व की बात है।’’ एक अध्यापक शुक्ला जी ने भूमिका बनायी।
‘‘जी ! सब आप बडे-बुजुर्ग़ों का आशीर्वाद है। बताइए.....कैसे कष्ट किया आप लोगों ने ?’’कलक्टर साहब बोले।
‘‘अध्यापकों की स्थिति से तो आप स्वंय भिज्ञ हैं श्रीमान। हममें से कोई बलिया का रहने वाला है, तो कोई गाजीपुर का, कोई देवरिया का है तो कोई गोण्ड़ा, बलरामपुर का। हम लोग पन्द्रह-पन्द्रह, बीस-बीस सालों से यहॉं किराए के मकानों में रह रहे हैं। यदि आप की कृपा हो जाय तो हम गरीब अध्यापकों के सर पर भी अपनी छत हो जाय।’’ सक्सेना जी के सिखलाने के अनुसार ही वर्मा जी ने कलेक्टर साहब की भावनाओं को कुरेदा।
‘‘जी महोदय, सच कहिए तो हम जिले के कलेक्टर से नहीं बल्कि अपने सुयोग्य भतीजे से निवेदन करने आए हैं। ईश्वर ने शायद हम लोगों के कल्याण के हेतु ही श्रीमानजी को यहॉं भेजा है।’’ वर्मा जी के चुप होते ही गुप्ताजी ने ऊपर से छौंक लगायी।
अध्यापकों की उस टोली से जिलाधिकारी महोदय बहुत सहृदयता पूर्वक मिले, उनकी पूरी बात सुनी और भरपूर मदद का आश्वासन दे कर विदा किया। जिलाधिकारी ने अपने स्तर से वर्मा जी की आवासीय समिति की जॉंच कराई और संतुष्ट होने के बाद वांछित जमीन को उस समिति के नाम नब्बे साल के पट्टे पर दे दिया। न सिर्फ इतना बल्कि नगर पालिका के कर्मियों से कह कर उन्होंने कूड़ाघर के रूप में प्रयुक्त किए जा रहे उस जगह की सफाई भी करवा दी।
अचानक और अप्रत्याशित जो कुछ हुआ वह वर्मा जी तथा उनके साथी अध्यापकों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। शहर के बीचोबीच इतनी बड़ी जमीन इतने सस्ते में और इतनी सुगमता से मिल जायेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की थी किसी ने। जमीन मिलने के बाद आगे की योजना प्रारम्भ हुयी।
‘‘देखिए बन्धुओं, मेरी इच्छा है कि इस कॉलोनी को हम एक आदर्श कॉलोनी के रूप में विकसित करें। समिति के निर्माण और जमीन के मिलने में सक्सेना जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है इसलिए उनको तो प्लाट देना ही है, लेकिन शेष प्लाटों पर हम समधर्मा लोगों यानी सिर्फ अध्यापकों को ही बसायेंगे। मेरी तो इच्छा है कि इस कॉलोनी में प्लाट लेने वाले आप सभी अध्यापक अपना मकान अवश्य बनवायें। फिर भी यदि किन्हीं अपरिहार्य कारणोंवश आप में से किसी को अपना प्लाट बेचना ही पड़ जाय तो इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि उसे किसी गैर के हाथ नहीं बल्कि किसी अध्यापक के हाथ ही बेचें। कॉलोनी में समान शैक्षिक और सामाजिक स्तर के लोग रहेंगे तो आपस में समरसता बनी रहेगी।’’ वर्मा जी ने प्रस्ताव रखा तो सारे अध्यापकों ने हर्षघ्वनि से अपनी स्वीकृति दी। उसी दिन आपसी विचार-विमर्श के बाद कॉलोनी का ‘शिक्षा विहार’ के रूप में नामकरण भी हो गया।
यद्यपि जमीन छोटी थी लेकिन बहुत मौके की थी। बस अड्डे के ठीक पीछे और रेलवे स्टेशन तथा बाजार से सटी हुयी थी। समतल होने के बाद जब प्लाटिंग हुयी तो ऐसे मौके की जगह में एक अदद प्लाट पाने के लिए तमाम लोग प्रयास करने लगे। समिति का सदस्य बनने के लिए लोग मुॅंहमॉंगा पैसा देनेे के लिए तैयार थे। वर्मा जी पर बहुत दबाव पड़ा, उनको लालच भी दिया गया लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। वर्मा जी की इच्छा थी कि उनकी कॉलोनी समान सामाजिक, आर्थिक हैसियत वाले हमपेशा अध्यापकों की एक आदर्श कालोनी बनें। इसलिए कई लोगों की नाराजगी मोल लेने के बावजूद उन्होंने सक्सेना जी के अतिरिक्त किसी अन्य गैर अध्यापक को उसमें साझीदार नहीं बनाया।
नाप-जोख के बाद जमीन की घेराबंदी कराई गयी। समिति के सदस्यों की बैठक में तय हुआ कि बीच में एक छोटा सा पार्क, पार्क के चारों तरफ 25 फिट चौड़ी सड़क और सड़क के किनारे-किनारे प्लाट निकाले जायेंगे। उसमें कुल ग्यारह प्लाट निकले थे जिनमें से नौ प्लाट वर्मा जी तथा उनके सहयोगी अध्यापकों को मिले और दो प्लाट सक्सेना जी के दोनों बेटों को। उस कालोनी को मूर्त रूप देना अब वर्मा जी के लिए एक जुनून सा बन गया था। हालत यह हो गयी कि कभी नगर पालिका कार्यालय में बैठे हैं वर्मा जी तो कभी बिजली विभाग के आफिस में। कभी जल निगम के अभियन्ता की लल्लो-चप्पो कर रहे हैं तो कभी नगर विकास विभाग के प्रशासक की। कभी सड़क के लिए भागदौड़ कर रहे हैं तो कभी सीवर लाइन के लिए। जहॉं जरूरत होती सक्सेना जी भी साथ हो लेते थे, कभी-कभार अन्य अध्यापक भी साथ हो लेते थे लेकिन आगे-आगे हर जगह वर्मा जी ही रहते थे।
यहॉं-वहॉं दौड़ते, अधिकारियों से ले कर बाबुओं तक की दाढ़ी सुहराते, लल्लो-चप्पो करते वर्मा जी को अच्छी तरह से पता चल गया कि किसी सरकारी विभाग से कोई काम करा लेना बैल दूहने के समान है। फिर भी हिम्मत नहीं हारी उन्होंने। वर्मा जी की कोशिश और सक्सेना जी की पैरवी साथ-साथ चलती रही। अंततः सफलता मिली। जमीन की साफ-सफाई, गड्ढ़े की भराई और नक्शा पास कराने से लेकर बिजली, पानी, सड़क, सीवर आदि का सारा काम वर्मा जी की अगुआई में सम्पन्न हुआ। कॉलोनी के प्रवेश द्वार पर ‘शिक्षा विहार’ का बोर्ड टॅंग गया।
कुछ पैसा नियमित बचत का था, कुछ फण्ड से निकाला और कुछ बैंक से कर्ज लिया। इस तरह वर्मा जी ने साल भर के भीतर ही वहॉं चार कमरों का मकान बनवा लिया था। उसके बाद गृह-प्रवेश की औपचारिकता पूरी कर के सक्सेना जी के मकान से विदा हो गए थे। उनकी देखादेखी एक के बाद एक तीन दूसरे साथी अध्यापक भी वहॉं आ बसे थे। लेकिन शेष लोगों ने अपनी जमीनों की चहारदीवारी करा के छोड़ दिया था।
स्थानीय पार्षद के पीछे पड़ कर वर्मा जी ने कालोनी के पार्क की चहारदीवारी बनवाई, उसमें कई ट्राली मिट्टी ड़लवायी और उसको सॅंवारने में जुट गए। अपना सवेरे का एक घंटा समय उन्होंने पार्क में श्रमदान करने के लिए निर्धारित कर दिया था। दैनिक क्रिया से निवृत होने के बाद खुरपी, कुदाल ले कर वे नियमित रूप से पार्क में आ जाया करते थे। वर्मा जी ने सख़्त मिट्टी की गुड़ाई की, क्यारियॉं बनायी, खाद ड़ाला, नर्सरी से ले आ कर पौधे लगाए और घर से बाल्टी भर-भर कर पानी ले आ कर सिंचाई की। उनके जुनून का ही परिणाम था कि कुछ महीनों में ही वह वीरान पार्क नीम, अशोक और गुलमोहर के पौधों तथा भॉंति-भॉंति के फूलों वाली क्यारियों से भर गया था।
आबाद होने तथा नागरिक सुविधायें बहाल होने के साथ ही ‘शिक्षा विहार’ कॉलोनी के प्लाटों की कीमत अचानक कई गुना बढ़ गयी थी। वहॉं एक अदद प्लाट लेने के लिए शहर के धनपशु मॅंडराने लगे थे। जिन लोगों के प्लाट खाली पड़े थे उनसे सम्पर्क करने लगे थे। वर्मा जी ने बहुत सावधानी से सिर्फ अपने नजदीकी अध्यापकों को ही सोसायटी का सदस्य बनाया था। लाख दबाव और प्रलोभन के बावजूद उन्होंने सोसायटी में किसी बाहरी का प्रवेश नहीं होने दिया था। लेकिन उनके कई साथी पैसों की लालच में आ गए थे और अपना प्लाट दूसरों को बेचने लगे थे। वर्माजी के लाख न चाहने के बावजूद एक के बाद एक नए अजनवी चेहरे कालोनी में बसते चले गए।
वर्मा जी के बगल वाला प्लाट संस्कृत के अध्यापक शुक्ला जी का था। एक दिन सवेरे कालेज जाने के लिए घर से निकले तो वर्मा जी ने देखा कि उस प्लाट में मजदूर लगे हुए हैं। ‘‘अरे सुनती हो ! देखो शुक्ला जी ने भी काम शुरू करा दिया....अच्छा है पड़ोस आबाद हो जाएगा। लेकिन हैरत की बात है कि उन्होंने मुझे बताया क्यों नहीं ? भूमि-पूजन कब हुआ कुछ पता भी नहीं चला। मकान बनवा रहे हैं कोई चोरी थोड़े न कर रहे हैं जो छुपाने की जरूरत हो।’ वर्मा जी ने हुलसते हुए अपनी पत्नी से कहा।
कालेज पहॅंुचते ही वर्मा जी बधाई देने के लिए शुक्ला जी के पास लपकते हुए गए। लेकिन शुक्ला जी का जबाब सुनते ही उनका सारा जोश ठंडा पड़ गया। ऐसा लगा जैसे सुलगते अंगारों पर किसी ने ठंड़ा पानी उड़ेल दिया हो। शुक्ला जी ने बताया कि अपना प्लाट उन्होंने बेच दिया है।
दरअसल बस अड्डे के सामने सड़क के दूसरी तरफ ‘हरी होटल एण्ड रेस्टोरेण्ट’ स्थित था। बस अड्डे के निकट होने के कारण वह चलता भी खूब था। एक सवेरे से ले कर देर रात तक ग्राहकों का आना-जाना लगा रहता था। उसके मालिक हरीराम गुप्ता काफी समय से गोदाम तथा कारखाने के लिए बस अड्डे के आसपास किसी जगह की तलाश में लगे थे। ‘शिक्षा विहार’ कॉलोनी विकसित हुयी तो उनकी गिद्ध दृष्टि उस पर लग गयी। चाहे जैसे भी हो मुहमॉंगे दाम पर वे ‘शिक्षा विहार’ में प्लाट लेने के लिए कटिबद्ध थे। शुक्ला जी को उनकी लागत का चार गुना दाम दे कर हरीराम गुप्ता ने उनका प्लाट खरीद लिया था। शुक्ला जी को यह बात पता थी कि वर्मा जी किसी बाहरी व्यक्ति के हाथों प्लाट का बेचा जाना पसंद नहीं करेंगे। इसलिए उन्होंने बात को वर्मा जी से छुपाए रखा था और अपना प्लाट हरी राम गुप्ता के हाथों चुपके से बेच दिया था।
धनपशु हरीराम गुप्ता ने उस प्लाट को दुकान और गेस्ट हाउस के रूप में विकसित किया। सबसे पहले तो उन्होंने जमीन के अंदर आठ फीट गहरा बेसमेंट खुदवाया। बेसमेंट की खुदाई देख कर वर्मा जी अंदर तक दहल गए। कारण यह कि उनके मकान की नींव मात्र साढ़े चार फीट ही थी। उनकी दीवार के बगल में इस गहरी खुदाई से उनके मकान को खतरा होना स्वाभाविक था। लेकिन कर भी क्या सकते थे। प्लाट का मालिक अपनी चीज को जैसे चाहे वैसे बनावाए। देखते-देखते वहॉं तीन मंजिला ‘गुप्ता होटल एण्ड गेस्ट हाउस’ खड़ा हो गया। गुप्ता जी ने बेसमेंट में गोदाम तथा कारखाना, भूतल पर होटल और मिष्ठान भंड़ार तथा प्रथम और द्वितीय तलों पर यात्रियों के लिए आवासीय कमरे बनवाये थे। इस निर्माण में उन्होंने सड़क की दो फीट जमीन दबा ली थी तथा ऊपर की मंजिलों में सड़क की ओर तीन फीट का छज्जा भी निकाल लिया था। निर्माण के दौरान वर्मा जी ने इसका विरोध किया तो एक दिन शाम के वक्त तीन-चार लफंगे आ कर उनको धमका गए। घर में जवान हो रही बेटी और बेटे का ध्यान कर के वर्मा जी चुप हो गए थे।
‘शिक्षा विहार’ में घुसते ही दाहिनी तरफ एक साथ लगे दो प्लाट सक्सेना जी ने अपने दोनों बेटों के नाम ले रखा था। सक्सेना जी का तो खुद इतना बड़ा पुश्तैनी मकान था कि उन्हें शहर में नया मकान बनवाने की आवश्यकता ही नहीं थी। प्लाट तो उन्होंने लिया ही यह सोच कर था कि बाद में ऊॅंचे दाम पर बेच कर पैसा खरा कर लेंगे। दो साल बाद ठीक-ठाक पैसा मिला तो अपने दोनों प्लाट उन्होंने सिंचाई विभाग के इंजीनियर तिवारी जी के हाथों बेच दिया।
दोनों प्लाटों को एक में मिला कर तिवारी जी ने हवेली बनवाना शुरू किया। लगभग सवा साल तक रात-दिन लगातार काम चलता रहा। ट्रकों, ट्रालियों तथा मशीनों का शोर-गुल होता रहा। बॉंस, बल्ली, पटरा और ईट, मौरम से कॉलोनी का मार्ग अवरूद्व होता रहा। पत्थर और टाइल्स की कटाई, घिसाई की धूल लोगों के नाकों में दम किए रही। उसके बाद जो तीन मंजिली हवेली तन कर खड़ी हुयी वह वर्मा जी तथा वहॉं रह रहे उनके जैसे चार अन्य अध्यापकों की हैसियत को मुॅंह चिढ़ा रही थी। रही-सही कसर तिवारी जी ने उस हवेली में अपने गृह प्रवेश के अवसर पर पूरी कर दी। पूरी हवेली को फूलों तथा बिजली की रंगीन लड़ियों से बेतरह सजाया गया था। उसके लॉन में स्टेज बना था जहॉं नाच-गाना और हुल्लड़बाजी हो रही थी। सामने पार्क में आगे की तरफ रंगीन शामियाना ताना गया था और उसके पीछे के हिस्से में हलवाइयों के चुल्हे सुलग रहे थे। शाम सात बजे से शुरू हुआ खाने-पीने और हुड़दंग का दौर रात दो बजे तक चलता रहा। कालोनी के अंदर से ले कर बाहर सड़क तक वाहनों का जमघट लगा रहा। तरह-तरह के असलहे लिए एक से बढ़ कर एक डरावनी सूरत वाले ढ़ेरों अजनवी कालोनी में आते-जाते रहे। हर थोड़ी देर के बाद हर्ष फायरिंग होती रही। बन्दूकों और पिस्तौलों की गोलियों की तड़तड़ाहट से ‘शिक्षा विहार’ के मकान थर्राते रहे। लब्बोलुबाब यह कि अपने पैसे और ताकत का बहुत भोंड़ा प्रदर्शन किया इंजीनियर साहब तिवारी जी ने।
अगले दिन दोपहर बाद कालेज से लौटने पर वर्मा जी ने पार्क की जो दुर्दशा देखी तो मारे क्रोध के सुलग उठे। उनके द्वारा लगाए गए फूलों के सारे पौधे रौंदे पड़े थे। पूरा पार्क सब्जी के छिल्कों, प्लास्टिक के प्लेटों, गिलासों, तथा शराब की खाली बोतलों से अटा पड़ा था। कैटरिंग वालों ने जूठे प्लेटों तथा बरतनों को धोने का काम भी पार्क के एक कोने में ही किया था। वहॉं पर फेंके जूठे खाने का अम्बार लगा हुआ था जिस पर कुत्तों और कौवों का झुण्ड टूटा पड़ा था। पार्क की दुर्गति देख वर्मा जी से रहा नहीं गया। आगे बढ़ कर उन्होंने तिवारी जी के भारी-भरकम गेट के बाहर लगी घंटी की स्वीच दबा दी। पहले अंदर से एक नौकर आया जो उनका नाम, पता पूछ कर लौट गया। उसके काफी देर के बाद तिवारी जी की सजी-धजी पत्नी नमूदार हुयीं।
‘‘कहिए....क्या बात है ?’’ उन्होंने बड़ी हिकारत के साथ वर्मा जी की तरफ अपना प्रश्न उछाला।
‘‘पार्क की दशा देखी है आपने....?’’ उत्तर देने के बजाय वर्मा जी ने उल्टे प्रश्न कर दिया।
‘‘क्यों....? क्या हो गया पार्क को....?’’
‘‘पूरा पार्क गंदगी से अटा पड़ा है। इतनी मेहनत से फूल और पौधे लगाये थे मैंने...सब का सत्यानाश हो गया है। जब पार्क का इस्तेमाल आपने किया है तो उसको साफ कराने की जिम्मेदारी भी तो आपकी ही है ?’’
‘‘पार्क आप की बपौती है क्या जो आपके पेट में इतना दर्द हो रहा है ? पार्क कालोनी में रहने वाले सभी लोगों का है। किसी और ने तो कुछ नहीं कहा.....सिर्फ आप मुॅंह उठाये लड़ने चले आए। अगर बहुत चिन्ता है पार्क की तो आप ही क्यों नहीं सफाई करा देते ? बड़े आए हैं खैरख्वाही दिखाने।’’ तिवारी जी की पत्नी ने मुॅंह बिचका कर झिड़कते हुए कहा। अवाक वर्मा जी कुछ बोलें उससे पहले ही उन पर एक हिकारत भरी नजर फेंकते हुए वह घर के अंदर चली गयीं। वर्माजी कट कर रह गए।
वर्मा जी की झुॅंझलाहट मिटाए नहीं मिट रही थी। पार्क की दुर्दशा उनके दिमाग में लगातार डंक मार रही थी। शाम के समय वे कॉलोनी में रह रहे अपने साथी अध्यापकों से मिले और उन्हें पूरी बात बतायी। वर्मा जी का कहना था कि सभी को साथ चल कर तिवारी जी से सामूहिक रूप से विरोध जताना चाहिए। लेकिन कोई भी उनका साथ देने के लिए तैयार नहीं हुआ। कोई भी ‘आ बैल मुझे मार’ वाला काम करना नहीं चाहता था। गृह-प्रवेश के दिन तिवारी जी के पैसे और ताकत के प्रदर्शन से सभी कॉलोनीवासी अंदर ही अंदर दहले हुए थे। अपने ही साथियों के बीच अकेले पड़ गए वर्मा जी मन मसोस कर रह गए।
उधर शाम को तिवारी जी के आफिस से लौटने पर उनकी पत्नी ने पार्क की दुर्गति के लिए वर्मा जी के उलाहना देने की बात को नमक-मिर्च लगा कर बतायी। सुन कर तिवारी जी के अहं को चोट सी लगी। दो कौड़ी के मास्टर की इतनी मजाल कि उनके दरवाजे पर आ कर उलाहना दे, यह बात तिवारी जी के बर्दाश्त के बाहर थी। लेकिन जबाब देने के लिए वर्मा जी के घर तक जाना उनके लिए हेठी की बात होती इसलिए बात को उन्होंने अगले दिन तक के लिए टाल दिया। अगले दिन सवेरे से ही टोह में लगे रहे और कालेज जाने के लिए निकले वर्मा जी को तिवारी जी ने गेट पर ही छेंक लिया। ‘‘कहिए मास्टर साहब, सुना है कि मेरे गृह-प्रवेश की दावत पार्क में होने को ले कर आप को बहुत एतराज है ?’’
‘‘अच्छे-खासे साफ-सुथरे पार्क को कूड़ाघर बना दिया आपने.....इस बात पर मुझको क्या किसी को भी एतराज होगा।’’
‘‘अगर कोई बात थी तो मुझसे कहे होते। मेरी गैर मौजूदगी में घर आ कर मेरी औरत से उघटा-पॅंइची करने का क्या मतलब है ? यही तमीज है आपकी...?’’
‘‘देखिए महोदय, मैं उघटा-पॅंइची करने नहीं गया था....और न ही ऐसा मेरा संस्कार है। आपको खुद सोचना चाहिए कि हरे-भरे पार्क की आपने ऐसी-तैसी करा के रख दी है। इतना बड़ा लॉन है आपके पास.....बड़ा सा छत है....आप चाहते तो खाना-पीना वहीं कर सकते थे। सामाजिकता का ख्याल रखना चाहिए था आपको। और अगर पार्क का इस्तेमाल किया...उसेे गंदा किया तो उसकी सफाई कराना नैतिक दायित्व बनता है आपका।’’
‘‘ऐ मास्टर.....बहुत लेक्चर न पिलाओ मुझको। नैतिकता और सामाजिकता का पाठ कालेज में अपने स्टूडेण्ट्स को पढ़ाना। समझे....? और अगर बहुत दिक्कत हो रही है यहॉं तो अपना मकान बेच कर कहीं और चले जाओ। बताओ कितनी कीमत है...? तुम्हारा मकान मैं आज ही खरीदने को तैयार हूॅं। दो कौड़ी का मास्टर मुझको तमीज सिखाने चला है ?’’ तिवारी जी एकदम से तू-तड़ाक पर उतर आए। कुछ और बोलने का मतलब अपनी बेइज्जती कराना था। अतः वर्मा जी ने चुप रहना ही बेहतर समझा। भीतर से अंगारा बने वे बगैर कोई उत्तर दिए आगे बढ़ गए।
तिवारी जी को ‘शिक्षा विहार’ कॉलोनी में बसे धीरे-धीरे सात-आठ महीने हो चुके थे। वे तथा उनका पूरा परिवार कॉलोनी के बाकी सभी से अलग-थलग अपने आप में लीन रहा करता था। उनकी वजह से एक सवेरे से ले कर देर रात तक कॉलोनी में दुपहिया, चौपहिया वाहनों का आना-जाना लगा रहता था। उनकी शानौ-शौकत, रहन-सहन तथा रोब-दाब के कारण कॉलोनी के अन्य निवासी सहमे-सहमे से रहा करते थे।
एक दिन सुबह कालेज जाने के लिए निकले वर्मा जी ने देखा कि चार-पॉंच लोग हाथ में फीता लिए पार्क में नाप-जोख कर रहे थे। तिवारी जी खुद तथा उनके यहॉं प्रायः आने-जाने वाला एक ठेकदार भी वहीं मौजूद थे। वर्मा जी ने सोचा लगता है उनके उलाहना देने का असर हुआ है। शायद तिवारी जी पार्क का सुन्दरीकरण कराना चाहते हैं। लेकिन उसके तीसरे दिन उन्होंने जो कुछ देखा और सुना उसे जान कर तो उनके पॉंव तले की जमीन ही खिसक गयी। तीसरे दिन सवेरे चार मजदूर पार्क में नींव की खुदाई कर रहे थे। जानकारी करने पर पता चला कि तिवारी जी वहॉं एक मंदिर बनवा रहे हैं। सुन कर परेशान हो गए वर्मा जी। कालेज पहॅंुच कर उन्होंने साथी अध्यापकों से बात की। वर्मा जी का मत था कि सार्वजनिक पार्क में मंदिर का निर्माण रोका जाना चाहिए। लेकिन जिसने भी सुना कन्नी काट गया। कोई भी उनका साथ देने को तैयार नहीं हुआ।
सारे दिन, सारी रात क्रोध में उबलते रहे वर्मा जी। तिवारी जी के पिछली बार के व्यवहार के कारण उनसे बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी लेकिन मन था कि मानता ही नहीं था। विरोध न करने का अर्थ तिवारी जी को मनमाना करने की खुली छूट देना था। आखिर अगले दिन सवेरे वे अकेले ही तिवारी जी के दरवाजे पर पहॅंुच गए। तिवारी जी उस समय अपने बंगले के लॉन में टहल रहे थे। वर्मा जी को आया देखा तो गेट खोल कर बाहर आ गए।
‘‘तिवारी जी यह पार्क में खुदाई कैसी हो रही है ?’’ वर्मा जी ने पूछा।
‘‘मैंने सोचा वर्मा जी कि जब संयोग से इस कॉलोनी में सारे के सारे हिन्दू भाई ही हैं तो यहॉं एक मंदिर भी होना ही चाहिए। सो एक मंदिर बनवाने का संकल्प लिया है मैंने। इस मंदिर में राम-जानकी, शंकर-पार्वती और गणेशजी, हनुमान जी आदि सभी देवी-देवताओं की मूर्तियॉं रहेंगी।’’ तिवारी जी ने उत्तर दिया।
‘‘लेकिन पार्क तो हम लोगों ने इस उद्देश्य से रखा था कि उसमें पेड़-पौधे लगाये जायेंगे ताकि कॉलोनी का वातावरण शुद्ध रहे। सवेरे-शाम हमारे टहलने और बच्चों के खेलने के लिए थोड़ी खुली जगह रहे।’’
‘‘तो क्या मंदिर बनने से यहॉं का वातावरण प्रदूषित हो जायेगा ? तिवारी जी ने थोड़ी तल्खी से कहा।
‘‘वातावरण प्रदूषित हो या न हो लेकिन मंदिर बनने से कॉलोनी की निजता जरूर भंग हो जायेगी। मंदिर के बहाने बाहरी लोग भी आने लगेंगे और उल्टे-सीधे लोगों का जमावड़ा लगने लगेगा कॉलोनी में।’’
‘‘मास्टर साहब आपका तो कुछ दिमाग ही नहीं समझ में आता है मुझको। हर बात में टोका-टाकी.....हर बात में अड़ॅंगेबाजी। आप ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे कॉलोनी आपकी व्यक्तिगत प्रापर्टी हो। मैं कॉलोनी के भले के लिए कोई नेक काम कर रहा हूॅं तो उसमें भी आपत्ति है आपको। मंदिर जैसे पुण्य के काम में भी टॉंग अड़ा रहे हैं आप। कान खोल कर सुन लीजिए। मैं मंदिर बनवा रहा हूॅं और बनवाऊॅंगा.....। जाइए जो करना हो कर लीजिए। कूबत है रोकने का तो रोक लीजिए।’’ तिवारी जी ने गुस्से में कहा और अंदर जा कर गेट बंद कर लिया।
अपमान से तिलमिलाए वर्मा जी को सूझ नहीं रहा था कि करें तो क्या करें। कॉलोनी के अंदर जिस हरे-भरे पार्क की कल्पना की थी उन्होंने वह कंक्रीट का जंगल बनने जा रहा था। न सिर्फ इतना, वे साफ देख रहे थे कि मंदिर के कारण भविष्य में कॉलोनी की शान्ति और सुरक्षा पर भी खतरा आने वाला है। सहसा ध्यान आया वर्मा जी को कि कॉलोनी के नक्शा में बीच की वह जमीन पार्क के लिए छोड़ी गयी है। उसके साथ छेड़-छाड़ सरकारी व्यवस्था के साथ छेड़-छाड़ है और इसलिए अपराध है। उन्होंने तुरन्त एक शिकायती पत्र बनाया, उसकी तीन-चार प्रतियॉं करायीं और डी0एम0, एस0डी0एम0 से ले कर नगर पालिका आदि तक सभी जगह दे आए। उसी शिकायती पत्र की एक प्रति ले कर मुहल्ले के थाने भी गए। वहॉं दरोगा जी से उन्होंने पार्क की जमीन में अनधिकृत रूप से बनवाए जा रहे मंदिर को रुकवाने के लिए गुहार लगायी।
‘‘अरे मास्टर साहब ! आप की कालोनी के पार्क में मंदिर ही तो बन रहा है....कोई शराबखाना या जुआ का अड्डा तो नहीं न बन रहा ? तो धर्म-कर्म के मामले में क्यों अनावश्यक रूप से टॉंग अड़ा रहे हैं आप ? देख तो रहे हैं कि प्रदेश से ले कर देश तक की सरकार मंदिर बनवाने के लिए परेशान हैं और आप हैं कि आपको मंदिर के बनने पर एतराज है। कोई और काम-धाम नहीं है क्या आप के पास जो शिकायत करने चले आए। चलिए.....जाइए.....अपना काम करिए और हमें भी काम करने दीजिए।’’ वर्मा जी की बात सुनने के बाद दरोगा जी ने उनको झिड़कते हुए कहा।
‘‘अच्छा तो है मास्टर साहब.....रिटायर होने के बाद आप भी वहीं बैठ कर भजन-कीर्तन करिएगा।’’ दरोगा के चुप होते ही उसकी कुर्सी के पास खड़े सिपाही ने कहा और हो-हो कर के हॅंस पड़ा। मास्टर साहब अपना सा मुॅंह ले कर लौट आए।
म्ंादिर का निर्माण रुकवाने के लिए कॉलोनी के लोगों से बात की तो सभी उल्टे उनको ही समझाने लगे। दरअसल मंदिर का निर्माण धर्म और आस्था का विषय था। उसका विरोध करने का मतलब पाप का भागी बनना था। अधिकांश लोग तो इस नेक काम के लिए तिवारी जी की तारीफ करते दिखे। वर्मा जी वहॉं भी अकेले पड़ गए।
अकेला चना भाड़ तो फोड़ नहीं सकता। अतः हर संभव प्रयास करने के बाद थक-हार कर बैठ गए वर्मा जी। वर्मा जी कुढ़ते रहे, खीझते रहे और पार्क में निर्माण कार्य चलता रहा। खास बात यह कि पुजारी की नियुक्ति तिवारी जी ने मंदिर बनने से पहले ही कर दी थी और मंदिर का निर्माण कार्य उन्ही पुजारी जी की देखदेख में चल रहा था। लगभग चार महीनों में निर्माण पूरा हो गया। पार्क के अगले हिस्से में भव्य मंदिर बना और उसके पीछे की ओर मंदिर के पुजारी पाठक जी का आवास। पार्क की दीवार तोड़ कर तिवारी जी ने अपने घर के ठीक सामने एक गेट लगवा लिया था। अभी मंदिर का रंग-रोगन चल ही रहा था कि तभी उसके पिछले हिस्से में बने आवास में पुजारी जी का परिवार आबाद हो गया। बाद में पता चला कि उस मंदिर के पुजारी पाठक जी कोई और नहीं बल्कि तिवारी जी के सगे साले थे। यानी तिवारी जी ने मंदिर के बहाने पार्क की जमीन पर कब्जा कर के वहॉं अपने साले को बसा दिया था।
मंदिर का निर्माण पूर्ण हो चुकने के बाद उसका भव्य उद्घाटन हुआ। मंदिर को फूलों और बिजली की रंगीन लड़ियों से सजाया गया था। बाजा-गाजा, लाउडस्पीकर और कीर्तन मंड़ली का इंतजाम था। मंदिर के छत पर आधा दर्जन भोंपू बॉंधे गए थे। भगवा वस्त्र पहने, गले में कंठी-माला ड़ाले, तिलक लगाए दर्जन भर से अधिक संड-मुसंड आए हुए थे। दोपहर बाद से ही उधर मंदिर के अंदर अख्ंाड़ रामायण का पाठ शुरू हुआ और उसके बाहर प्रसाद का लंगर। एक भोंपू का मुॅंह वर्मा जी के घर की ओर था जो अपनी कानफोड़ू कर्कश आवाज में लगातार चालू फिल्मी गीतों की धुन पर रामचरित मानस के दोहे और चौपाइयॉं उगल रहा था। मंदिर के उद्घाटन समारोह में वर्मा जी खुद तो नहीं गए लेकिन अपनी पत्नी और बच्चों को जाने से नहीं रोक सके। धर्म का मामला था इसलिए उनकी पत्नी ने भी उनकी बात नहीं मानी।
सारी रात बेचैन इस करवट से उस करवट होते रहे वर्मा जी। ढ़ोल और झाल-मजीरा के साथ गूॅंजती लाउडस्पीकर की तीखी आवाज ने उनको पल भर भी सोने नहीं दिया। आखिर वह उठे, अपने पढ़ने वाले कमरे में गए और कागज, कलम ले कर बैठ गए। अगले दिन कॉलोनी वालों ने देखा कि वर्मा जी के मकान के बाहर गत्ते का एक बोर्ड लटक रहा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लखा था-‘‘यह मकान बिकाऊ है’।