‘अ’ से अदालत ‘क’ से कचहरी

कहानी

Akhilesh Srivastava Chaman

2/27/20241 मिनट पढ़ें

इस मत्र्यलोक हम जिसके वासी हैं के अंदर कचहरी नामक एक अमत्र्य लोक भी विद्यमान है। मत्र्यलोक की संरचना और उसके विधि-विधान का निर्माण किसने किया यह बात अभी तक तय नहीं हो सकी है। इसको तय करने लिए विभिन्न धर्मों के ठेकेदारों के बीच जोर आजमाइश अहर्निश जारी है। कोई कहता है यह सृष्टि ब्रह्मा की बनाई हुयी है कोई कहता है इसे गाॅड ने बनाया था तो कोई इसके लिए खुदा को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन जहाॅं तक कचहरी नामक अमत्र्य लोक का प्रश्न है, यह बात निर्विवाद है कि इसका निर्माण इंसान ने किया है। उस इंसान ने जो खुद को इस सृष्टि की समस्त योनियों में सर्वश्रेष्ठ, सर्वाधिक बुद्धिमान और सभ्य मानता है।

कचहरी की अपनी एक अलग दुनिया होती है। कचहरी में धॅंसे और फॅंसे बगैर उस दुनिया के बारे में नहीं जाना जा सकता है। कचहरी की दुनिया के नियंत्रण हेतु अदालत नामक एक शक्तिपीठ हुआ करती है। उस शक्तिपीठ का अधिष्ठाता मंुसफ उर्फ जज उर्फ न्यायाधीश उर्फ न्यायमूर्ति नामक हाड़-माॅंस का बना एक प्राणी होता है। न्यायाधीश नामक उस प्राणी को सृजन के अतिरिक्त विधाता की शेष सभी शक्तियाॅं प्राप्त होती हैं। धरती का यह भगवान किसी का कुछ बना भले न सके लेकिन बिगाड़ने और बरबाद करने की पूरी क्षमता रखता है।

कचहरी की दुनिया में ईश्वर, अल्ला, गाॅड या पैगम्बर के कानून नहीं चलते हैं। वहाॅं खुद इंसान के बनाए कानून चलते हैं। या फिर न्यायाधीश महोदय के मुखारविंद से निकली बातें कानून बन जाया करती हैं। दूसरी बात यह कि ईश्वर, अल्ला या गाॅड की सजायें अमूर्त होती हैं जब कि न्यायाधीश प्रदत्त सजायें मूर्त। और तीसरी सबसे बड़ी बात यह कि ईश्वर, अल्ला या गाॅड नामक अदृश्य शक्तियाॅं मनुष्य के सुकर्मों/कुकर्मों का पुरस्कार या दण्ड उसके मरने के बाद देती हैं। लेकिन मंुसफ नामक विधाता आदमी के जीते जी ही ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकता है कि आदमी न जीने में रहता है न मरने में।

कचहरी की दुनिया में कदम-कदम पर चहबच्चे होते हैं। या यूॅं कह सकते हैं कि कचहरी खुद अपने आप में एक बड़ा सा चहबच्चा होती है। कचहरी जाने का मतलब ही है जानबूझ कर चहबच्चे में पाॅंव ड़ालना। मुसीबतों को जानबूझ कर न्यौता देना। या ‘आ बैल मुझे मार’ की उक्ति को चरितार्थ करना। इसलिए जहाॅं तक संभव होता है समझदार लोग कचहरी नामक बला से दूर ही रहा करते हैं।

कचहरी में जजों, वकीलों, मुहर्रिरों, दलालों, अर्जी नवीसों, वसीका नवीसों, स्टाम्प विक्रेताओं, टाइपिस्टों तथा पेशेवर गवाहों आदि का बकायदा एक गिरोह होता है। इस गिरोह के लोगों के घरों के चुल्हे कचहरी के चहबच्चों की बदौलत ही जला करते हैं। ये लोग शिकार की तलाश में कंटिया में चारा लगाए, जाल बिछाए बैठे रहते हैं। बस एक बार इनके हत्थे चढ़ने भर की देर होती है। उसके बाद तो आदमी को ये लोग फिरकी की तरह नचाते हैं और भूत की तरह खेलाते हैं।

कचहरी के लोग पहले तो सीघे-सादे, क्षणिक आवेश के शिकार लोगों को घेर-घार कर, समझा-बुझा कर, बहला-फुसला कर येन-केन-प्रकारेण चहबच्चों में गिराने का उपक्रम करते हैं। और आदमी जब चहबच्चे में गिर कर तड़फड़ाने लगता है, बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगता है, तब उसको चहबच्चे से निकलने का रास्ता सुझाते हैं। उसे बाहर निकालने का सौदा करते हैं। बेचारा चहबच्चे में गिरा आदमी ‘मरता क्या न करता’ की हालत में होता है। अतः अगले की हर एक बात, हर एक शर्त को बगैर किन्तु, परन्तु किए स्वीकार कर लेता है। लेकिन कचहरी वाले बहुत सयाने होते हैं। वे सोने की मुर्गी को जिबह करने के बजाय उससे रोज एक अण्डा लेना चाहते हैं। इसलिए सौदा पट जाने पर भी ये लोग आदमी को चहबच्चे से बाहर निकालते नहीं हैं बल्कि बाहर निकालने का सिर्फ अभिनय करते हैं। थोड़ा ऊपर निकालते हैं फिर उसी में पटक देते हैं। फिर थोड़ा बाहर निकालते हैं, फिर छोड़ देते हैं। लब्बो-लुबाब यह कि कचहरी की दुनिया में कोई किसी का सगा नहीं होता है। यहाॅं सारी यारी-दोस्ती, सारी रिश्तेदारी बस पैसे के साथ हुआ करती है।

दूसरी खास बात यह है कि कचहरी के चहबच्चे साधारण कीचड़ वाले चहबच्चे नहीं होते हैं। ये चहबच्चे दलदली किस्म के होते हैं। इनमें गिरा आदमी जितना ही निकलने की कोशिश करता है, उतना ही अधिक उसमें धॅंसता चला जाता है। क्षणिक जोश में, दूसरों के उकसावे पर इस चहबच्चे में कूदने वाला आदमी उसी में धॅंसे-धॅंसे और फॅसे-फॅंसे न्यायिक प्रक्रिया की भेंट चढ़ जाया करता है। हमारी न्याय व्यवस्था उस बेचारे को कचहरी नामक जहाज का पंछी बना कर रख देती है। बेचारा आदमी कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन कचहरी से पीछा नहीं छुड़ा पाता है। वह ताउम्र जहाज के पंछी की भाॅंति कचहरी परिसर में ही धक्के खाता रहता है।

कई बार ऐसा भी होता है कि लाख सावधानी बरतने और लाख न चाहने के बावजूद आदमी इस दलदल में गिर जाया करता है। ठीक वैसे ही जैसे सड़क पर आप लाख सही दिशा में चलें, कोई दूसरा वाहन चालक गलत दिशा से आ कर आपको टक्कर मार दे और आपको अस्पताल जाना पड़ जाय। ईश्वर न करे अगर ऐसी स्थिति हो जाय और आदमी चाहे, अचाहे जो एक बार कचहरी के चंगुल में फॅंस जाय तो फिर वह उबर नहीं पाता है। जवानी से अधेड़ावस्था और बुढ़ापे से गुजरते अंततः वह परमगति को प्राप्त हो जाता है, इस मत्र्य लोक से मुक्ति पा जाता है, लेकिन कचहरी की पकड़ से मुक्त नहीं हो पाता है। कचहरी के व्यूह में फॅंसा आदमी यदि ईश्वरीय विधान के चलते मर भी गया तो उसकी आत्मा कचहरी परिसर के अंदर ही भटकती रहती है।

कचहरी में और कुछ हो चाहे न हो, एक काम अवश्य होता है और वह है मुकदमों में तारीख दर तारीख लगना। तारीख लगती है, पक्षकार हाजिर होता है लेकिन निर्धारित तारीख पर मुकदमें की सुनवायी हो जाय ऐसा सुयोग शायद ही कभी हो पाता है। कभी इस पक्ष का वकील गायब रहता है तो कभी उस पक्ष का वकील गायब। कभी दोनों वकील उपस्थित रहते हैं तो हाकिम गायब। अगर कभी संयोग से तीनों मौजूद रहते हैं तो गवाह नहीं आता। अगर गवाह भी उपस्थित है तो वकीलों की हड़ताल हो जाती है। अगर उससे भी बचे तो कभी किसी नेता या कचहरी के किसी कर्मचारी का इंतकाल हो जाता है और कचहरी में छुट्टी कर दी जाती है। अगर संयोग से कभी ऐसा भी नहीं होता, सब कुछ ठीक रहता है तो मुकदमें की सुनवायी नहीं हो पाती। सूची के प्रारम्भिक मुकदमों की जिरह-बहस इतनी लम्बी खिंच जाती है कि बाद के मुकदमों की सुनवायी का नम्बर आने से पहले ही कोर्ट का समय समाप्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि ‘नकटो के बिआह में सतहत्तर ठो योग’ वाली कहावत चरितार्थ होती है।

कचहरी का भी एक नशा होता है। यह नशा जुआ, शराब और अफीम के नशे से भी अधिक मारक होता है। यह नशा आदमी का खाना, पीना, सोना सब भुलवा देता है। इस नशे का शिकार आदमी तमाम अनिश्चितताओं के बावजूद अपने मुकदमें की सुनवायी की उम्मीद लिए बिना नागा हर तारीख पर कचहरी पहॅंुचता अवश्य है। यह बात अलग है कि कचहरी जाने के बाद उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाया करता है। कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि उसके मुकदमे की सुनवायी का संयोग नहीं बन पाता है। ऐसे में कचहरी के नशा का मारा वह बेचारा अपने वकील को फीस तथा पेशकार और मंुशी को दस्तूरी दे कर और मुकदमें की नई तारीख ले कर लौट आता है।

वस्तुतः कचहरी परम फुरसतिया लोगों का अड्डा होता है। यहाॅं न जज साहब को जल्दी रहती है न वकील साहब को। न मंुशी को जल्दी रहती है न पेशेकार को। जल्दी सिर्फ साॅंप-छछून्दर की स्थिति में फॅंसे मुवक्किल को रहती है। लेकिन उस बेचारे के पास प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त और कोई कोई चारा नहीं होता है। अदालती कार्यवाही कच्छप गति से चलती रहती है। आॅंखों पर अन्हवट बाॅंधे कानून का बैल न्यायिक प्रक्रिया के कोल्हू में गोल-गोल घूमता रहता है। साक्ष्यों, सबूतों, गवाहियों और दरख्वास्तों के कागज खा-खा कर मुकदमें की फाइल क्रमशः मोटी होती रहती है। कहते हैं कि मौत का भी एक दिन मुकर्रर है, लेकिन मुकदमा के फैसले का दिन मुकरर्र नहीं होता है। अपने पूर्वजों की विरासत सॅंभालतीं एक के बाद एक कई पीढ़ियाॅं कचहरी के चहबच्चे में गिरतीं और घॅंसती चली जाती हैं। बहुधा ऐसा होता है कि दादा, पड़दादा द्वारा दाखिल मुकदमे को पोता और पड़पोता तक को लड़ना पड़ता है।

हमारे देश की हर कचहरी में अनिवार्य रूप से कुछ ऐसे प्राणी पाए जाते हैं जिन्हें महाभारत कालीन संजय की दिव्य दृष्टि तथा किसी भी समय कहीं भी प्रकट हो सकने की दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। इन विशिष्ट प्राणियों को गवाह शुभ नाम से सम्बोधित किया जाता है। मुकदमों में गवाही करना ही इनका पेशा तथा इनकी आय का एक मात्र साधन हुआ करता है। अदालत नामक शक्तिपीठ में नियुक्त मंुसफ नामक अधिष्ठाता इन गवाह नामक प्राणियों की आॅंखों से ही देख कर तथा उनके ही मुख से सुनकर घटना की सच्चाई को जानते, समझते हैं और तदनुसार मुकदमों का निर्णय किया करते हैं।

कचहरी के ये पेशेवर गवाह रेडीमेड कपड़े की तरह होते हैं। गवाह मण्डी में जाइए, यथोचित मुल्य चुकाइए और अपने मुकदमें की जरूरत के अनुसार गवाह ले जाइए। ये रेडीमेड गवाह देश के किसी भी कोने में, किसी भी कालखण्ड में, किसी भी प्रकार की घटना के घटित होने के समय घटना स्थल पर उपस्थित होने का दावा करते हैं। ऐसा भी संभव है कि एक ही गवाह एक ही समय में कानपुर, कलकत्ता, और बनारस, बड़ौदा चारों जगहों पर घटित घटनाओं का चश्मदीद गवाह हो। घटना/दुर्घटना के बारे में ये लोग ऐसी बारीक से बारीक बातें बता सकने में सक्षम होते हैं जो स्वंय घटना में शामिल रहे मुकदमें के वादी, प्रतिवादी भी नहीं जानते हैं। कहना न होगा कि मुकदमे के फैसले का सारा दारोमदार ऐसी दिव्य दृष्टि सम्पन्न गवाहों के बयानों पर ही टिका होता है।

कहा जाता है कि ‘साॅंच को आॅंच नहीं’ होता है। कहा जाता है कि ‘सत्य परेशान, हो सकता है लेकिन पराजित नहीं’। अदालतों में भी सामने की दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘सत्यमेव जयते‘ लिखा होता है। लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। चाॅंदी का जूता इन सारी मान्यताओं को एक झटके में ध्वस्त कर देता है। चाॅंदी के जूते में साहब बहुत ताकत होती है। इतनी ताकत कि सूई के छेद से हाथी को निकाल दे। इतनी ताकत कि राई को पर्वत बना दे। हथेली पर सरसों उगा दे। बैल दूह ले। बालू से तेल निकाल दे। सामान्य आदमी तो क्या, बड़े से बड़े हरिश्चन्दरों के ईमान डिगा दे।

अदालतों में स्थापित न्याय की देवी ने तो वैसे भी अपनी आॅंखों पर पट्टी बाॅंध रखी है तथा हाथ में तराजू ले रखा है। इस प्रतीक में निहित संदेश यह है कि न्याय का कार्य प्रस्तुत प्रकरण के गुण-दोष के आधार पर नहीं बल्कि उसकी तौल के आधार पर किया जाता है। मामले के दोनों पक्षों को तौलने के लिए ही न्याय की देवी ने हाथ में तराजू ले रखा है। दोनों पक्ष तराजू के एक-एक पलड़े पर अपने-अपने साक्ष्य, सबूत, गवाही, अभिलेख, नियम, कानून, रीति, नीति, जिरह, बहस, उद्धरण, मिसाल, रिवाज, परम्परा, तर्क, वितर्क, कुतर्क, नजीर, तकरीर, पद, प्रभाव, शिकायत, फरियाद, सिफारिस, आभार, सुविधा, दुविधा और वजन आदि को रख दिया करते हैं। आॅंखों पर पट्टी होने के कारण न्याय की देवी यह नहीं देख पाती है कि कौन सा पक्ष सही है और कौन सा पक्ष गलत। या किधर का पलड़ा सच वाला है और किधर का झूठ वाला। उसको तो बस भारी पलड़े के नीचे झुक जाने का आभास हो जाता है और वह उसके पक्ष में फैसला सुना देती है।

तात्पर्य यह कि अदालत से न्याय पाने के लिए अपनी तरफ के पलड़े को भारी करना अनिवार्य होता है। पलड़े को कैसे भारी करना है, भारी करने के लिए उस पर क्या-क्या रखना होता है इसके तौर-तरीके वकील, मुहर्रिर और पेशेवर गवाहान बखूबी जानते हैं। इनके बताए तरीकों से कमजोर मुकदमों में भी विजयश्री की संभावना पैदा की जा सकती है। यहाॅं खास बात यह है कि कचहरी की बात और दिनाय की खुजली छुपाए छुपती नहीं है। लाख जतन करो, देर-सवेर जाहिर हो ही जाती है।

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