अबोला
बाल कहानी
दोनों में कोई भी किसी से कम नहीं था। सिनहा जी जितने ही मॅंुहफट, बिना लाग-लपेट के बोलने वाले श्रीमती सिनहा उतनी ही अधिक तुनक मिजाज। गुस्सा तो हर समय जैसे दोनों की ही नाक पर ही रहता था। कब, किस बात पर दोनों में भिड़ंत हो जाएगी, कोई ठिकाना नहीं। खासतौर पर जब से सिनहा जी सेवा निवृत्त हुए थे, पति-पत्नी के बीच तू-तू, मैं-मैं की आवृत्ति बढ़ गई थी।
उस दिन ड्राइंग रूम में साथ बैठे दोनों शाम की चाय पी रहे थे। उसी बीच श्रीमती सिनहा की भाभी का फोन आ गया।
‘‘भाभी बता रही थीं कि मझले भैया के बेटे गुड्डू की शादी फाइनल हो गयी है। दस लाख की कार और दो लाख नकद दे रहे हैं लड़की वाले।’’ फोन पर बात खत्म करने के बाद श्रीमती सिनहा ने चहकते हुए बताया।
‘‘वाकई बहुत घटिया हैं तुम्हारे मायके वाले। पढ़े-लिखे हो कर भी बेटे की शादी में दहेज ले रहे हैं।’’ सिनहा जी बोल पड़े।
‘‘अरे ! तो उन लोगों ने कोई मॉंगा थोड़े ना है। लड़की वाले अपने आप दे रहे हैं तो क्या करें मना कर दें।’’ श्रीमती सिनहा ने चिढ़ कर जबाब दिया।
‘‘सब ऐसे ही कहते हैं कि हमने तो कुछ भी नहीं मॉंगा....लड़की वाले अपने आप दे रहे हैं। दहेज कोई ढ़िढ़ोरा पीट कर थोड़े न मॉंगता है। खुद की औकात तो है नहीं कार पर चलने की तो दहेज में कार ले रहे हैं।’’
सिनहा जी का इतना कहना था कि श्रीमती सिनहा एकदम से भड़क उठीं।
‘‘ऐसा है....बहुत बढ़ कर बात तो करिए मत। पहले अपनी औकात देख लीजिए तब कुछ कहिएगा मेरे घर वालों को। खुद कौन बहुत बड़े कलक्टर थे। बैंक में बाबू ही तो थे। बहुत चले हैं हमारे घर वालों की औकात देखने।’’श्रीमती सिनहा का पारा एकदम से गरम हो गया। फिर तो तू-तू, मैं-मैं होनी ही थी। दोनों तरफ से वाक-युद्ध होने लगा।
‘‘तुम तो जरा सी बात का बतंगड़ बना देती हो। अगर मेरा बोलना इतना ही खराब लगता है तो चलो आज के बाद मैं तुमसे बात ही नहीं करूॅंगा। बोलूॅंगा ही नहीं।’’ काफी देर तक जली-कटी सुनने के बाद सिनहा जी गुस्सा में बोले।
‘‘अरे तो यहीं कौन आपसे बातें करने के लिए मरा जा रहा है। मत बोलिए अपनी बला से। पहले ही अच्छा था, कम से कम सवेरे नौ बजे से शाम सात बजे तक घर में शान्ती तो रहती थी। जब से रिटायर हो के घर बैठे हैं हर समय झगड़े का कोई न कोई अनखुन खोजते रहते हैं। बात-बेबात बिना वजह किच-किच मचाए रहते हैं।’’ श्रीमती सिनहा ने तुर्की-ब-तुर्की जबाब दिया।
‘‘अगर मुझसे इतनी ही चिढ़ है....मेरा घर में रहना तुमको इतना ही खराब लगता है तो कहो मैं घर छोड़ कर कहीं चला जाता हूॅं। तुम रहो खूब शान्ती से।’’
‘‘आप क्यों जायेंगे....आपका घर है....आप रहिए मजे से। मैं ही बुरी हूॅं....मैं ही कहीं चली जाती हूॅं। कलेजा ठंड़ा हो जाएगा आपका।’’ श्रीमती सिनहा ने कहा तमक कर उठीं और बड़बड़ाती हुयी बेड़रूम में चली गईं।
लगभग पौन घंटा के बाद जब पारा कुछ नरम हुआ तो श्रीमती सिनहा दबे पॉंव ड्राइंग रूम की ओर आईं। सिनहा जी वहॉं नहीं थे। उन्होंने गेस्ट रूम में झॉंका। सिनहा जी वहॉं भी नहीं थे। बाथरूम में देखा। वहॉं भी नहीं थे। फिर तो घबड़ायी श्रीमती सिनहा ने जल्दी-जल्दी सारा घर देख ड़ाला। सिनहा जी कहीं नहीं थे। पल भर के अंदर ही उनके मन में तमाम आशंकायें कौंध गयीं। लेकिन अपने मन को समझाया कि ‘पार्क तक या पान खाने चौराहे तक गए होंगे.....थोड़ी देर में आ जायेंगे।’
अपने मन को दिलासा देने के बाद श्रीमती सिनहा रात के भोजन की तैयारी में लग गईं लेकिन उनके कान गेट की तरफ ही लगे हुए थे।
घीरे-घीरे शाम ड़ूब गई, अॅंधियारा घिर आया लेकिन सिनहा जी घर नहीं लौटे। अब तो श्रीमती सिनहा की घबड़ाहट का कोई ओर-छोर नहीं था। मन में आया कि फोन कर के पूछ लें कि कहॉं हैं लेकिन तभी ध्यान आया कि नहीं उनसे तो अबोला है। बोलचाल बंद है इसलिए बात नहीं करनी है।
कुछ देर और बीता। सिनहा जी घर नहीं लौटे। श्रीमती सिनहा परेशान कि करें तो क्या करें। कहीं ऐसा तो नहीं वह गुस्से में सचमुच घर छोड़ कर कहीं चले गए हों। क्या ठिकाना खब्ती तो हैं ही।
पड़ोसी गुप्ता जी का छोटा बेटा सोनू जो हाईस्कूल में था, प्रायः गणित या अंग्रेजी पढ़ने के लिए सिनहा जी के पास आ जाया करता था। श्रीमती सिनहा भागी-भागी गुप्ता जी के घर गई।
‘‘बेटा सोनू ! तुम्हारे अंकल जी बिना बताए काफी देर से निकले हैं। जरा अपने मोबाइल से फोन कर के पता करो कि कहॉं हैं। लेकिन मेरा नाम मत लेना।.कहना कि तुमको गणित का कोई सवाल पूछना है उनसे।’’ श्रीमती सिनहा ने सोनू से कहा।
दोनों की आदतों से वाकिफ सोनू झट मामला समझ गया। उसने अपने मोबाइल का स्पीकर आन कर के सिनहा जी का नम्बर मिला दिया। उधर से हलो होते ही उसने पूछा-‘‘अंकल, कहॉं हैं आप....कितनी देर में घर लौटेंगे ?’’
‘‘क्यों....तुम्हारी आंटी पूछ रही हैं क्या ?’’ उधर से सिनहा जी ने पूछा। सोनू के बगल में बैठीं श्रीमती सिनहा ने उसे इशारे से मना कर दिया।
‘‘नहीं अंकल...मैं पूछ रहा हूॅं। मुझको गणित का एक सवाल पूछना था। आपके घर गया तो पता चला आप घर पर नहीं थे।’’
‘‘मैं अभी आधा-पौना घंटा में आ जाऊॅंगा। बेटे सोनू ! लगे हाथों एक काम कर दो। जरा मेरे घर तक चले जाओ। तुम्हारी आंटी की पीने वाली दवाई खतम हो गई है। तुम शीशी पर लेबिल देख कर मुझको सीरप का नाम बता दो तो मैं लेते आऊॅंगा। गोली लम्बी सी शीशी है....डाइनिंग टेबिल पर ही रखी होगी।’’ सिनहा जी उधर से बोले।
‘‘अंकल आप सीधे आंटी से ही क्यों नहीं पूछ लेते ? मुझको फिर से आप के घर तक जाना पड़ेगा।’’ सोनू ने मजा लेने के लिए कहा।
‘‘अरे नहीं...नहीं मैं उनसे नहीं पूछूॅूंगा। आज शाम उनसे झगड़ा हुआ है इसलिए हमारा अबोला चल रहा है। तुम किसी बहाने चले जाओ और शीशी देख कर या तो मुझे दवा का नाम नोट करा दो या फिर उसकी फोटो खींच कर ह्वाट्स-एप पर भेज दो।’’ सिनहा जी ने कहा।
‘‘जी अंकल....जाता हूॅं’’ सोनू ने कहा और फोन काट दिया।
‘‘हुॅंह....वही मसल है कि ‘काना को देख के अॅंखिया पिराय, और काना को देखे बिना रहा भी न जाय’। सिनहा जी की बात सुन कर श्रीमती सिनहा ने कहा और मुस्कुराते हुए अपने घर लौट गईं।