मेरी छः कवितायें

कविता

Akhilesh Srivastava Chaman

4/28/20221 मिनट पढ़ें

1

डरना जरूरी है।


डरो, जरूर डरो

कि डरना जरूरी है

बनने के लिए

मुकम्मल आदमी ।

डरो, लेकिन

खूॅंखार, हृदयहीन

आतताई से नहीं

राजा, मंत्री, संतरी

या अफसरशाही से

तो कत्तई नहीं

ये तो सच मानो

खुद डरे हुए लोग हैं।

डरो माॅं की उदासी से,

बच्चों की चुप्पी से,

वामा की खामोशी से।

डरो अबल की आह से,

आॅंखों के पानी से

बेवश की कराह से।

डरो लोकापवाद से,

सत्ता के अनुग्रह से,

दुराग्रही संग विवाद से।

डरो मन के पाप से,

आत्मग्लानि, अपराधबोध

यानी अपने आप से।

डरो, जरूर डरो

क्यों कि डरना जरूरी है

बनने के लिए

मुकम्मल आदमी


2

नीरो


नीरो

अब दफ्न हो चुका है,

रह गया है शेष

सिर्फ मुहावरे में

या फिर

इतिहास के पन्नों में

यह सच्चाई नहीं

धोखा है,

महज एक गलतफहमी है।

सच्चाई यह है मेरे दोस्त !

कि नीरो

व्यक्ति नहीं

एक प्रवृत्ति है।

वह मरता नहीं

नाम बदल कर,

वेष बदल कर

बार-बार आता है।

कोई जरूरी नहीं

कि वंशी ही बजाये


नीरो आजकल

गाल बजाता है।


3

सच मानो...


सच मानो,

हमें तब ही लगता है

सबसे अधिक ड़र

जब सीना ठोंक कहते हो तुम

ड़रो मत,

मेरे होते तो

बिल्कुल भी मत ड़रो।

सच मानो,

उसी क्षण होती है

सर्वाधिक बेचैनी

जब आश्वस्त करते हो तुम

निश्चिंत रहो,

मेरे रहते

निर्भय हो चैन से जीओ।


सच मानो,

महसूसता हूॅं

उसी वक्त

सर्वाधिक असुरक्षित

जब देखता हूॅं

अभयदान की मुद्रा में उठे

तुम्हारे हाथ।


सच मानो

वही पल होता है

हिम्मत डिगाता

सर्वाधिक ड़रावना

जब देखता हूॅं अपने आसपास

तुम्हारी मुस्तैद पहरेदारी।

4

बुरा वक्त


जैसे पानी में बहाव,

फूल में सुगन्ध,

और मिट्टी में उर्वरापन

ठीक वैसे ही जरूरी है

आदमी की जिन्दगी में

बुरा वक्त।


बुरा वक्त

आईना है आदमकद

जिसमें साफ-साफ दिख जाती है

औकात

अपनी और अपनों की।

कसौटी-पत्थर है बुरा वक्त

जिस पर कसे जाते हैं

हिम्मत, हिकमत और

मन के संकल्प।

जैसे ईख में मिठास,

नींबू में खटास,

और मिर्च में तीतापन

ठीक वैसे ही जरूरी है

आदमी की जिन्दगी में

बुरा वक्त।

बुरा वक्त भयानक आॅंधी है

जो आजमाती है

हमारी जड़ों की मजबूती।

भयंकर बाढ़ है बुरा वक्त

स्मृति के कगारों पर

जिसके छोड़े निशान

चेताते रहते हैं

अगली बाढ़ के आने तक।


जैसे बचपन में बचपना,

जवानी में जोश,

और बुढ़ापे में अपनापन

ठीक वैसे ही जरूरी है

आदमी की जिन्दगी में

बुरा वक्त।



5

विरासत


मैंने सुना है कि-

मेरे दादाजी के पास थी

ठहाकों से भरी

एक उन्मुक्त हॅंसी

और परखच्चे उड़ जाते थे

दुःख, हताशा और चिन्ताओं के

वे जब कभी हॅंसते थे

ठहाके लगाकर।


मेरे पिताजी के पास

उन्मुक्त ठहाके तो न थे

पर इतनी गुंजाइश थी

कि गाहे, बगाहे

हॅंस सकें वे

मनचाहे ढ़ंग से

खुलकर, खिलखिला कर।

आज मेरे पास

न उन्मुक्त ठहाके हैं,

न खिलखिलाहट

और न ही

बेपरवाह हॅंसी

फिर भी इतना जरूर है कि

तमाम खींचतान के बावजूद भी

चुरा लेता हूूॅं

हॅंसने/हॅंसाने के कुछ बहाने

अवसादों से छुपाकर।


और अब

अपने उम्र की ढ़लान पर

इस कोशिश में मुब्तिला

चिन्तित, हलाकान हूॅं

कि खिलखिलाहट न सही

हॅंसी भी न सही

एक कतरा मुस्कान ही

किसी भाॅंति रख सकूॅं

अपने बेटे के लिए

सहेज कर, बचा कर।



6

इकाई



वे फरमाते हैं-

विश्व सुलग रहा है,

ये समझाते है-

देश सुलग रहा है

लेकिन सच्चाई

यह है मेरे दोस्त

कि यहाॅं आदमी

एक-एक आदमी

सुलग रहा है।


अगर बचाना है

देश अथवा विश्व को

महाविनाश से

तो रोको सबसे पहले

आम आदमी का सुलगना।

ध्यान रहे बन्धु !

ईंट होती है

इमारत की मूल इकाई

और यदि हर ईंट

अपनी जगह मजबूत रहे

तो प्रलयंकारी तूफान

या बड़ा से बड़ा भूचाल भी

नहीं कर सकेगा

इमारत का बाल-बाॅंका।

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