तिरसठ का मैं
कविता
साठ तीन तिरसठ का
हो जाऊँगा मैं
आज से एक दिन बाद।
यदि छोड़ दिए जायें
शुरू के चार
या मान लीजिए पाँच
अबोध बचपन वाले सालए तो भी
पूरे अट्ठावन साल हो गए
इस दुनिया को देखते, परखते,
जानते, समझते, भोगते, भुगतते।
इस प्रकार जी ली है मैंने
पूरे तिरसठ सालों की
एक बड़ी सी उम्र
यानी इतना लम्बा समय
जिसमें एक के बाद एक
तीन पीढ़ियाँ जन्में, बढ़ें
और जवान हो जाएं।
मैंने देखा है इस दरम्यान
समय के बदलते रंगों के साथ
रिश्ते.नातों के कई.कई रूप,
केंचुल उतारते सम्बन्ध और
आदमियों के चेहरे पर चढ़े
पर्त.दर.पर्त कई चेहरे।
खोल कर जिंदगी का बही.खाता
बैठा जब हिसाब लगाने
पाने और गँवाने का
तो पता चला कि
खोया बहुत ज्यादा और
पाया है बहुत कम ।
उम्र की इस लम्बाई को
नापने के दौरान
बचपन खोयाए,बचपना खोया,
रूठना, मचलना, सहकना खोया,
अपनों को खोया, अपनापन खोया
नैसर्गिक सरलता,
सहज भलापन खोया
खोयी हैं मैंने और भी
बहुत, बहुत, बहुत सारी
अलभ्य और अनमोल चीजें
महज पद, थोड़े पैसे
थोड़े नाम, थोड़े अहम
और मुँहदेखी झूठी
वाहवाही की कीमत पर
यानी कि सौदा कुल मिलाकर
बहुत घाटे का रहा।