इक्कीसवीं सदी की चुनौतियाॅं और बाल साहित्य
लेख
कोई भी साहित्य अपने समकालीन समाज का दस्तावेज होता है। ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ यह कथन बहुत पुराना है। इस कथन का तात्पर्य मेरी समझ से यह है कि साहित्य को सतत् सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप परिवर्तनशील एवं समय सापेक्ष रहना होता है। जो साहित्य समय के सापेक्ष नहीं रह पाता है, अपने समय के साथ कदमताल ़नहीं कर पाता है, वह अनादृत, अस्वीकृत और अंततः विस्मृत कर दिया जाता है।
परिवर्तन यूॅं तो निरंतर गतिशील रहने वाली प्रवृत्ति है फिर भी इक्कीसवीं सदी के आगमन के एक-डेढ़ दशक पहले से इसकी गति बहुत तीव्र हो गयी है। इस अवधि में अर्जित अभूतपूर्व वैज्ञानिक उपलव्धियों विशेष रूप से सूचना एवं संचार तकनीकी के क्षेत्र में आए क्रांतिकारी परिवर्तन ने हमारे सामाजिक परिदृश्य को बिल्कुल ही बदल कर रख दिया है। इससे एक तरफ जहाॅं हमारी जीवन शैली में व्यापक बदलाव आया है, हमारी सुख-सुविधा के संसाधन बढ़े हैं, सामाजिक जीवन की जागरूकता एवं गतिशीलता बढ़ी है वहीं दूसरी तरफ बहुत सारी नई तरह की चुनौतियाॅं भी पैदा हो गयी हैं। वैसे तो इन चुनौतियों से कमोवेश हर कोई प्रभावित हुआ है लेकिन यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं हमारे बच्चे और किशोर। नाना प्रकार के संचार साधनों की बहुतायत ने दूरियों को समेटने तथा सूचना और ज्ञान सुलभ कराने के साथ-साथ बच्चों के बिगड़ने, दिग्भ्रमित होने तथा उनकी मानसिकता के विकृत होने के भी बहुत सारे अवयव जुटा दिए हैं। आज जब कि सामाजिकता लगभग छिन्न-भिन्न हो चुकी है, संयुक्त परिवार विघटित हो चुके हैं और माता, पिता दोनों ही कामकाजी हो चुके हैं, ऐसे कठिन समय में बाल साहित्य ही एक मात्र ऐसा साधन दिखता है जो भटकाव के लिए अभिशप्त हो चुके बच्चों को कृत्रिमता एवं भौतिकता की चकाचैंध के दलदल से निकाल कर उन्हें यथार्थ एवं व्यावहारिकता का बोध करा सकता है। तात्पर्य यह कि बच्चों तथा किशोरों के परिप्रेक्ष्य में संचार साधनों जनित विकृतियों एवं चुनौतियों से निपटने का सर्वाधिक कारगर साधन बाल साहित्य ही है।
इस लेख का शीर्षक ‘इक्कीसवीं सदी की चुनौतियाॅं और बाल साहित्य की भूमिका’ वस्तुतः अपने आप में दो विषयों को समेटे हुए है। पहला विषय है इक्कीसवीं सदी की चुनौतियाॅं, वह भी विशेष रूप से बचपन के परिप्रेक्ष्य में तथा दूसरा विषय है उक्त चुनौतियों के संदर्भ में बाल साहित्य की भूमिका। अब यहाॅं बाल साहित्य की भूमिका की बात करने से पहले हमको यह जानना होगा कि बाल साहित्य क्या है और इसका उद्ेश्य क्या है। फिर हमें यह जानना होगा कि बच्चों और बच्चों के माध्यम से पूरे समाज और देश को बनाने, सॅंवारने और सॅंभालने में बाल साहित्य की भूमिका क्या है।
पहला प्रश्न है कि बाल साहित्य क्या है ? सच कहें तो यह एक ऐसा दुरूह प्रश्न है जिसका बिल्कुल सही एवं सटीक उत्तर दिया जाना संभव ही नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे चारों तरफ हवा है लेकिन यदि कोई हमसे पूछे कि हवा क्या है तो हम उसे बिल्कुल सही ढंग से परिभाषित नहीं कर सकेंगे। मेरा अपना मानना है कि ‘‘हमें मनुष्य बनाने या यों कहें कि एक सामाजिक जानवर ( ेवबपंस ंदपउंस) के अंदर मनुष्यता के बीज ड़ालने का कार्य करने वाला अवयव ही बाल साहित्य है। कोई आवश्यक नहीं कि वह मुद्रित रूप में ही हो। बच्चा जन्म लेने के बाद से ही अपनी माॅं की लोरी के रूप में, पिता की प्यार भरी नसीहतों के रूप में अथवा दादा-दादी, नाना-नानी तथा अन्य बड़े-बुजुर्गों के मुख से किस्सों-कहानियों आदि के रूप में जो कुछ भी सुनता और गुनता है वह सब कुछ बाल साहित्य ही है।’’
बाल साहित्य की अवधारणा के सम्बन्ध में मैं यहाॅं हिन्दी के चार शीर्षस्थ बाल साहित्यकारों के मतों का उल्लेख करना चाहूॅंगा।
1- हिन्दी बाल साहित्य के पुरोधा निरंकारदेव ‘सेवक’ के अनुसार-‘‘जिस साहित्य में बच्चों का मनोरंजन हो सके, जिसमें वे रस ले सकें, और जिसके द्वारा वे अपनी भावनाओं एवं कल्पनाओं का विकास कर सकें वह बाल साहित्य है।’’
2- हिन्दी बाल साहित्य पर पहला शोध करने वाले, बाल पत्रिका ‘पराग’ के पूर्व सम्पादक हिन्दी बाल साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर डा0 हरिकृष्ण देवसरे कहते हैं कि-‘‘बाल साहित्य की तुलना माॅं के दूध से की जा सकती है। जैसे बच्चा अपना पहला आहार माॅं के दूध के रूप में लेता है वैसे ही उसका पहला बौद्धिक आहार माॅं के मुॅंह से सुनी लोरी के रूप में बाल साहित्य होता है। जैसे बच्चे के स्वस्थ शारीरिक विकास के लिए माॅं का दूध आवश्यक होता है वैसे ही उसके स्वस्थ मानसिक विकास के लिए बाल साहित्य।’’
3- हिन्दी बाल साहित्य की विविध विधाओं में विपुल सृजन करने वाले बाल साहित्यकार डा0 श्रीप्रसाद के अनुसार ‘‘बाल साहित्य बच्चों से जुड़ा मानसिक चिन्तन है जिसकी अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से विविध विधाओं में होती है।’’
4- ‘चंदामामा’ पत्रिका के लम्बे समय तक संपादक रहे, हिन्दी बाल साहित्य के विख्यात रचनाकार डा0 बालशौरि रेड्डी का कथन है कि-‘‘साहित्य का अर्थ ही है-‘हितेन सहित’ अर्थात जो हित करने वला हो। बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य मनोरंजक हो। उनका हित करने वाला भी हो।’’
उपरोक्त के निष्कर्ष स्वरूप हम यह कह सकते हैं कि-‘‘बाल साहित्य का स्वरूप बहुत व्यापक एवं अमूर्त है। यह वह अवयव है जो अपने विविध रूपों में बच्चे का उसके समय, समाज एवं परिवेश के साथ प्रथम साक्षात्कार कराता है।’’
दूसरा प्रश्न है कि बाल साहित्य का उद्देश्य क्या है ? वैसे बाल साहित्य के उद्देश्य को ले कर हमेशा ही मतभेद की स्थिति रही है। कुछ लोगों के अनुसार बाल साहित्य का मुख्य उद्देश्य बच्चों को बहलाना या उन्हें मनोरंजन प्रदान करना मात्र है। कुछ अन्य की दृष्टि में बाल साहित्य ऐसा होना चाहिए जो बच्चों को शिक्षित, संस्कारित करे और उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित करे। विस्तार में न जा कर मैं इस प्रश्न का उत्तर इतिहास के पन्नों से देना चाहूूॅंगा। ऐतिहासिक बाल पत्रिका ‘बालसखा’ के यशस्वी सम्पादक लल्ली प्रसाद पाण्डेय ने ‘बालसखा’ के जनवरी 1917 के अंक में लिखा था कि-‘‘बाल साहित्य का उद्ेश्य है बालक, बालिकाओं में रूचि लाना, उनमें उच्च भावनाओं को भरना और उनमें से दुर्गुणों को निकाल कर बाहर करना, उनका जीवन सुखमय बनाना और उनमें हर तरह का सुधार करना।’’
डा0 हरिकृष्ण देवसरे के अनुसार-‘‘बाल साहित्य बच्चों के उन अंकुरों को पुष्ट करताहै जो बड़े हो कर उन्हें जीवन के सत्य को पहचानने में सहायता करते हैं।’’
अब आते हैं इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों पर। इक्कीसवीं सदी को मुख्यतया संचार साधनों में आयी क्रांति के लिए जाना जाता है। यह संचार क्रांति की ही देन है कि आज सारी दुनिया हमारी मुट्ठी में है और अच्छी, बुरी हर सूचना हमसे मात्र एक क्लिक की दूरी पर है। वैसे तो इक्कीसवीं सदी ने हमारे सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में अनेकानेक चुनौतियाॅं पैदा की हैं लेकिन यहाॅं हमें सिर्फ उन चुनौतियों की बात करनी है जो बच्चों, बचपन और बाल साहित्य के समक्ष हैं। किसी समय अंग्रेजी में एक बहुत प्रचलित मुहावरा हुआ करता था कि ‘‘ेबपमदबम पे ं हववक ेमतअमदज इनज ं इंक उंेजमतण्’’ आज हू-ब-हू यही बात संचार साधनों के संदर्भ में कही जा सकती है। इसके भले, बुरे प्रभाव का सारा दारोमदार इस बात पर निर्भर है कि हम इसका उपयोग किस रूप में करते हैं। इसे अपने नियंत्रण में रखते हैं या कि जाने-अनजाने हम खुद इसके नियंत्रण में आ जाते हैं।
दरअसल इक्कीसवीं सदी के आगमन के साथ ही हमारे घरों में एक के बाद एक तीन पर्दों का प्रवेश हुआ है और इन तीनों पर्दों ने हमारी सुख-शान्ति, शील-संस्कार, अदब-लिहाज, शर्म-हया, मान-मर्यादा सब कुछ बेपर्दा कर के रख दिया है। ये तीनों पर्दे हैं टी0वी0, कम्प्यूटर और मोबाइल के पर्दे। इन तीनों पर्दों की कृपा से आज कुछ भी अज्ञेय या गोपन नहीं रह गया है। भला-बुरा, सच-झूठ और श्लील-अश्लील सब कुछ अपने नग्नतम रूप में हमारे सामने खुला पड़ा है। बस एक बटन दबाने या क्लिक करने भर की देरी है। उस पर कोढ़ में खाज वाली बात यह है कि आज के बच्चों की पहॅंुच इन तीनों ही पर्दों तक हो चुकी है। आज का अभिवावक वर्ग लाख चाहने के बावजूद भी अपने बच्चों को इक्कीसवीं सदी के इन उपादानों से दूर नहीं रख सकता है।
टी0वी0 और इंटरनेट की देन यह है कि आज बच्चों से उनका बचपन छिन चुका है। उनके अंदर से बचपना, भोलापन, सहजता, सरलता, कोमलता, चंचलता, निश्छलता, सहनशीलता तथा सहिष्णुता आदि के मानवीय भाव लुप्त होते जा रहे हैं। आज आॅंखें खोलते ही बच्चे का प्रथम साक्षात्कार टी0वी0 के पर्दे से होता है। टी0वी0 का आलम यह है कि अपनी रेटिंग बढ़ाने व विज्ञापन बटोरने के लिए विभिन्न चैनलों के मध्य अधिकाधिक हिंसा, क्रूरता, अपराध, सनसनी, षणयंत्र, अश्लीलता, विभत्सता, और अंधविश्वास परोसने की होड़ सी मची हुयी है। अब इससे बड़ी उलटबाॅंसी भला और क्या होगी कि जहाॅं एक तरफ अंतरिक्ष में मनुष्य की चहलकदमी हो रही है, चाॅंद और मंगल पर बस्तियाॅं बसाने की बात हो रही है वहीं दूसरी तरफ हमारे भाग्य और कंुडली की गणना करने के लिए जाने कितने ज्योतिषी, भविष्यवक्ता, अंकशास्त्री और वास्तुशास्त्री पैदा हो गए हैं। विभिन्न चैनलों पर बैठे ये लोग सवेरे से ले कर रात तक बिन माॅंगे हमारा वर्तमान और भविष्य सवाॅंरने के टोटके सुझा रहे हैं। सभी प्रकार की समस्याओं के शर्तिया समाधान करने वाले यंत्र और ताबीज आलू, भाॅंटे की तरह आवाज लगा-लगा कर बेचे जा रहे हैं। अगर एक मुश्त पैसा न हो तो ये यंत्र और समाधान आसान किश्तों पर घर बैठे पॅंहुचाए जा रहे हैं। इस बात की परवाह किसी को भी नहीं है कि संचार माध्यमों के जरिए यह जो हिंसा, अश्लीलता, अंधविश्वास अकर्मण्यता और भाग्यवादिता परोसी जा रही हैं इन विकृतियों का समाज पर और विशेष रूप से बच्चों पर क्या असर पड़ रहा है।
टी0वी0 के कार्यक्रमों से प्रभावित हो कर बच्चों के हिंसक होने, उनके उद्दण्ता करने, अपराध करने, भाग्यवादी बनने तथा मामूली बातों पर आत्मघाती कदम उठाने आदि की खबरें आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलती रहती हैं। आॅंकड़े गवाह हैं कि विगत कुछ वर्षों में बाल और किशोर अपराधों में तेजी से वृद्धि हुयी है। दूरदर्शन पर अव्यावहारिक स्टंट के दृश्यों को देख कर बहुत सारे बच्चों ने आत्मघाती कदम उठाए हैं। और बहुतेरे हीन भावना तथा कुंठा के शिकार हुए हैं। तात्पर्य यह कि इक्कीसवीं सदी की उॅंगली पकड़ कर आयी सूचना क्रांति ने हमारे बच्चों पर सकारात्मक कम नकारात्मक प्रभाव अधिक ड़ाला है। नाना प्रकार के इन नकारात्मक प्रभावों से बच्चों को बचा ले जाना आज के अभिवावक के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी है। इस चुनौती से निपटने का कार्य बाल साहित्य ही कर सकता है। सूचनापरक, उद्देश्यपरक, यथार्थपरक, आदर्शपरक, तार्किक, विज्ञान सम्मत, स्वस्थ और प्रेरक बाल साहित्य के द्वारा बच्चों को बतलाया जा सकता है कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती है। व्यावहारिक बाल साहित्य के माध्यम से बच्चों को आसन्न खतरों के प्रति सचेत किया जा सकता है। उन्हें जीवन, जगत की सच्चाइयों से अवगत कराया जा सकता है। उन्हें कर्मवादी, तर्कशील एवं व्यावहारिक बनाया जा सकता है। और इस प्रकार बच्चों को उनके परिवेश के नकारात्मक प्रभावों से बचाया जा सकता है।
इक्कीसवीं सदी की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है हमारा बदला हुआ सामाजिक परिदृश्य। आज का बच्चा इतना अधिक जागरूक और तार्किक हो चुका है कि उसको आधारहीन पारम्परिक मान्यताओं के द्वारा नहीं बहलाया जा सकता है। वह चाॅंद को मामा, सूर्य को देवता, गंगा को विष्णु के पैर से निकली मोक्षदायिनी देवी तथा वर्षा को इन्द्र भगवान की कृपा मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। वह कत्तई मानने के लिए तैयार नहीं है कि हमारी यह पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी हुयी है और शेषनाग जब अपना फन हिलाते हैं तो भूकम्प आ जाता है। उसको ज्ञात हो चुका है कि चाॅंद पृथ्वी का एक उपग्रह है, सूर्य एक तारा है, गंगा हिमालय के ग्लेशियर से निकली एक सामान्य जल धारा है जो प्रदूषण की हद तक प्रदूषित हो चुकी है और वर्षा का होना मौसम परिवर्तन की प्रक्रिया का परिणाम है। वह जान चुका है कि पृथ्वी के आंतरिक हिस्से में होनेवाली हलचलों या प्लेटों के आपसी रगड़ का परिणाम भूकम्प के रूप में सामने आता है।
आज घर-घर में घुसे टेलीविजन और इंटरनेट ने बच्चों को समय से पहले वयस्क तथा उम्र के मुकाबले अधिक जानकार बना दिया है। आज जब हमारे कदम अंतरिक्ष तक पॅंहुच चुके हैं और मंगल पर मानव बस्ती बसाने की बातें हो रही हैं, तो बच्चा जादू, मंतर टोना और दैवीय चमत्कार की कहानियाॅं नहीं सुनेगा। इसी प्रकार विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में रहने वाला बच्चा राजा-रानी और प्रजा की बात स्वीकार नहीं करेगा। आज के चेतना सम्पन्न बच्चे सिर्फ वही बात स्वीकार है जो व्यावहारिक हो, विज्ञान सम्मत हो तथा उसके तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हो। ऐसे मेें आवश्यक है कि समय सापेक्ष, सार्थक और आज के बच्चे की जागरूकता के अनुरूप बाल साहित्य की रचना की जाय। बालमन स्वभावतः जिज्ञासु होता है। वह अपनी जिज्ञासाओं का उचित और तार्किक समाधान चाहता है। इस समाधान की तलाश में ही बच्चा इधर-उधर भटकता है और सही समाधान नहीं मिलने की दशा में गलत रास्तों की तरफ मुड़ जाता है। बच्चे के इस भटकाव को रोकने में बाल साहित्य को सार्थक एवं महती भूमिका निभानी है। इस अपेक्षा पर खरा उतरना आज बाल साहित्य के लिए एक बड़ी चुनौती है।
इक्कीसवीं सदी की तीसरी चुनौती है आज का अर्थ केन्द्रित समाज और भौतिकता के पीछे मची अंधी दौड़। इसका दुष्परिणाम यह है कि बच्चे अपनी संस्कृति, संस्कार, सदाचार और जड़ों से कटते जा रहे हैं। संचार माध्यमों ने लुभावने विज्ञापनों के द्वारा हमारी इच्छाओं को इतना अधिक विस्तार दे दिया है कि मन की संतुष्टि आकाश कुसुम बन कर रह गई है। जिसे देखो वही अधिकाधिक सुख, सुविधा और सम्पन्नता की चाहत में पागल हुआ जा रहा है। ध्यान देने की बात यह है कि उत्पादकों द्वारा अधिकांश उत्पादों के विज्ञापन बच्चों के ही माध्यम से कराए जाते हैं। यहाॅं तक कि जो चीजें बच्चों के उपयोग की नहीं हैं उनमें भी बच्चों को शामिल किया जाता है। इसके पीछे उनका उद्देश्य होता है बच्चों के मन-मस्तिष्क में पैठ बना कर उनके माध्यम से अभिवावक वर्ग तक पहॅंुचना। सही, गलत में भेद कर सकने में अक्षम होने के कारण बच्चे विज्ञापित बातों को सत्य मान लेते हैं। वे विज्ञापित वस्तु के प्रति आकर्षित हो जाते हैं और उसकी प्राप्ति के लिए जिद ठान लेते हैं। समर्थ अभिवावक बच्चों की जिद के सामने झुक जाते हैं, थोड़ी ना-नुकुर के पश्चात अंततः बच्चे की इच्छा पूरी कर देते हैं और इस प्रकार उत्पादकों की मंशा पूरी हो जाती है।
स्वाभाविक सी बात है कि हर अभिवावक विशेष रूप से मध्य वर्ग तथा निम्न मध्य वर्ग के अभिवावक अपनी आर्थिक सीमाओं के कारण बच्चे की हर इच्छा की पूर्ति नहीं कर पाते हैं। और बच्चों की स्थिति यह होती है कि उनको अपने अभिवावकों की आर्थिक सीमा का ज्ञान नहीं होता है। इसकी परिणति बच्चों में हताशा, निराशा, कुंठा, नशाखोरी तथा अन्य आत्मघाती कदमों के रूप में होती है। संयुक्त परिवार तो खैर अब रहे ही नहीं स्वयं माॅं-बाप के पास भी आज इतना समय नहीं है कि वे अपने बच्चों के साथ बैठें, उनकी बातें सुने, समझें और उनकी जिज्ञासाओं का शमन करें। ऐसे में बाल साहित्य की भूमिका और भी अधिक बढ़ जाती है। अकेलेपन के शिकार, यथार्थ से कटे, दिग्भ्रमित बच्चों के सही मार्गदर्शन का दायित्व अंततः बाल साहित्य पर आ जाता है। यदि प्राचीन काल में बाल साहित्य ने ‘पंचतंत्र’ और ‘हितोपदेश’ आदि के रूप में यह कार्य बखूबी किया है तो आज भी कर सकता है।
एक चैथी चुनौती यह है कि इक्कीसवीं सदी की भौतिकतावादी संस्कृति ने आज के अभिवावक वर्ग की मानसिकता को बदल कर रख दी है। अपने बच्चों को ले कर माता-पिता की अति महत्वाकांक्षा, उनके कैरियर के प्रति अति संवेदनशीलता तथा अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की यांत्रिक शिक्षा प्रणाली ने बच्चों को बिल्कुल मशीनी रोबोट बना कर रख दिया है। उन्हें संस्कृति, संस्कार, साहित्य, समाज और परिवेश से बिल्कुल काट कर रख दिया है। आज के एकल परिवारों में न तो बड़े, बूढ़ों की उपस्थिति रह गई है और न ही सामाजिक मेल-जोल के अवसर। पहले के समय में विद्यालयों में बच्चों के बीच वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी तथा भाषण आदि की प्रतियोगिताओं का चलन था। विद्यालयों में तुलसी जयन्ती, सूर जयन्ती, गाॅंधी जयन्ती, निराला जयन्ती आदि के आयोजन हुआ करते थे। इन आयोजनों के चलते बच्चों का साहित्य और उसी बहाने अपनी संस्कृति से जुड़ाव बना रहता था। लेकिन आज वह सब गुजरे कल की बातें हो चुकी हैं।
सच कहें तो आज का बच्चा एक नकली परिवेश में जी रहा है। घर हो या विद्याालय बच्चे को जो कुछ सिखाया, पढ़ाया, समझाया जाता है और जो कुछ वह अपने चारों तरफ देखता, सुनता है के बीच उसको भारी अंतर मिलता है। बच्चा बड़ों के पाखण्ड को समझ नहीं पाता है फलतः सहज ही वह भटकाव की ओर बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में बाल साहित्य का यह दायित्व हो जाता है कि वह फिर से बच्चों को साहित्य एवं संस्कृति से जोड़े, उन्हें अपने इतिहास के उज्ज्वल पक्ष से अवगत कराए, उनको सही और गलत का अंतर बताए तथा उनके अंदर मानवीय गुणों का बीजारोपड़ करे।
ऐसा नहीं है कि बाल साहित्यकार इन चुनौतियों से अनभिज्ञ हैं और हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। बल्कि हमारे वरिष्ठ बाल साहित्यकारों ने इक्कीसवीं सदी की इन चुनौतियों की आहट बहुत पहले ही महसूस कर ली थी। नब्बे के दशक में ‘पराग’ के यशस्वी सम्पादक हरिकृष्ण देवसरे के नेतृत्व में तार्किक, व्यावहारिक, यथार्थपरक और विज्ञान सम्मत बाल साहित्य के सृजन का एक आन्दोलन चला था जिसमें निरंकार देव सेवक, शंकर सुल्तानपुरी, विष्णु प्रभाकर, डा0 श्रीप्रसाद, मनोहर वर्मा, शम्भु प्रसाद श्रीवास्तव, प्रकाश मनु, आनंद प्रकाश जैन, योगेन्द्र कुमार लल्ला, हरिकृष्ण तैलंग, डा0 बालशौरि रेड्डी, दामोदर अग्रवाल, नारायण लाल परमार, जहूर बख्स, डा0 शेरजंग गर्ग, डा0 शोभनाथ लाल, डा0 रोहिताश्व अस्थाना, देवेन्द्र कुमार, रमेश तैलंग, बालस्वरूप राही, डा0 सरोजिनी कुलश्रेष्ठ आदि लेखकों ने बढ़-चढ़ कर भागीदारी की थी। आज जयंत विष्णु नार्लीकर, गुणाकर मुले, ललन कुमार प्रसाद, देवेन्द्र मेवाड़ी, अरविन्द मिश्र, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, समीर गांगुली, रमाशंकर तथा राजीव सक्सेना जैसे लेखक विज्ञान के विविध पक्षों पर बच्चों के लिए खूब लिख रहे हैं और बहुत रोचक ढंग से लिख रहे हैं। इनके अतिरिक्त डा0 परशुराम शुक्ल, ओम प्रकाश कश्यप, डा0 उषा यादव, राजनारायण चैधरी, हरीश निगम, सूर्यकुमार पाण्डेय, भगवती प्रसाद द्विवेदी, डा0 सुरेन्द्र विक्रम, अमिताभ शंकर राय चैधरी और घमंड़ीलाल अग्रवाल जैसे वरिष्ठ लेखकों से लेकर शकुन्तला कालरा, नयन कुमार राठी, मो0 अरशद खान, मो0 साजिद खान, नागेश पाण्ड़ेय ‘संजय’, शादाब आलम, शशिभूषण बड़ोनी, पवन कुमार वर्मा, रावेन्द्र कुमार रवि, श्यामनारायण श्रीवास्तव, अलका प्रमोद, दर्शन सिंह आशट, रामकरन और कामना सिंह आदि सरीखे ढ़ेर सारे रचनाकार सार्थक बाल साहित्य रच कर अपने तरीके से इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का जबाब दे रहे हैं।
आज सारी चुनौतियों से बड़ी और सबसे विकट चुनौती है बाल पाठकों तक बाल साहित्य को पॅंहुचाने की। आप का उत्पाद लाख अच्छा हो, लाख उपयोगी हो लेकिन अगर वह उपभोक्ता तक नहीं पॅंहुच पा रहा है तो बेकार है। ठीक यही समस्या आज बाल साहित्य के समक्ष भी है। आज के बच्चे बाल साहित्य से बिल्कुल कट गए हैं। विद्यालयों में न तो पुस्तकालय हैं और न ही बच्चों को पाठ्यक्रम से इतर कुछ पढ़ने, पढ़ाने की गुंजाइश। घरों में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का आना भी अब गुजरे कल की बातें हो चुकी हंै। और संचार साधनों का भी साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं है। ऐसे में समस्या है कि बाल साहित्य बच्चों तक पॅंहुचे तो कैसे पॅंहुचे।
आज बच्चे-बच्चे के हाथ में लैपटाप, टेबलेट, पेजर और स्मार्टफोन आदि जैसे उपकरण हैं। स्कूल और होमवर्क से जो थोड़ा बहुत समय बचता है बच्चा उसे इन उपकरणों के हवाले कर देता है। इन उपकरणों से बच्चों को जानकारी तो मिल जाती है लेकिन ज्ञान नहीं। ऐसे में हम सिर्फ मुद्रित सामग्री के भरोसे नहीं रह सकते हैं। बच्चों तक पॅंहुचने के लिए हमें इन डिजिटल माध्यमों पर भी जाना होगा और इन माध्यमों के जरिए बच्चों में साहित्यिक अभिरूचि पैदा करनी होगी। जिस प्रकार विभिन्न विज्ञापन कम्पनियाॅं सूचना तकनीक के इन माध्यमों के जरिए बच्चों तक अपने उत्पाद पॅंहुचा रही हैं ठीक उसी प्रकार आज बाल साहित्य को भी बच्चों तक पॅंहुचाना होगा। यह कार्य जितनी जल्दी और जितने नियोजित तरीके से हो सके उतना ही उत्तम होगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो न सिर्फ बाल साहित्य बल्कि सम्पूर्ण साहित्य के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा क्यों कि आज का बच्चा ही कल साहित्य का पाठक लेखक और आलोचक होगा। अतः बच्चों को साहित्य से जोड़े बगैर भाष और साहित्य की प्रगति की कल्पना करना ठीक वैसे ही होगा जैसे बीज बोए बगैर फल खाने की कामना करना।
इस प्रकार हम पाते हैं कि आज इक्कीसवीं सदी में बाल साहित्य की भूमिका और उसका उत्तरदायित्व पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक बढ़ गया है। मैं अपनी बात का समापन मुंशी प्रेमचंद के कथन के साथ करना चाहूूंगा। मुंशी प्रेमचंद ने हंस के सम्पादकीय में लिखा था- ‘‘बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी सुरक्षा आप कर सके। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें।’’