पुलिसिया तलाशी

व्यंग्य

Akhilesh Srivastava Chaman

7/5/20241 मिनट पढ़ें

आज जनसंदेश टाइम्स अखबार  में छपी व्यंग्य कहानी।

थप...थप...थप...। भड़....भड़...भड़...। दरवाजा पीटने की आवाज आयी। साथ ही काॅलबेल भी बज उठा। रात के साढ़े ग्यारह बजे थे। मैं गहरी नींद में जा चुका था। नींद टूट गयी। तन्द्रावस्था से निकल कर पूरी तरह से चैतन्य हो पाता तब तक दरवाजा पीटे जाने तथा काॅलबेल बजने की आवृत्ति बढ़ चुकी थी। मैंने दरवाजा खोल कर बाहर झाॅंकने की कोशिश की। तभी एक दरोगा तथा तीन सिपाही कुल चार पुलिस वाले मुझको ठेलते हुए घर के अंदर घुस आए।

‘‘क्या बात है....? कौन हैं आप लोग ? मेरे घर में ऐसे क्यों घुसे चले आ रहे हैं आप लोग ?’’ मैंने हकलाते हुए पूछा।

‘‘अंधे हो क्या ? दिखलायी नहीं देता हम कौन हैं ?’’

‘‘वो तो मैं देख रहा हूॅं श्रीमान कि आप लोग वर्दी पेटी मे ंसजे-धजे पुलिस वाले हो। लेकिन इतनी रात मेरे घर में ऐसे जबरदस्ती......?’’

‘‘तलाशी लेनी है तुम्हारे घर की।’’ दरोगा ने मेरी बात बीच में ही काट दी।

‘‘तलाशी...? भला वो क्यों ?’’

‘‘ये तो हमको भी नहीं पता है। बस ऊपर से आर्डर मिला है इसलिए।’’

‘‘लेकिन कोई तो कारण होगा तलाशी का ?’’

‘‘ऐसे लोगों जिनसे शांति भंग की आशंका है, जिनसे कानून व्यवस्था को खतरा हो सकता है उनकी लिस्ट में नाम है तुम्हारा। अब बकवास बंद करो और हमें अपना काम करने दो।’’ दरोगा गुर्राया।

अगले ही पल तीनों सिपाही मेरे घर के कमरों में घुस गए और सामानों को उलटने-पलटने लगे। दरोगा मेरे साथ ड्राइंगरूम में खड़ा पूछताछ करने लगा।

‘‘अरे साहब ! ये देखिए....यहाॅं तो जखीरा है....जखीरा।’’ कमरे के अंदर से एक सिपाही तेज आवाज में बोला। सुनते ही दरोगा कमरे की तरफ भागा। मैं भी उसके पीछे हो लिया। वह मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा था। दरोगा कमरे के अंदर रैकों और आलमारियों में रखीं किताबों को आॅंखे फाड़-फाड़ कर देखने लगा।

‘‘क्यों जी....! इतनी ढ़ेर सारी किताबें क्यों इकट्ठी कर रखी हैं तुमने ?’’ दरोगा ने मुझे घूरते हुए पूछा।

‘‘पढ़ने के लिए।’’ मैंने कहा।

‘‘लेकिन तुम तो नौकरी करते हो।’’

‘‘जी....।’’

‘‘तो फिर अब किताबें पढ़ने की भला क्या जरूरत है ?’’

‘‘आदमी बनने के लिए।’’

‘‘आदमी नहीं तो क्या जानवर हो हो तुम ? शकल-सूरत तो तुम्हारी आदमी की ही दिख रही है। भगवान ने तो इस धरती पर तुम्हें आदमी के ही रूप में भेजा है।’’ दरोगा ने तंज कसा। सिपाही तीनों ही...ही..ही..ही कर के हॅंस पड़े।

‘‘जी...भगवान ने तो सिर्फ शरीर से आदमी बनाया है। लेकिन सोच समझ यानी दिल और दिमाग से भी आदमी बनने के लिए किताबें पढ़ना बहुत जरूरी है।’’

‘‘अच्छा...तो बहुत सयाने बन रहे हो ? हमें पहाड़ा पढ़ा रहे हो ? सच-सच बताओ इतनी सारी किताबें क्यों इकट्ठा कर रखी है तुमने ?’’ दरोगा ने आॅंखें तरेरते हुए पूछा।

‘‘साहब जी ! किताबें बहुत खतरनाक किस्म की लग रही हैं।’’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही सिपाही जो इतनी देर से रैक में रखी किताबें उलट-पलट रहा था एकदम से बोल पड़ा।

‘‘तुमको कैसे पता कि मेरी किताबें खतरनाक किस्म की हैं ?’’ मैंने चिढ़ कर पूछा।

‘‘अरे ! अब तक कम से कम पचास किताबें पलट लीं मैंने लेकिन एक भी ढ़ंग की किताब नहीं दिखी।’’

‘‘ढ़ंग की किताब....? क्या मतलब...?’’

‘‘मतलब इतनी सारी किताबों में एक भी न तो आरती की किताब है, न भजन की किताब है, न संतोषी माता व्रत कथा की किताब है, न हनुमान चालीसा है न दुर्गा चालीसा है। और तो और बहुत सारी किताबें तो अंग्रेजी भाषा में हैं।’’ सिपाही बोला।

‘‘हिन्दी भाषा वाले देश का आदमी हो कर अंग्रेजी की किताब पढ़ता है। इस पर तो देशद्रोह का केस बनता है। क्यों साहब...?’’ दूसरे सिपाही ने कहा।

‘‘तुम ठीक कह रहे हो चैबे। मुझे भी यह आदमी संदिग्ध लग रहा है। देखो इसके कमरे में किसी भी देवी-देवता या देश के किसी नेता की एक भी फोटो नहीं है। बस दो फोटो टॅंगी हैं। इनमें से एक यह धोती कुर्ता और गझिन मूॅंछों वाली फोटो तो किसी लेखक- वेखक की है शायद। और यह दूसरी फोटो एक आतंकवादी की है। बताते हैं कि आजादी से पहले इस आतंकवादी ने किसी अंग्रेज अफसर के ऊपर बम से हमला किया था।’’

‘‘इसका मतलब यह आतंकवादियों से मिला हुआ है। उनके स्लिपिंग सेल का आदमी है। क्यों साहब...?’’ तीसरा सिपाही बोला।

‘‘हो सकता है....बिल्कुल हो सकता है।’’ दरोगा ने कहा और मेरे पढ़ने के मेज पर रखी डायरी, कलमदान में रखे पेन तथा राइटिंग पैड में लगे कागजों को चेक करने लगा। वह अचानक चैंक कर बोला-‘‘अरे ! यह लाल स्याही वाली कलम क्यों रखी है तुमने ?’’

‘‘बस यूॅं ही....। पढ़ते समय काम की चीजों को अण्डरलाइन करने के लिए।’’

‘‘सारी दुनिया नीले पेन से लिखती है और तुम लाल स्याही का पेन रखते हो ? लाल यानी खून-खराबा और खतरे के रंग का।’’

‘‘साहब ! यह जरूर कोई खतरनाक आदमी है। ये देखिए इस किताब में इसकी फोटो छपी है।’’ मेरी आलमारी की तलाशी ले रहे सिपाही ने एक पत्रिका को पलटते हुए कहा।

दरोगा ने झपट कर वह पत्रिका अपने हाथ में ले ली और उलटने-पलटने लगा।

‘‘क्यों जी....तुम लेखक हो क्या ?’’ दरोगा ने इस भाव से पूछा मानो लेखक होना कोई अपराध है।

‘‘हाॅं....मैं लेखक हूॅं।’’

‘‘तभी तो....तभी तो खतरनाक लोगों की लिस्ट में नाम है तुम्हारा।’’

‘‘तो क्या कविता कहानी लिखना कोई गलत काम है ?’’

‘‘बिल्कुल गलत काम है। उल्टी-सीधी, झूठी-मूठी बातें लिख कर लोगों को भड़काया करते हो तुम लोग। देश में अराजकता का माहौल पैदा करते हो। सबसे गंभीर बात तो यह है कि तुम सरकारी मुलाजिम हो कर कविता कहानी लिखते हो। यानी सरकारी ड्यूटी में कामचोरी करते हो। इस अपराध की एक धारा अलग से लगेगी तुम्हारे ऊपर।’’

‘‘दरोगा जी मैं कामचोरी नहीं करता हूॅं। पढ़ने-लिखने का काम मैं ड्यूटी के टाइम में नहीं अपने पर्सनल टाइम में किया करता हूॅं।’’

‘‘कैसा पर्सनल टाइम जी ? कहीं सरकारी कर्मचारी का कोई पर्सनल टाइम होता है क्या ? पता नहीं है तुमको कि सरकारी कर्मचारी चैबीसों घंटे का नौकर होता है। मुझको ही देखो, रात के साढ़े बारह बज रहे हैं फिर भी मैं ड्यूटी पर हूॅं कि नहीं ? सरकार क्या इसके लिए कोई अलग से तनख्वाह देती है मुझको ?’’

‘‘लेकिन आपकी और मेरी नौकरी के कंडीशन्स अलग-अलग हैं दरोगा जी।’’

‘‘ज्यादा बकवास नहीं। चलो....थाने चलो। वहाॅं पता चल जायेगा सारा कंडीशन।’’ दरोगा ने मुझको हड़काते हुए कहा। उसके बाद सिपाही से बोला-‘‘चैबे ! इसकी डायरी, पेन, लाल स्याही वाली दावात तथा इसकी फोटो छपी किताबें एक गठरी में बाॅंध लो। और तिवारी तुम इस कमरे को सील कर दो ताकि कोई सबूत यह गायब न करने पाए।’’

आधी रात को थाने जाने की बात सुनते ही मुझको पसीना आने लगा। पाॅंच दशक पहले मर चुकी नानी याद आने लगी। मारे घबड़ाहट के मेरा कलेजा बल्लियों उछलने लगा। अचानक तभी मस्तिष्क में एक आइडिया कौंधा।

‘‘दरोगा जी ! कुछ सबूत इधर भी हैं। चाहें तो रख लीजिए।’’ मैंने कहा और अपना पर्स दरोगा की तरफ बढ़ा दिया। दरोगा ने पर्स को फैलाया उसमें रखे रुपए निकाल कर अपनी जेब के हवाले किया और खाली पर्स फर्श पर फेंक कर बाहर निकल गया। उसके पीछे तीनों सिपाही भी निकल गए। मैंने झपट कर दरवाजा बंद किया और दिल की घबड़ाहट पर काबू पाने की कोशिश करने लगा।

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