जून माह की हाड़ कपाती ठंड

यात्रा संस्मरण

Akhilesh Srivastava Chaman

12/10/20181 मिनट पढ़ें

जी हाॅं ! यह गप्प नहीं बल्कि सोलह आने सच है कि जून माह की भरी दुपहरी में इतनी भयंकर ठंड़ पड़ रही थी कि हम पत्ते की तरह काॅंप रहे थे, हमारे रोयें गनगना रहे थे और दाॅंत किटकिटा रहे थे। यद्यपि हमने भरपूर गरम कपड़े पहन रखे थे लेकिन उसका कोई असर नहीं हो रहा था। बर्फीली हवा के झोंके हमारे रेन कोट, स्वेटर, तथा अन्य कपड़ों को भेद कर अंदर तक घुस रहे थे और हमारी हड्डियों तक को कॅंपकॅंपा रहे थे। रेन कोट और कैप पहने होने के बावजूद हम भींग कर सिर से पाॅंव तक लथपथ हो चुके थे। जूतों के अंदर पानी भर जाने के कारण पैर भींग कर सूज गए थे और हर कदम पर आगे बढ़ने से इंकार कर रहे थे। फिर भी हमारी आस्था और घुमक्कड़ी जिज्ञासा इतनी बलवती थी कि, हम भींगते, ठिठुरते, काॅंपते, हाॅंफते, थक कर चूर पैरों को घसीटते ऊपर चढ़ते चले जा रहे थे। बर्फीली आॅंधियों से लड़ते-भिड़ते लगातार आगे बढ़ते जा रहे थे। यह यात्रा थी गौरीकुण्ड़ से केदारनाथ धाम की और तिथि थी सोलह जून सन उन्नीस सौ अट्ठानवे। यह तब की बात है जब अभी उत्तराखण्ड़ राज्य का गठन नहीं हुआ था।
हरिद्वार, ऋषिकेष, बद्रीनाथ, केदारनाथ तथा गंगोत्री, यमुनोत्री आदि तीर्थस्थलों की यात्रा का संकल्प लेकर मैं अपनी पत्नी, दोनों बच्चों तथा वृद्धा माॅं के साथ 12 जून 1998 को इलाहाबाद से निकला था। इलाहाबाद से हरिद्वार तक ट्रेन और उसके बाद बस से चल कर हमने अपना पहला पड़ाव गोपेश्वर में ड़ाला। ऐसी मान्यता है कि बद्रीनाथ और केदारनाथ धामों की यात्रा की शुरूआत गोपेश्वर महादेव के दर्शन के बाद ही प्रारम्भ की जानी चाहिए। इसी मान्य परम्परा के निर्वहन के लिए हम सर्व प्रथम गोपेश्वर पॅंहुचें। उत्तराखण्ड़ में पंच केदार की मान्यता है। गोपेश्वर उन पंच केदार में से एक है। किवदंती है कि यही वह जगह है जहाॅं स्वयं भगवान शंकर ने घेर तपस्या की थी और कामदेव ने उनकी तपस्या में विघ्न ड़लने का प्रयास किया था। अनुमानतः गोपेश्वर महादेव का यह मंदिर बारहवीं शताब्दी का बना है। काले पत्थर की चट्टानों से निर्मित यह मंदिर एक बड़े से परिसर के बीचोबीच स्थित है। मंदिर के ठीक पीछे एक धर्मशाला है जहाॅं देश के कोने-कोने से आए साधु, संतों का जमघट लगा रहता है क्यों कि मान्यता के अनुसार बद्रीनाथ की यात्रा का पहला पड़ाव यहीं होता है।


गोपेश्वर एक पहाड़ी पर बसा छोटा किन्तु सुन्दर और व्यवस्थित शहर है। यह समुद्र तल से 1400 मीटर की ऊॅंचाई पर स्थित है। उत्तराखण्ड़ के चमोली जिले का प्रशासनिक मुख्यालय गोपेश्वर में ही स्थित है। अलग-अलग पहाड़ियों पर आमने-सामने बसे दोनों शहरों चमोली और गोपेश्वर के बीच लगभग दस किमी0 की दूरी है। इन दोनों पहाड़ियों के मध्य अलकनंदा नदी बहती है जिसकी भीषण गर्जना इन दोनों ही शहरों में अहर्निश गूॅंजती रहती है। चमोली जिले का गठन सन 1960 में हुआ और उसका प्रशासनिक मुख्यालय भी वहीं था लेकिन जुलाई 1970 में अलकनंदा नदी में आयी भयानक बाढ़ के कारण लगभग पूरा चमोली शहर नष्ट हो गया। उसके बाद चमोली का जिला मुख्यालय गोपेश्वर स्थानान्तरित कर दिया गया। गोपेश्वर का छोटा सा बाजार काफी चहल-पहल भरा है और इस बाजार के आखिरी छोर पर स्थित है गोपेश्वर महादेव का अति प्राचीन मंदिर।


शाम के समय गोपेश्वर महादेव का दर्शन करने तथा उस रात्रि गोपेश्वर में ठहरने के बाद अगले दिन यानी 16 जून को प्रातः 5 बजे हमने टैक्सी द्वारा केदारनाथ के लिए यात्रा प्रारम्भ की। हरे-भरे मनोहारी घने जंगलों, और पर्वतों के बीच ऊॅंची, नीची सर्पीली सड़कों पर चलते हुए कई घटियों, पहाड़ी नदियों तथा झरनों को पार करने के बाद लगभग ग्यारह बजे हम गौरीकुण्ड़ पॅंहुचे। बस, टैक्सी, कार आदि वाहनों का रास्ता बस गौरीकुण्ड़ तक ही था। उसके आगे लगभग चैदह किमी0 की यात्रा चढ़ाई की थी जिसे पैदल अथवा खच्चरों की सवारी से तय करना था। जो लोग पैदल नहीं जा सकते और खच्चर की सवारी भी नहीं कर सकते उनके लिए पिट्ठूओं की सेवा भी उपलब्घ थी। पिट्ठू यानी पीठ पर बॅंधे बड़े से टोकरे में लाद कर लोगों को पॅंहुचाने वाले कूली।


गौरीकुण्ड़ चारों तरफ से गगनचुम्बी पर्वतों और घने जंगलों से घिरा एक अति मनोरम स्थान है जिसे एक छोटे से बाजार का रूप दे दिया गया है। यह रूद्रप्रयाग जिला में समुद्र तट से 1981 मीटर की ऊॅंचाई पर मंदाकिनी नदी के किनारे स्थित है। गौरीकुण्ड का नाम भगवान शंकर की पत्नी गौरी के नाम पर है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहाॅं गौरी ने भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी। गौरीकुण्ड के सम्बन्ध में एक अन्य किवदन्ती यह है कि पार्वती (गौरी) इस कुण्ड में स्नान कर रही थीं और बाहर अपने पुत्र गणेश को इस निर्देश के साथ बिठा रखा था कि जब तक वह स्नान करें गणेश उधर किसी को जाने न दें। संयोगवश उसी समय भगवान शंकर आ गए और कुण्ड की तरफ जाने लगे। गणेश ने उनको जाने से रोका तो शकर भगवान ने क्रोध में गणेश का सिर काट दिया। यह देख गौरी बहुत दुःखी हुयीं और शंकर जी से अपने पुत्र को पुनः जीवित करने के लिए विनती कीं। शंकर जी ने गणेश के कटे धड़ पर हाथी के बच्चे का सर रख कर उनको जीवन दान और अमरता का वरदान दिया। गौरी कुण्ड के पास ही सिरकटा माता का मंदिर स्थित है।


गौरीकुण्ड बाजार के दाहिनी तरफ भयानक गर्जना करती मंदाकिनी है जिसकी ऊॅंचे पर्वत की ढ़लान से अति तीव्र वेग के साथ गिरती जल-राशि पहाड़ की तलहटी के किनारे-किनारे उछलती, कूदती, चट्टानों से टकराती, फुॅफकारती तथा अपने रौद्र रूप से आतंकित करती है। नदी के किनारे बायीं ओर एक पतले सीढ़ीदार रास्ते से केदारनाथ की चढ़ाई शुरू होती है। इस रास्ते के दोनों तरफ प्लास्टिक के रेनकोट, कैप, बांस के ड़ंड़ों, कपड़े के जूतों, गरम ऊनी कपड़ों तथा चाय, बिस्किट, नमकीन, टाफी आदि की ढ़ेरों छोटी-छोटी दुकानें हैं। यहाॅं के मौसम के मिजाज से अनजान अथवा बगैर पूर्व तैयारी के आने वाले तीर्थयात्री इन दुकानों से खरीददारी करने के बाद ही आगे बढ़ते हैं।
गोपेश्वर से गौरीकुण्ड़ तक लगभग 112 किमी0 के मार्ग में मौसम बिल्कुल साफ था और सिहराती ठंड़ी हवाओं के बीच सुबह की खिली-खीली धूप बहुत सुखद लग रही थी। लेकिन किसी चमत्कार की तरह मौसम एकाएक बदल गया। हमारे गौरीकुण्ड़ पॅंहुचने से लगभग पंद्रह-बीस मिनट पूर्व अचानक गहरे काले बादल घिर आए। पहले तो बहुत तेज ठंड़ी हवाएं चलनी शुरू हुयीं और हम गौरीकुण्ड़ पॅहुचे उस समय तक बूॅंदाबाॅंदी शुरू हो चुकी थी। यद्यपि गौरीकुण्ड़ में छोटे-छोटे लाॅज थे जहाॅं ठहरने और खाने की व्यवस्था थी और अचानक खराब हुए मौसम से घबडाए काफी लोग इनमें शरण भी लेने लगे थे लेकिन हमने निश्चय कर रखा था कि हमारा रा़ित्र विश्राम केदारनाथ धाम में ही होगा। गर्जना करते काले बादल, रिमझिम बरसता पानी और तेज बर्फीली हवायें हमारे निश्चय को ड़िगा नहीं सकीं। बारिश में भींगते हुए ही हमने गौरीकुण्ड़ के उस छोटे से बाजार से ऊनी स्वेटर, टोप, प्लास्टिक के रेनकोट और कैप, चढ़ाई में सहायता के लिए बाॅंस के डंडे, तथा कुछ खाने-पीने की चीजें खरीदीं। दोनों बच्चों को हमने पिट्ठुओं (पीठ पर बॅंधी टोकरी में बोझ ड़ोने वाले कूली) के हवाले किया, मेरी माॅं तथा पत्नी खच्चरों पर सवार हो कर चलीं तथा मैं हिम्मत कर के पैदल ही आगे बढ़ा। हम लोग अभी थोड़ा आगे ही बढ़े थे कि रिमझिम फुहार ने मूसलाधार बारिश का रूप ले लिया और आराम से बह रही हवा ने तेज बर्फीली आॅंधी का। फिर तो जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए, बारिश और आॅंधी भी शनैः शनैः तेज और तेज, और तेज होती चली गयीं। यद्यपि हम लोगों ने भरपूर गरम कपड़े पहन रखे थे और उसके ऊपर सिर से पाॅंव तक प्लाटिक के रेनकोट से भी ढ़ॅंके थे फिर भी हमारी सारी मोर्चाबंदी व्यर्थ साबित हो रही थी। पानी की तेज बौछारें तथा बर्फीली हवा के झोंकों के सामने न तो हमारी रेन कोट टिक पा रही थी और न ही हमारे गरम कपड़े। लाख सावधानी के बावजूद हमारे कपड़े गीले हो चुके थे और ठंडी हवा अंदर तक घुस कर हड्डियों तक को कॅंपा रही थी। लेकिन हमने भी ठान रखा था कि चाहे जो हो जाए हार नहीं माननी है। पूरे रास्ते दोनों तरफ थोड़ी-थोड़ी दूर पर चाय-नाश्ते की दुकानें थीं। हम इन दुकानों पर ठहरते, सुस्ताते, और काॅंपते, ठिठुरते आगे बढ़ते जा रहे थे।


चैदह किलो मीटर की इस चढ़ाई में प्रारम्भिक सात किलोमीटर यानी रामबाणा तक तो सामान्य चढ़ाई थी लंेकिन बाद की सात किलोमीटर बिल्कुल सीधी। प्रारम्भ में कुछ दूर तक तो पैदल चल रहा मैं, पिट्ठुओं की पीठ पर लदे बच्चों तथा खच्चरों पर चल रहीं मेरी माॅं और पत्नी के साथ-साथ ही रहा लेकिन बाद में जैसे-जैसे थकान बढ़ती गयी, मेरी गति धीमी होती गयी और बाकी लोग आगे निकलते चले गए।


आॅंधी और पानी ने भी जैसे न रूकने की कसम खा रखी थी। पूरे रास्ते कभी मूसलाधार तो कभी थोड़ी धीमी बारिश होती रही लेकिन आॅंधी की गति जरा भी कम नहीं हुयी। आॅंधी इतनी तेज थी कि लगता था अगर पैर मजबूती से न जमे रहे तो वह हमें भी उड़ा ले जाएगी। रास्ते के दोनों तरफ शोर मचाते छोटे, बड़े पहाड़ी झरने तो थे ही, आधे रास्ते के बाद बर्फ की चट्टानें भी मिलने लगीं। चारों तरफ जहाॅं तक निगाह जाती सफेद बर्फ की मोटी चादर बिछी दिखती थी। रास्ते के दोनों तरफ पसरे भाॅंति-भाॅंति के जंगली फूलों और वनस्पतियों को देख कर विस्मय होता था कि बर्फ तथा कठोर चट्टानों को भेद कर ये कैसे उगे होंगे। देवदार के लम्बे, घने पेड़ों की हरियाली अपनी अलग ही छटा बिखेर रहीे थी।


गौरीकुण्ड से शुरू हुई बारिश क्षण भर के लिए भी बंद नहीं हुयी। हमारे जूते-मोजे और सारे कपड़े लथपथ थे, पैर थक कर चूर हो चुके थे, सनसनाती हवा तीर की तरह चुभ रही थी, हड्डियाॅं कॅंपकॅंपा रही थीं, दाॅंत किटकिटा रहे थे फिर भी न जाने किस नशा के वशीभूत हम निरंतर ओ बढ़ते जा रहे थे। गौरीकुण्ड से साथ चली श्रद्धालुओं की संख्या आहिस्ता-आहिस्ता कम होती गयी। बहुत सारे तीर्थ-यात्री हिम्मत हार बैठे और रास्ते में जिसे जहाॅं किसी होटल, लाॅज या धर्मशाला में जगह मिली वहीं पड़ाव ड़ाल दिए लेकिन अपने आप को घसीटता मैं ऊपर चढ़ता चला गया।


बुरी तरह से लथपथ और पस्त मैं अंततः जब केदारनाथ पॅंहुचा उस समय अॅंधेरा घिरने लगा था। आॅंधी और मूसलाधार बारिश पूर्ववत जारी थी। मेरी माॅं, पत्नी तथा बच्चे मुझसे काफी पहले ही पॅंहुच चुके थे। उन्होंने केदारनाथ मंदिर के बिल्कुल पास ही एक लाॅज में ठहरने की व्यवस्था कर ली थी। अब मेरे लिए एक कदम भी चल सकना असंभव सा हो रहा था। जैसे-तैसे लाॅज की सीढ़ियाॅं चढ़ कर कमरे में गया और कपड़े बदल कर बिस्तर में गिर गया। गनीमत थी कि लाॅज में भरपूर मात्रा में रजाई-गद्दे उपलब्ध थे। हम एक-एक व्यक्ति चार-चार, पाॅंच-पाॅंच रजाइयाॅं ओढ़ कर दुबके थे फिर भी कॅंपकॅंपी दूर होने का नाम नहीं ले रही थी। जब हमने कमरे के अंदर कोयले की दो अॅंगीठियाॅं रख्सवायीं और गरम चाय पी तब जा कर कुछ राहत सी महसूस हुयी। खाना भी हमने कमरे में ही मॅंगवाया और गरम पानी के सहारे खाया। उसके बाद दरवाजे, खिड़की बंद कर के सो गए।


रात में आॅंधी और पानी दोनों ने और भी अधिक जोर पकड़ लिया। रात भर हवा लरजती रही, बिजली चमकती रही, बादल गरजते रहे और पानी बरसता रहा। अभी हम सोने जा रहे थे तभी मंदिर में लगे घ्वनि विस्तारक से यह सूचना प्रसारित हुयी कि शाम के समय लगभग छः बजे दिल्ली के तीर्थ यात्रियों से भरी एक बस गौरीकुण्ड़ में मंदाकिनी नदी में पलट गयी और बहुत सारे लोग नदी की तीव्र धारा के साथ बह गए। खराब मौसम तथा अॅंधेरा हो चुकने के कारण राहत कार्य भी ठीक से नहीं हो सका।
हम दूसरे दिन सवेरे सो कर उठे तब भी बारिश पूर्ववत जारी थी। खिड़की खोल कर देखा तो चारों तरफ दूर-दूर तक बर्फ की सफेद चादर बिछी नजर आ रही थी। पानी इतना ठंड़ा था कि उसे छूने की हिम्मत नहीं हो रही थी। गर्म पानी मॅंगा कर हम सभी दैनिक क्रिया से निवृत हुए। नहाने के नाम पर सभी ने हाथ खड़े कर दिए। फलतः गरम पानी से हाथ-मुॅंह, सिर-पैर धो कर हमने जैसे-तैसे नहाने का कोरम पूरा किया और बरसाती ओढ़ कर दर्शन करने केदारनाथ मंदिर में पॅंहुचे।
उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ का मंदिर एक छः फिट ऊॅंचे बड़े से चबूतरे पर स्थित है तथा भूरे पत्थरों के शिलाखण्डों को जोड़ कर बनाया गया है। समुद्रतल से इसकी ऊॅंचाई 3562 मी0 है। केदारनाथ मंदिर की आयु के सम्बन्ध में कोई पुख्ता ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। मान्यता है कि वर्तमान मंदिर 8 वीं शताब्दी में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया। किवदंती है कि मूल मंदिर का निर्माण पाण्ड़वों के वंशज जनमेजय ने कराया था, जिसका पुनरूद्धार 8 वीं शताब्दी में आदि गुरू शंकराचार्य ने कराया। राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार यह मंदिर बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी का है। मंदिर की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी भाषा में कुछ अंकित है लेकिन वह इतना अस्पष्ट है कि इतिकासकारों के अनुसार उसे पढ़ पाना बहुत मुश्किल है।


पौराणिक आख्यान के अनुसार वहाॅं भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण नामक दो ऋषियों ने लम्बे समय तक शंकर भगवान की तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न शंकर भगवान ने उन्हें दर्शन दिया और उनके आग्रह पर उस स्थान पर ज्योर्तिलिंग के रूप में सदैव वास करने का वचन दिया। चूॅंकि यह स्थान हिमालय के केदार नामक ऋंग पर स्थित है इसलिए केदारनाथ के नाम से जाना गया। केदारनाथ का ज्योर्तिलिंग देश के बारह ज्योर्तिलिंगों में सर्वोच्च माना गया है। मंदिर का कपाट मूहूर्त के अनुसार मध्य अप्रैल में खुलता है और मध्य नवम्बर में बंद हो जाता है। मंदिर की सफाई करने तथा दीपक जलाने के बाद कपाट बंद कर भगवान का विग्रह तथा दंड़ी लगभग 2251 मीटर नीचे थित ऊखीमठ के मंदिर लायी जाती है। खास बात यह कि लगभग पाॅंच माह के बाद जब मंदिर का कपाट खोला जाता है तो मंदिर के अंदर दीपक जलता मिलता है। एक अन्य खास बात यह है कि इस इस मंदिर के पुजारी सदैव मैसूर के ब्राह्मण ही होते हैं।
मंदिर का कपाट दर्शन हेतु प्रातः छः बजे खुलता है और दोपहर में कुछ घंटों के लिए बंद रहने के बाद पुनः शाम के समय पाॅंच बजे खुजता है। ऊॅंची-ऊॅंची कई सीढ़ियाॅं चढ़ने के बाद हम चबूतरे पर पॅंहुचे। गर्भगृह के बाहर शंकर भगवान के बाहन नंदी की प्रतिमा स्थित है। यद्यपि वह चबूतरा काफी बड़ा है फिर भी दर्शनार्थियों की भीड़ से अटा पड़ा था। मंदिर के अंदर घुसने की गंुजाइश नहीं थी लेकिन हमारे पंड़ा महोदय बड़ी कुशलता से भीड़ में से मार्ग बनाते हुए हमें अंदर ले गए। मंदिर के अंदर धुप्प अॅंधेरा छाया हुआ था। दर्जनों दीपक तथा सैकड़ों अगरबत्तियाॅं जल रही थीं जिनकें के कारण खूब सारा धुवाॅं भरा था। मंदिर के अंदर लटक रहे बिजली के बल्ब रात में टिमटिमाते तारों की तरह मद्धिम सी रोशनी दे रहे थे।


मंदिर के बाहरी कमरे से धक्का-मुक्की करते जैसे-तैसे जब हम गर्भ-गृह में पॅंहुचे तो यह देख कर आश्चर्यचकित रह गए कि वहाॅं आम हिन्दू मंदिरों की तरह किसी देवता की मूर्ति नहीं स्थापित थी बल्कि गर्भ-गृह के बीचोबीच जमीन की समह से ऊपर को उभरा काले रंग का त्रिभुजाकार (लगभग प्रिज्म के जैसा) एक पत्थर था। पंड़ा महराज ने बताया कि वह त्रिभुजाकार पत्थर भगवान शंकर यानी केदारनाथ की पीठ है और उसी की पूजा की जाती है। बहुत से लोग विशेष रूप से दक्षिण भारत के तीर्थयात्री गर्भ-गृह में बैठ कर विशेष बिधि-विधान के साथ पूजा कर रहे थे। केदारनाथ केी पीठ के रूप में मान्य उस पत्थर का स्पर्श करने के लिए लोगों में होड़ सी मची थी। भीड़ में धक्के खाते, गिरते-पड़ते जैसे-तैसे हमने भी उसका स्पर्श किया और बाहर आ गए।


मंदिर के गर्भगृह में स्थित इस त्रिभुजाकार आकृति के सम्बन्ध में कहानी यह है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद पाण्डव भ्रतृहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे लेकिन भगवान शंकर उनसे रूष्ट थे इसलिए उनको दर्शन देना नहीं चाहते थे। पाण्डव भगवान शंकर को खोजते काशी गए तो भगवान शंकर केदार में आ गए। उनको खोजते-खोजते पाण्डव हिमालय तक आ पॅंहुचे और केदार पर पॅंहुच गए। उनसे बचने के लिए भगवान शंकर ने बैल का रूप धारण कर लिया और वहाॅं चर रहे पशुओं के झुण्ड में शमिल हो गए लेकिन पाण्डवों को संदेह हो गया। भीम ने विशाल रूप् धरा और दो पहाड़ों के ऊपर दोनों पैर जमा कर खड़े हो गए। अन्य सारे गाय, बैल तो भीम के पैरों के बीच से निकल गए लेकिन भगवान शंकर रूपी बैल उनके पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुआ। भीम उस बैल को पकड़ने के लिए तेजी से झपटे लेकिन बैल भूमि के अंदर धॅंस कर गायब होने लगा। भीम ने लपक कर बैल की पीठ पर उभरा त्रिभुजाकार हिस्सा पकड़ लिया। आखिर भगवान शंकर पाण्ड़वों पर प्रसन्न हो गए और उनको दर्शन दे कर पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से केदारनाथ में भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति में पूजे जाते हैं।


दर्शन कर के हम मंदिर से बाहर निकले उस समय बर्षा कुछ हल्की तथा हवा भी कुछ कम हो गयी थी। केदारनरथ मंदिर के पीछे की तरफ आदि गुरू शंकराचार्य की समाधि तथा साधना स्थली स्थित है। हमने उसके भी दर्शन किए। पंड़ा महराज ने बताया कि केदारनाथ मंदिर के आसपास थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कई अन्य मंदिर तथा दर्शनीय स्थन स्थित हैं लेकिन सनसनाती हवा, कॅंपाती ठंड तथा बरस रहे बादलों के कारण कहीं और जाने की गुंजाइश नहीं थी। मंदर के चबूतरे से ही हमने चारों तरफ के नयनाभिराम दृश्य को जी भर देखा और केदारनाथ तथा पर्वतराज हिमालय को प्रणाम कर के अपने ठहराव स्थल को लौट पड़े।


थोड़ी देर के बाद तब हम नाश्ता करने और अपना सामान समेटने के बाद लाॅज से अपनी वापसी की यात्रा पर निकले तब तक बारिश कहुत हल्की हो चुकी थी। कुछ देर बाद बारिश तो पूरी तरह से बंद हो गयी लेकिन ठंडी हवायें चलती रहीं और काले-काले बादल घुमड़ते रहे। ऐसा लगा जैसे कल शाम से भगवान शंकर हमारी आस्था और भक्ति की परीक्षा ले रहे थे। शायद तभी तो हमारे गौरीकुण्ड पॅंहुचने से ले कर दर्शन कर के निकलने तक लगातार वर्षा होती रही और हमारे दर्शन कर के निकलने के आधे घंटे के बाद ही वर्षा बंद हो गयी। अगर ऐसा था तो हमे प्रसन्नता थी कि हम परीक्षा में सफल हुए थे। वापसी में मौसम भी अनुकूल था और ढ़लान के कारण पैरों को भी कम मेहनत करनी पड़ रही थी, अतः उतरते समय विशेष परेशानी नहीं हुयी। जगह-जगह ठहरते, बिस्किट खाते, चाय पीते, थकान उतारते हम अपराह्न 1 बजे तक गौरीकुण्ड लौट आए। वहाॅं हमारा टैक्सी वाला हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। गौरीकुण्ड से चल कर शाम सात बजते-बजते हम वापस गोपेश्वर तो लौट आए लेकिन थकान इतनी अधिक थी कि अगले दो दिनों तक वहीं पड़े रहे।


हम भाग्यशाली थे कि केदारनाथ के दर्शन कर सकुशल वापस आ गए वरना जून 2013 में आयी बाढ़ और भूस्खलन ने तो हजारों तीर्थ यात्रियों समेत अनगिनत स्थानीय लोगों को काल-कवलित ही कर दिया। विध्वंस में गौरीकुण्ड से ले कर केदारधाम तक के सभी मकान, दुकान, होटल, लाॅज, मंदिर और धर्मशालायें आदि ध्वस्त हो उन्मादिनी बाढ़ के प्रवाह में बह गए। उस क्षेत्र का पूरा भौगोलिक स्वरूप ही बदल गया। अगर कुछ शेष रहा तो वह था करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र केदारनाथ मंदिर। घोर चमत्कार की बात हुयी कि मंदिर के चारों तरफ सब कुछ नष्ट हो गया, विशाल चट्टानें कंकड़ की तरह बह गयीं लेकिन मंदिर ज्यों का त्यों खड़ा रहा।


(नोट- यह यात्रा वृतांत जून 1998 का है जब कि अभी उत्तराखण्ड़ राज्य का गठन नहीं हुआ था। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक कारणों तथा विकास कार्यों की वजह से बर्तमान में काफी परिवर्तन संभावित है।)

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