अमुक जी का श्राप
व्यंग्य
Akhilesh Srivastava Chaman
9/12/20241 मिनट पढ़ें
आज जनसंदेश टाइम्स अखबार में छपी व्यंग्य कहानी।
‘‘देख लेना भाई साहब ! यह पत्रिका बहुत शीघ्र ही बंद हो जाएगी।’’ कवि, लेखक, समीक्षक, आलोचक, वक्ता, प्रवक्ता यानी हिंदी साहित्य के आल इन आल श्रीमान अमुक जी ने हिंदी की एक मशहूर और कामयाब पत्रिका के बारे में यह भविष्यवाणी की तो मैं चौंक पड़ा।
‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप ? यह पत्रिका तो फिलहाल ठीक-ठाक चल रही है। इसने अपना एक पाठक वर्ग भी बना रखा है।’’ मैंने पूछा।
‘‘अरे भाई ! पाठकों को कब तक बेवकूफ बना सकता है कोई ? जब स्तरीय रचना नहीं छापेंगे। बस बड़े नाम वालों को उपकृत करते रहेंगे। साहित्य के नाम पर मठाधीशी करेंगे। अपने चेलों-चपाटों की घटिया रचनायें छापते रहेंगे तो पत्रिका तो बंद होनी ही है।’’ अमुक जी ने अपनी बात को थोड़ा और स्पष्ट किया।
‘‘भाई साहब ! वह पत्रिका तो मैं नियमित पढ़ता हूॅं। मुझको तो ऐसा कुछ नहीं लगता है। वैसे आपकी इस भविष्यवाणी का आधार क्या है ?’’
‘‘भैया ! मुझे तो उस पत्रिका के संपादक की समझ पर तरस आती है। पता नहीं किसने उस गधे को सम्पादक बना दिया है। उस पत्रिका के लिए पिछले साल मैंने चार गजलें भेजी थीं। सम्पादक ने एक भी नहीं छापी। फिर मैंने मुक्त छंद की पॉंच कवितायें भेजीं। सम्पादक ने उन्हें भी नहीं छापी। उसके बाद मैंने छः नवगीत भेजे। उनमें से भी कोई नहीं छपी। तब मैंने दिवंगत लेखकों से जुड़े सात संस्मरण भेजे। आप तो जानते ही हैं कि बड़े लेखकों से मेरे कैसे आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं।’’
‘‘जी...जी । यह भी कोई कहने की बात है। कमलेश्वर से ले कर राजेन्द्र यादव तक, धर्मवीर भारती से ले कर मनोहर श्याम जोशी तक, नामवर सिंह से ले कर नागार्जुन तक और श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, हरिकृष्ण देवसरे, कन्हैयालाल नंदन, जयप्रकाश भारती आदि भला कौन ऐसा नामचीन लेखक है जिसके संग आपका मिलना-जुलना, उठना-बैठना न रहा हो ?’’ मैंने उनकी बात में छौंक लगायी।
‘‘हॉं...तो मैंने ऐसे ही कुछ नामचीन लेखकों से जुड़े सात संस्मरण भेजे थे उस पत्रिका के लिए। मैंने सोचा था कि सम्पादक शायद इन बड़े लेखकों के नाम का लिहाज कर के छाप देगा। लेकिन वे संस्मरण भी नहीं छपे। तब मुझे लगा कि मेरी रचनायें शायद सम्पादक की समझ से ऊॅंचे स्तर की हैं। इसलिए अगली बार मैंने सम्पादक को आठ बाल कहानियॉं भेजीं। उनमें से एक भी बाल कहानी नहीं छपी। उसके बाद मैंने नदी, पहाड़, बादल, वर्षा, फूल, तितली, चिड़िया और बंदर, भालू आदि को ले कर लिखीं दस बाल कवितायें भेज दीं। उन कविताओं का भी वही हाल हुआ। बदमाश सम्पादक ने उनमें से एक भी नहीं छापी।’’
‘‘अरे ! ऐसा...?’’
हॉं....। फिर तो मुझको बहुत गुस्सा आया। मुझे लगा कि यह सम्पादक बाल साहित्य को गंभीरता से नहीं लेता है। बाल साहित्य को यह हेय दृष्टि से देखता है। जिद में मैंने हिंदी बाल साहित्य के समृद्ध इतिहास तथा उसकी वर्तमान उपेक्षित दशा पर एक सत्ताइस पेज का शोधपरक लेख उसको भेज दिया। कमबख्त सम्पादक ने उसे भी नहीं छापा। यूॅं समझ लीजिए कि पिछले डेढ़ वर्ष में मैंने कम से कम चार दर्जन रचनायें उस पत्रिका को भेजी हैं। लेकिन उसका सम्पादक मेरे प्रति न जाने किस पूर्वाग्रह से ग्रसित है कि वह मेरी रचना को छापता ही नहीं है।’’ अमुक जी ने अपनी नाराजगी का मूल कारण उद्घाटित किया।
‘‘अच्छा.....तो ये बात है ? भाई साहब, आप का गुस्सा बिल्कुल जायज है। आप जैसे हिंदी के अधिकारिक विद्वान की रचना न छाप कर सपादक ने वाकई बहुत बड़ी गलती की है। आप कालेज में प्रंोफेसर हैं। हिंदी के डाक्टर हैं। दूर-दूर तक गोष्ठियों, कार्यशालाओं और विमोचन आदि के साहित्यिक कार्यक्रमों में आप बुलाए जाते हैं। इतने सब के बावजूद आपके लेखन को महत्व नहीं देना उस सम्पादक की अयोग्यता ही है।’’ मैंने चुटकी ली।
‘‘ठीक है। मुझे महत्व न दें....। मेरी नोटिस न लें बच्चू। देखिएगा इनका भी वहीं हाल होगा जो मुझे इग्नोर करने वाले दूसरे सम्पादकों का हुआ है। पता है आप को.....? चाहे धर्मयुग हो, साप्ताहिक हिन्दुस्तान हो, सारिका हो, दिनमान हो, कादम्बिनी हो रविवार हो या नंदन, पराग, चंदामामा व बालहंस बगैरह। जिस किसी भी पत्रिका ने मेरी रचनायें नहीं प्रकाशित की वह बंद हो गयी।’’
‘‘यह तो आपने बहुत महत्वपूर्ण बात बताई है भाई साहब। अपने समय की इतनी कामयाब पत्रिकायें सिर्फ इस कारण बंद हो गयीं कि उनके सम्पादकों ने आप की रचनायें नहीं छापीं ?’’
‘‘जी हॉं.....। मेरा श्राप लग गया उन पत्रिकाओं को। मेरा श्राप कभी खाली नहीं जाता है। देख लीजिएगा आप, यह पत्रिका भी बंद हो कर रहेगी।’’ अमुक जी ने बहुत आत्मविश्वास के साथ कहा।
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